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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
कैलाससंहिता
॥ एकादशोऽध्यायः ॥ वामदेवब्रह्मवर्णनम्
भगवान् कार्तिकेयसे वामदेवमुनिकी प्रणवजिज्ञासा ऋषय ऊचुः - सूत सूत महाभागस्त्वमस्मद्गुरुरुत्तमः । अतस्त्वां परिपृच्छामो भवतोऽनुग्रहो यदि ॥ १ ॥ श्रद्धालुषु च शिष्येषु त्वादृशा गुरवः सदा । स्निग्धभावा इतीदं नो दर्शितं भवताधुना ॥ २ ॥ ऋषिगण बोले-हे सूतजी ! हे महाभाग ! आप हमलोगोंके श्रेष्ठ गुरु हैं, आपकी [हम सबपर बड़ी] कृपा है, इसीलिये हमलोग आपसे पूछ रहे हैं । आपजैसे गुरु श्रद्धालु शिष्योंके प्रति सदा स्नेहभाव रखते हैं, ऐसा आपने इस समय प्रदर्शित कर दिया ॥ १-२ ॥ विरजाहोमसमये वामदेवमतं पुरा । सूचितं भवतास्माभिर्न श्रुतं विस्तरान्मुने ॥ ३ ॥ तदिदानीं श्रोतुकामाः श्रद्धया परमादरात् । वयं सर्वे कृपासिंधो प्रीत्या तद्वक्तुमर्हसि ॥ ४ ॥ हे मुने ! पहले आपने विरजाहोमके उपदेशके समय वामदेवके मतको बताया था, उसे हमलोगोंने विस्तारपूर्वक नहीं सुना है । हे कृपासिन्धो ! इस समय हम सभी लोग श्रद्धा और बड़े ही आदरसे उसे सुनना चाहते हैं, अतः आप प्रेमपूर्वक उसे कहिये ॥ ३-४ ॥ इति तेषां वचः श्रुत्वा सूतो हृष्टतनूरुहः । नमस्कृत्य महादेवं गुरोः परतरं गुरुम् ॥ ५ ॥ महादेवीं त्रिजननीं गुरुं व्यासं च भक्तितः । प्राह गम्भीरया वाचा मुनीनाह्लादयन्निदम् ॥ ६ ॥ हो गुरुसे भी श्रेष्ठ गुरु महादेवको, तीनों लोकोंकी जननी महादेवीको तथा [अपने] गुरु व्यासजीको भक्तिपूर्वक प्रणाम करके मुनियोंको प्रसन्न करते हुए गम्भीर वाणीमें यह कहने लगे ॥ ५-६ ॥ सूत उवाचः - स्वस्त्यस्तु मुनयः सर्वे सुखिनः सन्तु सर्वदा । शिवभक्ता स्थिरात्मानः शिवे भक्तिप्रवर्तकाः ॥ ७ ॥ तदतीव विचित्रं हि श्रुतं गुरुमुखाम्बुजात् । इतः पूर्वम्मया नोक्तं गुह्यप्राकट्यशङ्कया ॥ ८ ॥ यूयं खलु महाभागाः शिवभक्ता दृढव्रताः । इति निश्चित्य युष्माकं वक्ष्यामि श्रूयतां मुदा ॥ ९ ॥ सूतजी बोले-हे मुनियो ! आप सभीका कल्याण हो, आपलोग सर्वदा सुखी रहें, आपलोग शिवभक्त, स्थिरचित्त तथा शिवभक्तिका प्रचार करनेवाले हैं । मैंने गुरुके मुखकमलसे यह अत्यन्त अद्भुत बात सुनी थी, परंतु इस गुह्य रहस्यको प्रकट हो जानेके भयसे आजतक किसीसे नहीं कहा । आपलोग निश्चितरूपसे शिवभक्त, दृढव्रती एवं महाभाग्यशाली हैं-ऐसा सोचकर मैं आपलोगोंसे कह रहा हूँ, प्रसन्नतापूर्वक सुनिये ॥ ७-९ ॥ पुरा रथन्तरे कल्पे वामदेवो महामुनिः । गर्भमुक्तः शिवज्ञानविदां गुरुतमः स्वयम् ॥ १० ॥ वेदागमपुराणादिसर्वशास्त्रार्थतत्त्ववित् । देवासुरमनुष्यादिजीवानां जन्मकर्मवित् ॥ ११ ॥ भस्मावदातसर्वेाङ्गो जटामण्डललमंडितः । निराश्रयो निःस्पृहश्च निर्द्वन्द्वो निरहङ्कृतिः ॥ १२ ॥ दिगंबरो महाज्ञानी महेश्वर इवापरः । शिष्यभूतैर्मुनीन्द्रैश्च तादृशैः परिवारितः ॥ १३ ॥ पर्यटन्पृथिवीमेतां स्वपाद स्पर्शपुण्यतः । पवित्रयन्परे धाम्नि निमग्नहृदयोन्वहम् ॥ १४ ॥ कुमारशिखरंमेरोर्दक्षिणं प्राविशं मुदा । यत्रास्ते भगवानीशतन यः शिखिवाहनः ॥ १५ ॥ ज्ञानशक्तिधरो वीरः सर्वासुरविमर्दनः । गजावल्लीसमायुक्तः सर्वेैर्देवैर्नमस्कृतः ॥ १६ ॥ पूर्व समयमें रथन्तर कल्पमें महामुनि वामदेवजी गर्भसे उत्पन्न होते ही सभी शिवज्ञानवेत्ताओंमें सर्वश्रेष्ठ माने जाने लगे । वे वेद, आगम, पुराण आदि सभी शास्त्रोंके अर्थतत्त्वके ज्ञाता और देव, असुर, मनुष्य आदि सभी जीवोंके जन्म एवं कर्मके वेत्ता थे । वे सम्पूर्ण शरीरमें भस्मलेपसे युक्त, जटामण्डलसे मण्डित, निराश्रय, निःस्पृह, निर्द्वन्द्व, अहंकारहीन, दिगम्बर, महाज्ञानी तथा दूसरे शिवके समान थे और अपने ही सदृश बड़े-बड़े शिष्यरूप मुनियोंसे सदा घिरे रहते थे । परब्रह्ममें सदा निमग्न चित्तवाले, भ्रमणनिरत तथा अपने चरणोंके स्पर्शजनित पुण्यसे इस पृथ्वीको पवित्र करते हुए वे एक समय मेरुके दक्षिणमें स्थित कुमारशिखरपर प्रसन्नतापूर्वक पहुँचे, जहाँ ज्ञानरूपी शक्तिको धारण करनेवाले, महावीर, सभी असुरॉके विनाशक [अपनी पत्नी] गजावल्लीसे सुशोभित तथा सभी देवगणोंके द्वारा नमस्कृत शिवपुत्र भगवान् कार्तिकेय विराजमान थे ॥ १०-१६ ॥ तत्र स्कन्दसरो नाम सरः सागरसन्निभम् । शिशिरस्वादुपानीयं स्वच्छागाधबहूदकम् ॥ १७ ॥ सर्वेाश्चर्यगुणोपेतं विद्यते स्वामिसन्निधौ । तत्र स्नात्वा वामदेवः सहशिष्यैर्महामुनिः ॥ १८ ॥ कुमारं शिखरासीनं मुनिवृन्दनिषेवितम् । उद्यदादित्यसङ्काशं मयूरवरवाहनम् ॥ १९ ॥ चतुर्भुजमुदाराङ्गं मुकुटादिविभूषितम् । शक्तिरत्नद्वयोपास्यं शक्तिकुक्कुटधारिणम् ॥ २० ॥ वरदाभयहस्तं च दृष्ट्वा स्कन्दं मुनीश्वरः । सम्पूज्य परया भक्त्या स्तोतुं समुपचक्रमे ॥ २१ ॥ वहाँ स्कन्दसर नामका सरोवर था, जो सागरके समान गम्भीर, शीतल एवं स्वादिष्ट जलसे परिपूर्ण, अत्यन्त स्वच्छ, अगाध तथा पर्याप्त जलवाला था । सभी आश्चर्यमय गुणोंसे युक्त वह सरोवर स्वामी कार्तिकेयके समीप विद्यमान था । महामुनि वामदेव अपने शिष्योंके साथ उसमें स्नान करके कुमारशिखरपर विराजमान, मुनिवन्दद्वारा सेवित, उदीयमान सूर्यके समान तेजस्वी, श्रेष्ठ मयूरपर आरूड, चार भुजाओंवाले, मनोहर विग्रहवाले, मुकुट आदिसे विभूषित, रत्नभूत दो शक्तियोंसे उपासित, [अपने चारों हाथोंमें] शक्ति, कुक्कुट, वर तथा अभय मुद्रा धारण करनेवाले स्कन्दको देखकर परम भक्तिसे उनका पूजन करके स्तुति करने लगे ॥ १७-२१ ॥ वामदेव उवाचः - ॐ नमः प्रणवार्थाय प्रणवार्थविधायिने । प्रणवाक्षरबीजाय प्रणवाय नमोनमः ॥ २२ ॥ वामदेव बोले-प्रणवके अर्थ-स्वरूप तथा प्रणवार्थके प्रतिपादकको नमस्कार है । प्रणवाक्षररूप बीज एवं प्रणवस्वरूप आपको बार-बार नमस्कार है ॥ २२ ॥ वेदान्तार्थस्वरूपाय वेदान्तार्थविधायिने । वेदान्तार्थविदे नित्यं विदिताय नमोनमः ॥ २३ ॥ नमो गुहाय भूतानां गुहासु निहिताय च । गुह्याय गुह्यरूपाय गुह्यागमविदे नमः ॥ २४ ॥ वेदान्तके अर्थस्वरूप, वेदान्तके अर्थका विधान करनेवाले, वेदान्तके अर्थके वेत्ता एवं सर्वत्र व्याप्त आपको बार-बार प्रणाम है । सभी प्राणियोंके अन्त:करणरूपी गुहामें स्थित कार्तिकेयको नमस्कार है, गुह्य, गुह्यरूप एवं गुह्यशास्त्रवेत्ताको बार-बार नमस्कार है ॥ २३-२४ ॥ अणोरणीयसे तुभ्यं महतोपि महीयसे । नमः परावरज्ञाय परमात्मस्वरूपिणे ॥ २५ ॥ सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, महान्से भी महान्, पर-अपरके ज्ञाता एवं परमात्मस्वरूप आपको नमस्कार है ॥ २५ ॥ स्कन्दाय स्कन्दरूपाय मिहिरारुणतेजसे । नमो मन्दारमालोद्यन्मुकुटादिभृते सदा ॥ २६ ॥ स्कन्दस्वरूप, आदित्यके समान अरुण तेजवाले, मन्दारमाला एवं कान्तिमान् मुकुट धारण करनेवाले आप स्कन्दको सर्वदा नमस्कार है ॥ २६ ॥ शिवशिष्याय पुत्राय शिवस्य शिवदायिने । शिवप्रियाय शिवयोरानन्दनिधये नम ॥ २७ ॥ गाङ्गेयाय नमस्तुभ्यं कार्तिकेयाय धीमते । उमापुत्राय महते शरकाननशायिने ॥ २८ ॥ शिवके शिष्य, शिवके पुत्र, कल्याण करनेवाले, शिवप्रिय एवं शिव-शिवाके आनन्दनिधिस्वरूप आपको नमस्कार है । गंगापुत्र, परम बुद्धिमान्, महान्, उमापुत्र एवं सरकण्डोंके वनमें शयन करनेवाले आप कार्तिकेयको नमस्कार है ॥ २७-२८ ॥ षडक्षरशरीराय षड्विधार्थविधायिने । षडध्वातीतरूपाय षण्मुखाय नमोनमः ॥ २९ ॥ द्वादशायतनेत्राय द्वादशोद्यतबाहवे । द्वादशायुधधाराय द्वादशात्मन्नमोस्तु ते ॥ ३० ॥ षडक्षररूप शरीवाले, छः प्रकारके अर्थाका प्रतिपादन करनेवाले तथा षडध्वाओंसे अतीत रूपवाले षण्मुखको बार-बार नमस्कार है । बड़े-बड़े बारह नेत्रोंवाले, उठी हुई बारह भुजाओंवाले, बारह आयुध धारण करनेवाले एवं बारह रूपोंवाले आपको नमस्कार है ॥ २९-३० ॥ चतुर्भुजाय शान्ताय शक्तिकुक्कुट धारिणे । वरदाय विहस्ताय नमोऽसुरविदारिणे ॥ ३१ ॥ चार भुजाओंवाले, शान्त, शक्ति-कुक्कुट, वर तथा अभयमुद्रा धारण करनेवाले, वर प्रदान करनेवाले तथा असुरोंका वध करनेवाले आपको नमस्कार है ॥ ३१ ॥ गजावल्लीकुचालिप्तकुङ्कुमाङ्कितवक्षसे । नमो गजाननानन्दमहिमानंदितात्मने ॥ ३२ ॥ [अपनी भार्या] गजावल्लीके स्तनोंपर लिप्त कुंकुमसे अंकित वक्षःस्थलवाले, गजाननको आनन्द प्रदान करनेवाले और अपनी महिमासे स्वयं आनन्दित रहनेवाले आपको नमस्कार है ॥ ३२ ॥ ब्रह्मादिदेवमुनिकिन्नरगीयमान गाथाविशेषशुचिचिन्तितकीर्त्तिधाम्ने । वृन्दारकामलकिरीटविभूषणस्रक् पूज्याभिरामपदपङ्कज ते नमोस्तु ॥ ३३ ॥ जिनकी गाथाका ब्रह्मादि देवता, ऋषि एवं किन्नरगण गान करते हैं और जिनकी कीर्ति पवित्र चरित्रवाले महात्माओंके द्वारा गायी जा रही है । देवताओंके निर्मल किरीटको विभूषित करनेवाली पुष्पमालासे पूजित मनोहर चरणकमलोंवाले [भगवन् !] आपको नमस्कार है ॥ ३३ ॥ इति स्कन्दस्तवं दिव्यं वामदेवेन भाषितम् । यः पठेच्छृणुयाद्वापि स याति परमां गतिम् ॥ ३४ ॥ महाप्रज्ञाकरं ह्येतच्छिवभक्तिविवर्द्धनम् । आयुरारोग्यधनकृत्सर्वकामप्रदं सदा ॥ ३५ ॥ वामदेवजीके द्वारा कहे गये इस दिव्य कार्तिकेयस्तोत्रको जो पढ़ता है अथवा सुनता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है । यह [स्तोत्र] विशद बुद्धि प्रदान करनेवाला, शिवभक्तिको बढ़ानेवाला, आयु-आरोग्य-धनकी वृद्धि करनेवाला एवं सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है । ३४-३५ ॥ इति स्तुत्वा वामदेवो देवं सेनापतिं प्रभुम् । प्रदक्षिणात्रयं कृत्वा प्रणम्य भुवि दण्डवत् ॥ ३६ ॥ साष्टाङ्गं च पुनः कृत्वा प्रदक्षिणनमस्कृतम् । अभवत्पार्श्वतस्तस्य विनयावनतो द्विजाः ॥ ३७ ॥ वामदेवकृतं स्तोत्रं परमार्थविजृम्भितम् । श्रुत्वाभवत्प्रसन्नो हि महेश्वरसुतः प्रभुः ॥ ३८ ॥ हे द्विजो ! वामदेवजी देवताओंके सेनापति प्रभु कार्तिकेयकी इस प्रकार स्तुति करके तीन बार प्रदक्षिणाकर पृथ्वीपर दण्डवत् प्रणाम करके पुनः साष्टांग प्रणाम तथा प्रदक्षिणा करके विनयावनत हो उनके समीप बैठ गये । वामदेवजीद्वारा किये गये परमार्थयुक्त स्तोत्रको सुनकर महेश्वरपुत्र प्रभु स्कन्द प्रसन्न हो गये ॥ ३६-३८ ॥ तमुवाच महासेनः प्रीतोस्मि तव पूजया । भक्त्या स्तुत्या च भद्रं ते किमद्यकरवाण्यहम् ॥ ३९ ॥ मुने त्वं योगिनां मुख्यः परिपूर्णश्च निस्पृहः । भवादृशां हि लोकेऽस्मिन् प्रार्थनीयं न विद्यते ॥ ४० ॥ तथापि धर्म्मरक्षायै लोकानुग्रहकाङ्क्षया । त्वादृशा साधवः सन्तो विचरन्ति महीतले ॥ ४१ ॥ श्रोतव्यमस्ति चेद् ब्रह्मन् वक्तुमर्हसि साम्प्रतम् । तदिदानीमहं वक्ष्ये लोकानुग्रहहे तवे ॥ ४२ ॥ इसके बाद कार्तिकेयजीने उनसे कहा-मैं आपकी पूजा, भक्ति तथा स्तुतिसे प्रसन्न हूँ, मैं इस समय आपका कौन-सा कल्याण करूँ ? हे मुने ! आप योगियोंमें प्रधान, परिपूर्णकाम और नि:स्पृह हैं. इस लोक आप-जैसे लोगोंके लिये कुछ भी प्रार्थनीय नहीं है । फिर भी धर्मकी रक्षाके लिये तथा लोगोंपर कृपा करनेकी कामनासे आपजैसे साधु-सन्त पृथ्वीपर भ्रमण करते हैं । हे ब्रह्मन् ! जो आप सुनना चाहते हैं, उसे इस समय पूछिये; मैं लोककल्याणके लिये उसे अवश्य कहूँगा ॥ ३९-४२ ॥ इति स्कन्दवचः श्रुत्वा वामदेवो महामुनिः । प्रश्रयावनतः प्राह मेघगम्भीरया गिरा ॥ ४३ ॥ स्कन्दजीका यह वचन सुनकर महामुनि वामदेवजी विनयावनत होकर मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहने लगे- ॥ ४३ ॥ वामदेव उवाचः - भगवन्परमेशस्त्वं परापरविभूतिदः । सर्वज्ञः सर्वकर्त्ता च सर्वशक्तिधरः प्रभुः ॥ ४४ ॥ जीवा वयं तु ते वक्तुं सन्निधौ परमेशितुः । तथाप्यनुग्रहोऽयं ते यत्त्वं वदसि मां प्रति ॥ ४५ ॥ वामदेव बोले-हे भगवन् ! आप पर तथा अवर विभूतिको देनेवाले, सर्वज्ञ, सब कुछ करनेवाले, समस्त शक्तियोंको धारण करनेवाले तथा सर्वसमर्थ परमेश्वर हैं । हमलोग तो जीव हैं और आप परमेश्वरके सन्निधानमें कुछ कहनेमें असमर्थ हैं, यह तो आपकी कृपा है, जो आप मुझसे ऐसा कह रहे हैं । ४४-४५ ॥ कृतार्थोहं महाप्राज्ञ विज्ञानकणमात्रतः । प्रेरितः परिपृच्छामि क्षन्तव्योऽतिक्रमो मम ॥ ४६ ॥ हे महाप्राज्ञ ! मैं कृतकृत्य हो गया, फिर भी कणमात्र ज्ञानसे प्रेरित होकर कुछ पूछ रहा हूँ, मेरे इस दुस्साहसको क्षमा कीजिये ॥ ४६ ॥ प्रणवो हि परः साक्षात्परमेश्वरवाचकः । वाच्यः पशुपतिर्देवः पशूनां पाशमोचकः ॥ ४७ ॥ वाचकेन समाहूतः पशून्मोचयते क्षणात् । तस्माद्वाचकतासिद्धिः प्रणवेन शिवं प्रति ॥ ४८ ॥ प्रणव श्रेष्ठ [मन्त्र] है, यह साक्षात् परमेश्वरका वाचक है एवं जीवोंको बन्धनसे मुक्त करनेवाले पशुपति देव इसके वाच्य हैं । प्रणवरूप वाचकसे भलीभाँति आहूत होनेपर वे [पशुपति] क्षणमात्रमें जीवोंको मुक्त कर देते हैं, इसलिये प्रणवकी शिवजीके प्रति वाचकता सिद्ध हो जाती है । ४७-४८ ॥ ॐ मितीदं सर्वमिति श्रुतिराह सनातनी । ओमिति ब्रह्म सर्वें हि ब्रह्मेति च समब्रवीत् ॥ ४९ ॥ देवसेनापते तुभ्यं देवानां पतये नमः । नमो यतीनां पतये परिपूर्णाय ते नमः ॥ ५० ॥ सनातन श्रुतिमें भी कहा गया है 'ओमितीदं सर्वम्, ओमिति ब्रह्म सर्वम्' यह सब कुछ ॐकार है और ॐकार ही ब्रह्म है । हे देवसेनापते ! देवताओंके स्वामी आपको नमस्कार है, यतियोंके पतिको नमस्कार है, परिपूर्णस्वरूप आपको नमस्कार है ॥ ४९-५० ॥ एवं स्थिते जगत्यस्मिन् शिवादन्यन्न विद्यते । सर्वरूपधरः स्वामी शिवो व्यापी महेश्वरः ॥ ५१ ॥ ऐसा होनेपर इस संसारमें शिवजीके अतिरिक्त अन्य कोई भी नहीं है । महेश्वर शिव ही सभी रूप धारण करनेवाले, व्यापक और सबके स्वामी हैं ॥ ५१ ॥ समष्टिव्यष्टिभावेन प्रणवार्थः श्रुतो मया । न जातुचिन्महासेन संप्राप्तस्त्वादृशो गुरुः ॥ ५२ ॥ अतः कृत्वानुकंपां वै तमर्थं वक्तुमर्हसि । उपदेशविधानेन सदाचारक्रमेण च ॥ ५३ ॥ स्वाम्येकः सर्वजन्तूनां पाशच्छेदकरो गुरुः । अतस्त्वत्कृपया सोऽर्थः श्रोतव्यो हि मया गुरो ॥ ५४ ॥ मैंने समष्टि-व्यष्टिभावसे प्रणवका अर्थ सुना है । हे महासेन ! मुझे आपके समान गुरु नहीं प्राप्त हुआ है । इसलिये मेरे ऊपर कृपा करके उपदेशविधिसे तथा सदाचारक्रमके साथ उस अर्थको बतानेकी कृपा करें । आप सभी जन्तुओंके एकमात्र स्वामी एवं भव-बन्धनको काटनेवाले गुरु हैं, अतः हे गुरो ! मैं आपकी कृपासे उस अर्थको सुनना चाहता हूँ ॥ ५२-५४ ॥ इति स मुनिना पृष्टः स्कन्दः प्रणम्य सदाशिवं प्रणववपुषं साष्टत्रिंशत्कलावरलक्षितम् । सहितमुमया शश्वत्पार्श्वे मुनिप्रवरान्वितं गदितुमुपचक्राम श्रेयः श्रुतिष्वपि गोपितम् ॥ ५५ ॥ जब मुनिने कार्तिकेयसे इस प्रकार पूछा, तब उन्होंने अड़तीस उत्तम कलाओंसे समन्वित प्रणवशरीरवाले, श्रेष्ठ मुनियोंसे घिरे हुए तथा पार्श्वभागमें निरन्तर विराजमान पार्वतीसहित शिवजीको प्रणाम करके वेदोंमें भी छिपे हुए श्रेयको मुनिसे कहना आरम्भ किया ॥ ५५ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे षष्ठ्यां कैलाससंहितायां वामदेवब्रह्मवर्णनन्नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत छठी कैलाससंहितामें वामदेवब्रह्मवर्णन नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |