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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
कैलाससंहिता
॥ दशमोऽध्यायः ॥ सूतोपदेशः
सूतजीका काशीमें आगमन व्यास उवाचः - गतेऽथ सूते मुनयः सुविस्मिता विचिन्त्य चान्योन्यमिदन्तु विस्मृतम् । यद्वामदेवस्य मतन्मुनीश्वर प्रत्यूचितन्तत्खलु नष्टमद्य नः ॥ १ ॥ व्यासजी बोले-हे मुनीश्वर ! सूतजीके चले जानेपर मुनिगण बहुत ही आश्चर्यचकित हुए और आपसमें विचार करके कहने लगे कि वामदेवका मत जिसे सूतजीने कहा था और जो बहुत कठिन है, उसे तो हमलोगोंने भुला दिया ॥ १ ॥ कदानुभूयान्मुनिवर्यदर्शनम् भवाब्धिदुःखौघहरम्परं हि तत् । महेश्वराराधनपुण्यतोऽधुना मुनीश्वरः सत्वरमाविरस्तु नः ॥ २ ॥ अब यही ज्ञात नहीं कि उन मुनिवर्यके कब दर्शन होंगे ? उनका उत्तम दर्शन तो संसारसागरके दुःखसमूहसे पार करनेवाला है । हमारी इच्छा है कि महेश्वरके आराधनरूप पुण्यप्रतापसे शीघ्र ही सूतजीका दर्शन प्राप्त हो ॥ २ ॥ इति चिन्तासमाविष्टा मुनयो मुनिपुङ्गवम् । व्यासं संपूज्य हृत्पद्मे तस्थुस्तद्दशर्नोत्सुकाः ॥ ३ ॥ संवत्सरान्ते स पुनः काशीं प्राप महामुनिः । शिवभक्तिरतो ज्ञानी पुराणार्थप्रकाशकः ॥ ४ ॥ इस प्रकारकी चिन्तामें निमग्न सभी मुनिगण हदयकमलमें व्यासजीकी पूजा करके उत्सुकतापूर्वक उनके दर्शनकी प्रतीक्षा करते हुए वहीं स्थित हो गये । एक संवत्सरके बीत जानेके बाद शिवभक्त, ज्ञानी एवं पुराणार्थप्रकाशक महामुनि सूतजी पुनः काशीमें आये ॥ ३-४ ॥ तन्दृष्ट्वा सूतमायान्तम्मुनयो हृष्टचेतसः । अभ्युत्थानासनार्घ्यादिपूजया समपूजयन् ॥ ५ ॥ सूतजीको आता हुआ देखकर ऋषिगण बहुत ही प्रसन्न हुए और उन्होंने स्वागत, आसनदान तथा अर्घ्यदान आदिसे उनकी पूजा की ॥ ५ ॥ सोऽपि तान्मुनिशार्दूलानभिनन्द्य स्मितोदरम् । प्रीत्या स्नात्वा जाह्नवीये जले परमपावने ॥ ६ ॥ ऋषीन्संतर्प्य च सुरान् पितॄंश्च तिलतण्डुलैः । तीरमागत्य सम्प्रोक्ष्य वाससी परिधाय च ॥ ७ ॥ द्विराचम्य समादाय भस्म सद्यादिमन्त्रतः । उद्धूलनादिक्रमतो विधार्याथ मुनीश्वरः ॥ ८ ॥ रुद्राक्षमालाभरणः कृतनित्यक्रियः सुधीः । यथोक्ताङ्गेषु विधिना त्रिपुण्ड्रं रचति स्म ह ॥ ९ ॥ विश्वेश्वरमुमाकान्तं ससुतं सगणाधिपम् । पूजयामास सद्भक्त्या ह्यस्तौ न्नत्वा मुहुर्मुहुः ॥ १० ॥ इसके पश्चात् सूतजीने उन श्रेष्ठ मुनिगणोंद्वारा पूजित हो प्रसन्नतापूर्वक मन्द-मन्द मुसकराकर उनका अभिनन्दन किया । तदनन्तर उन्होंने गंगाजीके परम पवित्र जलमें स्नानकर ऋषिगणों, देवगणों और पितरोंका अक्षत एवं तिलादिसे तर्पणकर तटपर आ करके शरीरको पोंछकर वस्त्र एवं उत्तरीय धारण किया और दो बार आचमन करके भस्म लेकर सद्योजातादि मन्त्रसे क्रमशः भस्मोद्धूलन किया । रुद्राक्षमाला धारणकर उन बुद्धिमान् सूतजीने अपना नित्यकर्म सम्पादन किया और विधिपूर्वक उन-उन स्थानोंपर त्रिपुण्ड लगाकर प्रधान गण तथा गणपतिसहित उमाकान्त भगवान् विश्वेश्वरका उत्तम भक्तिभावसे पूजन किया तथा बारबार हाथ जोड़कर नमस्कार किया ॥ ६-१० ॥ कालभैरवनाथं च संपूज्याथ विधानतः । प्रदक्षिणीकृत्य पुनस्त्रेधा नत्वा च पंचधा ॥ ११ ॥ पुनः प्रदक्षिणी कृत्य प्रणम्य भुवि दण्डवत् । तुष्टाव परया स्तुत्या संस्मरंस्तत्पदाम्बुजम् ॥ १२ ॥ इसके बाद उन्होंने विधिविधानसे कालभैरवनाथको पूजाकर तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक पाँच बार उन्हें नमस्कार किया और पुनः प्रदक्षिणापूर्वक पृथ्वीपर साष्टांग प्रणामकर उनके चरणकमलोंका स्मरण करते हुए पराभक्तिसे युक्त हो उनकी स्तुति की ॥ ११-१२ ॥ श्रीमत्पंचाक्षरीं विद्यामष्टोत्तरसहस्रकम् । संजप्य पुरतः स्थित्वा क्षमापय महेश्वरम् ॥ १३ ॥ चण्डीशं सम्प्रपूज्याथ मुक्तिमण्डपमध्यतः । निर्दिष्टमासनं भेजे मुनिभिर्वेदपारगैः ॥ १४ ॥ उन्होंने एक हजार आठ बार ऐश्वर्यमयी पंचाक्षरी विद्याका जपकर महेश्वरके सम्मुख स्थित हो उनसे क्षमा प्रार्थना की । इसके बाद वे मुक्तिमण्डपके बीचमें चण्डीश्वरकी पूजाकर वेदविद्याविशारद महर्षियोंके द्वारा निर्दिष्ट आसनपर बैठे ॥ १३-१४ ॥ एवं स्थितेषु सर्वेषु नमस्कृत्य समन्त्रकम् । अथ प्राह मुनीन्द्राणां भाववृद्धिकरं वच ॥ १५ ॥ जब सभी लोग बैठ गये । तब वे मन्त्रपूर्वक शान्तिपाठ, मंगलाचरणादि करनेके उपरान्त मुनिगणों के हृदयमें सद्भावकी वृद्धि करते हुए इस प्रकार कहने लगे- ॥ १५ ॥ सूत उवाच - धन्या यूयं महाप्राज्ञा मुनयः शंसितव्रताः । भवदर्थमिह प्राप्तोऽहं तद्वृत्तमिदं शृणु ॥ १६ ॥ सूतजी बोले-प्रशंसनीय व्रतवाले हे महाप्राज्ञ ऋषियो ! आपलोग धन्य हैं, आपलोगोंके पास मैं जिस उद्देश्यसे आया हूँ, उसका वृत्तान्त आपलोग सुनें ॥ १६ ॥ यदाहमुपदिश्याथ भवतः प्रणवार्थकम् । गतस्तीर्थाटनार्थाय तद्वृत्तान्तं ब्रवीमि वः ॥ १७ ॥ आपलोगोंको प्रणवका उपदेश देकर उस समयमें मैं तीर्थयात्रा करने चला गया था, अब उसका वृत्तान्त आपलोगोंसे कह रहा हूँ ॥ १७ ॥ इतो निर्गत्य सम्प्राप्य तीरं दक्षपयोनिधेः । स्नात्वा सम्पूज्य विधिवद्देवीं कन्यामयीं शिवाम् । पुनरागत्य विप्रेन्द्राः सुवर्णमुखरीतटम् ॥ १८ ॥ श्रीकालहस्तिशैलाख्यनगरे परमाद्भुते । सुवर्णमुखरीतोये स्नात्वा देवानृषीनपि ॥ १९ ॥ सन्तर्प्य विधिवद्भक्त्या समुदं गिरिशं स्मरन् । समर्च्य कालहस्तीशं चन्द्रकान्तसमप्रभम् ॥ २० ॥ पश्चिमाभिमुखं पंचशिरसं परमाद्भुतम् । सकृद्दर्शनमात्रेण सर्वाघक्षयकारणम् ॥ २१ ॥ सर्वसिद्धिप्रदं भुक्तिमुक्तिदं त्रिगुणेश्वरम् । ततश्च परया भक्त्या तस्य दक्षिणगां शिवाम् ॥ २२ ॥ ज्ञानप्रसूनकलिकां समर्च्य हि जगत्प्रसूम् । श्रीमत्पंचाक्षरीं विद्यामष्टोत्तरसहस्रकम् ॥ २३ ॥ जप्त्वा प्रदक्षिणीकृत्य स्तुत्वा नत्वा मुहुर्मुहुः ॥ २४ ॥ सर्वप्रथम मैं यहाँसे चलकर दक्षिण समुद्रतट पर गया, वहाँपर स्नानकर विधिपूर्वक कन्याकुमारी देवी शिवाका पूजन किया । इसके पश्चात् हे ब्राह्मणो ! वहाँसे सुवर्णमुखरीके तटपर गया । वहाँ कालहस्ती शैल नामक अत्यन्त अद्भुत नगर है, जहाँ सुवर्णमुखरीके जलमें स्नान करके देवगणों तथा ऋषिगणोंका भक्तिके साथ विधिपूर्वक तर्पणकर समुद्र और भगवान् शंकरका स्मरण करते हुए चन्द्रकान्तके समान प्रभामण्डलसे युक्त पश्चिमाभिमुख स्थित, पाँच सिरवाले, अत्यन्त अद्भुत, एक ही बारके दर्शनसे सारे पापोंको विनष्ट करनेवाले, सभी प्रकारकी सिद्धि, भुक्ति तथा मुक्ति देनेवाले त्रिगुणेश्वर कालहस्तीश्वरका पूजन किया और बादमें मैंने भक्तिभावसमन्वित हो उनके दक्षिण भागमें विराजमान पार्वती, जो जगत्को उत्पन्न करनेवाली तथा ब्रह्मज्ञानरूपी पुष्पकी कली हैं, उनका पूजन किया और एक हजार आठ बार ऐश्वर्यशालिनी पंचाक्षरी महाविद्याका जपकर उनकी प्रदक्षिणा तथा स्तुति करके बार-बार उन्हें नमस्कार किया ॥ १८-२४ ॥ ततः प्रदक्षिणीकृत्य गिरिं प्रत्यहमादरात् । आमोदतीव मनसि प्रत्यहं नियमास्थितः ॥ २५ ॥ अनयन् चतुरो मासानेवं तत्र मुनीश्वराः । ज्ञानप्रसूनकलिकामहादेव्याः प्रसादतः ॥ २६ ॥ इसके बाद मैं प्रसन्नतापूर्वक प्रतिदिन कालहस्तीश्वरकी प्रदक्षिणा करते हुए नियमपूर्वक उसी क्षेत्रमें निवास करने लगा । हे मुनीश्वरो ! इस प्रकार मैंने ज्ञानप्रसूनकी कलिका श्रीमहादेवीकी कृपासे चार महीनेका समय उस क्षेत्रमें बिताया ॥ २५-२६ ॥ एकदा तु समास्तीर्य चैलाजिनकुशोत्तरम् । आसनं परमं तस्मिन् स्थित्वा रुद्धेन्द्रियो मुनि ॥ २७ ॥ समाधिमास्थाय सदा परमानंदचिघ्दधनः । परिपूर्णः शिवोऽस्मीति निर्व्यग्रहृदयोऽभवम् ॥ २८ ॥ एतस्मिन्नेव समये सद्गुरुः करुणानिधिः । नीलजीमूतसङ्काशो विद्युत्पिङ्गजटाधरः ॥ २९ ॥ प्रांशुः कमण्डलूद्दण्डकृष्णाजिनधरः स्वयम् । भस्मावदातसर्वाङ्गः सर्वलक्षणलक्षितः ॥ ३० ॥ त्रिपुण्ड्रविलसद्भालो रुद्राक्षालङ्कृताकृतिः । पद्मपत्रारुणायामविस्तीर्णनयनद्वयः ॥ ३१ ॥ प्रादुर्भूय हृदम्भोजे तदानीमेव सत्वरम् । विमोहितस्तदैवासमेतदद्भुतमास्तिकाः ॥ ३२ ॥ तदनन्तर एक बार जब मैं कुशा, मृगचर्म एवं उसके ऊपर वस्त्रका आसन बिछाकर उसपर बैठकर मौन धारण करके इन्द्रियोंको रोककर समाधिस्थ हो 'मैं सर्वदा परमानन्द चिद्घन परिपूर्ण शिव हूँ'-इस प्रकार ध्यान करता हुआ हृदयमें शान्तिका अनुभव कर रहा था कि इतने में ही नीले मेघके समान कान्तियुक्त, बिजलीके समान पीली जटा धारण किये, विशालकाय, कमण्डलु-दण्ड एवं कृष्णाजिन धारण किये, सम्पूर्ण अंगोंमें भस्म लगाये हुए, सभी प्रकारके लक्षणोंसे युक्त, ललाटपर त्रिपुण्ड्र धारण किये तथा रुद्राक्षसे अलंकृत देहवाले मेरे सद्गुरु करुणावरुणालय व्यासजी मेरे हृदयकमलमें प्रकट हो गये । हे मुनियो ! उनके दोनों नेत्र कमलदलके समान अरुण तथा विस्तृत थे । हे आस्तिक मुनियो ! इस प्रकार अपने हृदयकमलमें [परिपूर्ण शोभासे समन्वित] व्यासजीके अद्धत प्राकट्यको देखकर मैं सर्वथा मोहित हो गया ॥ २७-३२ ॥ तत उन्मील्य नयने विलापं कृतवानहम् । आसीन्ममाश्रुपातश्च गिरिनिर्झरसन्निभः ॥ ३३ ॥ एतस्मिन्नेव समये श्रुता वागशरीरिणी । व्योम्नो महाद्भुता विप्रास्तामेव शृणुतादरात् ॥ ३४ ॥ इसके पश्चात् मैं नेत्र खोलकर विलाप करने लगा । उस समय पर्वतके झरनेके समान मेरे नेत्रोंसे निरन्तर अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी । हे विप्रो । ठीक उसी समय मुझे आकाशमण्डलसे परम आश्चर्यमयी अव्यक्त वाणी सुनायी पड़ी । आपलोग उसे आदरपूर्वक सुनें ॥ ३३-३४ ॥ सूतपुत्र महाभाग गच्छ वाराणसीं पुरीम् । तत्रासन्मुनयः पूर्वमुपदिष्टास्त्वयाधुना ॥ ३५ ॥ त्वदुपागमकल्याणं काङ्क्षन्ते विवशा भृशम् । तिष्ठन्ति ते निराहारा इत्युक्त्वा विरराम सा ॥ ३६ ॥ हे महाभाग ! हे लोमहर्षण ! हे सूतपुत्र ! तुम शीघ्र ही वाराणसीपुरी जाओ, पूर्व समयमें वहाँपर जिन मुनियोंको तुमने उपदेश दिया था, वे मुनिगण निराहार व्रत करते हुए अपने कल्याणकी कामनासे तुम्हारे आगमनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, ऐसा कहकर आकाशवाणी विरत गयी ॥ ३५-३६ ॥ तत उत्थाय तरसा देवन्देवीञ्च भक्तितः । प्रदक्षिणीकृत्य पुनः प्रणम्य भुवि दण्डवत् ॥ ३७ ॥ द्विषड्वारं गुरोराज्ञां विज्ञाय शिवयोरथ । क्षेत्रान्निर्गत्य तरसा चत्वारिंशद्दिनान्तरे ॥ ३८ ॥ आगतोऽस्मि मुनिश्रेष्ठा अनुगृह्णन्तु मामिह । मया किमद्य वक्तव्यं भवन्तस्तद् ब्रुवन्तु मे ॥ ३९ ॥ तदनन्तर मैं शीघ्र ही उठकर शिव तथा शिवाको भक्तिपूर्वक भूमिपर दण्डवत् प्रणाम करके पुन: बारह बार उनकी प्रदक्षिणाकर गुरुकी आज्ञाको जानकर शिव तथा शिवाके उस क्षेत्रसे शीघ्र निकलकर अब चालीस दिनके बाद यहाँ पहुँचा हूँ । हे मुनिश्रेष्ठो ! अब आपलोग मेरे ऊपर दया कीजिये । मैं आपलोगोंसे इस समय क्या कहूँ, उसे आपलोग मुझसे कहिये ॥ ३७-३९ ॥ इति सूतवचः श्रुत्वा ऋषयो हृष्टमानसाः । अवोचन्मुनिशार्दूलं व्यासन्नत्वा मुहुर्मुहुः ॥ ४० ॥ सूतजीका यह वचन सुनकर ऋषियोंने प्रसन्नचित्त होकर मुनिश्रेष्ठ व्यासजीको बारंबार प्रणाम करके यह कहा- ॥ ४० ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे षष्ठ्यां कैलाससंहितायां सूतोपदेशो नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत छठी कैलाससंहितामें सूतोपदेश नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |