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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

कैलाससंहिता

॥ प्रथमोऽध्यायः ॥


व्यासशौनकादिसंवादः
व्यासजीसे शौनकादि ऋषियोंका संवाद


नमः शिवाय साम्बाय सगणाय ससूनवे ।
प्रधानपुरुषेशाय सर्गस्थित्यन्तहेतवे ॥ १ ॥
जो प्रधान (प्रकृति) और पुरुषके नियन्ता तथा सृष्टि-पालन-संहारके कारण हैं, उन पार्वतीसहित शिवजीको पार्षदों और पुत्रोंके साथ नमस्कार है ॥ १ ॥

ऋषय ऊचुः -
श्रुतोमासंहिता रम्या नानाख्यानसमन्विता ।
कैलाससंहितांब्रू्हि शिवतत्त्वविवर्द्धिनीम् ॥ २ ॥
ऋषि बोले-हमने अनेक आख्यानोंसे समन्वित मनोहर उमासंहिता सुनी, अब आप शिवतत्त्वको बढ़ानेवाली कैलाससंहिताका वर्णन कीजिये ॥ २ ॥

व्यास उवाचः -
शृणुत प्रीतितो वत्साः कैलासाख्यां हि संहिताम् ।
शिवतत्त्वपरां दिव्यां वक्ष्ये वः स्नेहतः पराम् ॥ ३ ॥
हिमवच्छिखरे पूर्वं तपस्यन्तो महौजसः ।
वाराणसीं गन्तुकामा मुनयः कृतसंविदः ॥ ४ ॥
व्यासजी बोले-हे वत्स ! शिवतत्त्वसे युक्त, दिव्य तथा उत्कृष्ट कैलास नामक संहिताका वर्णन कर रहा हूँ, आपलोग प्रेमपूर्वक सुनिये । पूर्वसमयमें हिमालयपर तप करनेवाले महातेजस्वी ऋषियोंने आपसमें विचारकर काशी जानेकी इच्छा की ॥ ३-४ ॥

निर्गत्य तस्मात्सम्प्राप्य गिरेः काशीं समाहिताः ।
स्नातव्यमेवेति तदा ददृशुर्मणिकर्णिकाम् ॥ ५ ॥
उस पर्वतसे चलकर एकाग्रचित्त हो काशी पहुँचकर वे स्नान करनेकी इच्छासे मणिकर्णिकाको देखने लगे ॥ ५ ॥

तत्र स्नात्वा सुसन्तर्प्य देवादीनथ जाह्नवीम् ।
दृष्ट्‍वा स्नात्वा मुनीशास्ते विश्वेशं त्रिदशेश्वरम् ॥ ६ ॥
नमस्कृत्याथ सम्पूज्य भक्त्या परमयान्विताः ।
शतरुद्रादिभिः स्तुत्वा स्तुतिभिर्वेदपारगाः ॥ ७ ॥
आत्मानं मेनिरे सर्वे कृतार्था वयमित्युत ।
शिवप्रीत्या सुपूर्णार्थाः शिवभक्तिरताः सदा ॥ ८ ॥
वेदमें पारंगत उन मुनियोंने वहाँ स्नानकर देवता आदिका तर्पण करके पुनः गंगाजीका दर्शनकर उस [जल]-में स्नान करके देवाधिदेव विश्वेश्वरको नमस्कारकर परम भक्तिसे युक्त होकर उनका पूजन करके शतरुद्रिय आदि मन्त्रोंसे उनकी स्तुति करके अपनेको कृतार्थ समझा और कहा कि सर्वदा शिवभक्तिपरायण हमलोग [आज] शिवकृपासे पूर्णमनोरथवाले हो गये ॥ ६-८ ॥

तस्मिन्नवसरे सूतं पञ्चक्रोशदिदृक्षया ।
गत्वा समागतं वीक्ष्य मुदा ते तं ववन्दिरे ॥ ९ ॥
उसी समय पंचक्रोशको देखनेकी इच्छासे (अर्थात् पंचक्रोशी परिक्रमा करनेके लिये) आये हुए सूतजीको देखकर उनके पास जाकर उन सभीने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें प्रणाम किया ॥ ९ ॥ -

सोऽपि विश्वेश्वरं साक्षाद्देवदेवमुमापतिम् ।
नमस्कृत्याथ तैः साकं मुक्तिमण्डपमाविशत् ॥ १० ॥
तत्रासीनं महात्मानं सूतं पौराणिकोत्तमम् ।
अर्घ्यादिभिस्तदा सर्वे मुनयः समुपाचरन् ॥ ११ ॥
इसके बाद उन्होंने भी साक्षात् देवाधिदेव उमापति विश्वेश्वरको प्रणामकर उन सभीके साथ मुक्तिमण्डपमें प्रवेश किया । उसके अनन्तर सभी मुनियोंने अादि [पूजनद्रव्यों]-से वहाँपर बैठे हुए पौराणिकोत्तम महात्मा सूतजीका पूजन किया ॥ १०-११ ॥

ततः सूतः प्रसन्नात्मा मुनीनालोक्य सुव्रतान् ।
पप्रच्छ कुशलं तेऽपि प्रोचुः कुशलमात्मनः ॥ १२ ॥
ते तु संहृष्टहृदयं ज्ञात्वा तं वै मुनीश्वराः ।
प्रणवार्थावगत्यर्थमूचुः प्रास्ताविकं वचः ॥ १३ ॥
तत्पश्चात् सूतजीने प्रसन्नचित्त होकर उत्तम व्रतवाले मुनियोंकी ओर देखकर उनका कुशलक्षेम पूछा, तब उन सभीने भी अपना कुशल बताया । इसके बाद उन मुनीश्वरोंने उन्हें प्रसन्नचित्त जानकर प्रणवका अर्थ जाननेके लिये प्रास्ताविक वचन कहना प्रारम्भ किया ॥ १२-१३ ॥

मुनय ऊचुः -
व्यासशिष्य महाभाग सूत पौराणिकोत्तम ।
धन्यस्त्वं शिवभक्तो हि सर्वविज्ञानसागरः ॥ १४ ॥
भवन्तमेव भगवान्व्यासः सर्वजगद्‌गुरुः ।
अभिषिच्य पुराणानां गुरुत्वे समयोजयत् ॥ १५ ॥
तस्मात्पौराणिकी विद्या भवतो हृदि संस्थिता ।
पुराणानि च सर्वाणि वेदार्थं प्रवदन्ति हि ॥ १६ ॥
वेदाः प्रणवसम्भूताः प्रणवार्थो महेश्वरः ।
अतो महेश्वरस्थानं त्वयि धिष्ण्यं प्रतिष्ठितम् ॥ १७ ॥
त्वन्मुखाब्जपरिस्यन्दन्मकरंमनोहरम् ।
प्रणवार्थामृतं पीत्वा भविष्यामो गतज्वराः ॥ १८ ॥
विशेषतो गुरुस्त्वं हि नान्योऽस्माकं महामते ।
परं भावं महेशस्य परया कृपया वद ॥ १९ ॥
मुनि बोले-हे व्यासशिष्य ! हे महाभाग ! हे पौराणिकोत्तम सूतजी ! आप धन्य हैं; क्योंकि आप समस्त विज्ञानके सागर एवं शिवभक्त हैं । सम्पूर्ण संसारके गुरु भगवान् व्यासजीने आपको सभी पुराणोंके गुरुरूपमें अभिषिक्तकर सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया है । अत: [समग्र] पौराणिकी विद्या आपके हदयमें स्थित है । सभी पुराण वेदार्थका प्रतिपादन करते हैं । समग्र वेद प्रणवसे उत्पन्न हुए हैं और प्रणवका तात्पर्य [स्वयं] महेश्वर हैं, अत: महेश्वरका स्थान आपके [हृदय-] स्थलमें प्रतिष्ठित है । हमलोग आपके मुखकमलसे निकलते हुए सुन्दर मकरन्दसदृश प्रणवार्थरूप अमृतको पीकर सन्तापरहित हो जायेंगे । हे महामते ! आप ही हमलोगोंके विशेष गुरु हैं, कोई दूसरा नहीं, अतः आप परम कृपापूर्वक महेश्वरके श्रेष्ठ ज्ञानका उपदेश कीजिये ॥ १४-१९ ॥

इति तेषां वचः श्रुत्वा सूतो व्यासप्रियः सुधीः ।
गणेशं षण्मुखं साक्षान्महेशानं महेश्वरीम् ॥ २० ॥
शिलादतनयं देवं नन्दीशं सुयशापतिम् ।
सनत्कुमारं व्यासं च प्रणिपत्येदमब्रवीत् ॥ २१ ॥
उनके इस वचनको सुनकर व्यासजीके परम प्रिय शिष्य विद्वान् सूतजी गणेश, कार्तिकेय, साक्षात् महेश्वर, शिलादके पुत्र तथा सुयशाके पति प्रभु नन्दीश्वर, सनत्कुमार तथा व्यासजीको नमस्कारकर यह कहने लगे- ॥ २०-२१ ॥

सूत उवाचः -
साधु साधु महाभागा मुनयः क्षीणकल्मषाः ।
मतिर्दृढतरा जाता दुर्लभा सापि दुष्कृताम् ॥ २२ ॥
सूतजी बोले-हे पापरहित महाभाग्यशाली मुनियो ! आपलोग धन्य हैं, जो कि आपलोगोंकी ऐसी अत्यन्त दृढ़ मति है, वह पापियोंके लिये [सर्वथा] दुर्लभ है ॥ २२ ॥

पाराशर्येण गुरुणा नैमिषारण्यवासिनाम् ।
मुनीनामुपदिष्टं यद्वक्ष्ये तन्मुनिपुङ्‌गवाः ॥ २३ ॥
यस्य श्रवणमात्रेण शिवभक्तिर्भवेन्नृणाम् ।
सावधाना भवन्तोद्य शृण्वन्तु परया मुदा ॥ २४ ॥
हे महर्षियो ! पूर्व समयमें पराशरपुत्र गुरुदेव व्यासजीने नैमिषारण्यनिवासी मुनियों को जो उपदेश दिया था, उसीको मैं [आपलोगोंसे] कह रहा है, जिसके सुननेमात्रसे मनुष्योंमें शिवभक्ति उत्पन्न हो जाती है, अब आपलोग सावधान होकर परम प्रसन्नताके साथ उसे सुनिये ॥ २३-२४ ॥

स्वारोचिषेन्तरे पूर्वं तपस्यन्तो दृढव्रताः ।
ऋषयो नैमिषारण्ये सर्वसिद्धनिषेविते ॥ २५ ॥
दीर्घसत्रं वितन्वन्तो रुद्रमध्वरनायकम् ।
प्रीणयन्तः परं भावमैश्वर्यं ज्ञातुमिच्छवः ॥ २६ ॥
निवसन्ति स्म ते सर्वे व्यासदर्शनकाङ्‌क्षिणः ।
शिवभक्तिरता नित्यं भस्मरुद्राक्षधारिणः ॥ २७ ॥
पूर्वकालमें स्वारोचिष मन्वन्तरमें दृढ़ व्रतवाले ऋषिगण सभी सिद्धोंके द्वारा निषेवित नैमिषारण्यमें तप करते हुए तथा यज्ञाधिपति रुद्रको प्रसन्न करते हुए उनके परम ऐश्वर्यको जाननेकी इच्छासे दीर्घसत्र करने लगे । इस प्रकार वे सब व्यासजीके दर्शनकी इच्छावाले महर्षि शिवभक्तिपरायण हो भस्म एवं रुद्राक्ष धारण किये हुए वहाँ निवास करने लगे ॥ २५-२७ ॥

तेषां भावं समालोक्य भगवान्बादरायणः ।
प्रादुर्बभूव सर्वात्मा पराशरतपःफलम् ॥ २८ ॥
तं दृष्ट्‍वा मुनयः सर्वे प्रहृष्टवदनेक्षणाः ।
अभ्युत्थानादिभिः सर्वैरुपचारैरुपाचरन् ॥ २९ ॥
सत्कृत्य प्रददुस्तस्मै सौवर्णं विष्टरं शुभम् ।
सुखोपविष्टः स तदा तस्मिन्सौवर्णविष्टरे ।
प्राह गंभीरया वाचा पाराशर्यो महामुनिः ॥ ३० ॥
उनकी ऐसी भावना देखकर महर्षि पराशरके तपः फलरूप सर्वात्मा भगवान् वेदव्यास वहींपर प्रकट हो गये । उन्हें देखकर प्रसन्न मुखकमल तथा नेत्रवाले मुनियोंने प्रत्युत्थान (अगवानी) आदि सभी उपचारोंसे उनका पूजन किया और सत्कार करके उन्हें सुवर्णमय उत्तम आसन प्रदान किया । तब उस सुवर्णमय आसनपर सुखपूर्वक बैठे हुए महामुनि व्यासजी गम्भीर वाणीमें कहने लगे- ॥ २८-३० ॥

व्यास उवाचः -
कुशलं किं नु युष्माकम्प्रब्रूतास्मिन्महामखे ।
अर्चितः किं नु युष्माभिः सम्यगध्वरनायकः ॥ ३१ ॥
किमर्थमत्र युष्माभिरध्वरे परमेश्वरः ।
स्वर्चितो भक्तिभावेन साम्बः संसारमोचकः ॥ ३२ ॥
युष्मत्प्रवृत्तिर्मे भाति शुश्रूषापूर्वमेव हि ।
परभावे महेशस्य मुक्तिहेतोः शिवस्य च ॥ ३३ ॥
व्यासजी बोले-आपलोग बतायें कि इस महायज्ञमें आपलोगोंका कुशल तो है, आपलोगोंने यज्ञाधिपति शिवका पूजन अच्छी प्रकार कर तो लिया है ? आपलोगोंने इस यज्ञमें संसारसे मुक्त करनेवाले पार्वतीसहित सदाशिवका भक्तिभावसे किसलिये पूजन किया है ? मुझे तो ऐसा मालूम हो रहा है कि महेश्वर शिवके परभावमें आपलोगोंकी इस प्रकारकी प्रवृत्ति एवं शुश्रूषा मोक्ष पानेके लिये ही हुई है । ३१-३३ ॥

एवमुक्ता मुनीन्द्रेण व्यासेनामिततेजसा ।
मुनयो नैमिषारण्यवासिनः परमौजसः ॥ ३४ ॥
प्रणिपत्य महात्मानं पाराशर्यं महामुनिम् ।
शिवानुरागसंहृष्टमानसं च तमब्रुवन् ॥ ३५ ॥
अमित तेजस्वी व्यासजीके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर नैमिषारण्यवासी परम ओजस्वी मुनियोंने शिवके अनुरागसे प्रसन्नचित्त उन महात्मा महामुनि व्यासजीको प्रणाम करके कहा- ॥ ३४-३५ ॥

मुनय ऊचुः -
भगवन्मुनिशार्दूल साक्षान्नारायणांशज ।
कृपानिधे महाप्राज्ञ सर्वविद्याधिप प्रभो ॥ ३६ ॥
त्वं हि सर्वजगद्‌भर्तुर्महादेवस्य वेधसः ।
साम्बस्य सगणस्यास्य प्रसादानां निधिः स्वयम् ॥ ३७ ॥
त्वत्पादाब्जरसास्वादमधुपायितमानसाः ।
कृतार्था वयमद्यैव भवत्पादाब्जदर्शनात् ॥ ३८ ॥
त्वदीयचरणाम्भोजदर्शनं खलु पापिनाम् ।
दुर्लभं लब्धमस्माभिस्तस्मात्सुकृतिनो वयम् ॥ ३९ ॥
मुनि बोले-साक्षात् विष्णुजीके अंशसे अवतार धारण करनेवाले हे भगवन् ! हे मुनिश्रेष्ठ ! हे कृपानिधान ! हे महाप्राज्ञ ! हे सर्वविद्येश्वर ! हे प्रभो ! आप सम्पूर्ण जगत्के स्वामी, सृष्टिकर्ता एवं पार्वती तथा गणोंसहित इन महादेवकी कृपाके साक्षात् समुद्र हैं । आपके चरणकमलके मकरन्दके स्वादमें [आसक्त हुए] भ्रमरस्वरूप मनवाले हमलोग आज आपके चरणकमलके दर्शनसे कृतार्थ हो गये हैं । हमलोगोंने पापीजनोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ आपके चरणकमलका दर्शन प्राप्त किया, अतः हमलोग महान् पुण्यवाले हैं ॥ ३६-३९ ॥

अस्मिन्देशे महाभाग नैमिषारण्यसंज्ञके ।
दीर्घसत्रान्विताः सर्वे प्रणवार्थप्रकाशकाः ॥ ४० ॥
श्रोतव्यः परमेशान इति कृत्वा विनिश्चिताः ।
परस्परं चिन्तयन्तः परं भावं महेशितुः ॥ ४१ ॥
अज्ञातवन्त एवैते वयं तस्माद्‌भवान्प्रभो ।
छेत्तुमर्हति तान्सर्वान्संशयानल्पचेतसाम् ॥ ४२ ॥
त्वदन्यः संशयस्यास्यच्छेत्ता न हि जगत्त्रये ।
तस्मादपारगंभीरव्यामोहाब्धौ निमज्जतः ॥ ४३ ॥
तारयस्व शिवज्ञानपोतेनास्मान्दयानिधे ।
शिवसद्‌भक्तितत्त्वार्थं ज्ञातुं श्रद्धालवो वयम् ॥ ४४ ॥
हे महाभाग ! प्रणवके अर्थको प्रकाशित करनेकी इच्छावाले हमलोग नैमिषारण्य नामक इस महातीर्थमें महासत्र सम्पादित कर रहे हैं । महेश्वरके परम भावका चिन्तन करते हुए हमलोगोंने यह निश्चय किया है कि परमेश्वरके विषयमें सुनना चाहिये । हे प्रभो ! अभीतक हमलोग उनकी महिमाको नहीं जान पाये हैं । अतः आप हम अल्पबुद्धिवालोंके उन समस्त सन्देहोंको दूर करनेकी कृपा करें । इस त्रिलोकीमें आपके अतिरिक्त कोई दूसरा इस संशयको दूर करनेवाला नहीं है । अतः हे दयानिधे ! आप इस अपार तथा अथाह भ्रम-सागरमें डूबते हुए हमलोगोंको शिवज्ञानरूपी नौकासे पार कर दीजिये; हमलोग शिवकी उत्तम भक्तिके तत्त्वार्थको जाननेके लिये श्रद्धायुक्त हैं ॥ ४०-४४ ॥

एवमभ्यर्थितस्तत्र मुनिभिर्वेदपारगैः ।
सर्ववेदार्थविन्मुख्यः शुकतातो महामुनिः ।
वेदान्तसारसर्वस्वं प्रणवं परमेश्वरम् ॥ ४५ ॥
ध्यात्वा हृत्कर्णिकामध्ये साम्बं संसारमोचकम् ।
प्रहृष्टमानसो भूत्वा व्याजहार महामुनि ॥ ४६ ॥
इस प्रकार वेदोंमें पारंगत मुनियोंके द्वारा प्रार्थना किये जानेपर समस्त वेदार्थके ज्ञाताओंमें मुख्य शुकदेवके पिता महामुनि व्यासजी वेदान्तके सारसर्वस्व प्रणवरूप तथा संसारसे मुक्त करनेवाले पार्वतीसहित परमेश्वरका अपने हदयकमलमें ध्यान करके प्रसन्नचित्त होकर कहने लगे- ॥ ४५-४६ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे षष्ठ्यां कैलाससंहितायां व्यासशौनकादिसंवादो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत छठी कैलाससंहितामें व्यासशौनकादिसंवाद नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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