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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

कैलाससंहिता

॥ षोडशोऽध्यायः ॥


शिवतत्त्ववर्णनम्
शैवदर्शनके अनुसार शिवतत्त्व, जगत्-प्रपंच और जीवतत्त्वके विषयमें विशद विवेचन तथा शिवसे जीव और जगत्की अभिन्नताका प्रतिपादन


सूत उवाचः -
श्रुत्वोपदिष्टं गुरुणा वेदार्थं मुनिपुङ्गवः ।
परमात्मनि संदिग्धं परिपप्रच्छ सादरम् ॥ १ ॥
सूतजी बोले-गुरुके द्वारा उपदिष्ट वेदार्थको सुनकर मुनिवर वामदेव परमात्मविषयक सन्देहोंको आदरपूर्वक पूछने लगे- ॥ १ ॥

वामदेव उवाचः -
ज्ञानशक्तिधर स्वामिन्परमानन्दविग्रह ।
प्रणवार्थामृतं पीतं श्रीमुखब्जाजात्परिस्रुतम् ॥ २ ॥
दृढप्रज्ञश्च जातोऽस्मि संदेहो विगतो मम ।
किंचिदन्यन्महासेन पृच्छामि त्वां शृणु प्रभो ॥ ३ ॥
वामदेवजी बोले-हे ज्ञानशक्तिके धारक ! हे स्वामिन् ! हे परमानन्दविग्रह ! मैंने आपके मुखकमलसे बहते हुए प्रणवार्थरूप अमृतका पान किया । अब मेरी बुद्धि दृढ़ हो गयी और मेरा सन्देह दूर हो गया । हे महासेन ! अब मैं आपसे कुछ और बात पूछना चाहता हूँ । हे प्रभो ! सुनिये ॥ २-३ ॥

सदाशिवादिकीटान्तरूपस्य जगतः स्थितिः ।
स्त्रीपुंरूपेण सर्वत्र दृश्यते न हि संशयः ॥ ४ ॥
एवं रूपस्य जगतः कारणं यत्सनातनम् ।
स्त्रीरूपं तत्किमाहोस्वित्पुरुषो वा नपुंसकम् ॥ ५ ॥
उत मिश्रं किमन्यद्वा न जातस्तत्र निर्णयः ।
बहुधा विवदन्तीह विद्वांसः शास्त्रमोहिताः ॥ ६ ॥
सदाशिवसे लेकर कीटपर्यन्त रूपवाले जगत्की स्थिति सभी जगह स्त्री-पुरुषमय दिखायी पड़ती है, इसमें सन्देह नहीं है । इस प्रकारके रूपवाले जगत्का जो सनातन कारण है, वह स्त्रीरूप है अथवा पुरुषरूप अथवा नपुंसक है अथवा मिश्रितरूप है अथवा कोई अन्यरूप है, इसका निर्णय नहीं हुआ । शास्त्रोंके सिद्धान्तसे मोहित हुए विद्वान् लोग अनेक प्रकारकी बातें कहते हैं ॥ ४-६ ॥

जगत्सृष्टिविधायिन्यः श्रुतयो जगता सह ।
विष्णुब्रह्मादयो देवाः सिद्धाश्च न विदन्ति हि ॥ ७ ॥
यथैक्यभावं गच्छेयुरेतदन्यच्च वेदय ।
जानामीति करोमीति व्यवहारः प्रदृश्यते ॥ ८ ॥
स हि सर्वात्मसंसिद्धो विवादो नात्र कस्यचित् ।
सर्वदेहेन्द्रियमनोबुध्यहङ्‌कारसंभवः ॥ ९ ॥
आहोस्विदात्मनोरूपं महानत्रापि संशयः ।
द्वयमेतद्धि सर्वेषां विवादास्पदमद्भुतम् ॥ १० ॥
संसारसृष्टिका विधान करनेवाली श्रुतियाँ जगत्के साथ जिस प्रकारसे [एकीकरणको प्राप्त होती हैं और जिसे ब्रह्मा, विष्णु, देवगण एवं सिद्ध भी नहीं जानते, उसे अथवा इस विषयमें अन्य जो भी बातें हैं, उन्हें आप कहें । [लोकमें] जानता हूँ, करता हूँ-इस प्रकारका व्यवहार देखा जाता है, ऐसा सर्वानुभवसिद्ध व्यवहार शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि एवं अहंकारसे उत्पन्न होता है । इसमें किसी भी तरहका विवाद नहीं है परंतु यह जगत् आत्माका ही दृष्टिगोचर होनेवाला परिणाम है, इस मतमें महान् संशय है । इस प्रकार जगत्सृष्टिके विषयमें ये दो विवादास्पद विचित्र मत [लोकमें प्रसिद्ध हैं ॥ ७-१० ॥

उत्पाट्याज्ञानसंभूतं संशयाख्यं विषद्रुमम् ।
शिवाद्वैतमहाकल्पवृक्षभूमिर्यथा भवेत् ॥ ११ ॥
चित्तं मम यथा देव बोध्योऽस्मि कृपया तव ।
कृपातस्तव देवेश दृढज्ञानी भवाम्यहम् ॥ १२ ॥
अतः आप अज्ञानसे उत्पन्न संशयरूपी इस विषवृक्षको उखाड़ दीजिये, जिससे मेरा चित्त शिवाद्वैतरूपी महान् कल्पवृक्षकी [आधार] भूमि हो जाय । हे देव ! आप मुझपर कृपा करके इस प्रकारका ज्ञान दीजिये कि हे देवेश ! मैं आपके अनुग्रहसे दृढ़ ज्ञानी हो जाऊँ ॥ ११-१२ ॥

सूत उवाचः -
श्रुत्वैवं मुनिना पृष्टं वचो वेदान्तनिर्वृतम् ।
रहस्यं प्रभुराहेदं किंचित्प्रहसिताननः ॥ ९३ ॥
सूतजी बोले-इस प्रकार मुनिद्वारा पूछे गये वेदान्तगर्भित रहस्यमय वचनको सुनकर मन्द हास्ययुक्त मुखवाले प्रभु कहने लगे- ॥ १३ ॥

सुब्रह्मण्य उवाचः -
एतदेव मुने गुह्यं शिवेन परिभाषितम् ।
अम्बायाः शृण्वतो देव्या वामदेव ममापि हि ॥ १४ ॥
तस्याः स्तन्यं तदा पीत्वा सन्तृप्तोऽस्मि मुहुर्मुहुः ।
श्रुतवान्निश्चलं तद्वै निश्चितं मे विचारितम् ॥ १५ ॥
तत्ते वदामि दयया वामदेव महामुने ।
महद्‌गुह्यं च परमं सुत त्वं शृणु सांप्रतम् ॥ १६ ॥
सुब्रह्मण्य बोले-हे मुने ! इसी गुह्य तत्त्वको सदाशिवने कहा है । हे वामदेव ! जब वे देवी अम्बासे कह रहे थे, उस समय मैं उनका दूध पीकर अत्यन्त तृप्त हो रहा था । उस समय उनके निश्चल विचारको मैंने [स्वस्थचित्त हो] बार-बार सुना और उसपर विचारपूर्वक निश्चय किया । हे वामदेव ! हे महामुने ! मैं उसीको आपसे दयापूर्वक कह रहा हूँ, हे पुत्र ! इस समय आप उस परम गोपनीय श्रेष्ठ रहस्यको सुनिये ॥ १४-१६ ॥

कर्मास्तितत्त्वादारभ्य शास्त्रवादः सुविस्तरः ।
यथाविवेकं श्रोतव्यो ज्ञानिना ज्ञानदो मुने ॥ १७ ॥
हे मुने । कर्मास्तितत्त्वसे लेकर जो विस्तृत शास्त्रवाद है अर्थात् कर्मसत्ताके प्रतिपादक कर्मफलवादसे आरम्भ करके शास्त्रोंमें विविध विषयोंका जो विशद विवेचन है, उसे विचारवान् पुरुषको विवेकपूर्वक सुनना चाहिये, क्योंकि वह ज्ञान देनेवाला है ॥ १७ ॥

त्वयोपदिष्टा ये शिष्यास्तत्र को वा भवत्समः ।
कपिलादिषु शास्त्रेषु भ्रमन्त्यद्यापि तेऽधमाः ॥ १८ ॥
ते शप्ता मुनिभिः षड्भिः शिवनिन्दा पराः पुरा ।
न श्रोतव्या हि तद्वार्त्ता तेऽन्यथावादिनो यतः ॥ १९ ॥
आपने जिन शिष्योंको उपदेश दिया है, उनमें आपके समान कौन है ? वे अधम आज भी [अनीश्वरवादी] कपिल आदिके शास्त्रोंमें भटक रहे हैं । शिवकी निन्दा करनेवाले वे पहले ही छ: मुनियोंके द्वारा शापित हुए हैं, वे अन्यथावादी हैं, अतः उनकी बात नहीं सुननी चाहिये ॥ १८-१९ ॥

अनुमानप्रयोगस्याप्यवकाशो न विद्यते ।
पंचावयवयुक्तस्य स तु धूमस्य दर्शनात् ॥ २० ॥
पर्वेतस्याग्निमद्‌भावं वदन्त्यत्रापि सुव्रत ।
प्रत्यक्षस्य प्रपंचस्य दर्शनालंबनं त्वतः ॥ २१ ॥
ज्ञातव्यः परमेशानः परमात्मा न संशयः ।
स्त्रीपुंरूपमयं विश्वं प्रत्यक्षेणैव दृश्यते ॥ २२ ॥
जिस प्रकार ईश्वरके विषयमें नैयायिक लोग पंचावयव वाक्य [रूपा अनुमिति-प्रक्रिया]-का प्रयोगकर धूमदर्शन [-रूपलिंग]-से अग्निको अनुमानके द्वारा सिद्ध करते हैं, उसी प्रकार यहाँ भी अनुमान प्रयोगका अवकाश तो है ही, इस प्रत्यक्ष प्रपंचके दर्शनरूप हेतुका अवलम्बन करके भी परमेश्वर परमात्माको निस्सन्देह जाना जा सकता है । स्त्री-पुरुषरूप यह विश्व प्रत्यक्ष ही दिखायी पड़ता है ॥ २०-२२ ॥

षट्कोशरूपः पिण्डो हि तत्र चाद्यत्रयं भवेत् ।
मात्रंशजं पुनश्चान्यत्पित्रंशजमिति श्रुतिः ॥ २३ ॥
एवं सर्वशरीरेषु स्त्रीपुंभावविदो जनाः ।
परमात्मन्यपि मुने स्त्रीपुंभावं विदुर्बुधा ॥ २४ ॥
छ: कोशवाले इस शरीरमें प्रथम तीन कोश माताके अंशसे तथा अन्य तीन कोश पिताके अंशसे उत्पन्न होते हैं, ऐसा श्रुतिका कथन है । हे मुने ! इस प्रकार सभी शरीरोंमें स्त्री-पुरुषभावको जाननेवाले विद्वज्जन परमात्मामें भी स्त्री-पुरुषभावको जानते हैं ॥ २३-२४ ॥

सच्चिदानदरूपत्वं वदति ब्रह्मणः श्रुतिः ।
असन्निवर्तकः शब्दः सदात्मेति निगद्यते ॥ २५ ॥
निवर्त्तनं जगत्त्वस्य चिच्छब्देन विधीयते ।
त्रिलिङ्गवर्त्ती सच्छब्दः पुरुषोऽत्र विधीयताम् ॥ २६॥
श्रुति ब्रह्मके सच्चिदानन्दस्वरूपका प्रतिपादन करती है, इसमें आत्मवाचक सत् शब्दसे असत्की निवृत्ति हो जाती है । 'चित्' शब्द जडत्वका निवर्तक है । यद्यपि 'सत्' शब्द तीनों लिंगोंमें गृहीत होता है तथापि यहाँ परब्रह्म परमात्माके अर्थमें पुल्लिंग 'सत्' शब्द ही ग्रहण करनेयोग्य है ॥ २५-२६ ॥

प्रकाशवाची स भवेत्सत्प्रकाश इति स्फुटम् ।
ज्ञानशब्दस्य पर्यायश्चिच्छब्दः स्त्रीत्वमागतः ॥ २७ ॥
उस 'सत्' शब्दसे प्रकाशका बोध होता है-यह बात स्पष्ट ही है । (प्रकाशके पुल्लिंग होनेसे सत् शब्द ही पुल्लिंगरूपसे ब्रह्मके लिये व्यवहृत होता है । ) 'चित्' शब्द ज्ञानवाचक या कि चेतनार्थक है, जो स्त्रीलिंग है अर्थात् परमात्मामें चिद्रूपता उसके स्त्रीभावको सूचित करती है ॥ २७ ॥

प्रकाशश्चिच्च मिथुनं जगत्कारणतां गतम् ।
सच्चिदात्मन्यपि तथा जगत्कारणतां गतम् ॥ २८ ॥
एकत्रैव शिवः शक्तिरिति भावो विधीयते ।
तैलवर्त्त्यादिमालिन्यात्प्रकाशस्यापि वर्त्तते ॥ २९ ॥
प्रकाश पुल्लिंग और चित् चेतना-ये दोनों ही सम्मिलित रूपसे जगत्की उत्पत्तिमें कारण हैं । इसी प्रकार सच्चिदात्मामें जगत्की कारणता प्राप्त होनेमें एकमात्र परमात्मामें ही शिवभाव तथा शक्तिभावका भेद किया जाता है । तेल और बत्तीके मलिन होनेसे प्रकाश भी मलिन अर्थात् मन्द हो जाता है ॥ २८-२९ ॥

मालिन्यमशिवत्वं च चिताग्न्यादिषु दृश्यते ।
एवं विवर्त्तकत्वेन शिवत्वं श्रुतिचोदितम् ॥ ३० ॥
जीवाश्रितायाश्चिच्छक्तेर्दौर्बल्यं विद्यते सदा ।
तन्निवृत्यर्थमेवात्र शक्तित्वं सार्वकालिकम् ॥ ३१ ॥
बलवान् शक्तिमांश्चेति व्यवहारः प्रदृश्यते ।
मलिनता और अशिवता दोनों ही चिताकी अग्नि आदिमें देखी जाती हैं, परंतु ये आरोपित हैं, इस आरोपका निवर्तक होनेके कारण वेदोंमें [परमात्माके] शिवत्वका प्रतिपादन किया गया है । यही चित् शक्ति जब जीवोंके आश्रित होती है, तब वह दुर्बल हो जाती है, उसकी निवृत्तिके लिये ही इन (परमात्मामें) सार्वकालिक चित् शक्ति विद्यमान है, अतः परमात्मा ही बलवान् तथा शक्तिमान् है-[लोकमें] ऐसा व्यवहार देखा जाता है । ३०-३१-१/२ ॥

लोके वेदे च ससतं वामदेव महामुने ॥ ३२ ॥
एवं शिवत्वं शक्तित्वं परमात्मनि दर्शितम् ।
शिवशक्त्योस्तु संयोगादानंदः सततोदितः ॥ ३३ ॥
हे वामदेव ! हे महामुने ! इस प्रकार लोक तथा वेदमें सदा ही परमात्मामें शिवत्व और शक्तित्व दिखाया गया है । शिव तथा शक्तिके संयोगसे ही सदा आनन्द उदित होता है ॥ ३२-३३ ॥

अतो मुने तमुद्दिश्य मुनयः क्षीणकल्मषाः ।
शिवे मनः समाधाय प्राप्ताः शिवमनामयम् ॥ ३४ ॥
सर्वात्मत्वं तयोरेवं ब्रह्मेत्युपनिषत्सु च ।
गीयते ब्रह्मशब्देन बृंहिधात्वर्थगोचरम् ॥ ३५ ॥
अतः हे मुने ! निष्पाप मुनिगण उन शिवको उद्देश्य करके शिवमें मन लगाकर अनामय शिवको प्राप्त हुए हैं । उन शिव और शक्तिको उपनिषदोंमें सर्वात्मा तथा ब्रह्म कहा गया है । ब्रह्म शब्दसे ही हि धात्वर्थरूप व्यापकता तथा सर्वात्मकताका प्रतिपादन होता है ॥ ३४-३५ ॥

बृंहणत्वं बृहत्त्वं च सदा शंभ्वाख्यविग्रहे ।
पंचब्रह्ममये विश्वप्रतीतिर्ब्रह्म शब्दिता ॥ ३६ ॥
शम्भु नामक विग्रहमें बृहणत्व तथा बृहत्त्व (व्यापकता एवं विशालता) सदा ही विद्यमान है । (सद्योजातादि) पंचब्रह्ममय शिवविग्रहमें विद्यमान विश्वप्रतीति 'ब्रह्म' शब्दसे व्यवहत होती है ॥ ३६ ॥

प्रतिलोमात्मके हंसे वक्ष्यामि प्रणवोद्भवम् ।
तव स्नेहाद्वामदेव सावधानतया शृणु ॥ ३७ ॥
व्यंजनस्य सकारस्य हकारस्य च वर्जनात् ।
ओमित्येव भवेत्स्थूलो वाचकः परमात्मनः ॥ ३८ ॥
महामन्त्रः स विज्ञेयो मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ।
तत्र सूक्ष्मो महामन्त्रस्तदुद्धारं वदामि ते ॥ ३९ ॥
हे वामदेव ! अब मैं आपके स्नेहवश 'हंस' इस पदमें स्थित इसके प्रतिलोमात्मक प्रणव मन्त्रका उद्‌भव कहता हूँ, आप सावधानीपूर्वक सुनें । हंस-इस मन्त्रका प्रतिलोम करनेपर 'सोऽहम्' (पद सिद्ध होता है । ) इसके सकार एवं हकार-इन दो वर्णों का लोप कर देनेपर स्थूल ओंकारमात्र शेष रहता है, यही शब्द परमात्माका वाचक है । तत्वदर्शी महर्षियोंके अनुसार उसे महामन्त्र समझना चाहिये । अब मैं सूक्ष्म महामन्त्रका उद्धार आपसे कह रहा हूँ ॥ ३७-३९ ॥

आद्ये त्रिपंचरूपे च स्वरे षोडशके त्रिषु ।
महामन्त्रो भवेदादौ स सकारो भवेद्यदा ॥ ४० ॥
[हंस:-इस पदमें तीन अक्षर हैं-ह, अ, स । ] इनमें आदिस्वर 'अ' पन्द्रहवें (अनुस्वार) और सोलहवें [विसर्ग]-के साथ है । सकारके साथवाला 'अ' विसर्गसहित है । यदि वह सकारके साथ 'ह' के आदिमें चला जाय तो सोऽहम् यह महामन्त्र हो जायगा ॥ ४० ॥

हंसस्य प्रतिलोमः स्यात्सकारार्थः शिवः स्मृतः ।
शक्त्यात्मको महामन्त्रवाच्यः स्यादिति निर्णयः ॥ ४१ ॥
हंसका प्रतिलोम कर देनेपर 'सोऽहम्' यह महामन्त्र सिद्ध होता है, जिसमें सकारका अर्थं शिव कहा गया है । वे शिव ही शक्त्यात्मक महामन्त्रके वाच्यार्थ हैंऐसा ही निर्णय है ॥ ४१ ॥

गुरूपदेशकाले तु सोऽहं शक्त्यात्मकः शिवः ।
इति जीवपरो भूयान्महामन्त्रस्तदा पशुः ॥ ४२ ॥
शक्त्यात्मकः शिवांशश्च शिवैक्याच्छिवसाम्यभाक् ।
गुरुके द्वारा उपदेशके समय 'सोऽहम्'-इस पदसे उसको शक्त्यात्मक शिवका बोध कराना ही अभीष्ट होता है । अर्थात् वह यह अनुभव करे कि मैं शक्त्यात्मक शिवरूप हूँ । इस प्रकार जब यह महामन्त्र जीवपरक होता है अर्थात् जीवकी शिवरूपताका बोध कराता है तब पशु (जीव) अपनेको शक्त्यात्मक एवं शिवांश जानकर शिवके साथ अपनी एकता सिद्ध हो जानेसे शिवकी समताका भागी हो जाता है ॥ ४२ १/२ ॥

प्रज्ञानं ब्रह्मवाक्ये तु प्रज्ञानार्थः प्रदृश्यते ॥ ४३ ॥
प्रज्ञानशब्दश्चैतन्यपर्यायः स्यान्न संशयः ।
चैतन्यमात्मेति मुने शिवसूत्रं प्रवर्त्तितम् ॥ ४४ ॥
'प्रज्ञानं ब्रह्म'-इस ब्रह्मवाक्यमें प्रज्ञानका अर्थ इस प्रकार दिखायी देता है । प्रज्ञान शब्द चैतन्यका पर्याय है, इसमें सन्देह नहीं है । इसीलिये हे मुने !'चैतन्यमात्मा' (अर्थात् आत्मा चैतन्यरूप है) यह शिवसूत्र कहा गया है । ४३-४४ ॥

चैतन्यमिति विश्वस्य सर्वज्ञानक्रियात्मकम् ।
स्वातन्त्र्यं तत्स्वभावो यः स आत्मा परिकीर्त्तितः ॥ ४५ ॥
इत्यादिशिवसूत्राणां वार्तिकं कथितं मया ।
अब श्रुतिके 'प्रज्ञानं ब्रह्म' इस बाक्यमें जो 'प्रज्ञानम्' पद आया है, उसके अर्थको दिखाया जा रहा है । 'प्रज्ञान' शब्द 'चैतन्य' का पर्याय है, इसमें संशय नहीं है । मुने ! शिवसूत्र में यह कहा गया है कि 'चैतन्यम् आत्मा' अर्थात् आत्मा (ब्रह्म या परमात्मा) चैतन्यरूप है । चैतन्य शब्दसे यह सूचित होता है कि जिसमें विश्वका सम्पूर्ण ज्ञान तथा स्वतन्त्रतापूर्वक जगत्के निर्माणकी क्रिया स्वभावतः विद्यमान है, उसीको आत्मा या परमात्मा कहा गया है । इस प्रकार मैंने यहाँ शिवसूत्रोंकी ही व्याख्या की है ॥ ४५-१/२ ॥

ज्ञानं बंध इतीदं तु द्वितीयं सूत्रमीशितुः ॥ ४६ ॥
ज्ञानमित्यात्मनस्तस्य किंचिज्ज्ञानक्रियात्मकम् ।
इत्याहाद्यपदेनेशः पशुवर्गस्य लक्षणम् ॥ ४७ ॥
एतद् द्वयं पराशक्तेः प्रथमं स्पंदतां गतम् ।
एतामेव परां शक्तिं श्वेताश्वतरशाखिनः ॥ ४८ ॥
स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया चेत्यस्तुवन्मुदा ।
ज्ञानक्रियेच्छारूपं हि शंभोर्दृष्टित्रयं विदुः ॥ ४९ ॥
एतन्मनोमध्यगं सदिन्द्रियज्ञानगोचरम् ।
अनुप्रविश्य जानाति करोति च पशुः सदा ॥ ५० ॥
तस्मादात्मन एवेदं रूपमित्येव निश्चितम् ।
'ज्ञानं बन्धः' यह दूसरा शिवसूत्र है । इसमें पशुवर्ग (जीवसमुदाय)-का लक्षण बताया गया है । इस सूत्रमें आदि पद 'ज्ञानम्' के द्वारा किंचिन्मात्र ज्ञान और क्रियाका होना ही जीवका लक्षण कहा गया है । यह ज्ञान और क्रिया पराशक्तिका प्रथम स्पन्दन है । कृष्ण यजुर्वेदकी श्वेताश्वतर शाखाका अध्ययन करनेवाले विद्वानोंने 'स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च* इस श्रुतिके द्वारा इसी पराशक्तिका प्रसन्नतापूर्वक स्तवन किया है । भगवान् शंकरकी तीन दृष्टियाँ मानी गयी हैं-ज्ञान, क्रिया और इच्छारूप । ये तीनों दृष्टियाँ जीवके मनमें स्थित हो अर्थात् इन्द्रियज्ञानगोचर देहमें प्रवेश करके जीवरूप हो सदा जानती और करती हैं । अत: यह दृष्टित्रयरूप जीव आत्मा (महेश्वर)-का स्वरूप ही है, ऐसा निश्चित सिद्धान्त है ॥ ४६-५०-१/२ ॥

प्रपंचार्थं प्रवक्ष्यामि प्रणवैक्यप्रदर्शनम् ॥ ५१ ॥
ॐमितीदं सर्वमिति श्रुतिराह सनातनी ।
तस्माद्वेतीत्युपक्रम्य जगत्सृष्टिः प्रक्रीर्तिता ॥ ५२ ॥
तस्याः श्रुतेस्तु तात्पर्यं वक्ष्यामि श्रूयतामिदम् ।
तव स्नेहाद्वामदेव विवेकार्थविजृंभितम् ॥ ५३ ॥
अब मैं जगत्प्रपंचके साथ प्रणवकी एकताका बोध करानेवाले प्रपंचार्थका वर्णन करूँगा । 'ओमितीदं सर्वम्' (तैत्तिरीय० १ । ८ । १) अर्थात् यह प्रत्यक्ष दिखायी देनेवाला समस्त जगत् ओंकार है-यह सनातन श्रुतिका कथन है । इससे प्रणव और जगत्की एकता सूचित होती है । 'तस्माद्वा' (तैत्तिरीय०२ । १) इस वाक्यसे आरम्भ करके तैत्तिरीय श्रुतिने संसारकी सृष्टिके क्रमका वर्णन किया है । वामदेव ! उस श्रुतिका जो विवेकपूर्ण तात्पर्य है, उसे मैं तुम्हारे स्नेहवश बता रहा हूँ, सुनो ॥ ५१-५३ ॥

शिवशक्तिसमायोगः परमात्मेति निश्चितम् ।
पराशक्तेस्तु संजाता चिच्छक्तिस्तु तदुद्भवा ॥ ५४ ॥
आनन्दशक्तिस्तज्जा स्यादिच्छाशक्तिस्तदुद्भवा ।
शिवशक्तिका संयोग ही परमात्मा है, यह ज्ञानी पुरुषोंका निश्चित मत है । शिवकी जो पराशक्ति है, उससे चिच्छक्ति प्रकट होती है । चिच्छक्तिसे आनन्दशक्तिका प्रादुर्भाव होता है, आनन्दशक्तिसे इच्छाशक्तिका उद्‌भव हुआ है, इच्छाशक्तिसे ज्ञानशक्ति और ज्ञानशक्तिसे पाँचवीं क्रियाशक्ति प्रकट हुई है ॥ ५४-१/२ ॥

ज्ञानशक्तिस्ततो जाता क्रियाशक्तिस्तु पंचमी ।
एताभ्य एव संजाता निवृत्त्याद्याः कला मुने ॥ ५५ ॥
चिदानन्दसमुत्पन्नौ नादबिन्दू प्रकीर्त्तितौ ।
इच्छाशक्तेर्मकारस्तु ज्ञानशक्तेस्तु पंचमः ॥ ५६ ॥
स्वरः क्रियाशक्तिजातो ह्यकारस्तु मुनीश्वर ।
इत्युक्ता प्रणवोत्पत्तिः पंचब्रह्मोद्भवं शृणु ॥ ५७ ॥
मुने ! इन्हींसे निवृत्ति आदि कलाएँ उत्पन्न हुई हैं । चिच्छक्तिसे नाद और आनन्दशक्तिसे बिन्दुका प्राकट्य बताया गया है । इच्छाशक्तिसे मकार प्रकट हुआ है । ज्ञानशक्तिसे पाँचवाँ स्वर उकार उत्पन्न हुआ है और क्रियाशक्तिसे अकारकी उत्पत्ति हुई है । मुनीश्वर ! इस प्रकार मैंने तुम्हें प्रणवकी उत्पत्ति बतलायी है । अब ईशानादि पंच ब्रह्मकी उत्पत्तिका वर्णन सुनो ॥ ५५-५७ ॥

शिवादीशान उत्पन्नस्ततस्तत्पुरुषोद्भवः ।
ततोऽघोरस्ततो वामः सद्योजातोद्भवस्ततः ॥ ५८ ॥
एतस्मान्मातृकादष्टत्रिंशन्मातृसमुद्‌भवः ।
शिवसे ईशान उत्पन्न हुए हैं, ईशानसे तत्पुरुषका प्रादुर्भाव हुआ है, तत्पुरुषसे अघोरका, अघोरसे वामदेवका और वामदेवसे सद्योजातका प्राकट्य हुआ है । इस आदि अक्षर प्रणवसे ही मूलभूत पाँच स्वर और तैंतीस व्यंजनके रूपमें अड़तीस अक्षरोंका प्रादुर्भाव हुआ है ॥ ५८ १/२ ॥

ईशानाच्छान्त्यतीताख्या कला जाताथ पूरुषात् ।
उत्पद्यते शान्तिकला विद्याऽघोरसमुद्भवा ॥ ५९ ॥
प्रतिष्ठा च निवृत्तिश्च वाम सद्योद्भवे मते ।
ईशाच्चिच्छक्तिमुखतो विभोर्मिथुनपञ्चकम् ॥ ६० ॥
अनुग्रहादिकृत्यानां हेतुः पञ्चकमिष्यते ।
तद्विद्भिर्मुनिभिः प्राज्ञैर्वरतत्त्वप्रदर्शिभिः ॥ ६१ ॥
अब कलाओंकी उत्पत्तिका क्रम सुनो । ईशानसे शान्त्यतीताकला उत्पन्न हुई है । तत्पुरुषसे शान्तिकला, अघोरसे विद्याकला, वामदेवसे प्रतिष्ठाकला और सद्योजातसे निवृत्तिकलाको उत्पत्ति हुई है । ईशानसे चिच्छक्तिद्वारा मिथुनपंचककी उत्पत्ति होती है । अनुग्रह, तिरोभाव, संहार, स्थिति और सृष्टि-इन पाँच कृत्योंका हेतु होनेके कारण उसे पंचक कहते हैं । यह बात तत्त्वदर्शी ज्ञानी मुनियोंने कही है ॥ ५९-६१ ॥

वाच्यवाचकसम्बन्धान्मिथुनत्वमुपेयुषि ।
कलावर्णस्वरूपेऽस्मिन्पञ्चके भूतपञ्चकम् ॥ ६२ ॥
वियदादि क्रमादासीदुत्पन्नं मुनिपुङ्गव ।
आद्यं मिथुनमारभ्य पञ्चमं यन्मयं विदुः ॥ ६३ ॥
वाच्य-वाचकके सम्बन्धसे उनमें मिथुनत्वकी प्राप्ति हुई है । कला वर्णस्वरूप इस पंचकमें भूतपंचककी गणना है । मुनिश्रेष्ठ ! आकाशादिके क्रमसे इन पाँचों मिथुनोंकी उत्पत्ति हुई है । इनमें पहला मिथुन है आकाश, दूसरा वायु, तीसरा अग्नि, चौथा जल और पाँचवाँ मिथुन पृथ्वी है ॥ ६२-६३ ॥

शब्दैकगुण आकाशः शब्दस्पर्शगुणो मरुत् ।
शब्दस्पर्शरूपगुणप्रधानो वह्निरुच्यते ॥ ६४ ॥
शब्दस्पर्शरूपरसगुणकं सलिलं स्मृतम् ।
शब्द्स्पर्शरूपरसगन्धाढ्या पृथिवी स्मृता ॥ ६५ ॥
व्यापकत्वञ्च भूतानामिदमेव प्रकीर्तितम् ।
व्याप्यत्वं वैपरीत्येन गन्धादिक्रमतो भवेत् ॥ ६६ ॥
[इनमें आकाशसे लेकर पृथ्वीतकके भूतोंका जैसा स्वरूप बताया गया है, उसे सुनो । ] आकाशमें एकमात्र शब्द ही गुण है; वायुमें शब्द और स्पर्श दो गुण हैं; अग्निमें शब्द, स्पर्श और रूप-इन तीन गुणोंकी प्रधानता है; जलमें शब्द, स्पर्श, रूप और रस-ये चार गुण माने गये हैं तथा पृथ्वी शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-इन पाँच गुणोंसे सम्पन्न है । यही भूतोंका व्यापकत्व कहा गया है अर्थात् शब्दादि गुणोंद्वारा आकाशादि भूत वायु आदि परवर्ती भूतोंमें किस प्रकार व्यापक हैं, यह दिखाया गया है । इसके विपरीत गन्धादि गुणोंके क्रमसे वे भूत पूर्ववर्ती भूतोंसे व्याप्य हैं अर्थात् गन्ध गुणवाली पृथ्वी जलका और रसगुणवाला जल अग्निका व्याप्य है, इत्यादि रूपसे इनकी व्याप्यताको समझना चाहिये ॥ ६४-६६ ॥

भूतपञ्चकरूपोऽयं प्रपञ्चः परिकीर्त्यते ।
विराट् सर्वसमष्ट्यात्मा ब्रह्माण्डमिति च स्फुटम् ॥ ६७ ॥
पृथिवीतत्त्वमारभ्य शिवतत्त्वावधिं क्रमात् ।
निलीय तत्त्वसंदोहे जीव एव विलीयते ॥ ६८ ॥
संशक्तिकः पुनः सृष्टौ शक्तिद्वारा विनिर्गतः ।
स्थूलप्रपञ्चरूपेण तिष्ठत्याप्रलयं सुखम् ॥ ६९ ॥
पाँच भूतोंका यह विस्तार ही 'प्रपंच' कहलाता है । सर्वसमष्टिका जो आत्मा है, उसीका नाम 'विराट्' है और पृथ्वीतत्त्वसे लेकर क्रमश: शिवतत्त्वतक जो तत्त्वोंका समुदाय है, वही 'ब्रह्माण्ड' है । वह क्रमश: तत्त्वसमूहमें लीन होता हुआ अन्ततोगत्वा सबके जीवनभूत चैतन्यमय परमेश्वरमें ही लयको प्राप्त होता है और सृष्टिकालमें फिर शक्तिद्वारा शिवसे निकलकर स्थूल प्रपंचके रूपमें प्रलय-कालपर्यन्त सुखपूर्वक स्थित रहता है ॥ ६७-६९ ॥

निजेच्छया जगत्सृष्टमुद्युक्तस्य महेशितुः ।
प्रथमो यः परिस्पन्दः शिव तत्त्वन्तदुच्यते ॥ ७० ॥
एषैवेच्छाशक्तितत्वं सर्वकृत्यानुवर्तनात् ।
अपनी इच्छासे संसारकी सृष्टिके लिये उद्यत हुए महेश्वरका जो प्रथम परिस्पन्द है, उसे 'शिवतत्त्व' कहते हैं । यही इच्छाशक्ति-तत्त्व है; क्योंकि सम्पूर्ण कृत्योंमें इसीका अनुवर्तन होता है ॥ ७०.५ ॥

ज्ञानक्रियाशक्तियुग्मे ज्ञानाधिक्ये सदाशिवः ॥ ७१ ॥
महेश्वरं क्रियोद्रेके तत्त्वं विद्धि मुनीश्वर ।
ज्ञानक्रियाशक्तिसाम्यं शुद्धविद्यात्मकं मतम् ॥ ७२ ॥
मुनीश्वर ! ज्ञान और क्रिया-इन दो शक्तियोंमें जब ज्ञानका आधिक्य हो, तब उसे सदाशिवतत्त्व समझना चाहिये; जब क्रिया-शक्तिका उद्रेक हो तब उसे महेश्वरतत्त्व जानना चाहिये तथा जब ज्ञान और क्रिया दोनों शक्तियाँ समान हों तब वहाँ शुद्ध विद्यात्मक-तत्त्व समझना चाहिये ॥ ७१-७२ ॥

स्वाङ्गरूपेषु भावेषु मायातत्त्वविभेदधीः ।
शिवो यदा निजं रूपं परमैश्वर्यपूर्वकम् ॥ ७३ ॥
निगृह्य माययाशेषपदार्थग्राहको भवेत् ।
तदा पुरुष इत्याख्या तत्सृष्ट्वेत्यभवच्छ्रुतिः ॥ ७४ ॥
समस्त भाव-पदार्थ परमेश्वरके अंगभूत ही हैं; तथापि उनमें जो भेदबुद्धि होती है, उसका नाम मायातत्त्व है । जब शिव अपने परम ऐश्वर्यशाली रूपको मायासे निगृहीत करके सम्पूर्ण पदार्थोंको ग्रहण करने लगते हैं, तब उनका नाम 'पुरुष' होता है । 'तत्सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत्' (उस शरीरको रचकर स्वयं उसमें प्रविष्ट हुआ) इस श्रुतिने उनके इसी स्वरूपका प्रतिपादन किया है अथवा इसी तत्त्वका प्रतिपादन करनेके लिये उक्त श्रुतिका प्रादुर्भाव हुआ है । ७३-७४ ॥

अयमेव हि संसारी मायया मोहितः पशुः ।
शिवज्ञानविहीनो हि नानाकर्मविमूढधीः ॥ ७५ ॥
शिवादभिन्नं न जगदात्मानं भिन्नमित्यपि ।
जानतोऽस्य पशोरेव मोहो भवति न प्रभो ॥ ७६ ॥
यथैन्द्रजालिकस्यापि योगिनो न भवेद्‌ भ्रमः ।
गुरुणा ज्ञापितैश्वर्यः शिवो भवति चिद्धनः ॥ ७७ ॥
यही पुरुष मायासे मोहित होकर संसारी (संसारबन्धनमें बंधा हुआ) पशु कहलाता है । शिवतत्त्वके ज्ञानसे शून्य होनेके कारण उसकी बुद्धि नाना कर्मोंमें आसक्त हो मूढ़ताको प्राप्त हो जाती है । वह जगत्को शिवसे अभिन्न नहीं जानता तथा अपनेको भी शिवसे भिन्न ही समझता है । प्रभो ! यदि शिवसे अपनी तथा जगत्की अभिन्नताका बोध हो जाय तो इस पशु (जीव)-को मोहका बन्धन न प्राप्त हो । जैसे इन्द्रजाल-विद्याके ज्ञाता (बाजीगर)- को अपनी रची हुई अद्‌भुत वस्तुओंके विषयमें मोह या भ्रम नहीं होता है, उसी प्रकार ज्ञानयोगीको भी नहीं होता । गुरुके उपदेशद्वारा अपने ऐश्वर्यका बोध प्राप्त हो जानेपर वह चिदानन्दधन शिवरूप ही हो जाता है । ७५-७७ ॥

सर्वकर्तृत्वरूपा च सर्वज्ञत्वस्वरूपिणी ।
पूर्णत्वरूपा नित्यत्वव्यापकत्वस्वरूपिणी ॥ ७८ ॥
शिवस्य शक्तयः पञ्च सङ्‌कुचद्रूपभास्कराः ।
अपि सङ्‌कोचरूपेण विभान्त्य इति नित्यशः ॥ ७९ ॥
शिवकी पाँच शक्तियाँ हैं-१-सर्व-कर्तृत्वरूपा, २-सर्वतत्त्वरूपा, ३-पूर्णत्वरूपा, ४-नित्यत्वरूपा और ५-व्यापकत्वरूपा । ये शक्तियाँ सूर्यके समान अपने स्वरूपको संकुचित करने में भी समर्थ हैं । संकुचित होनेपर भी ये सदैव भासित होती रहती हैं ॥ ७८-७९ ॥

पशोः कलाख्य विद्येति रागकालौ नियत्यपि ।
तत्त्वपञ्चकरूपेण भवत्यत्र कलेति सा ॥ ८० ॥
किंचित्कर्तृत्वहेतुः स्यात् त्किंचित्तत्त्वैकसाधनम् ।
सा तु विद्या भवेद्रागो विषयेष्वनुरंजकः ॥ ८१ ॥
जीवकी पाँच कलाएँ हैं-१-कला, २-विद्या, ३राग, ४-काल और ५-नियति । इन्हें कलापंचक कहते हैं । जो यहाँ पाँच तत्त्वोंके रूपमें प्रकट होती है, उसका नाम 'कला' है । जो कुछ-कुछ कर्तृत्वमें हेतु बनती है और कुछ तत्त्वका साधन होती है, उस कलाका नाम 'विद्या' है । जो विषयोंमें आसक्ति पैदा करनेवाली है, उस कलाका नाम 'राग' है ॥ ८०-८१ ॥

कालो हि भावभावानां भासानां भासनात्मकः ।
क्रमावच्छेदको भूत्वा भूतादिरिति कथ्यते ॥ ८२ ॥
इदन्तु मम कर्तव्यमिदं नेति नियामिका ।
नियतिः स्याद्विभोः शक्तिस्तदाक्षेपात्पतेत् पशुः ॥ ८३ ॥
एतत्पंचकमेवास्य स्वरूपा वारकत्वतः ।
पञ्चकञ्चुकमाख्यातमन्तरङ्गं च साधनम् ॥ ८४ ॥
जो भाव पदार्थों और प्रकाशोंका भासनात्मकरूपसे क्रमश: अवच्छेदक होकर सम्पूर्ण भूतोंका आदि कहलाता है, वही 'काल' है । यह मेरा कर्तव्य है और यह नहीं है-इस प्रकार नियन्त्रण करनेवाली जो विभुकी शक्ति है, उसका नाम 'नियति' है । उसके आक्षेपसे जीवका पतन होता है । ये पाँचों ही जीवके स्वरूपको आच्छादित करनेवाले आवरण हैं । इसलिये 'पंचकंचुक' कहे गये हैं । इनके निवारणके लिये अन्तरंग साधनकी आवश्यकता है ॥ ८२-८४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे षष्ठ्यां कैलाससंहितायां शिवतत्त्ववर्णनन्नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत छठी कैलाससंहितामें शिवतत्त्ववर्णन नामक सोलहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १६ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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