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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

कैलाससंहिता

॥ पञ्चदशोऽध्यायः ॥


उपासनामूर्त्तिवर्णनम्
तिरोभावादि चक्रों तथा उनके अधिदेवताओं आदिका वर्णन


ईश्वर उवाचः -
ततः परं प्रवक्ष्यामि सृष्टिपद्धतिमुत्तमाम् ।
सदाशिवान्महेशादिचतुष्कस्य वरानने ॥ १ ॥
ईश्वर बोले-हे वरानने ! इसके बाद सदाशिवसे जिस प्रकार महेश्वरादि व्यूहचतुष्टयकी उत्पत्ति होती है, उस उत्तम सृष्टि-पद्धतिको मैं कह रहा हूँ ॥ १ ॥

सदाशिवः समष्टिः स्यादाकाशधिपतिः प्रभुः ।
अस्यैव व्यष्टितापन्नं महेशादिचतुष्टयम् ॥ २ ॥
सदाशिवसहस्रांशान्महेशस्य समुद्भवः ।
पुरुषाननरूपत्वाद्वायोरधिपतिश्च सः ॥ ३ ॥
आकाशके अधिपति प्रभु सदाशिव समष्टिस्वरूप हैं । महेश्वरादि चाररूप (महेश्वर, रुद्र, विष्णु, ब्रह्मा) उन्हींकी व्यष्टि हैं । महेश्वरकी उत्पत्ति सदाशिवके हजारवें भागसे होती है । पुरुषके अनन्तरूप होनेसे वे वायुके अधिपति हैं ॥ २-३ ॥

मायाशक्तियुतो वामे सकलश्च क्रियाधिकः ।
अस्यैव व्यष्टिरूपं स्यादीश्वरादिचतुष्टयम् ॥ ४ ॥
ईशो विश्वेश्वरः पश्चात्परमेशस्ततः परम् ।
सर्वेश्वर इतीदं तु तिरोधाचक्रमुत्तमम् ॥ ५ ॥
वे वामभागमें मायाशक्तिसे युक्त, सकल तथा क्रियाओंके स्वामी हैं । ईश्वर आदि चारोंका समूह इन्हींका व्यष्टिरूप है । ईश, विश्वेश्वर, परमेश, सर्वेश्वरयह उत्तम तिरोधानचक्र है ॥ ४-५ ॥

तिरोभावो द्विधा भिन्न एको रुद्रादिगोचरः ।
अन्यश्च देहभावेन पशुवर्गस्य सन्ततेः ॥ ६ ॥
तिरोभाव भी दो प्रकारका है, एक रुद्र आदिके रूपमें दिखायी पड़ता है और दूसरा जीवसमूहके विस्तारके रूपमें देहभावसे स्थित है ॥ ६ ॥

भोगानुरंजनपरः कर्मसाम्यक्षणावधि ।
कर्मसाम्ये स एकः स्यादनुग्रहमयो विभुः ॥ ७ ॥
यह शरीर तभीतक रहता है, जबतक पुण्य और पाप जीवमें रहता है । इसकी अवधि कर्मसाम्यपर्यन्त है । कर्मसाम्य होनेपर वह जीव अनुग्रहमय परमात्मामें मिलकर एक हो जाता है ॥ ७ ॥

तत्र सर्वेश्वरा यास्ते देवताः परिकीर्त्तिताः ।
परब्रह्मात्मकाः साक्षान्निर्विकल्पा निरामयाः ॥ ८ ॥
उसमें सर्वेश्वर आदि जो चार देवता कहे गये हैं, वे साक्षात् परब्रह्मात्मक, निर्विकल्प एवं निरामय हैं ॥ ८ ॥

तिरोभावात्मकं चक्रं भवेच्छान्तिकलामयम् ।
महेश्वराधिष्ठितं च पदमेतदनुत्तमम् ॥ ९ ॥
एतदेव पदं प्राप्यं महेशपदसेविनाम् ।
माहेश्वराणां सालोक्यक्रमादेव विमुक्तिदम् ॥ १० ॥
तिरोभावात्मक चक्र शान्तिकलामय है, यह उत्तम पद महेश्वरसे अधिष्ठित है । यह पद [तिरोभावात्मक चक्र] ही महेश्वरके चरणोंकी सेवा करनेवालोंका प्राप्य है तथा शिवोपासकोंको [अधिकारके अनुसार] क्रमश: सालोक्य आदि मुक्तियाँ प्रदान करनेवाला है ॥ ९-१० ॥

महेश्वरसहस्रांशाद् रुद्रमूर्तिरजायत ।
अघोरवदनाकारस्तेजस्तत्त्वाधिपश्च सः ॥ ११ ॥
रुद्रमूर्तिकी उत्पत्ति महेश्वरके हजारवें अंशसे हुई है, वे अघोर वदनके आकारवाले तथा तेजस्तत्त्वके स्वामी हैं ॥ ११ ॥

गौरीशक्तियुतो वामे सर्वेसंहारकृत्प्रभुः ।
अस्यैव व्यष्टिरूपं स्याच्छिवाद्यथ चतुष्टयम् ॥ १२ ॥
शिवो हरो मृडभवौ विदितं चक्रमद्‌भुतम् ।
संहाराख्यं महादिव्यं परमं हि मुनीश्वर ॥ १३ ॥
सबका संहार करनेवाले वे प्रभु अपने वामभागमें गौरीशक्तिसे युक्त हैं तथा शिवादि चार रूप इन्हींके व्यष्टिरूप हैं । हे मुनीश्वर ! शिव, हर, मृड और भव [इनसे युक्त] यह सुप्रसिद्ध, अद्‌भुत तथा महादिव्य 'संहार' नामक चक्र है ॥ १२-१३ ॥

स संहारस्त्रिधा प्रोक्तो बुधैर्नित्यादिभेदतः ।
नित्यो जीवसुषुप्त्याख्यो विधेर्नैमित्तिकः स्मृतः ॥ १४ ॥
विलयस्तस्य तु महानिति वेदनिदर्शितः ।
जीवानां जन्मदुःखादिशान्तानामुषितात्मनाम् ॥ १५ ॥
विश्रान्त्यर्थं मुनिश्रेष्ठ कर्मणां पाकहेतवे ।
संहारः कल्पितस्त्रेधा रुद्रेणामिततेजसा ॥ १६ ॥
विद्वानोंने उस संहारचक्रको नित्य आदिके भेदसे तीन प्रकारका कहा है । नित्य वह है, जिसमें जीव सुषुप्तिमें रहता है । सृष्टिके निमित्तभूत (संहारचक्र)-को नैमित्तिक कहते हैं और उस [जगत्]-के विलयको महाप्रलय कहते हैं-इसका वेदमें निर्देश है । जब जीव संसारमें जन्म-दुःखादिसे श्रान्त हो जाता है, उस समय हे मुनिश्रेष्ठ ! उस जीवकी विश्रान्ति और उसके कर्मपरिपाकके लिये अमित तेजस्वी रुद्रने तीन प्रकारके संहारोंकी कल्पना की है ॥ १४-१६ ॥

रुद्रस्यैव तु कृत्यानां त्रयमेतदुदाहृतम् ।
संहृतावपि सृष्ट्यादिकृत्यानां पञ्चकं विभोः ॥ १७ ॥
मुने तत्र भवाद्यास्ते देवताः परिकीर्त्तिताः ।
परब्रह्मस्वरूपाश्च लोकानुग्रहकारकाः ॥ १८ ॥
ये तीनों प्रकारके संहारकृत्य रुद्रके ही कहे गये हैं । संहारकालमें भी उन विभुके सृष्टि आदि पाँच कार्योंका यह समुदाय (सृष्टि, स्थिति, लय, तिरोभाव, अनुग्रह रहता है । हे मुने ! सृष्टि आदि) पाँच कृत्योंके वे भव आदि देवता कहे गये हैं, जो परब्रह्मके स्वरूप और लोकपर अनुग्रह करनेवाले हैं ॥ १७-१८ ॥

संहाराख्यमिदं चक्रं विद्यारूपकलामयम् ।
अधिष्ठितं च रुद्रेण पदमेतन्निरामयम् ॥ १९ ॥
यह संहार नामक चक्र विद्यारूप और कलामय है । यह निरामय पद रुद्रसे अधिष्ठित है ॥ १९ ॥

एतदेव पदं प्राप्यं रुद्राराधनकाङ्क्षिणाम् ।
रुद्राणां तद्धि सालोक्यक्रमात्सायुज्यदम्मुने ॥ २० ॥
रुद्राराधनमें निरत चित्तवाले रुद्रोपासकोंके लिये यह पद ही प्राप्य है तथा उन्हें सालोक्यमुक्तिके क्रमसे शिवसायुज्य प्रदान करनेवाला है ॥ २० ॥

रुद्रमूर्त्तेः सहस्रांशाद्विष्णोश्चैवाभवज्जनिः ।
स वामदेवचक्रात्मा वारितत्त्वैकनायकः ॥ २१ ॥
रमाशाक्तियुतो वामे सर्वेरक्षाकरो महान् ।
चतुर्भुजोऽरविंदाक्षः श्यामः शंखादिचिह्नभृत् ॥ २२ ॥
रुद्रमूर्तिके हजारवें भागसे विष्णुकी उत्पत्ति हुई है, वे वामदेवचक्रके आत्मारूप तथा जलतत्त्वके अधिपति हैं । वे बायें भागमें रमाशक्तिसे समन्वित, सबकी रक्षा करनेवाले, महान, चार भुजाओवाले, कमलसदृश नेत्रवाले, श्यामवर्ण तथा शंख आदि चिह्नोंको धारण करनेवाले हैं ॥ २१-२२ ॥

अस्यैव वासुदेवादिचतुष्कं व्यष्टितां गतम् ।
उपासनरतानां वै वैष्णवानां विमुक्तिदम् ॥ २३ ॥
वासुदेवोऽनिरुद्धश्च ततः सङ्कर्षणः परः ।
प्रद्युम्नश्चेति विख्यातं स्थितिचक्रमनुत्तमम् ॥ २४ ॥
व्यष्टिकी दशामें इन्हींके वासुदेव आदि चार रूप होते हैं, जो उपासनापरायण वैष्णवोंको मुक्ति प्रदान करते हैं । यह उत्तम स्थितिचक्र वासुदेव, अनिरुद्ध, संकर्षण तथा प्रद्युम्न नामसे विख्यात है ॥ २३-२४ ॥

स्थितिः सृष्टस्य जगतस्तत्कर्त्रा सह पालनम् ।
आरब्धकर्मभोगान्तं जीवानां फलभोगिनाम् ॥ २५ ॥
विष्णोरेवेदमाख्यातं कृत्यं रक्षाविधायिनः ।
स्थितावपि तु सृष्ट्यादि कृत्यानां पंचकं विभोः ॥ २६ ॥
तत्र प्रद्युम्नमुख्यास्ते देवताः परिकीर्तिताः ।
निर्विकल्पा निरातङ्‌का मुक्तानंदकराः सदा ॥ २७ ॥
उत्पन्न किये गये जगत्की स्थिति-सम्पादन तथा ब्रह्माके साथ [अपने कर्मके अनुसार] फलका भोग करनेवाले जीवोंका आरब्ध कर्मके भोगपर्यन्त पालन करना-यह रक्षा करनेवाले विष्णुका कृत्य कहा गया है । स्थितिमें भी विभु विष्णुके सृष्टि आदि पाँच कृत्य हैं, उसमें प्रद्युम्न आदि वे पाँच देवता हो गये हैं, जो सर्वदा निर्विकल्प, निरातंक तथा मुक्तिरूप आनन्दको देनेवाले हैं ॥ २५-२७ ॥

स्थितिचक्रमिदं ब्रह्मन्प्रतिष्ठारूपमुत्तमम् ।
जनार्दनाधिष्ठितं च परमं पदमुच्यते ॥ २८ ॥
हे ब्रह्मन् ! यह प्रतिष्ठा नामक स्थितिचक्र जनार्दनसे अधिष्ठित है तथा परम पद कहा जाता है ॥ २८ ॥

एवदेव पदं प्राप्यं विष्णुपादाब्जसेविनाम् ।
वैष्णवानां चक्रमिदं सालोक्यादिपदप्रदम् ॥ २९ ॥
विष्णोरेव सहस्रांशात्संबभूव पितामहः ।
सद्योजातमुखात्मा यः पृथिवीतत्त्वनायकः ॥ ३० ॥
विष्णुके चरणकमलोंकी सेवा करनेवालोंके लिये यही पद प्राप्तव्य है, वैष्णवोंका यह चक्र सालोक्य आदि मुक्तिपद देनेवाला है । विष्णुके हजारवें भागसे पितामह उत्पन्न हुए हैं, जो सद्योजात नामक शिवके मुखरूप हैं और पृथ्वीतत्त्वके नायक हैं ॥ २९-३० ॥

वाग्देवीसहितो वामे सृष्टिकर्त्ता जगत्प्रभुः ।
चतुर्मुखो रक्तवर्णो रजोरूपस्वरूपवान् ॥ ३१ ॥
वे वामभागमें सरस्वतीसे युक्त, सृष्टिकर्ता, जगत्के स्वामी, चतुर्मुख, रक्तवर्ण तथा रजोगुणवाले हैं ॥ ३१ ॥

हिण्यगर्भाद्यस्यैव व्यष्टिरूपं चतुष्टयम् ।
हिरण्यगर्भोऽथ विराट् पुरुषः काल एव च ॥ ३२ ॥
हिरण्यगर्भ आदि चार इन्हींके व्यष्टिरूप हैं, जो हिरण्यगर्भ, विराट्, पुरुष और काल नामवाले हैं ॥ ३२ ॥

सृष्टिचक्रमिदं ब्रह्मपुत्रादिऋषिसेवितम् ।
सर्वेकामार्थदं ब्रह्मन्परिवारसुखप्रदम् ॥ ३३ ॥
हे ब्रह्मन् ! यह सृष्टिचक्र ब्रह्मपुत्र [भृगु] आदि ऋषियोंसे सेवित, समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला और परिवार-सुखको प्रदान करनेवाला है ॥ ३३ ॥

सृष्टिस्तु संहृतस्यास्य जीवस्य प्रकृतौ बहिः ।
आनीय कर्मभोगार्थ साधनाङ्गफलैः सह ॥ ३४ ॥
संयोजनमितीदं तु कृत्यं पैतामहं विदुः ।
जगत्सृष्टिक्रियाविज्ञा यावद् व्यूहं सुखावहम् ॥ ३५ ॥
प्रकृतिमें लीन हुए जीवके कर्मभोगके निमित्त बाहरसे भोगके साधनभूत स्त्री-पुत्र और उनके फलोंको लाकर संयुक्त करनेका नाम सृष्टि है, इसे पितामहका कृत्य कहा गया है । विद्वानोंके मतमें यही जगत्-सृष्टिको क्रिया है, यह व्यूह सुख देनेवाला है ॥ ३४-३५ ॥

जगत्सृष्टावपि मुने कृत्यानां च पंचकं विभोः ।
अस्ति कालोदयस्तत्र देवताः परिकीर्त्तिताः ॥ ३६ ॥
हे मुने ! जगत्की सृष्टिमें भी उन ईश्वरके ये पाँच कृत्य हैं, उसके काल आदि देवता कहे गये हैं ॥ ३६ ॥

निवृत्तिरूपमाख्यातं सृष्टिचक्रमिदं बुधैः ।
पितामहाधिष्ठितं च पदमेतद्धि शोभनम् ॥ ३७ ॥
विद्वानोंने इसको निवृत्ति नामक सृष्टिचक्र कहा है । यह सुन्दर पद पितामहसे अधिष्ठित है । ३७ ॥

एतदेव प्रदं प्राप्यं ब्रह्मार्पितधियां नृणाम् ।
पैतामहानामेतद्धि सालोक्या दिविमुक्तिदम् ॥ ३८ ॥
अस्मिन्नपि चतुष्के तु चक्राणां प्रणवो भवेत् ।
महेशादिक्रमादेव गौण्या वृत्त्या स वाचकः ॥ ३९ ॥
इदं खलु जगच्चक्रं श्रुतिविश्रुतवैभवम् ।
पञ्चारं चक्रमिति ह स्तौति श्रुतिरिदं मुने ॥ ४० ॥
ब्रह्मदेवमें मन लगानेवाले मनुष्योंको यही पद प्राप्त करना चाहिये, यह पैतामह अर्थात् ब्रह्मोपासकोंको सालोक्य आदि पद देनेवाला है । महेशादिके क्रमसे चार चक्रोंका यह समुदाय गौणीवृत्ति अर्थात् पारम्परिक सम्बन्धसे प्रणवका ही बोध करानेवाला कहा गया है । हे मुने ! वेदोंमें प्रसिद्ध वैभववाला यह जगच्चक्र पंचारचक्र कहा जाता है, श्रुति इस चक्रकी स्तुति करती है ॥ ३८-४० ॥

एकमेव जगच्चक्रं शम्भोः शक्तिविजृंभितम् ।
सृष्ट्यादिपंचांवयवं पंचारमिति कथ्यते ॥ ४१ ॥
अलातचक्रभ्रमिवदविच्छिन्नलयोदयम् ।
परितो वर्तते यस्मात्तस्माच्चक्रमितीरितम् ॥ ४२ ॥
यह एकमात्र जगच्चक्र केवल शिवशक्तिसे विजृम्भित है । सृष्टि आदि पाँच अवयववाला होनेसे इस जगच्चक्रको पंचार कहा जाता है । निरन्तर लय और उदयको प्राप्त हुआ यह जगच्चक्र घूमते हुए अलातचक्रके समान अविच्छिन्न प्रतीत हो रहा है, यह चारों ओर विद्यमान है, इसलिये इसे चक्र कहा गया है ॥ ४१-४२ ॥

सृष्ट्यादिपृथुसृष्टित्वात्पृथुत्वेनोपदृश्यते ।
हिरण्मयस्य देवस्य शम्भोरमिततेजसः ॥ ४३ ॥
शक्तिकार्यमिदं चक्रं हिरण्यज्योतिराश्रितम् ।
सलिलेनावृतमिदं सलिलं वह्निनावृतम् ॥ ४४ ॥
आवृतो वायुना वह्निराकाशेनावृतं महत् ।
भूतादिना तथाकाशो भूतादिर्महतावृतः ॥ ४५ ॥
अव्यक्तेनावृतस्तद्वन्महानित्येवमास्तिकैः ।
ब्रह्माण्डमिति संप्रोक्तमाचार्यैर्मुनिसत्तम ॥ ४६ ॥
स्थूल सृष्टिके दिखायी देनेके कारण इसे पृथु भी कहा जाता है । परम तेजस्वी हिरण्यमय शिवजीका शक्ति-कार्यरूपी यह चक्र हिरण्य ज्योतिवाला है । यह [हिरण्यमय जगच्चक्र] जलसे व्याप्त है, जल अग्निसे व्याप्त है, अग्नि वायुसे व्याप्त है, वायु आकाशसे व्याप्त है, आकाश भूतादिसे व्याप्त है, भूतादि महत्तत्त्वसे आवृत हैं और महत्तत्त्व सर्वदा अव्यक्तसे आवृत है, हे मुने ! आस्तिक आचार्योंने इसीको ब्रह्माण्ड कहा है ॥ ४३–४६ ॥

उक्तानि सप्तावरणान्यस्य विश्वस्य गुप्तये ।
चक्राद्दशगुणाधिक्यं सलिलस्य विधीयते ॥ ४७ ॥
उपर्युपरि चान्योन्यमेवं दशगुणाधिकम् ।
ब्रह्माण्डमिति विज्ञेयं तद्द्विजैर्मुनिनायक ॥ ४८ ॥
इस संसारचक्रकी रक्षाके लिये सात आवरण कहे गये हैं । संसारचक्रसे दस गुना अधिक जलतत्त्व है । इसी प्रकार ऊपर-ऊपरके आवरण नीचेके आवरणकी अपेक्षा दस गुना अधिक हैं । हे मुनिश्रेष्ठ ! ब्राह्मणोंको उसे ही ब्रह्माण्ड जानना चाहिये ॥ ४७-४८ ॥

इममर्थमुरीकृत्य चक्रसामीप्यवर्त्तनात् ।
सलिलस्य च तन्मध्ये इति प्राह श्रुतिः स्वयम् ॥ ४९ ॥
अनुग्रहतिरोभावसंहृतिस्थितिसृष्टिभिः ।
करोत्यविरतं लीलामेकः शक्तियुतः शिवः ॥ ५० ॥
इसी अर्थको समझकर ब्रह्माण्डरूप चक्रके समीप जलके होनेसे श्रुतिने भी जगत्को जलमध्यशायी कहा है । अनुग्रह, तिरोभाव, संहार, स्थिति और सृष्टिके द्वारा एकमात्र शिव ही अपनी शक्तिसे युक्त होकर निरन्तर लीला करते रहते हैं । ४९-५० ॥

बहुनेह किमुक्तेन मुने सारं वदामि ते ।
शिव एवेदमखिलं शक्तिमानिति निश्चितम् ॥ ५१ ॥
हे मुने ! यहाँ बहुत कहनेसे क्या लाभ, मैं आपसे सारतत्त्व कह रहा हूँ कि यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड शक्तिमान् शिवरूप ही है-यह सुनिश्चित है ॥ ५१ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे षष्ठ्यां कैलाससंहितायां उपासनामूर्त्तिवर्णनं नाम पंचदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत छठी कैलाससंहितामें उपासनामूर्तिवर्णन नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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