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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
कैलाससंहिता
॥ चतुर्दशोऽध्यायः ॥ शिवरूपप्रणववर्णनम्
शिवस्वरूप प्रणवका वर्णन वामदेव उवाचः - भगवन्षण्मुखाशेष विज्ञानामृतवारिधे । विश्वामरेश्वरसुत प्रणतार्त्तिप्रभञ्जन ॥ १ ॥ षड्विधार्त्थपरिज्ञानमिष्टदं किमुदाहृतम् । के तत्र षड्विधा अर्थाः परिज्ञानं च किं प्रभो ॥ २ ॥ प्रतिपाद्यश्च कस्तस्य परिज्ञाने च किं फलम् । एतत्सर्वं समाचक्ष्व यद्यत्पृष्टं मया गुह ॥ ३ ॥ वामदेव बोले-हे भगवन् ! हे षण्मुख ! हे सम्पूर्ण विज्ञानरूपी अमृतके सागर ! हे समस्त देवताओंके स्वामी शिवजीके पुत्र ! हे शरणागतोंके दुःखके विनाशक ! आपने कहा कि प्रणवके छ: प्रकारोंके अर्थोंका ज्ञान अभीष्ट प्रदान करनेवाला है-वह क्या है, उसमें छ: प्रकारके कौन-से अर्थ हैं, उनका ज्ञान किस प्रकारसे किया जा सकता है, उसका प्रतिपाद्य कौन है और उसके परिज्ञानका फल क्या है ? हे कार्तिकेय ! मैंने जो-जो पूछा है, यह सब बताइये ॥ १-३ ॥ एतमर्त्थमविज्ञाय पशुशास्त्रविमोहितः । अद्याप्यहं महासेन भ्रान्तश्च शिवमायया ॥ ४ ॥ हे महासेन ! इस अर्थको बिना जाने पशुशास्त्रसे मोहित हुआ मैं आज भी शिवजीकी मायासे भ्रमित हो रहा हूँ ॥ ४ ॥ अहं शिवपदद्वंद्वज्ञानामृतरसायनम् । पीत्त्वा विगतसम्मोहो भविष्यामि यथा तथा ॥ ५ ॥ कृपामृतार्द्रया दृष्ट्या विलोक्य सुचिरं मयि । कर्त्तव्योऽनुग्रहः श्रीमत्पादाब्जशरणागते ॥ ६ ॥ मैं अब जिस प्रकार शिवजीके चरणयुगलके ज्ञानामृत रसायनका पानकर मायासे रहित हो जाऊँ, वैसा कीजिये । कृपामृतसे आई दृष्टिसे निरन्तर मेरी ओर देखकर आपके ऐश्वर्यमय चरणकमलकी शरणमें आये हुए मुझपर अनुग्रह कीजिये ॥ ५-६ ॥ इति श्रुत्वा मुनीन्द्रोक्तं ज्ञानशक्तिधरो विभुः । प्राहान्यदर्शनमहासंत्रासजनकं वचः ॥ ७ ॥ मुनिवरकी यह बात सुनकर ज्ञानशक्तिको धारण करनेवाले वे प्रभु शिवशास्त्रको विपरीत माननेवालोंको महान् भय उत्पन्न करनेवाला वचन कहने लगे ॥ ७ ॥ सुब्रह्मण्य उवाचः - श्रूयतां मुनिशार्दूल त्वया यत्पृष्टमादरात् । समष्टिव्यष्टिभावेन परिज्ञानं महेशितुः ॥ ८ ॥ प्रणवार्त्थपरिज्ञानरूपं तद्विस्तरादहम् । वदामि षड्विधार्थैक्य परिज्ञानेन सुव्रत ॥ ९ ॥ सुब्रह्मण्य बोले-हे मुनिशार्दूल ! आपने आदरपूर्वक समष्टि तथा व्यष्टि भावसे [इस जगत्में विराजमान] महेश्वरके जिस परिज्ञानको पूछा है, उसे सुनिये । हे सुव्रत ! मैं उस प्रणवार्थपरिज्ञानरूप एक ही विषयको छः प्रकारके तात्पर्योकी [वस्तुतः] एकताके परिज्ञानसहित विस्तारपूर्वक बता रहा हूँ ॥ ८-९ ॥ प्रथमो मन्त्ररूपः स्याद् द्वितीयो मन्त्रभावितः । देवतार्त्थस्तृतीयोऽर्थः प्रपञ्चार्थस्ततः परम् ॥ १० ॥ चतुर्थः पञ्चमार्थः स्याद् गुरुरूपप्रदर्शकः। षष्ठः शिष्यात्मरूपोऽर्थः षड्विधार्थाः प्रकीर्त्तिताः ॥ ११ ॥ तत्र मन्त्रस्वरूपन्ते वदामि मुनिसत्तम । येन विज्ञातमात्रेण महाज्ञानी भवेन्नरः ॥ १२ ॥ पहला मन्त्ररूप अर्थ, दूसरा यन्त्ररूप अर्थ, तीसरा देवताबोधक अर्थ, चौथा प्रपंचरूप अर्थ, पाँचवाँ गुरुरूपको दिखानेवाला अर्थ और छठा शिष्यके स्वरूपका बोधक अर्थ-ये छ: प्रकारके अर्थ कहे गये हैं । हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं उनमें मन्त्ररूप अर्थको आपसे कहता हूँ, जिसे जाननेमात्रसे मनुष्य महाज्ञानी हो जाता है ॥ १०-१२ ॥ आद्यः स्वरः पंचमश्च पञ्चमान्तस्ततः परः । बिन्दुनादौ च पञ्चार्णाः प्रोक्ता वेदैर्न चान्यथा ॥ १३ ॥ एतत्समष्टिरूपो हि वेदादिः समुदाहृतः । नादः सर्वेसमष्टिः स्याद् बिंद्वाढ्यं यच्चतुष्टयम् ॥ १४ ॥ व्यष्टिरूपेण संसिद्धं प्रणवे शिववाचके । यन्त्ररूपं शृणु प्राज्ञ शिवलिङ्गं तदेव हि ॥ १५ ॥ पहला स्वर अकार, दूसरा स्वर उकार, पाँचवें वर्गका अन्तिम वर्ण मकार, बिन्दु एवं नाद-ये ही पाँच वर्ण वेदोंके द्वारा ओंकारमें कहे गये हैं, दूसरे नहीं । इनका समष्टिरूप ॐकार ही वेदका आदि कहा गया है । नाद सर्वसमष्टिरूप है और बिन्दुसहित जो चार वर्गों का समूह है, वह शिववाचक प्रणवमें व्यष्टिरूपसे प्रतिष्ठित है । हे प्राज्ञ ! अव यन्त्ररूप सुनें; वहीं शिवलिंगस्वरूप है ॥ १३-१५ ॥ सरर्वाधस्ताल्लिखेत्पीठं तदूर्ध्वं प्रथमं स्वरम् । उवर्णं च तदूर्द्ध्वंस्थं पवर्गान्तं तदूर्ध्वगम् ॥ १६ ॥ तन्मस्तकस्थं बिंदुं च तदूर्ध्वं नादमालिखेत् । यन्त्रे संपूर्णतां याति सर्वकामः प्रसिध्यति ॥ १७ ॥ एतं यन्त्रं समालिख्य प्रणवे नव वेष्टयेत् । तदुत्थेनैव नादेन विद्यन्नादावसानकम् ॥ १८ ॥ सबसे नीचे पीठकी रचना करे । उसके ऊपर प्रथम स्वर अकार, उसके ऊपर उकार, उसके ऊपर पवर्गका अन्तिम वर्ण मकार, उसके मस्तकपर बिन्दु और उसके ऊपर [अर्धचन्द्राकार] नाद लिखे । इस प्रकार यन्त्रके पूर्ण हो जानेपर सभी कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं । इस रीतिसे यन्त्रको लिखकर उसे ॐकारसे वेष्टित करे । उससे उठे हुए नादसे ही नादकी पूर्णताको जाने ॥ १६-१८ ॥ देवतार्त्थं प्रवक्ष्यामि गूढं सर्वेत्र यन्मुने । तव स्नेहाद् वामदेव यथा शङ्करभाषितम् ॥ १९ ॥ सद्योजातम्प्रपद्यामीत्युपक्रम्य सदाशिवोम् । इति प्राह श्रुतिस्तारं ब्रह्मपंचकवाचकम् ॥ २० ॥ हे मुने ! हे वामदेव ! अब मैं शिवजीद्वारा कहे गये देवतार्थको, जो सर्वत्र गूढ़ है, आपके स्नेहवश कह रहा हूँ । श्रुतिने स्वयं सद्योजातं प्रपद्यामि' से सदाशिवोम्' पर्यन्त इन पाँच मन्त्रोंका वाचक तार अर्थात् ॐ को कहा है । १९-२० ॥ विज्ञेया ब्रह्मरूपिण्यः सूक्ष्माः पंचैव देवताः । एता एव शिवस्यापि मूर्तित्वेनोपबृंहिताः ॥ २१ ॥ शिवस्य वाचको मन्त्रः शिवमूर्त्तेश्च वाचकः । मूर्त्तिमूर्तिमतोर्भेदो नात्यन्तं विद्यते यतः ॥ २२ ॥ ब्रह्मरूपी सूक्ष्म देवता भी पाँच ही हैं, इस प्रकार समझना चाहिये और ये सभी शिवकी मूर्तिके रूपमें भी प्रतिष्ठित हैं, यह मन्त्र शिवका वाचक है तथा शिवमूर्तिका भी वाचक है; क्योंकि मूर्ति और मूर्तिमान्य वस्तुतः भेद नहीं है । २१-२२ ॥ ईशानमुकुटोपेत इत्यारभ्य पुरोदितः । शिवस्य विग्रहः पञ्चवक्त्राणि शृणु सांप्रतम् ॥ २३ ॥ पंचमादि समारभ्य सद्योजाताद्यनुक्रमात् । उर्ध्वान्तमीशानान्तं च मुखपंचकमीरितम् ॥ २४ ॥ 'ईशानमुकटोपेतः' इत्यादि श्लोकोंके द्वारा भगवान् शिवके विग्रहको पहले ही बताया जा चुका है, अब उनके पाँच मुखोंको सुनें । पंचम अर्थात् ईशानसे आरम्भ करके सद्योजातादिके अनुक्रमसे उनका श्रीविग्रह कहा गया तथा [पश्चिममुख सद्योजातसे लेकर] ऊर्ध्वमुख ईशानपर्यन्त शिवके पाँच मुख कहे गये हैं ॥ २३-२४ ॥ ईशानस्यैव देवस्य चतुर्व्यूहपदे स्थितम् । पुरुषाद्यं च सद्यान्तं ब्रह्मरूपं चतुष्टयम् ॥ २५ ॥ तत्पुरुषसे लेकर सद्योजातपर्यन्त ये चार ब्रह्मरूप ईशानदेवके चतुव्यूहके रूपमें स्थित हैं ॥ २५ ॥ पंच ब्रह्मसमष्टिः स्यादीशानं ब्रह्म विश्रुतम् । पुरुषाद्यं तु तद्व्यष्टिः सद्योजातान्तिकं मुने ॥ २६ ॥ हे मुने ! सुविख्यात ईशान नामक ब्रह्मरूपके साथ [सद्योजातादिके] समन्वित होनेकी स्थिति पंचब्रह्मात्मक समष्टि कही जाती है तथा तत्पुरुषसे लेकर सद्योजातपर्यन्त [पाँचों] ब्रह्मरूपोंकी [पृथक्-पृथक्] स्थिति व्यष्टि कहलाती है ॥ २६ ॥ अनुग्रहमयं चक्रमिदं पंचार्थकारणम् । परब्रह्मात्मकं सूक्ष्मं निर्विकारमनामयम् ॥ २७ ॥ यह अनुग्रहमयचक्र है, यह पंचार्थका कारण, परब्रह्मस्वरूप, सूक्ष्म, निर्विकार तथा अनामय है । ॥ २७ ॥ अनुग्रहोऽपि द्विविधस्तिरोभावादिगोचरः । प्रभुश्चान्यस्तु जीवानां परावरविमुक्तिदः ॥ २८ ॥ एतत्सदाशिवस्यैव कृत्यद्वयमुदाहृतम् । अनुग्रहेऽपि सृष्ट्यादिकृत्यानां पंचकं विभोः ॥ २९ ॥ अनुग्रह भी दो प्रकारका है-एक तिरोभाव और दूसरा प्रकट रूप । दूसरा जो प्रकट रूप अनुग्रह है, वह जीवोंका अनुशासक और उन्हें पर-अवर मुक्ति देनेवाला है । सदाशिवके ये दो कार्य कहे गये हैं । विभुके अनुग्रहमें भी सृष्टि आदि पाँच कृत्य होते हैं ॥ २८-२९ ॥ मुने तत्रापि सद्याद्या देवताः परिकीर्त्तिताः । परब्रह्मस्वरूपास्ताः पंच कल्याणदाः सदा ॥ ३० ॥ अनुग्रहमयं चक्रं शान्त्यतीतकलामयम् । सदाशिवाधिष्ठितं च परमं पदमुच्यते ॥ ३१ ॥ हे मुने ! उन सर्गादि कृत्योंके सद्योजातादि पाँच देवता कहे गये हैं । वे पाँचों परब्रह्मके स्वरूप एवं सदा कल्याण करनेवाले हैं । अनुग्रहमय चक्र शान्त्यतीतकलासे युक्त है और सदाशिवके द्वारा अधिष्ठित होनेसे परम पद कहा जाता है ॥ ३०-३१ ॥ एतदेव पदं प्राप्यं यतीनां भवितात्मनाम् । सदाशिवोपासकानां प्रणवासक्तचेतसाम् ॥ ३२ ॥ एतदेव पदं प्राप्य तेन साकं मुनीश्वराः । भुक्त्वा सुविपुलान्भोगान्देवेन ब्रह्मरूपिणा ॥ ३३ ॥ महाप्रलयसंभूतौ शिवसाम्यं भजन्ति हि । न पतन्ति पुनः क्वापि संसाराब्धौ जनाश्च ते ॥ ३४ ॥ प्रणवमें निष्ठा रखनेवाले सदाशिवके उपासकों तथा आत्मानुसन्धानमें निरत यतियोंको यही पद प्राप्त करना चाहिये । इसी पदको प्राप्त करके श्रेष्ठ मुनिगण ब्रह्मरूपी उन शिवके साथ अनेक प्रकारके उत्तम सुखोंको भोगकर महाप्रलय होनेपर शिवसाम्य प्राप्त कर लेते हैं और वे लोग फिर कभी संसारसागरमें नहीं गिरते हैं ॥ ३२-३४ ॥ ते ब्रह्मलोक इति च श्रुतिराह सनातनी । ऐश्वर्यं तु शिवस्यापि समष्टिरिदमेव हि ॥ ३५ ॥ सर्वैश्वर्येण सम्पन्न इत्याहाथर्वेणी शिखा । सर्वैश्वर्यप्रदातृत्वमस्यैव प्रवदन्ति हि ॥ ३६ ॥ 'ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे'-ऐसा सनातनी श्रुति कहती है । यह समष्टि ही सदाशिवका ऐश्वर्य है । वे सम्पूर्ण ऐश्वर्यसे सम्पन्न हैंऐसा आथर्वणी श्रुति कहती है । वे समस्त ऐश्वर्य देते हैं-ऐसा वेद कहते हैं ॥ ३५-३६ ॥ चमकस्य पदान्नान्यदधिकं विद्यते पदम् । ब्रह्मपंचकविस्तारप्रपंचः खलु दृश्यते ॥ ३७ ॥ चमकाध्यायके पदसे [यह ज्ञात होता है कि शिवसे] श्रेष्ठ कोई पद नहीं है । ब्रह्मपंचकका विस्तार ही प्रपंच कहलाता है ॥ ३७ ॥ ब्रह्मभ्य एवं संजाता निवृत्त्याद्याः कला मताः । सूक्ष्मभूतस्वरूपिण्यः कारणत्वेन विश्रुताः ॥ ३८ ॥ स्थूलरूपस्वरूपस्य प्रपंचस्यास्य सुव्रत । पंचधावस्थितं यत्तद् ब्रह्मपंचकमिष्यते ॥ ३९ ॥ निवृत्ति आदि कलाएँ पंचब्रह्मसे ही उत्पन्न कही गयी हैं, जो सूक्ष्मभूत स्वरूपवाली हैं तथा कारणके रूपमें प्रसिद्ध हैं । हे सुव्रत ! स्थूलस्वरूपवाले इस प्रपंचकी जो पाँच प्रकारकी स्थिति है, वही ब्राह्मपंचक कहा जाता है ॥ ३८-३९ ॥ पुरुषः श्रोत्रवाण्यौ च शब्दकाशौ च पंचकम् । व्याप्तमीशानरूपेण ब्रह्मणा मुनिसत्तम ॥ ४० ॥ प्रकृतिस्त्वक्च पाणिश्च स्पर्शो वायुश्च पंचकम् । व्याप्तं पुरुषरूपेण ब्रह्मणैव मुनीश्वर ॥ ४१ ॥ अहङ्कारस्तथा चक्षुः पादो रूपं च पावकः । अघोरब्रह्मणा व्याप्तमेतत्पंचकमंचितम् ॥ ४२ ॥ बुद्धिश्च रसना पायू रस आपश्च पंचकम् । ब्रह्मणा वामदेवेन व्याप्तं भवति नित्यशः ॥ ४३ ॥ मनो नासा तथोपस्थो गन्धो भूमिश्च पंचकम् । सद्येन ब्रह्मणा व्याप्तं पंचब्रह्ममयं जगत् ॥ ४४ ॥ हे मुनिसत्तम ! पुरुष, श्रोत्र, वाणी, शब्द और आकाश-यह पंचसमुदाय ईशानरूप ब्रह्मसे व्याप्त है । हे मुनीश्वर ! प्रकृति, त्वक्, हाथ, स्पर्श और वायु-ये पाँच तत्पुरुषरूप ब्रह्मसे व्याप्त हैं । अहंकार, चक्षु, चरण, रूप और अग्नि-यह पंचसमुदाय अघोररूप ब्रह्मसे व्याप्त है । बुद्धि, रसना, पायु, रस तथा जल-यह पंचसमुदाय वामदेवरूप ब्रह्मसे व्याप्त है । मन, नासिका, उपस्थ, गन्ध और भूमि-यह पंचसमुदाय सद्योजातरूप ब्रह्मसे व्याप्त है । इस प्रकार यह सारा जगत् पंचब्रह्ममय है ॥ ४०-४४ ॥ यन्त्ररूपेणोपदिष्टः प्रणवः शिववाचकः । समष्टिः पंचवर्णानां बिंद्वाद्यं यच्चतुष्टयम् ॥ ४५ ॥ शिवोपदिष्टमार्गेण यन्त्ररूपं विभावयेत् । प्रणवं परमं मन्त्राधिराजं शिवरूपिणम् ॥ ४६ ॥ शिववाचक प्रणव यन्त्ररूपसे कहा गया है । वह [नादपर्यन्त] पाँचों वर्गोंका समष्टिरूप है तथा बिन्दुयुक्त जो चार वर्ण हैं, वे प्रणवके व्यष्टिरूप हैं । शिवजीके द्वारा उपदिष्ट मार्गसे सर्वश्रेष्ठ मन्त्राधिराज तथा शिवरूपी प्रणवका यन्त्ररूपसे ध्यान करना चाहिये ॥ ४५-४६ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे षष्ठ्यां कैलाससंहितायां शिवरूपप्रणववर्णनं नाम चतुर्दशोध्यायः ॥ १४ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत छठी कैलाससंहितामें शिवरूप प्रणववर्णन नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |