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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
कैलाससंहिता
॥ एकोनविंशोऽध्यायः ॥ योगपट्टविधिवर्णनम्
महावाक्योंके तात्पर्य तथा योगपट्टविधिका वर्णन सुब्रह्मण्य उवाचः - अथ महावाक्यानि सुब्रह्मण्य बोले-अब महावाक्योंको कहता हूँ (१) प्रज्ञानं ब्रह्म १-प्रज्ञानं ब्रह्म-ब्रह्म उत्कृष्ट ज्ञानस्वरूप अथवा चैतन्यरूप है । (ऐतरेय० ३ । ३ तथा आत्मप्र० १) (२) अहं ब्रह्मास्मि २-अहं ब्रह्मास्मि-वह ब्रह्म मैं हूँ । (बृहदारण्यक०१ । ४ । १०) (३) तत्त्वमसि ३-तत्त्वमसि-वह ब्रह्म तू है । (छा० उ० अ० ६ ख०८ से १६ तक) (४) अयमात्मा ब्रह्म ४-अयमात्मा ब्रह्म-यह आत्मा ब्रह्म है । (माण्डूक्य०२; बृह० २ । ५ । १९) (५) ईशावास्यमिदं सर्वम् ५-ईशा वास्यमिदः सर्वम्-यह सब ईश्वरसे व्याप्त है । (ईशा० १) (६) प्राणोऽस्मि ६-प्राणोऽस्मि-मैं प्राण हूँ । (कौषी० ३) (७) प्रज्ञानात्मा ७-प्रज्ञानात्मा-प्रज्ञानस्वरूप हूँ । (कौषी० ३) (८) यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह ८-यदेवेह तदमुत्र तदन्विह-जो परब्रह्म यहाँ है, वही वहाँ (परलोकमें) भी है; जो वहाँ है, वही यहाँ (इस लोकमें) भी है । (कठ० २ । १ । १०) (९) अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादपि ९-अन्यदेव तद्विदितादधो अविदितादधि-वह ब्रह्म विदित (ज्ञात वस्तुओं)-से भिन्न है और अविदित (अज्ञात)-से भी ऊपर है । (केन० १ । ३) (१०) एष न आत्मान्तर्याम्यमृतः १० एष त आत्मान्तर्याम्यमृतः-वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है । (बृह० ३ । ७ । ३-२३) (११) स यश्चायं पुरुषो यश्चासावादित्ये स एकः ११-स यश्चार्य पुरुषे यश्चासावादित्ये स एक:-वह जो यह पुरुषमें है और वह जो यह आदित्यमें है, एक ही है । (तैत्तिरीय० २ । ८) (१२) अहमस्मि परं ब्रह्म परं परपरात्परम् १२-अहमस्मि परं ब्रह्म परापरपरात्परम्-मैं परापरस्वरूप परात्पर परब्रह्म हूँ । (१३) वेदशास्त्रगुरुत्वात्तु स्वयमानंदलक्षणम् १३-वेदशास्त्रगुरूणां तु स्वयमानन्दलक्षणम्वेदों, शास्त्रों और गुरुजनोंके वचनोंसे स्वयं ही हृदयमें आनन्दस्वरूप ब्रह्मका अनुभव होने लगता है । (१४) सर्वभूतस्थितं ब्रह्म तदेवाहं न संशयः १४-सर्वभूतस्थितं ब्रह्म तदेवाहं न संशयः-जो सम्पूर्ण भूतोंमें स्थित है, वही ब्रह्म मैं हूँ-इसमें संशय नहीं है । (१५) तत्त्वतस्य प्राणोहमस्मि पृथिव्याः प्राणोहमस्मि १५-तत्त्वस्य प्राणोऽहमस्मि पृथिव्याः प्राणोऽहमस्मि-मैं तत्त्वका प्राण हूँ, पृथ्वीका प्राण हूँ ॥ (१६) अपां च प्राणोहमस्मि तेजसश्च प्राणोहमस्मि १६-अपां च प्राणोऽहमस्मि तेजसश्च प्राणोऽहमस्मि-मैं जलका प्राण हूँ, तेजका प्राण हूँ । (१७) वायोश्च प्राणोहमस्मि आकाशस्य प्राणोहमस्मि १७-वायोश्च प्राणोऽहमस्मि आकाशस्य प्राणोऽहमस्मि-मैं वायुका प्राण हूँ, मैं आकाशका प्राण हूँ । (१८) त्रिगुणस्य प्राणोहमस्मि १८ त्रिगुणस्य प्राणोऽहमस्मि-मैं त्रिगुणका प्राण (१९) सर्वोऽहं सर्वात्मकोऽहं संसारी यद्भूतं यच्च भव्यं यद्वर्तमानं सर्वात्मकत्वादद्वितीयोहम् १९-सर्वोऽहं सर्वात्मको संसारी यद्भुतं यच्च भव्यं यद्वर्तमानं सर्वात्मकत्वादद्वितीयोऽहम्-मैं सब हूँ, सर्वरूप हूँ, संसारी जीवात्मा हूँ जो भूत, वर्तमान और भविष्य है, वह सब मेरा ही स्वरूप होनेके कारण मैं अद्वितीय परमात्मा हूँ । (२०) सर्वं खल्विदं ब्रह्म २०-सर्वं खल्विदं ब्रह्म-यह सब निश्चय ही ब्रह्म है । (छान्दोग्य०३ । १४ । १) (२१)सर्वोऽहं विमुक्तोऽहम् २१-सर्वोऽहं विमुक्तोऽहम्-मैं सर्वरूप हूँ, मुक्त (२२) योऽसौ सोहं हंसः सोहमस्मि । २२-योऽसौ सोऽहं हंसः सोऽहमस्मि-जो वह है, वह मैं हूँ । मैं वह हूँ और वह मैं हूँ । "इत्येवं सर्वत्र सदा ध्यायेदिति'' । इस प्रकार सर्वत्र चिन्तन करे । ॥ अथ महावाक्यानामर्थमाह ॥ अब इन महावाक्योंका भावार्थ कहते हैं- प्रज्ञानं ब्रह्मवाक्यार्थः पूर्वमेव प्रबोधितः । अहंपदस्यार्थभूतः शक्त्यात्मा परमेश्वरः ॥ १ ॥ 'प्रज्ञानं ब्रह्म' का वाक्यार्थ पहले ही समझाया जा चुका है । (अब 'अहं ब्रह्मास्मि' का अर्थ बताया जाता है । ) शक्तिस्वरूप अथवा शक्तियुक्त परमेश्वर ही 'अहम्' पदके अर्थभूत हैं ॥ १ ॥ अकारः सर्ववर्णाग्र्यः प्रकाशः परमः शिवः । हकारो व्योमरूपः स्याच्छक्त्यात्मा संप्रकीर्तितः ॥ २ ॥ शिवशक्त्योस्तु संयोगादानन्दः सततोदितः । ब्रह्मेति शिवशक्त्योस्तु सर्वात्मत्वमिति स्फुटम् ॥ ३ ॥ 'अकार' सब वौँका अग्रगण्य, परम प्रकाश शिवरूप है । 'हकार के व्योमस्वरूप होनेके कारण उसका शक्तिरूपसे वर्णन किया गया है । शिव और शक्तिके संयोगसे सदा आनन्द उदित होता है । ['मकार' उसी आनन्दका बोधक है । ] 'ब्रह्म' शब्दसे शिवशक्तिकी सर्वरूपता स्पष्ट ही सूचित होती है ॥ २-३ ॥ पूर्वमेवोपदिष्टं तत्सोहमस्मीति भावयेत् । तत्त्वमित्यत्र तदिति सशब्दार्थः प्रबोधितः ॥ ४ ॥ अन्यथा सोऽहमित्यत्र विपरीतार्थभावना । अहंशब्दस्तु पुरुषस्तदिति स्यान्नपुंसकम् । एवमन्योऽन्यवैरुध्यादन्वयो न भवेत्तयोः ॥ ५ ॥ स्त्रीपुंरूपस्य जगतः कारणं चान्यथा भवेत् । स तत्त्वमसि इत्येवमुपदेशार्थभावना ॥ ६ ॥ पहले ही इस बातका उपदेश किया गया है कि वह शक्तिमान् परमेश्वर मैं हूँ, ऐसी भावना करनी चाहिये । [अब तत्त्वमसिका अर्थ कहते हैं-] 'तत्त्वमसि' इस वाक्यमें तत्पदका वही अर्थ है, जो 'सोऽहमस्मि' में सः' पदका अर्थ बताया गया है अर्थात् तत्पद शक्त्यात्मक परमेश्वरका ही वाचक है, अन्यथा 'सोऽहम्' इस वाक्यमें विपरीत अर्थकी भावना हो सकती है । क्योंकि 'अहम्' पद पुल्लिंग है, अत: 'सः 'के साथ उसका अन्वय हो जायगा; परंतु 'तत्' पद नपुंसक है और 'त्वम्' पुल्लिंग, अत: परस्परविरोधीलिंग होनेके कारण उन दोनोंमें अन्वय नहीं हो सकता । जब दोनोंका अर्थ 'शक्तिमान् परमेश्वर' होगा, तब अर्थमें समानलिंगता होनेसे अन्वयमें अनुपपत्ति नहीं होगी । यदि ऐसा न माना जाय तो स्त्री-पुरुषरूप जगत्का कारण भी किसी और ही प्रकारका होगा । इसलिये 'सोऽहमस्मि'का 'सः' और 'तत्त्वमसि'का तत्-ये दोनों समानार्थक हैं । इन महावाक्योंके उपदेशसे एक ही अर्थकी भावनाका विधान है ॥ ४-६ ॥ अयमात्मेति वाक्ये च पुंरूपं पदयुग्मकम् । ईशेन रक्षणीयत्वादीशावस्यमिदं जगत् ॥ ७ ॥ प्रज्ञानात्मा यदेवेह तदमुत्रेति चिन्तयेत् । यः स एवेति विद्वद्भिः सिद्धान्तिभिरिहोच्यते ॥ ८ ॥ [अब 'अयमात्मा ब्रह्म' का अर्थ बताया जाता है-] 'अयमात्मा ब्रह्म' इस वाक्यमें 'अयम्' और 'आत्मा'-ये दोनों पद पुल्लिग-रूप हैं । अत: यहाँ अन्वयमें बाधा नहीं है । 'अयम्' शक्तिमान् परमेश्वररूप आत्मा ब्रह्म है-यह इस वाक्यका तात्पर्य है । [अब'ईशावास्यमिदं सर्वम्'का भावार्थ बता रहे हैं-] परमेश्वरसे रक्षणीय होनेके कारण यह सम्पूर्ण जगत् उनसे व्याप्त है । [अब 'प्राणोऽस्मि' 'प्रज्ञानात्मा' और 'यदेवेह तदमुत्र०' इन वाक्योंके अर्थपर विचार किया जाता है-] मैं प्रज्ञानस्वरूप प्राण हूँ । यहाँ प्राण शब्द परमेश्वरका ही वाचक है । जो यहाँ है, वह वहाँ है-ऐसा चिन्तन करे । यहाँ 'यत्, तत्' का अर्थ क्रमशः 'यः' और 'सः' है अर्थात् जो परमात्मा यहाँ है, वह परमात्मा वहाँ है-ऐसा सिद्धान्तपक्षका अवलम्बन करनेवाले विद्वानोंने कहा है ॥ ७-८ ॥ उपरिस्थितवाक्ये च योऽमुत्र स इह स्थितः । इति पूर्ववदेवार्थः पुरुषो विदुषां मतः ॥ ९ ॥ उपर्युक्त वाक्यमें यदमुत्र तदन्विह' इस वाक्यांशका भाव यह है कि 'योऽमुत्र स इह स्थितः' अर्थात् जो परमात्मा वहाँ परलोकमें स्थित है, वही यहाँ (इस लोकमें) भी स्थित है । इस प्रकार विद्वानोंको पहलेके समान ही परमपुरुष परमात्मारूप अर्थ यहाँ अभीष्ट है ॥ ९ ॥ अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादपि । अस्मिन्वाक्ये फलस्यापि वैपरीत्यविभावना ॥ १० ॥ यथास्यात्तद्वदेवात्र वक्ष्यामि श्रूयतां मुने । अयथाविदिताशब्दो पूर्ववद्विदितादिति ॥ ११ ॥ प्रवृत्तः स्यात्तद्विदितात्तथैवाविदितात्परम् । अन्यदेव हि संसिद्ध्यै न भवेदिति निश्चितम् ॥ १२ ॥ [अब 'अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि' इस वाक्यपर विचार करते हैं-] मुने ! 'अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि' इस वाक्यमें जिस प्रकार फलकी भी विपरीतताकी भावना होती है, उसे यहाँ बताता हूँ सुनो । 'विदितात्' यह पद 'अयथाविदितात्' के अर्थमें प्रवृत्त हो सकता है । वह विदितसे भिन्न है अर्थात् जो असम्यगपसे ज्ञात है, उससे भिन्न है । इसी प्रकार जो यथावत् रूपसे विदित नहीं है, उससे भी पृथक् है । इस कथनसे यह निश्चित होता है कि मुक्तिरूप फलकी सिद्धिके लिये कोई और ही तत्त्व है, जो विदिताविदितसे पर है । परंतु जो आत्मा है, वह सर्वरूप है, वह किसीसे अन्य नहीं हो सकता । अतः आत्मा या ब्रह्म आदि पद पूर्ववत् शक्तिमान् परमेश्वर शिवके ही बोधक हैं, यह मानना चाहिये ॥ १०-१२ ॥ एष त आत्मान्तर्यामी योऽमृतश्च शिवः स्वयम् । यश्चायं पुरुषे शंभुर्यश्चादित्ये व्यवस्थितः ॥ १३ ॥ स चाऽसौ सेति पार्थक्यं नैकं सर्वं स ईरितः । सोपाधिद्वयमस्यार्थ उपचारात्तथोच्यते ॥ १४ ॥ [अब एष त आत्मा' तथा 'यश्चार्य पुरुषे' इन दो वाक्योंके अर्थपर विचार किया जाता है-] यह तुम्हारा अन्तर्यामी आत्मा है, जो स्वयं ही अमृतस्वरूप शिव है । यह जो पुरुषमें शम्भु है, वही सूर्यमें भी स्थित है । इन दोनोंमें कोई भेद नहीं है । जो पुरुषमें है, वही आदित्यमें है । इन दोनोंमें पृथक्ता नहीं है । वह तत्त्व एक ही है । उसीको सर्वरूप कहा गया है । पुरुष और आदित्य-इन दो उपाधियोंसे युक्त जो अर्थ किया जाता है, वह औपचारिक है ॥ १३-१४ ॥ तं शम्भुनाथं श्रुतयो वदन्ति हि हिरण्मयम् । हिरण्यबाहव इति सर्वाङ्गस्योपलक्षलम् ॥ १५ ॥ अन्यथा तत्पतित्वं तु न भवेदिति यत्नतः । य एषोऽन्तरिति शंभुश्छान्दोग्ये श्रूयते शिवः ॥ १६ ॥ हिरण्यश्मश्रुवांस्तद्वद्धिरण्यमयकेशवान् । नखमारभ्य केशाग्रा सर्वत्रापि हिरण्मयः ॥ १७ ॥ उन शम्भुनाथको सब श्रुतियाँ हिरण्यमय बताती हैं । 'हिरण्यबाहवे नमः' इसमें जो 'बाहु' शब्द है, वह सब अंगोंका उपलक्षण है । अन्यथा उसे हिरण्यपति कहना किसी भी यलसे सम्भव नहीं होता । छान्दोग्योपनिषदें जो यह श्रुति है-'य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते हिरण्यश्मश्रुर्हिरण्यकेश आप्रणखात् सर्व एव सुवर्णः । (छान्दोग्य० १ । ६ । ६) इसके द्वारा आदित्य-मण्डलान्तर्गत पुरुषको सुवर्णमय दाढ़ी-मूंछोंवाला, सुवर्णसदृश केशोंवाला तथा नखसे लेकर केशाग्रभागपर्यन्त सारा-का-सारा सुवर्णमय-प्रकाशमय ही बताया गया है । अतः वह हिरण्यमय पुरुष साक्षात् शम्भु ही हैं ॥ १५-१७ ॥ अहमस्मि परं ब्रह्म परापरपरात्परम् । इति वाक्यस्य तात्पर्यं वदामि श्रूयतामिदम् ॥ १८ ॥ अहंपदस्यार्थभूतः शक्त्यात्मा शिव ईरितः । स एवास्मीति वाक्यार्थ योजना भवति ध्रुवम् ॥ १९ ॥ सर्वोत्कृष्टश्च सर्वात्मा परब्रह्म स ईरितः । परश्चाथापरश्चेति परात्परमिति त्रिधा ॥ २० ॥ रुद्रो ब्रह्मा च विष्णुश्च प्रोक्ताः श्रुत्यैव नान्यथा । तेभ्यश्च परमो देवः परशब्देन बोधितः ॥ २१ ॥ अब 'अहमस्मि परं ब्रह्म परापरपरात्परम्' इस वाक्यका तात्पर्य बताता हूँ, सुनो । 'अहम्' पदके अर्थभूत सत्यात्मा शिव ही बताये गये हैं । वे ही शिव मैं हूँ, ऐसी वाक्यार्थयोजना अवश्य होती है । उन्हींको सबसे उत्कृष्ट और सर्वस्वरूप परब्रह्म कहा गया है । उसके तीन भेद हैं-पर, अपर तथा परात्पर । रुद्र, ब्रह्मा और विष्णु-ये तीन देवता श्रुतिने ही बताये हैं । ये ही क्रमशः पर, अपर तथा परात्पररूप हैं । इन तीनोंसे भी जो श्रेष्ठ देवता हैं, वे शम्भु 'परब्रह्म' शब्दसे कहे गये हैं ॥ १८-२१ ॥ वेदशास्त्र गुरूणां च वाक्याभ्यासवशाच्छिशोः । पूर्णानन्दमयः शंभुः प्रादुर्भूतो भवेद्धृदि ॥ २२ ॥ सर्वभूतस्थितः शम्भुः स एवाहं न संशयः । तत्त्वजातस्य सर्वस्य प्राणोऽस्म्यहमहं शिवः ॥ २३ ॥ वेदों, शास्त्रों और गुरुके वचनोंके अभ्याससे शिष्यके हदयमें स्वयं ही पूर्णानन्दमय शम्भुका प्रादुर्भाव होता है । सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें विराजमान शम्भु ब्रह्मरूप ही हैं । वही मैं हूँ, इसमें संशय नहीं है । मैं शिव ही सम्पूर्ण तत्त्वसमुदायका प्राण हूँ ॥ २२-२३ ॥ इत्युक्त्वा पुनरप्याह शिवस्तत्त्वत्रयस्य च । प्राणोस्मीत्यत्र पृथ्व्यादिगुणान्तग्रहणान्मुने ॥ २४ ॥ आत्मतत्त्वानि सर्वाणि गृहीतानीति भावय । पुनश्च सर्वग्रहणं विद्याततत्त्वे शिवात्मनोः ॥ २५ ॥ ऐसा कहकर स्कन्दजी फिर कहते हैं-मुने ! मैं शिव आत्मतत्त्व, विद्यातत्त्व और शिवतत्त्व-इन तीनोंका प्राण हूँ । पृथिवी आदिका भी प्राण हूँ । पृथ्वी आदिके गुणोंतकका ग्रहण होनेसे यह समझ लो कि यहाँ सारे आत्मतत्त्व गृहीत हो गये । फिर सबका ग्रहण विद्यातत्त्व और शिवतत्त्वका भी ग्रहण कराता है ॥ २४-२५ ॥ तत्त्वयोश्चास्म्यहं प्राणाः सर्वः सर्वात्मको ह्यहम् । जीवस्य चान्तर्यामित्वाज्जीवोऽहं तस्य सर्वदा ॥ २६ ॥ यद्भूतं यच्च भव्यं यद्भविष्यत्सर्वमेव च । मन्मयत्वादहं सर्वः सर्वो वै रुद्र इत्यपि ॥ २७ ॥ श्रुतिराह मुने सा हि साक्षाच्छिवमुखोद्गता । सर्वात्मा परमैरेभिर्गुणैर्नित्यसमन्वयात् ॥ २८ ॥ स्वस्मात्परात्मविरहादद्वितीयोऽहमेव हि । सर्वं खल्विदं ब्रह्मेति वाक्यार्थः पूर्वमीरितः ॥ २९ ॥ इन सब तत्त्वोंका मैं प्राण हूँ । मैं सर्व हूँ. सर्वात्मक हूँ, जीवका भी अन्तर्यामी होनेसे उसका भी जीव (आत्मा) हूँ । जो भूत, वर्तमान और भविष्यत्काल है, वह सब मेरा स्वरूप होनेके कारण मैं ही हूँ । सर्वो वै रुद्रः' (सब कुछ रुद्र ही है)-यह श्रुति साक्षात् शिवके मुखसे प्रकट हुई है । अतः शिव ही सर्वरूप हैं; क्योंकि उन्हींका इन समस्त उत्कृष्ट गुणोंसे नित्य सम्बन्ध है । अपने और परायेके भेदसे रहित होनेके कारण मैं ही अद्वितीय आत्मा हूँ । सर्व खल्विदं ब्रह्म' इस वाक्यका अर्थ पहले बताया जा चुका है ॥ २६-२९ ॥ पूर्णोऽहं भावरूपत्वान्नित्यमुक्तोऽहमेव हि । पशवो मत्प्रसादेन मुक्ता मद्भावमाश्रिताः ॥ ३० ॥ योऽसौ सर्वात्मकः शम्भुः सोऽहं हंस शिवोऽस्म्यहम् । इति वै सर्ववाक्यार्थो वामदेव शिवोदितः ॥ ३१ ॥ मैं भावरूप होनेके कारण पूर्ण हूँ । नित्यमुक्त भी मैं ही हूँ । पशु (जीव) मेरी कृपासे मुक्त होकर मेरे स्वरूपको प्राप्त होते हैं । जो सर्वात्मक शम्भु हैं, वहीं मैं हूँ । मैं हंसरूप तथा शिवरूप हूँ । वामदेव ! इस प्रकार सम्पूर्ण वाक्योंके अर्थ भगवान् शिव ही बताये गये हैं ॥ ३०-३१ ॥ इतीशश्रुतिवाक्याभ्यामुपदिष्टार्थमादरात् । साक्षाच्छिवैक्यदं पुंसां शिशोगुरुरुपादिशेत् ॥ ३२ ॥ ईशावास्योपनिषद्की श्रुतिके दो वाक्योंद्वारा प्रतिपादित अर्थ साक्षात् शिवकी एकताका ज्ञान प्रदान करनेवाला होता है । गुरुको चाहिये कि शिष्योंको इसका आदरपूर्वक उपदेश करे ॥ ३२ ॥ आदाय शंखं साधारमस्त्रमन्त्रेण भस्मना । शोध्य तत्पुरतः स्थाप्य चतुरस्रे समर्चिते ॥ ३३ ॥ ओमित्यभ्यर्च्य गन्धाद्यैरस्त्रं वस्त्रोपशोभितम् । वासितं जलमापूर्य सम्पूज्योमिति मन्त्रतः ॥ ३४ ॥ गुरुको उचित है कि वे आधारसहित शंखको लेकर अस्त्र-मन्त्र (फ)-से तथा भस्मद्वारा उसकी शुद्धि करके उसे अपने सामने पूजित हुए चौकोर मण्डलमें स्थापित करे । फिर ओंकारका उच्चारण करके गन्ध आदिके द्वारा उस शंखकी पूजा करे । उसमें वस्त्र लपेट दे और सुगन्धित जल भरकर प्रणवका उच्चारण करते हुए उसका पूजन करे ॥ ३३-३४ ॥ सप्तधैवाभिमन्त्र्याथ प्रणवेन पुनश्च तम् । यस्त्वन्तरं किंचिदस्ति कुरुते सोऽतिभीतिभाक् ॥ ३५ ॥ इत्याह श्रुतिसत्तत्त्वं दृढात्मा गतभीर्भव । इत्याभाष्य स्वयं शिष्यं देवं ध्यायन् समर्चयेत् ॥ ३६ ॥ तत्पश्चात् सात बार प्रणवके द्वारा फिर उस शंखको अभिमन्त्रित करके शिष्यसे कहे-'हे शिष्य ! जो थोड़ा-सा भी अन्तर करता है-भेदभाव रखता है, वह भयका भागी होता है । यह श्रुतिका सिद्धान्त बताया गया, इसलिये तुम अपने चित्तको स्थिर करके निर्भय हो जाओ । ' ऐसा कहकर गुरु स्वयं महादेवजीका ध्यान करते हुए उन्हींके रूपमें शिष्यका अर्चन करे । ३५-३६ ॥ शिष्यासनं सम्प्रपूज्य षडुत्थापनमार्गतः । शिवासनं च सङ्कल्प्य शिवमूर्तिं प्रकल्पयेत् ॥ ३७ ॥ पञ्च ब्रह्माणि विन्यस्य शिरः पादावसानकम् । मुण्डवत्क्रकलाभेदैः प्रणवस्य कला अपि ॥ ३८ ॥ अष्टत्रिंशन्मन्त्ररूपाः शिष्यदेहेऽथ मस्तके । समावाह्य शिवं मुद्राः स्थापनीयाः प्रदर्शयेत् ॥ ३९ ॥ ततश्चाङ्गानि विन्यस्य सर्वज्ञानीत्यनुक्रमात् । कल्पयेदुपचारांश्च षोडशासनपूर्वकान् ॥ ४० ॥ शिष्यके आसनकी पूजा करके उसमें शिवके आसन और शिवकी मूर्तिकी भावना करे । फिर सिरसे पैरतक 'सद्योजातादि' पाँच मन्त्रोंका न्यास करके मस्तक, मुख और कलाओंके भेदसे प्रणवकी कलाओंका भी न्यास करे । शिष्यके शरीरमें अड़तीस मन्त्ररूपा प्रणवकी कलाओंका न्यास करके उसके मस्तकपर शिवका आवाहन करे । तत्पश्चात् स्थापनी आदि मुद्राओंका प्रदर्शन करे । फिर सर्वज्ञादि मन्त्रसे क्रमशः अंगन्यास करके आसनपूर्वक षोडश उपचारोंकी कल्पना करे ॥ ३७-४० ॥ पायसान्नञ्च नैवेद्यं समर्प्योमग्निजायया । गण्डूषाचमनार्घ्यादि धूपदीपादिकं क्रमात् ॥ ४१ ॥ नामाष्टकेन सम्पूज्य ब्राह्मणैर्वेदपारगैः । जपेद् ब्रह्मविदाप्नोति भृगुर्वै वारुणिस्ततः ॥ ४२ ॥ खीरका नैवेद्य अर्पण करके 'ॐ स्वाहा' का उच्चारण करे । कुल्ला और आचमन कराये । अर्घ्य आदि देकर क्रमशः धूप-दीपादि समर्पित करे । शिवके आठ नामोंसे पूजन करके वेदोंके पारंगत ब्राह्मणोंके साथ 'ब्रह्मविदाप्नोति परम्' इत्यादि ब्रह्मानन्दवल्लीके मन्त्रोंको तथा 'भृगुवै वारुणिः' इत्यादि भृगुवल्लीके मन्त्रोंको पढ़े ॥ ४१-४२ ॥ यो देवानामुपक्रम्यः यः परः स महेश्वरः । इत्यन्तं तस्य पुरतः कह्लारादिविर्निताम् ॥ ४३ ॥ आदाय मालामुत्थाय श्रीविरूपाक्ष निर्मिते । शास्त्रे पंचास्यके रूपे सिद्धिस्कन्धं जपेच्छनैः ॥ ४४ ॥ ख्यातिः पूर्णोऽहमित्यन्तं सानुकूलेन चेतसा । देशिकस्तस्य शिष्यस्य कण्ठदेशे समर्पयेत् ॥ ४५ ॥ तत्पश्चात् 'यो देवानां प्रथम पुरस्तात्'(१०१३) से लेकर 'तस्य प्रकृतिलीनस्य यः परः स महेश्वरः' (१०१८) तक [महानारायणोपनिषद्के मन्त्रोंका] पाठ करे । इसके बाद शिष्यके सामने कहार आदिकी बनी हुई माला लेकर खड़े हो गुरु शिवनिर्मित पांचास्यिक शास्त्रके सिद्धिस्कन्धका धीरे-धीरे जप करे । अनुकूल चित्तसे 'ख्यातिः पूर्णोऽहम्' इस मन्त्रतकका जप करके गुरु उस मालाको शिष्यके कण्ठमें पहना दे ॥ ४३-४५ ॥ तिलकं चन्दनेनाथ सर्वाङ्गालेपनं पुनः । स्वसम्प्रदायानुगुणं कारयेच्च यथाविधि ॥ ४६ ॥ ततश्च देशिकः प्रीत्या नामश्रीपादसंज्ञितम् । छत्रं च पादुकां दद्याद् दूर्वाकल्पविकल्पनम् ॥ ४७ ॥ व्याख्यातत्वं च कर्म्मादि गुर्वासनपरिग्रहम् । अनुगृह्य गुरुस्तस्मै शिष्याय शिवरूपिणे ॥ ४८ ॥ शिवोऽहमस्मीति सदा समाधिस्थो भवेति तम् । सम्प्रोच्याथ स्वयं तस्मै नमस्कारं समाचरेत् ॥ ४९ ॥ तदनन्तर ललाटमें तिलक लगाकर सम्प्रदायके अनुसार उसके सर्वांगमें विधिवत् चन्दनका लेप कराये । तत्पश्चात् गुरु प्रसन्नतापूर्वक श्रीपादयुक्त नाम देकर शिष्यको छत्र और चरणपादुका अर्पित करे । उसे व्याख्यान देने तथा आवश्यक कर्म आदिके लिये गुर्वासन ग्रहण करनेका तथा दूर्वार्चनका अधिकार दे । फिर गुरु अपने उस शिवरूपी शिष्यपर अनुग्रह करके कहे-"तुम सदा समाधिस्थ रहकर 'मैं शिव हूँ' इस प्रकारकी भावना करते रहो । " यों कहकर वह स्वयं शिष्यको नमस्कार करे ॥ ४६-४९ ॥ सम्प्रदायानुगुण्येन नमस्कुर्युस्तथापरे । शिष्यस्तदा समुत्थाय नमस्कुर्याद् गुरुं तथा । गुरोरपि गुरुं तस्य शिष्यांश्च स्वगुरोरपि ॥ ५० ॥ फिर सम्प्रदायकी मर्यादाके अनुसार दूसरे लोग भी उसे नमस्कार करें । उस समय शिष्य उठकर गुरुको नमस्कार करे । अपने गुरुके गुरुको और उनके शिष्योंको भी मस्तक झुकाये ॥ ५० ॥ एवं कृतनमस्कारं शिष्यं दद्याद् गुरुः स्वयम् । सुशीलं यतवाचं तं विनयावनतं स्थितम् ॥ ५१ ॥ अद्यप्रभृति लोकानामनुग्रहपरो भव । परीक्ष्य वत्सरं शिष्यमङ्गीकुरु विधानतः ॥ ५२ ॥ इस प्रकार नमस्कार करके सुशील शिष्य जब मौन और विनीतभावसे गुरुके समीप खड़ा हो, तब गुरु स्वयं उसे इस प्रकारका उपदेश दे-'बेटा ! आजसे तुम समस्त लोकोंपर अनुग्रह करते रहो । यदि कोई शिष्य होनेके लिये आये तो पहले एक वर्षतक उसकी परीक्षा कर लो, फिर शास्वविधिके अनुसार उसे शिष्य बनाओ ॥ ५१-५२ ॥ रागादिदोषान्सन्त्यज्य शिवध्यानपरो भव । सत्सम्प्रदायसंसिद्धैः सङ्गं कुरु न चेतरैः ॥ ५३ ॥ अनभ्यर्च्य शिवं जातु मा भुंक्ष्वाप्राणसक्षयम् । गुरुभक्तिं समास्थाय सुखी भव सुखी भव ॥ ५४ ॥ राग आदि दोषोंका त्याग करके निरन्तर शिवका चिन्तन करते रहो । श्रेष्ठ सम्प्रदायके सिद्ध पुरुषोंका संग करो, दूसरोंका नहीं । प्राणोंपर संकट आ जाय तो भी शिवका पूजन किये बिना कभी भोजन न करो । गुरुभक्तिका आश्रय ले सुखी रहो, सुखी रहो । '* ॥ ५३-५४ ॥ इति क्रमाद्गुरुवरो दयालुर्ज्ञानसागरः । सानुकूलेन चित्तेन समं शिष्यं समाचरेत् ॥ ५५ ॥ इस उपदिष्ट क्रमसे दयालु, ज्ञानसागर श्रेष्ठ गुरु प्रसन्न चित्तसे शिष्यको अपने समान बना दे ॥ ५५ ॥ तव स्नेहान्मयायं वै वामदेव मुनीश्वर । योगपट्टप्रकारस्ते प्रोक्तो गुह्यतरोऽपि हि ॥ ५६ ॥ इत्युक्त्वा षण्मुखस्तस्मै क्षौरस्नानविधिक्रमम् । वक्तुमारभते प्रीत्या यतीनां कृपया शुभम् ॥ ५७ ॥ मुनीश्वर वामदेव ! तुम्हारे स्नेहवश अत्यन्त गोपनीय होनेपर भी मैंने यह योगपट्टका प्रकार तुम्हें बताया है । ऐसा कहकर स्कन्दने यतियोंपर कृपा करके उनसे संन्यासियोंके क्षौर और स्नानविधिका वर्णन किया ॥ ५६-५७ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे षष्ठ्यां कैलाससंहितायां योगपट्टविधिवर्णनंनामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत छठी कैलाससंहितामें योगपडविधिवर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |