![]() |
॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
कैलाससंहिता
॥ सप्तदशोऽध्यायः ॥ शिवाद्वैतज्ञानकथनादि सृष्टिकथनम्
शैववाद एवं सृष्टिप्रक्रियाका प्रतिपादन वामदेव उवाचः - नियत्यधस्तात्प्रकृतेरुपरिस्थः पुमानिति । पूर्वत्र भवता प्रोक्तमिदानीं कथमन्यथा ॥ १ ॥ मायया सङ्कुचद्रूपस्तदधस्तादिति प्रभो । इति मे संशयं नाथ छेत्तुमर्हसि तत्त्वतः ॥ २ ॥ वामदेवजी बोले-हे भगवन् ! आपने पहले कहा कि प्रकृतिके नीचे नियति और ऊपर पुरुष है, अब आप अन्यथा कैसे कह रहे हैं ? हे प्रभो ! मायासे जिसका स्वरूप ढका हुआ है, उस जीवरूप पुरुषको तो मायासे नीचे होना चाहिये । हे नाथ ! आप मेरा यह सन्देह तत्त्वतः दूर कीजिये ॥ १-२ ॥ श्रीसुब्रह्मण्य उवाचः - अद्वैतशैववादोऽयं द्वैतन्न सहते क्वचित् । द्वैतं च नश्वरं ब्रह्माद्वैतं परमनश्वरम् ॥ ३ ॥ सर्वज्ञः सर्वकर्ता च शिवः सर्वेश्वरोऽगुणः । त्रिदेवजनको ब्रह्मा सच्चिदानन्दविग्रहः ॥ ४ ॥ सुब्रह्मण्य बोले-यह अद्वैत शैववाद है, जो किसी भी प्रकार द्वैतमतको स्वीकार नहीं करता है; क्योंकि द्वैत नश्वर है और अद्वैत अविनाशी परब्रह्म है । शिवजी सर्वज्ञ, सर्वकर्ता, सर्वेश्वर, निर्गुण, त्रिदेवोंके जनक, ब्रह्म एवं सच्चिदानन्द स्वरूपवाले हैं ॥ ३-४ ॥ स एव शङ्करो देवः स्वेच्छया च स्वमायया । सङ्कुचद्रूप इव सन्पुरुषः संबभूव ह ॥ ५ ॥ वही महादेव शंकर अपनी इच्छासे तथा अपनी मायासे संकुचितरूप धारणकर पुरुषरूप हो गये ॥ ५ ॥ कलादिपञ्चकेनैव भोक्तृत्वेन प्रकल्पितः । प्रकृतिस्थः पुमानेष भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् ॥ ६ ॥ इति स्थानद्वयान्तस्थः पुरुषो न विरोधकः । सङ्कुचन्निजरूपाणां ज्ञानादीनां समष्टिमान् ॥ ७ ॥ कलादि पंचकंचुकके कारण यह पुरुष भोक्ता बनता है तथा प्रकृतिमें रहकर प्रकृतिके गुणोंको भोगता है । इस प्रकार दोनों स्थानमें स्थित होनेपर भी पुरुषका प्रकृतिसे कोई विरोध नहीं है, क्योंकि वह अपने रूपको संकुचित करनेपर भी ज्ञानरूपसे समष्टिमें स्थित है ॥ ६-७ ॥ सत्त्वादिगुणसाध्यं च बुद्ध्यादित्रितयात्मकम् । चित्तं प्रकृतितत्त्वं तदासीत्सत्त्वादिकारणात् ॥ ८ ॥ सात्त्विकादिविभेदेन गुणाः प्रकृतिसम्भवाः । गुणेभ्यो बुद्धिरुत्पन्ना वस्तुनिश्चयकारिणी ॥ ९ ॥ ततो महानहङ्कारस्ततो बुद्धीन्द्रियाणि च । जातानि मनसो रूपं स्यात्सङ्कल्पविकल्पकम् ॥ १० ॥ वह सत्त्व गुणोंसे साध्य है एवं बुद्धि आदि त्रितयसे युक्त है, सत्व आदि गुणों के कारण वह चित्-प्रकृतितत्त्व भी है । सात्त्विक आदि भेदसे तीनों गुण प्रकृतिसे उत्पन्न हुए हैं, इन्हीं गुणोंसे वस्तुका निश्चय करानेवाली बुद्धि उत्पन्न हुई है । उस बुद्धिसे महान्, महान्से अहंकार, अहंकारसे ज्ञानेन्द्रियाँ उत्पन्न हुई हैं, [उसी तैजस अहंकारसे मन भी उत्पन्न हुआ है । मनका रूप संकल्प-विकल्पात्मक है ॥ ८-१० ॥ बुद्धीन्द्रियाणि श्रोत्रंत्वक् चक्षुर्जिह्वा च नासिका । शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च गोचरः ॥ ११ ॥ बुद्धीन्द्रियाणां कथितः श्रोत्रादिक्रमतस्ततः । वैकारिकादहङ्कारात्तन्मात्राण्यभवन्क्रमात् ॥ १२ ॥ श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिला और नासिका-ये ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये श्रोत्र आदिके क्रमसे ज्ञानेन्द्रियोंके गुण कहे गये हैं । वैकारिक अहंकारसे क्रमशः तन्मात्राएँ उत्पन्न होती हैं ॥ ११-१२ ॥ तानि प्रोक्तानि सूक्ष्माणि मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः । कर्मेन्द्रियाणि ज्ञेयानि स्वकार्यसहितानि च ॥ १३ ॥ विप्रर्षे वाक्करौ पादौ पायूपस्थौ च तत्क्रियाः । वचनादानगमनविसर्ग्गानन्दसंज्ञिताः ॥ १४ ॥ भूतादिकादहङ्कारात्तन्मात्राण्यभवन्क्रमात् । तानि सूक्ष्माणि रूपाणी शब्दादीनामिति स्थितिः ॥ १५ ॥ तत्त्वद्रष्टा मुनियोंने उन तन्मात्राओंको सूक्ष्म [भूत] कहा है । कर्मेन्द्रियोंको उनके कार्योंके सहित समझना चाहिये । हे विप्रर्षे ! वे वाणी, हाथ, पैर, पायु और उपस्थ हैं; उनके कार्य बोलना, ग्रहण करना, चलना, मलत्याग तथा आनन्द लेना है । भूतादि अहंकारसे क्रमश: तन्मात्राओंकी उत्पत्ति हुई है, उन्हीं सूक्ष्मभूतोंको शब्दादि सूक्ष्म तन्मात्रा कहा जाता है । १३-१५ ॥ तेभ्यश्चाकाशवाय्वग्निजलभूमिजनिः क्रमात् । विज्ञेया मुनिशार्दूल पञ्चभूतमितीष्यते ॥ १६ ॥ अवकाशप्रदानं च वाहकत्वञ्च पावनम् । संरम्भो धारणं तेषां व्यापाराः परिकीर्तिताः ॥ १७ ॥ उन्हींसे क्रमशः आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वीकी उत्पत्ति जाननी चाहिये । हे मुनिशार्दूल ! इन्हें ही पंचभूत भी कहा जाता है । अवकाश प्रदान करना, वहन करना, पकाना, वेग एवं धारण करना-ये उनके कार्य कहे गये हैं ॥ १६-१७ ॥ वामदेव उवाचः - भूतसृष्टिः पुरा प्रोक्ता कलादिभ्यः कथं पुनः । अन्यथा प्रोच्यते स्कन्द संदेहोऽत्र महान्मम ॥ १८ ॥ आत्मतत्त्वमकारः स्याद्विद्या स्यादुस्ततः परम् । शिवतत्त्वं मकारः स्याद्वामदेवेति चिन्त्यताम् ॥ १९ ॥ बिन्दुनादौ तु विज्ञेयौ सर्वतत्त्वार्थकावुभौ । तत्रत्या देवतायाश्च ता मुने शृणु साम्प्रतम् ॥ २० ॥ ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च महेश्वरसदाशिवौ । ते हि साक्षाच्छिवस्यैव मूर्तयः श्रुतिविश्रुताः ॥ २१ ॥ इत्युक्तं भवता पूर्वमिदानीमुच्यतेऽन्यथा । तन्मात्रेभ्यो भवन्तीति सन्देहोऽत्र महान्मम ॥ २२ ॥ कृत्वा तत्करुणां स्कन्द संशयं छेत्तुमर्हसि । इत्याकर्ण्य मुनेर्वाक्यं कुमारः प्रत्यभाषत ॥ २३ ॥ वामदेवजी बोले-हे स्कन्द ! आपने पहले कलाओंसे भूतसृष्टि कही थी, किंतु अब आप इसके विपरीत क्यों कह रहे हैं, इस विषयमें मुझे महान् सन्देह हो रहा है । आपने कहा था 'हे वामदेव ! अकार आत्मतत्त्व है, उकार विद्यातत्त्व है, मकार शिवतत्त्व है, ऐसा समझना चाहिये । बिन्दु-नादको सर्वतत्त्वार्थक जानना चाहिये । हे मुने ! उसके जो देवता हैं, उन्हें अब सुनिये । ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, महेश्वर और सदाशिव-ये सभी साक्षात् शिवकी ही मूर्तियाँ हैं, जो अतिमें कही गयी हैं'-ऐसा आपने पहले कहा था, किंतु अब उसके विपरीत कह रहे हैं कि ये तन्मात्राओंसे होती हैं, मुझे इस विषयमें महान् सन्देह है । हे स्कन्दजी ! आप दया करके इस सन्देहको दूर कीजिये । मुनिका यह वचन सुनकर कुमार कहने लगे- ॥ १८-२३ ॥ श्रीसुब्रह्मण्य उवाचः - तस्माद्वेति समारभ्य भूतसृष्टिक्रमे मुने । ताञ्छृणुष्व महाप्राज्ञ सावधानतयादरात् ॥ २४ ॥ श्रीसुब्रह्मण्य बोले-हे मुने ! हे महाप्राज्ञ ! 'तस्माद्वा' इस श्रुतिसे प्रारम्भकर भूतसृष्टिक्रमको मैं कह रहा हूँ, उसे सावधान होकर आदरपूर्वक सुनें ॥ २४ ॥ जातानि पञ्च भूतानि कलाभ्य इति निश्चितम् । स्थूलप्रपञ्चरूपाणि तानि भूतपतेर्वपुः ॥ २५ ॥ शिवतत्त्वादिपृथ्व्यन्तं तत्त्वानामुदयक्रमे । तन्मात्रेभ्यो भवन्तीति वक्तव्यानि क्रमान्मुने ॥ २६ ॥ कलाओंसे पंचमहाभूत उत्पन्न हुए हैं । यह तो निश्चित ही है । अतः स्थूल प्रपंचरूप वे पंचमहाभूत शिवजीके शरीर हैं । शिवतत्त्वसे लेकर पृथ्वीतत्त्वपर्यन्त सभी तत्व क्रमसे तन्मात्राओंद्वारा उत्पन्न होते हैं । हे मुने ! अब मैं क्रमसे उन्हीं तत्त्वोंको कहूँगा ॥ २५-२६ ॥ तन्मात्राणां कलानामप्यैक्यं स्याद् भूतकारणम् । अविरुद्धत्व मेवात्र विद्धि ब्रह्माविदां वर ॥ २७ ॥ सभी भूतोंके जो कारण हैं, वे कला तथा तन्मात्राएँ एक ही वस्तु हैं । हे ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! इनमें विरोध मत समझिये ॥ २७ ॥ स्थूलसूक्ष्मात्मके विश्वे चन्द्रसूर्यादयो ग्रहाः । सनक्षत्राश्च संजातास्तथान्ये ज्योतिषां गणाः ॥ २८ ॥ ब्रह्मविष्णुमहेशादिदेवता भूतजातयः । इन्द्रादयोऽपि दिक्पाला देवाश्च पितरोऽसुराः ॥ २९ ॥ राक्षसा मानुषाश्चान्ये जङ्गमत्वविभागिनः । पशवः पक्षिणः कीटाः पन्नगादि प्रभेदिनः ॥ ३० ॥ तरुगुल्मलतौषध्यः पर्वताश्चाष्ट विश्रुताः । गङ्गाद्याः सरितः सप्त सागराश्च महर्द्धयः ॥ ३१ ॥ यत्किंचिद्वस्तुजातं तत्सर्वमत्र प्रतिष्ठितम् । विचारणीयं सद्बुध्या न बहिर्मुनिसत्तम ॥ ३२ ॥ इस स्थूल-सूक्ष्मात्मक संसारमें नक्षत्रोंके सहित सूर्य, चन्द्रादि ग्रह तथा अन्य ज्योतिर्गण उत्पन्न हुए हैं । ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वरादि देवता, समस्त भूतसमुदाय, इन्द्रादि दिक्पाल, देवता, पितर, असुर, राक्षस, मनुष्य एवं अन्य प्रकारके जंगम प्राणी, पशु, पक्षी, कीट, पन्नग (सर्प) आदि नाम भेदवाले जीव, वृक्ष, गुल्म, लता, औषधि, पर्वत, गंगा आदि आठ प्रसिद्ध नदियाँ तथा महान् ऋद्धिसम्पन्न सात समुद्र और जो कुछ भी वस्तुएँ हैं, वे सब इसीमें प्रतिष्ठित हैं, बाहर नहीं, हे मुनिश्रेष्ठ ! इसे बुद्धिसे विचार करना चाहिये ॥ २८-३२ ॥ स्त्रीपुंरूपमिदं विश्वं शिवशक्त्यात्मकं बुधैः । भवादृशैरुपास्यं स्याच्छिवज्ञानविशारदैः ॥ ३३ ॥ शिवज्ञानविशारद आप-जैसे बुद्धिमानोंको इसीकी उपासना करनी चाहिये; क्योंकि यह सारा स्त्री-पुरुषरूप विश्व शिवशक्तिस्वरूप है ॥ ३३ ॥ सर्वं ब्रह्मेत्युपासीत सर्वं वै रुद्र इत्यपि । श्रुतिराह मुने तस्मात्प्रपञ्चात्मा सदाशिवः ॥ ३४ ॥ हे मुने ! यह सब ब्रह्म है, यह सब रुद्र है-ऐसा मानकर उपासना करनी चाहिये-श्रुति ऐसा कहती है तथा इसीलिये सदाशिव इस प्रपंचकी आत्मा कहे जाते हैं ॥ ३४ ॥ अष्टत्रिंशत्कलान्याससामर्थ्याद् द्वैतभावना । सदाशिवोऽहमेवेति भावितात्मा गुरुः शिवः ॥ ३५ ॥ एवं विचारी सच्छिष्यो गुरुः स्यात्स शिवः स्वयम् । प्रपञ्चदेवतायन्त्रमन्त्रात्मा न हि संशयः ॥ ३६ ॥ अड़तीस कलाओंके न्याससम्पादनमें जो समर्थ हैं तथा 'मैं सदा शिवसे सर्वथा अभिन्न हूँ', ऐसी अद्वैत भावनासे युक्त जो गुरु हैं, वे साक्षात् सदाशिव ही हैं तथा शिवस्वरूप गुरु ही प्रपंच, देवता, यन्त्र तथा मन्त्रस्वरूप भी हैं, इसमें संशय नहीं है । इस प्रकारसे विचार करनेवाला वह श्रेष्ठ शिष्य गुरुकी भाँति शिवस्वरूप हो जाता है । ३५-३६ ॥ आचार्यरूपया विप्र संछिन्नाखिलबन्धनः । शिशुः शिवपदासक्तो गुर्वात्मा भवति ध्रुवम् ॥ ३७ ॥ हे विप्र ! आचार्यकी कृपासे सभी बन्धनोंसे मुक्त होकर शिवजीके चरणों में आसक्त हुआ शिष्य निश्चित रूपसे महान् आत्मावाला हो जाता है ॥ ३७ ॥ यदस्ति वस्तु तत्सर्वं गुणप्राधान्ययोगतः । समस्तं व्यस्तमपि च प्रणवार्थं प्रचक्षते ॥ ३८ ॥ रागादिदोषरहितं वेदसारः शिवोदितम् । तुभ्यं मे कथितं प्रीत्याद्वैतज्ञानं शिवप्रियम् ॥ ३९ ॥ [इस जगत्में] जो भी वस्तु है, वह सब गुणोंकी प्रधानताके कारण समष्टि और व्यष्टिरूपसे प्रणवके ही अर्थको कहती है । रागादि दोषोंसे रहित, वेदोंका सारस्वरूप, शिवप्रिय तथा शिवजीद्वारा कथित यह अद्वैतज्ञान मैंने आपसे प्रेमपूर्वक कह दिया ॥ ३८-३९ ॥ यो ह्यन्यथैतन्मनुते मद्वचो मदगर्वितः । देवो वा मानवः सिद्धो गन्धर्वो मनुजोऽपि वा ॥ ४० ॥ दुरात्मनस्तस्य शिरः छिंद्यां समतया ध्रुवम् । सच्छक्त्या रिपुकालाग्निकल्पया न हि संशयः ॥ ४१ ॥ जो अहंकारमें भरकर मेरी बातको मिथ्या कहेगा, वह देवता, दानव, सिद्ध, गन्धर्व अथवा मनुष्य कोई भी हो, मैं अवश्य ही उस दुरात्माका सिर शत्रुओंके लिये कालाग्निके समान अपनी महान् शक्तिसे काट दूंगा, इसमें सन्देह नहीं है । ४०-४१ ॥ भवानेव मुने साक्षाच्छिवाद्वैतविदां वरः । शिवज्ञानोपदेशे हि शिवाचारप्रदर्शकः ॥ ४२ ॥ यद्देहभस्मसम्पर्कात्संछिन्नाघव्रजोऽशुचिः । महापिशाचः सम्प्राप्य त्वत्कृपातः सतां गतिम् ॥ ४३ ॥ हे मुने ! आप तो साक्षात् शैवाद्वैतवेत्ताओंमें सर्वश्रेष्ठ हैं और शिवज्ञानके उपदेश [करनेमें कुशल] तथा शिवाचारके प्रदर्शक हैं. जिन आपके देहकी भस्मके स्पर्शमात्रसे अपवित्र महापिशाचने भी पापराशिको ध्वस्तकर आपकी कृपासे सद्गतिको प्राप्त किया था * ॥ ४२-४३ ॥ शिवयोगीति संख्यातत्रिलोकविभवो भवान् । भवत्कटाक्षसम्पर्कात्पशु पशुपतिर्भवेत् ॥ ४४ ॥ तव तस्य मयि प्रेक्षा लोकाशिक्षार्थमादरात् । लोकोपकारकरणे विचरन्तीह साधवः ॥ ४५ ॥ त्रैलोक्यका ऐश्वर्य धारण करनेवाले आप शिवयोगी कहे जाते हैं । आपकी कृपादृष्टिके पड़ते ही पशु भी पशुपति अर्थात् साक्षात् शिव हो जाता है । आपने जो आदरपूर्वक मुझसे प्रश्न किया, वह तो केवल लोकशिक्षाके लिये किया; क्योंकि साधुलोग लोकोपकारके लिये ही इस लोकमें विचरण करते हैं । ४४-४५ ॥ इदं रहस्यं परमं प्रतिष्ठितमतस्त्वयि । त्वमपि श्रद्धया भक्त्या प्रणवेष्वेव सादरम् ॥ ४६ ॥ उपविश्य च तान्सर्वान्संयोज्य परमेश्वरे । शिवाचारं ग्राहयस्व भूतिरुद्राक्षमिश्रितम् ॥ ४७ ॥ यह परम रहस्य सदा आपमें प्रतिष्ठित है ही, अत: आप श्रद्धा एवं भक्तिभावसे आदरपूर्वक अपने मनको प्रणवमें लगाकर उन संसारी जीवोंको परमेश्वरमें युक्त करके उन्हें भस्म और रुद्राक्षमाला [धारण विधिके उपदेश]सहित शिवाचारकी शिक्षा प्रदान करें । ४६-४७ ॥ त्वं शिवो हि शिवाचारी सम्प्राप्ताद्वैतभावतः । विचरँलोकरक्षायै सुखमक्षयमाप्नुहि ॥ ४८ ॥ आप कल्याणमय हैं, शैवोचित आचरण करते हैं और अद्वैत भावनाको प्राप्त हैं, अतः लोकरक्षाहेतु विचरण करते हुए आप अक्षय सुख प्राप्त करें । ४८ ॥ सूत उवाचः - श्रुत्वेदमद्भुतमतं हि षडाननोक्तं वेदान्तनिष्ठितमृषिस्तु विनम्रमूर्त्तिः । भूत्वा प्रणम्य बहुशो भुवि दण्डवत्त- त्पादारविन्दविहरन्मधुपत्वमाप ॥ ४९ ॥ सूतजी बोले-स्कन्दजीद्वारा कथित इस अद्भुत वेदान्तनिष्ठित मतको सुनकर महर्षि वामदेव विनम्र हो कार्तिकेयको पृथ्वीपर बार-बार दण्डवत् प्रणामकर उनके चरणकमलके मकरन्दका भ्रमरके समान आस्वादन करते हुए तत्त्वज्ञ हो गये ॥ ४९ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे षष्ठ्यां कैलाससंहितायां शिवाद्वैतज्ञानकथनादि सृष्टिकथनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत छठी कैलाससंहितामें शिवाद्वैतज्ञानकथनादिसृष्टिकथा नामक सत्रहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |