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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

कैलाससंहिता

॥ द्वितीयोऽध्यायः ॥


देवीदेवसंवादे देवीकृतप्रश्नवर्णनम्
भगवान् शिवसे पार्वतीजीकी प्रणवविषयक जिज्ञासा


व्यास उवाचः -
साधु पृष्टमिदं विप्रा भवद्भिर्भाग्यवत्तमैः ।
दुर्लभं हि शिवज्ञानं प्रणवार्थप्रकाशकम् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे ब्राह्मणो ! परम सौभाग्यशाली आपलोगोंने यह बहुत अच्छी बात पूछी है; क्योंकि प्रणवार्थको प्रकाशित करनेवाला शिवज्ञान [सर्वथा] दुर्लभ है ॥ १ ॥

येषां प्रसन्नो भगवान्साक्षाच्छूलवरायुधः ।
तेषामेव शिवज्ञानं प्रणवार्थप्रकाशकम ॥ २ ॥
जायते न हि सन्देहो नेतरेषामिति श्रुतिः ।
शिवभक्तिविहीनानामिति तत्त्वार्थनिश्चयः ॥ ३ ॥
त्रिशूल नामक उत्तम आयुध धारण करनेवाले साक्षात् भगवान् शिव जिनपर प्रसन्न होते हैं, उन्हींको प्रणवार्थको प्रकाशित करनेवाला शिवज्ञान प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है । यह शिवभक्तिसे रहित अन्य लोगोंको नहीं प्राप्त होता है-यह वेदवचन है तथा यथार्थ तत्त्वका निश्चय है ॥ २-३ ॥

दीर्घसत्रेण युष्माभिर्भगवानम्बिकापतिः ।
उपासित इतीदं मे दृष्टमद्य विनिश्चितम् ॥ ४ ॥
तस्माद्वक्ष्यामि युष्माकमितिहासं पुरातनम् ।
उमामहेशसम्वादरूपमद्भुतमास्तिकाः ॥ ५ ॥
आपलोगोंने इस दीर्घ सत्रके माध्यमसे अम्बिकापति भगवान् सदाशिवकी उपासना की है, इसे मैंने आज निश्चित रूपसे देख लिया । अतः हे आस्तिको ! मैं आपलोगोंसे उमा-महेश्वरका संवादरूप प्राचीन तथा अद्‌भुत इतिहास कह रहा हूँ ॥ ४-५ ॥

पुराखिलजगन्माता सती दाक्षायणी तनुम् ।
शिवनिन्दाप्रसङ्गेन त्यक्त्वा च जनकाध्वरे ॥ ६ ॥
ततः प्रभावात्सा देवी सुताऽभूद्धिमवद्गिरेः ।
शिवार्थमतपत्सा वै नारदस्योपदेशतः ॥ ७ ॥
पूर्व समयमें दक्षपुत्री जगन्माता सतीने पिताके यज्ञमें शिवजीकी निन्दाके कारण अपना शरीरत्याग कर दिया । इसके बाद वे देवी उस शिवनिष्ठाके प्रभावसे [दूसरे जन्ममें] हिमालयकी पुत्री हुई । वे नारदजीके उपदेशसे शिवके निमित्त तप करने लगीं ॥ ६-७ ॥

तस्मिन्भूधरवर्ये तु स्वयंवरविधानतः ।
देवेशे च कृतोद्वाहे पार्वती सुखमाप सा ॥ ८ ॥
तथैकस्मिन्महादेवी समये पतिना सह ।
सूपविष्टा महाशैले गौरी देवमभाषत ॥ ९ ॥
उसके अनन्तर हिमालयने स्वयंवरविधिसे शिवजीके साथ उनका विवाह कर दिया, इससे वे पार्वती आनन्दित हुई । इसके बाद किसी समय हिमालयपर्वतपर पतिके साथ सुखपूर्वक बैठी हुई महादेवी गौरी शिवजीसे कहने लगी- ॥ ८-९ ॥

महादेव्युवाचः -
भगवन्परमेशान पञ्चकृत्यविधायक ।
सर्वज्ञ भक्तिसुलभ परमामृतविग्रह ॥ १० ॥
दाक्षायणीं तनुं त्यक्त्वा तव निन्दाप्रसङ्गतः ।
आसमद्य महेशान पुत्री हिमवतो गिरेः ॥ ११ ॥
कृपया परमेशान मन्त्रदीक्षाविधानतः ।
मां विशुद्धात्मतत्त्वस्थां कुरु नित्यं महेश्वर ॥ १२ ॥
महादेवी बोलीं-हे भगवन् ! हे परमेश्वर ! हे पंचकृत्यविधायक ! हे सर्वज्ञ ! हे भक्तिसुलभ ! हे परम अमृतस्वरूप ! मैंने तुम्हारी निन्दा होनेके कारण पूर्वजन्ममें दक्षपुत्रीका शरीर त्यागकर इस समय हिमालयकी पुत्रीके रूपमें जन्म लिया है । हे परमेशान ! हे महेश्वर ! अब कृपापूर्वक मुझे मन्त्रदीक्षाविधिसे विशुद्ध आत्मतत्त्वमें सदाके लिये स्थित कीजिये ॥ १०-१२ ॥

इति सम्प्रार्थितो देव्या देवः शीतांशु भूषणः ।
प्रत्युवाच ततो देवीं प्रहृष्टेनान्तरात्मना ॥ १३ ॥
इस प्रकार जब देवीने चन्द्रभूषण सदाशिवसे प्रार्थना की, तब वे प्रसन्नमनसे देवीसे कहने लगे- ॥ १३ ॥

महादेव उवाचः -
धन्या त्वं देवदेवशि यदि जातेदृशी मतिः ।
कैलास शिखरं गत्वा करिष्ये त्वां च तादृशीम् ॥ १४ ॥
महादेव बोले-हे देवि ! आप धन्य हैं, जो आपकी ऐसी बुद्धि हुई है, मैं कैलास-शिखरपर जाकर आपको विशुद्ध तत्त्वमें स्थित करूँगा ॥ १४ ॥

ततो हिमवतो गत्वा कैलासं भूधरेश्वरम् ।
जगौ दीक्षाविधानेन प्रणवादीन्मनून् क्रमात् ॥ १५ ॥
उक्त्वा मन्त्रांश्च तान्देवीं कृत्वा शुद्धात्मनि स्थिताम् ।
सार्द्धं देव्या महादेवो देवोद्यानं गतोऽभवत् ॥ १६ ॥
इसके बाद हिमालयसे पर्वतश्रेष्ठ कैलासके शिखरपर जाकर शिवजीने दीक्षाविधिसे उन्हें प्रणवादि मन्त्रोंका उपदेश दिया । इस प्रकार उन मन्त्रोंका उपदेश करके देवीको विशुद्ध आत्मतत्त्वमें स्थितकर महादेवजी देवीके साथ देवोद्यानमें चले गये ॥ १५-१६ ॥

ततः सुमालिनीमुख्यैर्दैव्याः प्रियसखीजनैः ।
समाहृतैः प्रफुल्लैस्तैः पुष्पैः कल्पतरूद्भवैः ॥ १७ ॥
अलंकृत्य महादेवीं स्वाङ्कमारोप्य शङ्करः ।
प्रहृष्टवदनस्तस्थौ विलोक्य च तदाननम् ॥ १८ ॥
इसके बाद देवीकी सुमालिनी आदि प्रिय सखियोंके द्वारा लाये गये कल्पवृक्षके खिले हुए पुष्पोंसे महादेवीको अलंकृत करके उन्हें अपनी गोदमें बैठाकर उनका मुख देखकर प्रसन्नमुख शिवजी वहाँ बैठ गये ॥ १७-१८ ॥

ततः प्रियकथा जाताः पार्वतीपरमेशयोः ।
हिताय सर्वलोकानां साक्षाच्छ्रुत्यर्थसम्मिता ॥ १९ ॥
तदा सर्वजगन्माता भर्तुरङ्कं समाश्रिता ।
विलोक्य वदनं भर्तुरिदमाहः तपोधनाः ॥ २० ॥
तत्पश्चात् सभी लोकोंके कल्याणके लिये पार्वती एवं परमेश्वरके बीच वेदार्थसम्मत प्रिय कथाएँ होने लगीं । हे तपोधनो ! उसी समय अपने पतिकी गोदमें विराजमान सम्पूर्ण जगत्की माताने अपने पतिके मुखको देखकर यह कहा- ॥ १९-२० ॥

श्रीदेव्युवाचः -
उपदिष्टास्त्वया देव मन्त्राः सप्रणवा मताः ।
तत्रादौ श्रोतुमिच्छामि प्रणवार्थं विनिश्चितम् ॥ २१ ॥
श्रीदेवी बोलीं-हे देव ! आपके द्वारा उपदिष्ट मन्त्र प्रणवयुक्त कहे गये हैं, अतः सबसे पहले मैं प्रणवके निश्चित अर्थको सुनना चाहती हूँ ॥ २१ ॥

कथं प्रणव उत्पन्नः कथं प्रणव उच्यते ।
मात्राः कति समाख्याताः कथं वेदादिरुच्यते ॥ २२ ॥
देवताः कति च प्रोक्ताः कथं वेदादिभावना ।
क्रियाः कतिविधाः प्रोक्ता व्याप्यव्यापकता कथम् ॥ २३ ॥
ब्रह्माणि पंच मन्त्रेऽस्मिन्कथं तिष्ठन्त्यनुक्रमात् ।
कलाः कति समाख्याताः प्रपंचात्मकता कथम् ॥ २४ ॥
वाच्यवाचकसम्बन्धस्थानानि च कथं शिव ।
कोऽत्राधिकारी विज्ञेयो विषयः क उदाहृतः ॥ २५ ॥
सम्बन्धः कोत्र विज्ञेयः किंप्रयोजनमुच्यते ।
उपासकस्तु किंरूपः किं वा स्थानमुपासनम् ॥ २६ ॥
उपास्यं वस्तु किंरूपं किं वा फलमुपासितुः ।
अनुष्ठान विधिः कोवा पूजास्थानं च किं प्रभो ॥ २७ ॥
पूजायां मण्डलं किं वा किं वा ऋष्यादिकं हर ।
न्यासजापविधिः को वा को वा पूजाविधिक्रमः ॥ २८ ॥
एतत्सर्वं महेशान समाचक्ष्व विशेषतः ।
श्रोतुमिच्छामि तत्त्वेन यद्यस्ति मयि ते कृपा ॥ २९ ॥
प्रणव किस प्रकार उत्पन्न हुआ, इसे प्रणव क्यों कहा जाता है, इसमें कितनी मात्राएँ कही गयी हैं और यह वेदोंका आदि क्यों कहा जाता है ? इसके कितने देवता कहे गये हैं, इसमें किस प्रकार देवादिकी भावना की जाती है. इसमें कितने प्रकारकी क्रियाएँ बतायी गयी हैं और इसकी व्याप्य-व्यापकता कैसी है ? क्रमशः सद्योजातादि पंचब्रह्म इस मन्त्रमें किस प्रकार निवास करते हैं, कितनी कलाएँ कही गयी हैं ? और प्रपंचात्मकता क्या है ? इसका वाच्य-वाचकसम्बन्ध और स्थान किस प्रकारका है, इसका अधिकारी किसे जानना चाहिये और इसका विषय किसे कहा गया है ? इसमें सम्बन्ध किसे जानना चाहिये, इसका कौन-सा प्रयोजन कहा जाता है, इसकी उपासना करनेवाला किस रूपका होता है और उपासनाके योग्य स्थान कैसा होता है ? हे प्रभो ! इसकी उपास्य वस्तु किस प्रकारकी है, इसकी उपासना करनेवालोंका फल क्या होता है, इसकी अनुष्ठानविधि क्या है तथा पूजनका स्थान क्या है ? हे हर ! पूजामें मण्डल कैसा हो, इसके ऋषि आदि कौन हैं, इसमें न्यास तथा जपकी विधि क्या है और पूजाविधिका क्रम क्या है ? हे महेशान ! यदि आपकी मुझपर कृपा है, तो यह सब मुझे विशेषरूपसे बताइये, मैं इसे यथार्थरूपसे सुनना चाहती हूँ ॥ २२-२९ ॥

इति देव्या समापृष्टो भगवानिन्दुभूषणः ।
सम्प्रशस्य महेशानीं वक्तुं समुपचक्रमे ॥ ३० ॥
देवीके द्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर भगवान् चन्द्रभूषण [उन] महेश्वरीकी प्रशंसा करके कहने लगे- ॥ ३० ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे षष्ठ्यां कैलास संहितायां देवीदेवसंवादे देवीकृतप्रश्नवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत छठी कैलाससंहितामें देवीदेवसंवादमें देवीकृत प्रश्नवर्णन नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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