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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
कैलाससंहिता
॥ नवमोऽध्यायः ॥ प्रणवार्थपद्धतिवर्णनम्
प्रणवोपासनाकी विधि ईश्वर उवाचः - शिवो महेश्वरश्चैव रुद्रो विष्णुः पितामहः । संसारवैद्यः सर्वज्ञः परमात्मेति मुख्यतः ॥ १ ॥ नामाष्टकमिदं नित्यं शिवस्य प्रतिपादकम् । आद्यन्तपञ्चकं तत्र शान्त्यतीताद्यनुक्रमात् ॥ २ ॥ संज्ञा सहाशिवादीनां पञ्चोपाधिपरिग्रहात् । उपाधिविनिवृत्तौ तु यथास्वं विनि वर्तते ॥ ३ ॥ पदमेव हितं नित्यमनित्याः पदिनः स्मृताः । पदानां परिवृत्ति स्यान्मुच्यन्ते पदिनो यतः ॥ ४ ॥ ईश्वर बोले-परमात्मा शिवजीके मुख्य नाम हैं-शिव, महेश्वर, रुद्र, विष्णु, पितामह, संसारवैद्य, सर्वज्ञ और परमात्मा । ये आठ नाम शिवजीके प्रतिपादक हैं, इनमें आदिसे पितामहपर्यन्त पाँच नामोंमें शान्त्यतीतादि पाँच उपाधियोंके ग्रहणक्रमसे शिवादि संज्ञाएँ ग्रहण की गयी हैं । उपाधिके निवृत्त हो जानेपर संज्ञाकी भी निवृत्ति हो जाती है । क्योंकि पद तो नित्य है किंतु पदपर रहनेवाले अनित्य हैं । पदोंकी परिवृत्ति होती रहती है, जिससे पदपर रहनेवाले हटते रहते हैं ॥ १-४ ॥ परिवृत्त्यन्तरे त्वेवं भूयस्तस्याप्युपाधिना । आत्मान्तराभिधानं स्यात्पादाद्यं नामपंचकम् ॥ ५ ॥ पदोंकी परिवृत्तिके मध्यमें इसी प्रकार वैसी ही उपाधिसे युक्त इन्हीं पाँच नामोंसे दूसरी-दूसरी आत्माएँ पदस्थ होती रहती हैं ॥ ५ ॥ अन्यत्तु त्रितयं नाम्नामुपादानादिभेदतः । त्रिविधोपाधिरचनाच्छिव एव तु वर्तते ॥ ६ ॥ इन पाँच नामोंके अतिरिक्त शेष जो तीन नाम हैं, वे जगत्के उपादान आदिके भेदसे तीन प्रकारको उपाधिके कारण शिव ही हैं ॥ ६ ॥ अनादिमलसंश्लेषप्रागभावात्स्वभावतः । अत्यन्तपरिशुद्धात्मेत्यतोऽयं शिव उच्यते ॥ ७ ॥ अथवाशेषकल्याणगुणैकघन ईश्वरः । शिव इत्युच्यते सद्भिः शिवतत्त्वार्थवेदिभिः ॥ ८ ॥ उन शिवमें अनादि मलके संश्लेषका पूर्वसे ही अभाव होनेसे वे अत्यन्त परिशद्ध आत्मावाले हैं, इसीलिये उन्हें शिव नामसे जाना जाता है अथवा सभी कल्याणकारी गुणोंका घनीभूत एकमात्र आधार होनेसे ही ईश्वरको शिवतत्त्वके ज्ञाता पुरुष शिव कहते हैं ॥ ७-८ ॥ त्रयोविंशतितत्वेभ्यः परा प्रकृतिरुच्यते । प्रकृतेस्तु परं प्राहुः पुरुषं पञ्चविंशकम् ॥ ९ ॥ यद्वेदादौ स्वरं प्राहुर्वाच्यवाचकभावतः । वेदैकवेद्यं याथात्म्याद्वेदान्ते च प्रतिष्ठितम् ॥ १० ॥ स एव प्रकृतौ लीनो भोक्ता यः प्रकृतेर्यतः । तस्य प्रकृतिलीनस्य यः परः स महेश्वरः ॥ ११ ॥ तदधीनप्रवृत्तित्त्वात्प्रकृतेः पुरुषस्य च । अथवा त्रिगुणं तत्त्वं मायेयमिदमव्ययम् ॥ १२ ॥ मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् । मायाविमोचकोऽनन्तो महेश्वरसमन्वयात् ॥ १३ ॥ रु द्दुःखं दुःखहेतुर्वा तद् द्रावयति यः प्रभुः । रुद्र इत्युच्यते तस्माच्छिवः परमकारणम् ॥ १४ ॥ तेईस तत्त्वोंके अतिरिक्त चौबीसवाँ तत्त्व पराप्रकृति है और इस चौबीसवें प्रकृतितत्त्वसे परे पचीसवें तत्त्वको पुरुष कहा जाता है, जिसको वेद आदिमें वाच्यवाचकभावसे स्वर कहा जाता है, जो केवल वेदके द्वारा ज्ञेय है और जो वेदान्त अर्थात् दो उपनिषदोंमें प्रतिष्ठित है । वही प्रकृतिमें लीन होकर प्रकृतिका भोग करता है । उस प्रकृतिलीन पुरुषसे जो परे हैं, वही महेश्वर जाने जाते हैं; क्योंकि पुरुष और प्रकृतिकी प्रवृत्ति उसके अधीन है अथवा अव्यय त्रिगुणतत्त्व ही माया है, माया ही प्रकृति है और जिसकी वह माया है, उसी मायीको महेश्वर जानना चाहिये, क्योंकि उन अनन्त महेश्वरको प्राप्त कर लेनेपर वे मायासे मुक्त कर देते हैं । रुत्को दुःख अथवा दुःखका कारण कहा जाता है, उसे वे प्रभावसम्पन्न तथा जगत्के परमकारण भगवान् शंकर विनष्ट कर देते हैं, अत: उनको 'रुद्र' कहा जाता है ॥ ९-१४ ॥ शिवतत्त्वादिभूम्यन्तं शरीरादि घटादि च । व्याप्याधितिष्ठति शिवस्तमाद्विष्णुरुदाहृतः ॥ १५ ॥ शिवतत्त्वसे लेकर पृथ्वीतत्त्वपर्यन्त समस्त शरीरोंमें घटाकाशवत् शिवजी व्याप्त होकर स्थित हैं, अत: उन्हें 'विष्णु' कहा जाता है ॥ १५ ॥ जगतः पितृभूतानां शिवो मूर्त्यात्मनामपि । पितृभावेन सर्वेषां पितामह उदीरितः ॥ १६ ॥ निदानज्ञो यथा वैद्यो रोगस्य निवर्तकः । उपायैर्भेषजैस्तद्वल्लयभोगाधिकारकः ॥ १७ ॥ संसारस्येश्वरो नित्यं स्थूलस्य विनिवर्तकः । संसारवैद्य इत्युक्तः सर्वतत्त्वार्थवेदिभिः ॥ १८ ॥ संसारको उत्पन्न करनेवाले पितृस्थानीय समस्त शरीरधारी ब्रह्मादिकोंके भी पिता होनेसे वे पितामह कहे गये हैं । जिस प्रकार निदान जाननेवाला वैद्य चिकित्सकीय उपायों तथा ओषधियोंसे रोगको नष्ट कर देता है. उसी प्रकार मोक्ष तथा भोग देकर स्थूल संसारसे सर्वथा मुक्त कर देनेवाले उन जगदीश्वरको समस्त तत्त्वार्थविदोंने संसारका वैद्य कहा है ॥ १६-१८ ॥ दशार्द्धज्ञानसिद्ध्यर्थमिन्द्रियेषु च सत्स्वऽपि । त्रिकालभाविनो भावान्स्थूलान्सूक्ष्मानशेषतः ॥ १९ ॥ अणवो नैव जानन्ति मायार्णवमलावृताः । असत्स्वपि च सर्वेषु सिद्धसर्वार्थवेदिषु ॥ २० ॥ यद्यथावस्थितं वस्तु तत्तथैव सदाशिवः । अयत्नेनैव जानाति तस्मात्सर्वज्ञ उच्यते ॥ २१ ॥ शब्दादि पंचविषयोंके ज्ञानके लिये यद्यपि जीवको इन्द्रियाँ प्राप्त हैं तथापि तीनों कालोंमें होनेवाली स्थूल तथा सूक्ष्म क्रियाओंको मायार्णवमलसे आवत मलिन वह जीव समग्रतया जाननेमें समर्थ नहीं होता । सिद्ध, साध्यादि सभी पदार्थोंका ज्ञान करानेवाली इन्द्रियोंसे रहित होकर भी सदाशिव जो वस्तु जिस रूपमें स्थित है, उसे उसी रूपमें बिना यत्नके ही जान लेते हैं, इसलिये उन्हें सर्वज्ञ कहा जाता है ॥ १९-२१ ॥ सर्वात्मा परमैरेभिर्गुणैर्नित्यसमन्वयात् । स्वस्मात्परात्मविरहात्परमात्मा शिवः स्वयम् ॥ २२ ॥ वे इन सर्वज्ञत्वादि गुणोंसे नित्य युक्त हैं, सर्वात्मस्वरूप हैं, उनमें अपनी आत्मा तथा परमात्माका भेद नहीं रहता, इसलिये वे शिव स्वयं परमात्मा हैं ॥ २२ ॥ इति स्तुत्वा महादेवं प्रणवात्मानमव्ययम् । अर्घ्यं पाद्यं पुरो दत्त्वा पश्चादीशानमस्तके ॥ २३ ॥ पुनरभ्यर्च्य देवेशं प्रणवेन समाहितः । हस्तेन बद्धाञ्जलिना पूजापुष्पं प्रगृह्य च ॥ २४ ॥ उन्मनान्तं शिवं नीत्वा वामनासापुटाध्वना । देवोमुद्वास्य च ततो दक्षनासापुटाध्वना ॥ २५ ॥ शिव एवाहमस्मीति तदैक्यमनुभूय च । सर्वावरणदेवांश्च पुनरुद्वासयेद् हृदि ॥ २६ ॥ विद्यापूजां गुरोःपूजां कृत्वा पश्चाद्यथाक्रमम् । शंखार्घपात्रमन्त्रांश्च हृदये विन्यसेत्क्रमात् ॥ २७ ॥ निर्माल्यं च समर्प्याऽथ चण्डीशायेशगोचरे । पुनश्च संयतप्राण ऋष्यादिकमथोच्चरेत् ॥ २८ ॥ इस प्रकार प्रणवस्वरूप अव्यय परमात्माकी स्तुतिकर उनके सम्मुख अर्घ्य तथा पाद्य प्रदान करके बादमें ईशानके मस्तकपर एकाग्रचित्त हो ॐकारमन्त्रसे देवेशका अर्चन करे और पूजाके पुष्पोंको लेकर अंजलि बाँधकर बायीं ओरकी नासिकाके मार्गसे उन्मनी नाड़ीपर्यन्त शिवको ले जाकर दाहिने नासापुटके मार्गसे देवीको ले जाकर 'मैं ही शिव हूँ'-इस प्रकारकी भावनाकर शिवजीसे तादात्म्य स्थापित करके सभी आवरण देवगणोंका हृदयमें ध्यान करे और इसके बाद क्रमसे गुरु तथा विद्याकी पूजाकर शंखरूप अर्घ्यपात्रसे अर्घ्यपाद्यादि प्रदान करके मन्त्रद्वारा हृदयमें न्यास करे । तत्पश्चात् निर्माल्यको सदाशिवके समक्ष ही चण्डेश्वरको अर्पितकर पुनः प्राणायाम करके ऋषि आदिका उच्चारण करे ॥ २३-२८ ॥ कैलासप्रस्तरो नाम मण्डलं परिभाषितम् । अर्चयेन्नित्यमेवैतत्पक्षे वा मासि मासि वा ॥ २९ ॥ षण्मासे वत्सरे वापि चातुर्मास्यादिपर्वणि । अवश्यं च समभ्यर्चेन्नित्यं मल्लिङ्गमास्तिकः ॥ ३० ॥ इस प्रकार मैंने कैलासप्रस्तर नामक मण्डलका वर्णन किया, इसी प्रक्रियासे नित्य, पक्षमें, महीने-महीने, छ: मासपर, वर्ष या चातुर्मास्य आदि पर्वमें आस्तिकपुरुष मेरे लिंगकी पूजा अवश्य करे ॥ २९-३० ॥ तस्मिन्क्रमे महादेवि विशेषः कोऽपि कथ्यते । उपदेशदिने लिङ्गं पूजितं गुरुणा सह ॥ ३१ ॥ गृह्णीयादर्चयिष्यामि शिवमाप्राणसङ्क्षयम् । एवन्त्रिवारमुच्चार्य शपथं गुरुसन्निधौ ॥ ३२ ॥ ततः समर्चयेन्नित्यं पूर्वोक्तविधिना प्रिये । अर्घं समर्पयेल्लिङ्गमूर्द्धन्यर्घ्योदकेन च ॥ ३३ ॥ प्रणवेन समभ्यर्च्य धूपदीपौ समर्पयेत् । ऐशान्यां चण्डमाराध्य निर्माल्यं च निवेदयेत् ॥ ३४ ॥ हे महादेवि ! इस विषयमें कुछ लोगोंका विशेष विचार यह भी है कि दीक्षाके दिन गुरुके साथ पूजित लिंगको हाथमें ग्रहण करे और कहे कि मैं प्राणक्षयपर्यन्त निरन्तर शिवजीकी पूजा करता रहूँगा-इस प्रकार तीन बार गुरुके निकट प्रतिज्ञाकर हे प्रिये ! पूर्वोक्त विधिसे शिवजीका नित्य पूजन करे । अयॊदकके द्वारा लिंगके मस्तकपर अर्ध्य समर्पित करे और प्रणवसे पूजनकर धूप, दीप [तथा अन्य उपचार] अर्पित करे । ईशान दिशामें चण्डकी पूजाकर उन्हें निर्माल्य निवेदित करे ॥ ३१-३४ ॥ प्रक्षाल्य ल्लिङ्गं वेदीं च वस्त्रपूतैर्जलैस्ततः । निःक्षिप्य पुष्पं शिरसि लिङ्गस्य प्रणवेन तु ॥ ३५ ॥ आधारशक्तिमारभ्य शुद्धविद्यासनावधि । विभाव्य सर्वं मनसा स्थापयेत्परमेश्वरम् ॥ ३६ ॥ पञ्चगव्यादिभिर्द्रव्यैर्यथाविभवसम्भृतैः । केवलैर्वा जलैः शुद्धैः सुरभि द्रव्यवासितैः ॥ ३७ ॥ पावमानेन रुद्रेण नीलेन त्वरितेन च । ऋग्भिश्च सामभिर्वापि ब्रह्मभिश्चैव पञ्चभिः ॥ ३८ ॥ स्नापयेद्देवदेवेशं प्रणवेन शिवेन च । विशेषार्घ्योदकेनापि प्रणवेनाभिषेचयेत् ॥ ३९ ॥ वस्वद्वारा छाने गये जलसे लिंग और वेदीका प्रक्षालन करे । फिर लिंगके मस्तकपर ॐकारका उच्चारणकर पुष्प अर्पित करके आधारशक्तिसे आरम्भकर शुद्ध विद्यासनपर्यन्त शक्तियोंका मनमें स्मरणकर परमेश्वरको स्नान कराये । अपने ऐश्वर्यानुसार पंचगव्यादि द्रव्योंसे अथवा सुगन्धित द्रव्यसे वासित शुद्ध जलसे 'पवमानसूक्त' द्वारा अथवा रुद्रसूक्तके द्वारा अथवा नीलसूक्तसे या त्वरित सूक्तसे अथवा सामवेदके मन्त्रोंसे अथवा सद्योजातादि पाँच मन्त्रोंसे अथवा 'ॐ नमः शिवाय'-इस मन्त्रसे या प्रणवसे शिवजीको स्नान कराये । प्रणवके द्वारा विशेषायके जलसे शिवजीको स्नान कराये ॥ ३५-३९ ॥ विशोध्य वाससा पुष्पं लिङ्गमूर्द्धनि विन्यसेत् । पीठे लिङ्गं समारोप्य सूर्याद्यर्चां समाचरेत् ॥ ४० ॥ इसके पश्चात् वस्त्रके द्वारा लिंगका प्रोक्षणकर सुगन्धित पुष्पोंको लिंगके ऊपर चढ़ाये तथा पीठपर लिंगको स्थापितकर सूर्य आदिका अर्चन करे ॥ ४० ॥ आधारशक्त्यनन्तौ द्वौ पीठाधस्तात्समर्चयेत् । सिंहासनन्तदूर्ध्वन्तु समभ्यर्च्य यथाक्रमम् । ४१ पीठके नीचे आधारशक्ति तथा अनन्तकी पूजा करे । इसके पश्चात् उसके ऊपर सिंहासन रखकर यथाक्रम उसका भी पूजन करे ॥ ४१ ॥ अथोर्ध्वच्छदनम्पीठपादे स्कन्दं समर्चयेत् । लिङ्गे मूर्तिं समाकल्प्य मान्त्वया सह पूजयेत् ॥ ४२ ॥ ऊर्ध्वच्छदनकी [पूजा] तथा पीठपादमें स्कन्दकी पूजा करनेके अनन्तर लिंगमें मूर्तिकी कल्पनाकर तुम्हारे साथ मेरी पूजा करे ॥ ४२ ॥ सम्यग् भक्त्या विधानेन यतिर्मद्ध्यानतत्परः । एवं मया ते कथितमतिगुह्यमिदं प्रिये ॥ ४३ ॥ गोपनीयं प्रयत्नेन न देयं यस्य कस्यचित् । मम भक्ताय दातव्यं यतये वीतरागिणे ॥ ४४ ॥ यह सब कार्य यति मेरे ध्यानमें तत्पर हो भक्तिपूर्वक करे । हे प्रिये ! पूजाकी यह अतिगुह्य विधि मैंने तुमसे कही । इसे यत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये और जिस किसीको नहीं दे देना चाहिये । मेरे भक्त तथा रागरहित यतिको ही इसे प्रदान करे ॥ ४३-४४ ॥ गुरुभक्ताय शान्ताय मदर्थे योगभागिने । ममाज्ञामतिलंघ्यैतद्यो ददाति विमूढधीः ॥ ४५ ॥ स नारकी मम द्रोही भविष्यति न संशयः । मद्भक्तदानाद्देवेशि मत्प्रियश्च भवेद्ध ध्रुवम् । इह भुक्त्वाखिलान्भोगान्मत्सान्निध्यमवाप्नुयात् ॥ ४६ ॥ गुरुभक्त, शान्तचित्त तथा मेरी प्राप्तिके लिये योगपरायण [यति]-को ही इसे प्रदान करे, किंतु मेरी आज्ञाका उल्लंघनकर जो बुद्धिहीन इसे अपात्रको देता है, वह मेरा द्रोही है और वह नरकमें जायगा, इसमें सन्देह नहीं है । हे देवेशि ! इस पूजाको जो मेरे भक्तोंको देता है, वह मेरा प्रिय होता है, वह इस लोकके सभी भोगोंको भोगकर अन्तमें मेरा सान्निध्य प्राप्त कर लेता है । ४५-४६ ॥ व्यास उवाचः - एतच्छुत्वा महादेवी महादेवेन भाषितम् । स्तुत्वा तु विविधैः स्तोत्रैर्देवम्वेदार्थगर्वितैः ॥ ४७ ॥ श्रीमत्पादाब्जयोः पत्युः प्रणवं परमेश्वरी । अतिप्रहृष्टहृदया मुमोद मुनिसत्तमाः ॥ ४८ ॥ व्यासजी बोले-हे मुनिगणो ! शिवजीके इस प्रकारके वचनको सुनकर अतिप्रसन्न हृदयवाली परमेश्वरी पार्वती वेदार्थयुक्त अनेक प्रकारके स्तोत्रोंसे स्तुतिकर तथा अपने पतिके श्रीसम्पन्न चरण-कमलोंमें प्रेमपूर्वक नमस्कारकर बहुत ही हर्षित हुई । ४७-४८ ॥ अतिगुह्यमिदं विप्राः प्रणवार्थप्रकाशकम् । शिवज्ञानपरं ह्येतद्भवतामार्तिनाशनम् ॥ ४९ ॥ हे ब्राह्मणो ! प्रणवार्थकी प्रकाशिका यह विधि अत्यन्त गुप्त है, शिवज्ञानसे पूर्ण है और आपलोगोंके सभी दुःखोंको दूर करनेवाली है ॥ ४९ ॥ सूत उवाचः - इत्युक्त्वा मुनिशार्दूलः पराशर्यो महातपाः । पूजितः परया भक्त्या मुनिभिर्वेदवादिभिः ॥ ५० ॥ कैलासाद्रिमनुसृत्य ययौ तस्मात्तपोवनात् । तेऽपि प्रहृष्टहृदयाः सत्रान्ते परमेश्वरम् ॥ ५१ ॥ सम्पूज्य परया भक्त्या सोमं सोमार्द्धशेखरम् । यमादियोगनिरताः शिवध्यानपराभवन् ॥ ५२ ॥ सूतजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठो ! इस प्रकार कहकर महातपस्वी पराशरपुत्र व्यासदेव वेदवेत्ता महर्षियोंसे परम भक्तिपूर्वक पूजित हो [शिवजीका] स्मरणकर उस तपोवनसे कैलासपर्वतकी ओर चले गये । ऋषिगण भी प्रसन्नचित्त होकर यज्ञके अन्त में उत्तम भक्तिभावपूर्वक चन्द्रशेखर परमेश्वर शंकरका पूजनकर यमादि योगोंमें तत्पर हो शिवध्यानपरायण हो गये । ५०-५२ ॥ गुहाय कथितं ह्येतद्देव्या तेनापि नन्दिने । सनत्कुमारमुनये प्रोवाच भगवान् हि सः ॥ ५३ ॥ तस्माल्लब्धं मद्गुरुणा व्यासेनामिततेजसा । तस्माल्लब्धमिदं पुण्यं मयापि मुनिपुङ्गवाः ॥ ५४ ॥ हे मुनिश्रेष्ठो ! इस कथाको देवीने स्कन्दसे, स्कन्दने नन्दीसे, भगवान् नन्दीने मुनिवर सनत्कुमारसे कहा था और सनत्कुमारने भगवान् वेदव्याससे कहा । इसके पश्चात् उन महातेजस्वी व्यासजीद्वारा यह पवित्र प्रसंग मैंने प्राप्त किया ॥ ५३-५४ ॥ मया वः श्रावितं ह्येतद् गुह्याद् गुह्यतरं परम् । ज्ञात्वा शिवप्रियान्भक्त्या भवतो गिरिशप्रियम् ॥ ५५ ॥ [हे मुनिश्रेष्ठ !] मैंने यह गुह्यातिगुह्य तथा शिवप्रिय चरित्र आपलोगोंको शिवभक्त जानकर भक्तिपूर्वक सुनाया ॥ ५५ ॥ भवद्भिरपि दातव्यमेतद्गुह्यं शिवप्रियम् । यतिभ्यः शान्तचित्तेभ्यो भक्तेभ्यः शिवपादयोः ॥ ५६ ॥ शिवजीको प्रिय, अत्यन्त गुप्त तथा प्रणवार्थप्रकाशक, जो यह चरित्र है, उसे आपलोगोंको भी शिवजीके चरणोंमें भक्ति रखनेवाले शान्तचित्त यतियोंको ही देना चाहिये ॥ ५६ ॥ एतदुक्त्वा महाभागः सूतः पौराणिकोत्तमः । तीर्थयात्राप्रसङ्गेन चचार पृथिवीमिमाम् ॥ ५७ ॥ पुराणवेत्ताओंमें श्रेष्ठ सूतजी इस प्रकार कहकर तीर्थयात्राके प्रसंगसे पृथ्वीपर भ्रमण करने लगे । ५७ ॥ एतद्रहस्यं परमं लब्ध्वा सूतान्मुनीश्वराः । काश्यामेव समासीना मुक्ताः शिवपदं ययुः ॥ ५८ ॥ इसके पश्चात् सूतजीसे इस गुप्त रहस्यको ग्रहणकर वे सभी ऋषि काशीमें निवासकर मुक्त हो गये और शिवजीके धामको चले गये ॥ ५८ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे षष्ठ्यां कैलाससंहितायां प्रणवार्थपद्धतिवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत छठी कैलाससंहितामें प्रणवार्थपद्धति वर्णन नामक नौवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |