![]() |
॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
कैलाससंहिता
॥ चतुर्थोऽध्यायः ॥ संन्यासाचारवर्णनम्
संन्यासदीक्षासे पूर्वकी आलिकविधि ईश्वर उवाचः - अतः परं प्रवक्ष्यामि संन्यासाह्निककर्म च । तव स्नेहान्महादेवि संप्रदायानुरोधतः ॥ १ ॥ शिवजी बोले-हे महादेवि ! अब मैं आपके ऊपर स्नेहके कारण सम्प्रदायोंके अनुसार संन्यास लेनेसे पूर्वक आहिक कर्मका वर्णन करूँगा ॥ १ ॥ ब्राह्मे मुहूर्त्त उत्थाय शिरसि श्वेतपङ्कजे । सहस्रारे समासीनं गुरुं संचिन्तयेद्यतिः ॥ २ ॥ शुद्धस्फटिकसङ्काशं द्विनेत्रं वरदाभये । दधानं शिवसद्भावमेवात्मनि मनोहरम् ॥ ३ ॥ भावोपनीतैः संपूज्य गन्धादिभिरनुक्रमात् । बद्धांजलिपुटो भूत्वा नमस्कुर्याद् गुरुं ततः ॥ ४ ॥ हे महादेवि ! ब्राह्ममुहूर्तमें उठकर यति अपने सिरमें सहस्र दलवाले श्वेत कमलपर बैठे हुए, शुद्ध स्फटिकके समान अत्यन्त निर्मल, दो नेत्रोंवाले, वरद एवं अभयमुद्राको धारण किये हुए शिवके समान कल्याणकारी एवं अत्यन्त मनोहर स्वरूपवाले गुरुका ध्यान करे । उसके अनन्तर मानसिक भावोंसे लाये गये गन्ध आदिसे क्रमशः पूजन करके हाथ जोड़कर गुरुको नमस्कार करे ॥ २-४ ॥ प्रातःप्रभृति सायान्ते सायादि प्रातरन्ततः । यत्करोमि महादेव तदस्तु तव पूजनम् ॥ ५ ॥ प्रतिविज्ञाप्य गुरवे लब्धानुज्ञस्ततो गुरोः । निरुद्धप्राण आसीनो विजितात्मा जितेन्द्रियः ॥ ६ ॥ मूलादिब्रह्मरंध्रान्तं षट्चक्रं परिचिन्तयेत् । विद्युत्कोटिसमप्रख्यं सर्वतेजोमयं परम् ॥ ७ ॥ तन्मध्ये चिन्तयेन्मां च सच्चिदानन्दविग्रहम् । निर्गुणं परमं ब्रह्म सदाशिवमनामयम् ॥ ८ ॥ हे महादेव ! प्रात:कालसे सन्ध्यापर्यन्त तथा सन्ध्यासे प्रातःकालपर्यन्त मैं जो कुछ भी करता हूँ, वह सब आपका ही पूजन हो । इस प्रकार गुरुसे निवेदनकर उनसे आज्ञा लेकर प्राणोंको रोक करके मन एवं इन्द्रियोंको वशमें रखकर आसनपर बैठे और मूलाधारसे ब्रह्मरन्ध्रपर्यन्त छ: चक्रोंका ध्यान करे । उनके मध्यमें करोड़ों विद्युत्के समान कान्तिवाले, सर्वतेजोमय, सच्चिदानन्दस्वरूप, निर्गुण, निर्विकार, परब्रह्मरूप मुझ सदाशिवका चिन्तन करे ॥ ५-८ ॥ सोऽहमस्मीति मतिमान्मदैक्यमनुभूय च । बहिर्निर्गत्य च ततो दूरं गच्छेद्यथासुखम् ॥ ९ ॥ उसके अनन्तर उस बुद्धिमान्को चाहिये कि वह मैं ही हूँ'-इस प्रकार मेरे साथ एकताका अनुभव करके बाहर निकलकर सुविधानुरूप दूर चला जाय ॥ ९ ॥ वस्त्रेणाच्छाद्य मतिमाञ्छिरो नासिकया सह । विशोध्य देहं विधिवत्तृणमाधाय भूतले ॥ १० ॥ गृहीतशिश्न उत्थाय ततो गच्छेज्जलाशयम् । उद्धृत्य वार्यथान्यायं शौचं कुर्यादतन्द्रितः ॥ ११ ॥ हस्तौ पादौ च संशोध्य द्विराचम्योमिति स्मरन् । उत्तराभिमुखो मौनी दन्तधावनमाचरेत् ॥ १२ ॥ वह बुद्धिमान् [शिष्य] वस्वसे नासिका तथा सिरको ढंककर पच्चीपर तृण रखकर विधिवत् शौच करके वहाँसे उठकर शिश्नको हाथसे पकड़े हुए जलाशयकी ओर जाय और उचित रीतिसे जल लेकर सावधान हो विधिपूर्वक शुद्धि करे । पुनः हाथ-पैर धोकर'ॐ' इस मन्त्रका स्मरण करता हुआ दो बार आचमन करके मौन धारणकर उत्तराभिमुख हो दन्तधावन करे ॥ १०-१२ ॥ तृणपर्णैः सदा कुर्यादमामेकादशी विना । अपां द्वादशगण्डूषैर्मुखं संशोधयेत्ततः ॥ १३ ॥ द्विराचम्य मृदा तोयैः कटिशौचं विधाय च । अरुणोदयकाले तु स्नानं कुर्यान्मृदा सह ॥ १४ ॥ एकादशी तथा अमावास्याको छोड़कर तृण तथा पत्ते (डण्ठल आदि)-से सदा दन्तधावन करे, इसके बाद जलसे बारह कुल्लाकर मुखको शुद्ध करे, पुनः दो बार आचमनकर मिट्टी तथा जलसे कटिपर्यन्त शरीरभागको शुद्ध करके सूर्योदयके समय मिट्टीका लेपनकर स्नान करे ॥ १३-१४ ॥ गुरुं संस्मृत्य मां चैव स्नानसंध्याद्यमाचरेत् । विस्तारभयतो नोक्तमत्र द्रष्टव्यमन्यतः ॥ १५ ॥ गुरुका तथा मेरा स्मरण करते हुए स्नान-सन्ध्या आदि करना चाहिये । इस विषयमें विस्तारके भयसे अधिक नहीं कहा गया है, इसे अन्यत्र देख लेना चाहिये ॥ १५ ॥ आबध्य शंखमुद्रां च प्रणवेनाभिषेचयेत् । शिरसि द्वादशावृत्त्या तदर्धं वा तदर्धकम् ॥ १६ ॥ तीरमागत्य कौपीनं प्रक्षाल्याचम्य च द्विधा । प्रोक्षयेत्प्रणवेनैव वस्त्रमङ्गोपमार्जनम् ॥ १७ ॥ शंखमुद्रा बाँधकर प्रणवसे सिरपर बारह बार, उसका आधा छः बार अथवा उसका भी आधा तीन बार जल छिड़के । उसके अनन्तर किनारेपर आकर कौपीनका प्रक्षालनकर दो बार आचमन करके प्रणवसे ही वस्त्रपर जल छिड़के तथा अंगोंका मार्जन करे ॥ १६-१७ ॥ मुखं प्रथमतो मृज्य शिर आरभ्य सर्वतः । तेनैव मार्जयेद्देहं स्थित्वा च गुरुसन्निधौ ॥ १८ ॥ आबध्याद्वामतः शुद्धं कौपीनं च सडोरकम् । ततः संधारयेद्भस्म तद्विधिः प्रोच्यतेऽद्रिजे ॥ १९ ॥ सबसे पहले अंगोछेसे मुख पोंछकर बादमें सिरसे लेकर सम्पूर्ण देहको पोंछे । इसके बाद गुरुके समीप ही स्थित हो शद्ध कौपीन धारणकर डोरेसे बाँध ले । पुनः भस्म धारण करे, हे प्रिये ! उसकी विधि कह रहा हूँ ॥ १८-१९ ॥ द्विराचम्य समादाय भस्म सद्यादिमन्त्रतः । अग्निरित्यादिभिर्मन्त्रैरभिमन्त्र्य स्पृशेत्तनुम् ॥ २० ॥ आपोवेत्यभिमन्त्र्याथ जलं तेनैव सेचयेत् । ओमापोज्योतिरित्युक्त्वा मानस्तोकेति मन्त्रतः ॥ २१ ॥ सम्मर्द्य कमलद्वन्द्वं कुर्या देकं तु पंचधा । शिरोवदनहृद्गुह्यपादेषु परमेश्वरि ॥ २२ ॥ ईशानादि समारभ्य सद्यान्तं पंचभिः क्रमात् । उद्धूल्य कवलं पश्चात्प्रणवेनाभिषेचयेत् ॥ २३ ॥ सर्वाङ्गं च ततो हस्तौ प्रक्षाल्यान्यत्समाहरेत् समर्च्य पूर्वत्तत्तु त्रिपुण्ड्रांस्तेन धारयेत् ॥ २४ ॥ त्रियायुषैस्त्र्यम्बकैश्च प्रणवेन शिवेन च । शिरस्यथ ललाटे च वक्षसि स्कन्ध एव च ॥ २९ ॥ नाभौ बाह्वौः संधिषु च पृष्ठ चैव यथाक्रमम् । प्रक्षाल्य हस्तौ च ततो द्विराचम्य यथाविधि ॥ २६ ॥ पंचीकरणमुच्चार्य भावयेत्स्वगुरुं बुधः । वक्ष्यमाणप्रकारेण प्राणायामान्षडाचरेत् ॥ २७ ॥ दो बार आचमन करके सद्योजात० इस आद्य मन्त्रसे भस्म ग्रहण करके अग्निरिति० इत्यादि मन्त्रोंसे उसे अभिमन्त्रित करते हुए शरीरका स्पर्श करे । इसके बाद 'आपो वा' इस मन्त्रसे भस्ममें जल मिलाये । पुनः ॐ आपो ज्योतिः-इस मन्त्रको पड़कर मानस्तोके-इस मन्त्रसे [भस्मको मसलकर कवलके आकारके दो पिण्ड बनाये । फिर एकके पाँच भाग करे । हे परमेश्वरि ! उसे सिर, मुख, हृदय, गुहास्थान तथा चरणमें ईशानसे लेकर सद्योजातपर्यन्त पाँच मन्त्रोंसे क्रमश: लगाकर बादमें प्रणवसे अभिषेक करे । इसके साथ सभी अंगोंको तथा तत्पश्चात् दोनों हाथोंको धोकर दूसरा पिण्ड ग्रहण करे और पहलेकी तरह मसलकर उससे त्रिपुण्ड धारण करे, 'त्र्यायुषं जमदग्नेः', 'त्र्यम्बकं यजामहे', प्रणव अथवा अन्य शिवमन्त्रके द्वारा सिर, ललाट, वक्षःस्थल, कन्धा, नाभि, दोनों बाहुओं, सन्धियों तथा पीठपर क्रमश: भस्म लगाये । इसके बाद दोनों हाथ धोकर यथाविधि दो बार आचमन करके पंचाक्षर मन्त्रका उच्चारणकर वह विद्वान् [शिष्य] अपने गुरुका ध्यान करे और आगे कही जानेवाली विधिके अनुसार छः प्राणायाम करे ॥ २०-२७ ॥ दक्षहस्तेन सङ्गृह्य जलं वामेन पाणिना । समाच्छाद्य द्विषड्वारं प्रणवे नाभिमन्त्रयेत् ॥ २८ ॥ एवं त्रिवारं संप्रोक्ष्य शिरसि त्रिः पिबेत्ततः । समाहितेन मनसा ध्यायन्नोङ्कारमीश्वरम् ॥ २९ ॥ सौरमण्डलमध्यस्थं सर्वतेजोमयं परम् । अष्टबाहुं चतुर्वक्त्रमर्द्धनारीकमद्भुतम् ॥ ३० ॥ सर्वाश्चर्यगुणोपेतं सर्वालङ्कारशोभितम् । दाहिने हाथमें जल लेकर उसे बायें हाथसे ढंककर बारह बार प्रणवमन्त्र पढ़कर उसे अभिमन्त्रित करे । इसके बाद तीन बार उसे अपने सिरपर छिड़ककर तीन बार उसका पान करे और एकाग्र मनसे सूर्यमण्डलमें स्थित, सर्वतेजोमय, आठ भुजावाले, चार मुखसे युक्त, अर्धनारीश्वर, अद्भुत स्वरूपवाले, सम्पूर्ण आश्चर्यमय गुणोंसे युक्त तथा सभी अलंकारोंसे सुशोभित ओंकाररूपी ईश्वरका ध्यान करे ॥ २८-३० १/२ ॥ एवं ध्यात्वाथ विधिवद्दद्यादर्घ्यत्रयं ततः ॥ ३१ ॥ अष्टोत्तरशतं जप्त्वा द्विषड्वारं तु तर्पयेत् । पुनराचम्य विधिवत्प्राणायामत्रयं चरेत् ॥ ३२ ॥ इस प्रकार ध्यान करके विधिपूर्वक तीन बार अर्घ्य दे । इसके बाद एक सौ आठ बार [शिवमन्त्रका] जप करके बारह बार तर्पण करे, पुनः विधिवत् आचमनकर तीन प्रणायाम करे ॥ ३१-३२ ॥ पूजासदनमागच्छेन्मनसा संस्मन् शिवम् । द्वारमासाद्य प्रक्षाल्य पादौ मौनी द्विराचमेत् ॥ ३३ ॥ प्रविशेद्विधिना तत्र दक्षपादपुरः सरम् । मण्डपान्तः सुधीस्तत्र मण्डलं रचयेत्क्रमात् ॥ ३४ ॥ तदनन्तर मनसे शिवजीका स्मरण करते हुए पूजास्थानमें आये, वहाँ द्वारपर दोनों पैर धो करके मौन होकर दो बार आचमन करे । बुद्धिमान्को चाहिये कि दाहिना चरण आगे करके पूजामण्डपमें विधिवत् प्रवेश करे और वहाँ क्रमसे मण्डलकी रचना करे ॥ ३३-३४ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे षष्ठ्यां कैलाससंहितायां संन्यासाचारवर्णनंनाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत छठी कैलाससंहितामें संन्यासाचारवर्णन नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |