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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
वायवीयसंहिता (पूर्वखण्ड)
॥ द्वितीयोऽध्यायः ॥ मुनिप्रस्ताववर्णनम्
ऋषियोंका ब्रह्माजीके पास जाकर उनकी स्तुति करके उनसे परमपुरुषके विषयमें प्रश्न करना और ब्रह्माजीका आनन्दमग्न हो 'रुद्र' कहकर उत्तर देना सूत उवाच - पुरा कालेन महता कल्पेऽतीते पुनः पुनः । अस्मिन्नुपस्थिते कल्पे प्रवृत्ते सृष्टिकर्मणि ॥ १ ॥ प्रतिष्ठितायां वार्तायां प्रबुद्धासु प्रजासु च । मुनीनां षट्कुलीयानां ब्रुवतामितरेतरम् ॥ २ ॥ सूतजी बोले-पूर्व समयमें अनेक कल्पोंके पुनःपुनः बीत जानेके बाद जब यह वर्तमान [श्वेतवाराह] कल्प उपस्थित हुआ और सृष्टिका कार्य उपस्थित हुआ, जब जीविकाओंकी प्रतिष्ठा हो गयी और प्रजाएँ सजग हो गयीं, उस समय छः कुलोंमें उत्पन्न हुए मुनिगण आपसमें कहने लगे- ॥ १-२ ॥ इदं परमिदं नेति विवादः सुमहानभूत् । परस्य दुर्निरूपत्वान्न जातस्तत्र निश्चयः ॥ ३ ॥ यह परब्रह्म है, यह नहीं है-इस प्रकारका बहुत बड़ा विवाद उनमें होने लगा और परब्रह्मका निरूपण बहुत कठिन होनेके कारण उस समय कोई निर्णय नहीं हो सका ॥ ३ ॥ तेऽभिजग्मुर्विधातारं द्रष्टुं ब्रह्माणमव्ययम् । यत्रास्ते भगवान् ब्रह्मा स्तूयमानः सुरासुरैः ॥ ४ ॥ मेरुशृङ्गे शुभे रम्ये देवदानवसंकुले । सिद्धचारणसंवादे यक्षगन्धर्वसेविते ॥ ५ ॥ विहङ्गसंघसंघुष्टे मणिविद्रुमभूषिते । निकुंजकन्दरदरीगृहानिर्झरशोभिते ॥ ६ ॥ तब वे मुनिगण सृष्टिकर्ता तथा अविनाशी ब्रह्माजीके दर्शनके लिये [वहाँ] गये, जहाँ देवताओं तथा दानवोंके द्वारा निषेवित, सिद्धों तथा चारणोंसे युक्त, यक्षों तथा गन्धवाँसे सेवित, पक्षिसमूहके कलरवसे भरे हुए, मणियों तथा मूंगोंसे विभूषित और नाना प्रकारके निकुंजकन्दराओं-गुफाओं तथा झरनोंसे शोभित सुन्दर तथा रम्य [स्थानमें] देवताओं तथा दानवोंसे स्तुत होते हुए वे भगवान् ब्रह्मा विराजमान थे ॥ ४-६ ॥ तत्र ब्रह्मवनं नाम नानामृगसमाकुलम् । दशयोजनविस्तीर्णं शतयोजनमायतम् ॥ ७ ॥ सुरसामलपानीयपूर्णरम्यसरोवरम् । मत्तभ्रमरसंछन्नरम्यपुष्पितपादपम् ॥ ८ ॥ वहाँ ब्रह्मवन नामसे प्रसिद्ध एक वन था, जो दस योजन विस्तृत, सौ योजन लम्बा, अनेकविध वन्य पशुओंसे युक्त, सुमधुर तथा स्वच्छ जलसे पूर्ण रमणीय सरोवरसे सुशोभित और मत्त भ्रमरोंसे भरे हुए सुन्दर एवं पुष्पित वृक्षोंसे युक्त था । ७-८ ॥ तरुणादित्यसंकाशं तत्र चारु महत्पुरम् । दुर्धर्षबलदृप्तानां दैत्यदानवरक्षसाम् ॥ ९ ॥ तप्तजांबूनदमयं प्रांशुप्राकारतोरणम् । निर्व्यूहवलभीकूटप्रतोलीशतमण्डितम् ॥ १० ॥ महार्हमणिचित्राभिर्लेलिहानमिवांबरम् । महाभवनकोटीभिरनेकाभिरलङ्कृतम् ॥ ११ ॥ वहाँपर मध्याह्नकालीन सूर्यके जैसी आभावाला एक विशाल, सुन्दर नगर था, जो कि बलसे उन्मत्त दैत्य-दानव-राक्षसादिके लिये अत्यन्त दुर्धर्ष था । वह नगर तपे हुए जाम्बूनदस्वर्णसे निर्मित, ऊँचे गोपुर तथा तोरणवाला था । वह हाथीदाँतसे बनी सैकड़ों छतों तथा मार्गौसे शोभायमान था और आकाशको मानो चूमते हुए से प्रतीत होनेवाले, बहुमूल्य मणियोंसे चित्रित भवनसमूहोंसे अलंकृत था ॥ ९-११ ॥ तस्मिन्निवसति ब्रह्मा सभ्यैः सार्धं प्रजापतिः । तत्र गत्वा महात्मानं साक्षाल्लोकपितामहम् ॥ १२ ॥ ददृशुर्मुनयो देवा देवर्षिगणसेवितम् । शुद्धचामीकरप्रख्यं सर्वाभरणभूषितम् ॥ १३ ॥ प्रसन्नवदनं सौम्यं पद्मपत्रायतेक्षणम् । दिव्यकान्तिसमायुक्तं दिव्यगन्धानुलेपनम् ॥ १४ ॥ दिव्यशुक्लांबरधरं दिव्यमालाविभूषितम् । सुरासुरेन्द्रयोगीन्द्रवन्द्यमानपदांबुजम् ॥ १५ ॥ सर्वलक्षणयुक्ताङ्ग्या लब्धचामरहस्तया । भ्राजमानं सरस्वत्या प्रभयेव दिवाकरम् ॥ १६ ॥ तं दृष्ट्वा मुनयः सर्वे प्रसन्नवदनेक्षणाः । शिरस्यञ्जलिमाधाय तुष्टुवुः सुरपुङ्गवम् ॥ १७ ॥ उसमें प्रजापति ब्रह्मदेव अपने सभासदोंके साथ निवास करते हैं । वहाँ जाकर उन मुनियोंने देवताओं तथा ऋषियोंसे सेवित, शुद्ध सुवर्णके समान प्रभावाले, सभी आभूषणोंसे विभूषित, प्रसन्न मुखमण्डलवाले, सौम्य, कमलदलके सदृश विशाल नेत्रोंवाले, दिव्य कान्तिसे युक्त, दिव्य गन्धका अनुलेप किये हुए, दिव्य श्वेत वस्त्र पहने, दिव्य मालाओंसे विभूषित, देवता-असुर एवं योगीन्द्रोंसे वन्द्यमान चरणकमलवाले, सभी लक्षणोंसे समन्वित अंगोंवाली तथा हाथमें चामर धारण की हुई सरस्वतीके साथ प्रभासे युरु सूर्यकी भाँति सुशोभित होते हुए महात्मा साक्षात् लोकपितामह ब्रह्माको देखा । उन्हें देखकर प्रसन्नमुख तथा नेत्रोंवाले सभी मुनिगण सिरपर अंजलि बाँधकर उन देवश्रेष्ठकी स्तुति करने लगे ॥ १२-१७ ॥ मुनय ऊचुः नमस्त्रिमूर्तये तुभ्यं सर्गस्थित्यन्तहेतवे । पुरुषाय पुराणाय ब्रह्मणे परमात्मने ॥ १८ ॥ मुनिगण बोले-संसारका सृजन, पालन और संहार करनेवाले, त्रिमूर्तिस्वरूप, पुराणपुरुष तथा परमात्मा आप ब्रह्मदेवको नमस्कार है ॥ १८ ॥ नमः प्रधानदेहाय प्रधानक्षोभकारिणे । त्रयोविंशतिभेदेन विकृतायाविकारिणे ॥ १९ ॥ नमो ब्रह्माण्डदेहाय ब्रह्माण्डोदरवर्तिने । तत्र संसिद्धकार्याय संसिद्धकरणाय च ॥ २० ॥ प्रकृति जिनका स्वरूप है, जो प्रकृतिमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाले हैं तथा प्रकृतिरूपमें तेईस प्रकारके विकारोंसे युक्त होकर भी स्वयं अविकृत रहनेवाले हैंऐसे आपको नमस्कार है । ब्रह्माण्डरूप शरीरवाले, ब्रह्माण्डके बीचमें निवास करनेवाले, सम्यक् रूपसे सिद्ध कार्य एवं करणस्वरूप आपको नमस्कार है ॥ १९-२० ॥ नमोऽस्तु सर्वलोकाय सर्वलोकविधायिने । सर्वात्मदेहसंयोगवियोगविधिहेतवे ॥ २१ ॥ जो सर्वलोकस्वरूप, सम्पूर्ण लोकके कर्ता एवं सभीके आत्मा तथा देहका संयोग-वियोग करानेवाले हैं, [उन] आपको नमस्कार है ॥ २१ ॥ त्वयैव निखिलं सृष्टं संहृतं पालितं जगत् । तथापि मायया नाथ न विद्मस्त्वां पितामह ॥ २२ ॥ हे नाथ ! आप ही इस समग्र संसारके उत्पत्तिकर्ता, पालक तथा संहारकर्ता हैं, तथापि हे पितामह ! आपकी मायाके कारण हमलोग आपको नहीं समझ पाते ॥ २२ ॥ सूत उवाच - एवं ब्रह्मा महाभागैर्महर्षिभिरभिष्टुतः । प्राह गंभीरया वाचा मुनीन् प्रह्लादयन्निव ॥ २३ ॥ सूतजी बोले-महाभाग्यशाली महर्षियोंके द्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर ब्रह्माजी उन मुनियोंको हर्षित-सा करते हुए गम्भीर वाणीमें कहने लगे- ॥ २३ ॥ ब्रह्मोवाच ऋषयो हे महाभागा महासत्त्वा महौजसः । किमर्थं संहिताः सर्वे यूयमत्र समागताः ॥ २४ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे महाभाग्यशाली, महाप्राण एवं महातेजस्वी ऋषियो ! आप सभी लोग मिलकर एक साथ यहाँ क्यों आये हैं ? ॥ २४ ॥ तमेवंवादिनं देवं ब्रह्माणं ब्रह्मवित्तमाः । वाग्भिर्विनयगर्भाभिः सर्वे प्रांजलयोऽब्रुवन् ॥ २५ ॥ जब देवाधिदेव ब्रह्माजीने उन लोगोंसे ऐसा कहा, तब हाथ जोड़कर ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ वे सभी ऋषिगण विनयसे समन्वित वाणीमें कहने लगे- ॥ २५ ॥ मुनय ऊचुः भगवन्नन्धकारेण महता वयमावृताः । खिन्ना विवदमानाश्च न पश्यामोऽत्र यत्परम् ॥ २६ ॥ त्वं हि सर्वजगद्धाता सर्वकारणकारणम् । त्वया ह्यविदितं नाथ नेह किंचन विद्यते ॥ २७ ॥ मुनिगण बोले-हे भगवन् ! हमलोग घोर अज्ञानान्धकारसे घिरे हुए हैं, अतः परस्पर विवाद करते हुए दुखी हैं, हमलोगोंको परमतत्त्वका ज्ञान अभीतक नहीं हो पाया है । आप सम्पूर्ण जगत्के पालक हैं और सभी कारणोंके भी कारण हैं । हे नाथ ! आपको इस जगत्में कुछ भी अविदित नहीं है ॥ २६-२७ ॥ कः पुमान् सर्वसत्त्वेभ्यः पुराणः पुरुषः परः । विशुद्धः परिपूर्णश्च शाश्वतः परमेश्वरः ॥ २८ ॥ कौन पुरुष सभी प्राणियोंसे प्राचीन, परम पुरुष, विशुद्ध, परिपूर्ण, शाश्वत तथा परमेश्वर है ॥ २८ ॥ केनैव चित्रकृत्येन प्रथमं सृज्यते जगत् । तत्त्वं वद महाप्राज्ञ स्वसन्देहापनुत्तये ॥ २९ ॥ वह अपने किस विचित्र कृत्यसे सर्वप्रथम इस जगत्का निर्माण करता है । हे महाप्राज्ञ ! हमारे सन्देहको दूर करनेके लिये आप इसे कहिये । २९ ॥ एवं पृष्टस्तदा ब्रह्मा विस्मयस्मेरवीक्षणः । देवानां दानवानां च मुनीनामपि सन्निधौ ॥ ३० ॥ उत्थाय सुचिरं ध्यात्वा रुद्र इत्युच्चरन् गिरम् । आनन्दक्लिन्नसर्वाङ्गः कृतांजलिरभाषत ॥ ३१ ॥ ऐसा पूछे जानेपर ब्रह्माजीके नेत्र आश्चर्यसे खिल उठे और वे देवताओं, दानवों तथा मुनियोंके सामने उठ करके बहुत देरतक ध्यान करते रहे, तदुपरान्त आनन्दसे सिक्त समस्त अंगोंवाले वे 'रुद्ररुद्र' इस प्रकारका शब्द उच्चारण करते हुए हाथ जोड़कर कहने लगे- ॥ ३०-३१ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे मुनिप्रस्ताववर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवौं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें मुनिप्रस्ताववर्णन नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |