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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

वायवीयसंहिता

॥ तृतीयोऽध्यायः ॥


नैमिषोपाख्यानम्
ब्रह्माजीके द्वारा परमतत्त्वके रूपमें भगवान शिवकी महत्ताका प्रतिपादन तथा उनकी आज्ञासे सब मुनियोंका नैमिषारण्यमें आना


ब्रह्मोवाच
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।
आनन्दं यस्य वै विद्वान्न बिभेति कुतश्चन ॥ १ ॥
यस्मात्सर्वमिदं ब्रह्मविष्णुरुद्रेन्द्रपूर्वकम् ।
सह भूतेन्द्रियैः सर्वैः प्रथमं संप्रसूयते ॥ २ ॥
कारणानां च यो धाता ध्याता परमकारणम् ।
न संप्रसूयतेऽन्यस्मात्कुतश्चन कदाचन ॥ ३ ॥
सर्वैश्वर्येण संपन्नो नाम्ना सर्वेश्वरः स्वयम् ।
सर्वैर्मुमुक्षुभिर्ध्येयः शंभुराकाशमध्यगः ॥ ४ ॥
ब्रह्माजी बोले-मनके साथ वाणी जिनको प्राप्त किये बिना ही लौट आती है, जिनके आनन्दमय स्वरूपको प्राप्तकर विद्वान् पुरुष किसीसे भयभीत नहीं होता, जिनसे ये सभी ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र एवं इन्द्रादि देवता उत्पन्न हुए हैं एवं जो सभीके साथ पंचमहाभूतों एवं इन्द्रियोंकी सृष्टि करते हैं, जो सभी कारणोंके कारण हैं, जो धाता एवं ध्याता दोनों हैं, जो अन्य किसीसे कभी भी उत्पन्न नहीं होते, वे सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से सम्पन्न होनेके कारण स्वयं सर्वेश्वर हैं । हृदयाकाशमें रहनेवाले वे महेश्वर सभी मुमुक्षुओंके द्वारा ध्यान किये जानेयोग्य हैं ॥ १-४ ॥

योऽग्रे मां विदधे पुत्रं ज्ञानं च प्रहिणोति मे ।
तत्प्रसादान्मया लब्धं प्राजापत्यमिदं पदम् ॥ ५ ॥
जिन्होंने सर्वप्रथम मुझे पुत्ररूपसे उत्पन्न किया और [वेदोंका] ज्ञान प्रदान किया तथा उन्हींकी कृपासे मैंने इस प्रजापतिपदको प्राप्त किया है ॥ ५ ॥

ईशो वृक्ष इव स्तब्धो य एको दिवि तिष्ठति ।
येनेदमखिलं पूर्णं पुरुषेण महात्मना ॥ ६ ॥
एको बहूनां जन्तूनां निष्क्रियाणां च सक्रियः ।
य एको बहुधा बीजं करोति स महेश्वरः ॥ ७ ॥
जो ईश्वर अकेले ही वृक्षके समान निश्चल हो आकाशमें विराजमान हैं, जिन महात्मा पुरुषसे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, जो अकेले ही सभी निष्क्रिय जीवोंको सक्रिय बनाते हैं और जो अकेले ही एक बीजको अनेक रूपोंमें परिणत कर देते हैं, वे ही महान् ऐश्वर्यवाले हैं ॥ ६-७ ॥

जीवैरेभिरिमाँल्लोकान्सर्वानीशो य ईशते ।
य एको भागवान् रुद्रो न द्वितीयोऽस्ति कश्चन ॥ ८ ॥
जो ईश्वर इन जीवोंसे युक्त सभी लोकॉपर शासन करते हैं, वे एकमात्र भगवान् रुद्र हैं, दूसरा कोई नहीं है ॥ ८ ॥

सदा जनानां हृदये संनिविष्टोऽपि यः परैः ।
अलक्ष्यो लक्षयन्विश्वमधितिष्ठति सर्वदा ॥ ९ ॥
यस्तु कालात्प्रमुक्तानि कारणान्यखिलान्यपि ।
अनन्तशक्तिरेवैको भगवानधितिष्ठति ॥ १० ॥
न यस्य दिवसो रात्रिर्न समानो न चाधिकः ।
स्वभाविकी पराशक्तिर्नित्या ज्ञानक्रिये अपि ॥ ११ ॥
यदिदं क्षरमव्यक्तं यदप्यमृतमक्षरम् ।
तावुभावक्षरात्मानावेको देवः स्वयं हरः ॥ १२ ॥
जो सर्वदा सभी लोगोंके हृदयमें सन्निविष्ट हो करके विश्वको देखते हुए भी दूसरोंके द्वारा देखे नहीं जा पाते और [जगत्में] अधिष्ठित रहते हैं, जो अनन्त शक्तिशाली एकमात्र भगवान् [रुद्र] कालसे भी परे और आत्मा एवं आकाशादि सभी कारणोंमें व्याप्त हैं, जिनके लिये दिन एवं रात्रि कुछ नहीं है, जिनके समान अथवा अधिक कोई नहीं है, जिनकी ज्ञान [बल और] क्रियारूपा पराशक्ति नित्या तथा स्वाभाविकी है, जो क्षर एवं अव्यक्त हैं, अक्षर और अमृत हैं-इस प्रकार क्षर एवं अक्षरभावसे स्थित हैं, वे एकमात्र महेश्वरदेव ही [सर्वोपरि हैं ॥ ९-१२ ॥

ईशते तदभिध्यानाद् योजनः सत्त्वभावनः ।
भूयो ह्यस्य पशोरन्ते विश्वमाया निवर्तते ॥ १३ ॥
। भगवान् शिवके साथ मन:संयोग करनेसे तथा तात्त्विक रूपसे अपनेको उनसे अभिन्न चिन्तन करनेसे जीव सामर्थ्यवान् हो जाता है, उनके ध्यानसे इस जगत्का शासक हो जाता है और उनकी कृपासे अन्तमें पशुरूप जीवकी माया भी निवृत्त हो जाती है ॥ १३ ॥

यस्मिन्न भासते विद्युन्न सूर्यो न च चन्द्रमाः ।
यस्य भासा विभातीदमित्येषा शाश्वती श्रुतिः ॥ १४ ॥
एको देवो महादेवो विज्ञेयस्तु महेश्वरः ।
न तस्य परमं किंचित्पदं समधिगम्यते ॥ १५ ॥
जिसको विद्युत, सूर्य एवं चन्द्रमा कोई भी प्रकाशित नहीं करता, किंतु जिसके प्रकाशसे यह जगत् प्रकाशित होता है-ऐसा सनातन श्रुति भी कहती है । ऐसे एकमात्र प्रभु महेश्वर महादेव ही जाननेयोग्य हैं, उनसे श्रेष्ठ कोई भी पद प्राप्त नहीं किया जा सकता है ॥ १४-१५ ॥

अयमादिरनाद्यन्तः स्वभावादेव निर्मलः ।
स्वतन्त्रः परिपूर्णश्च स्वेच्छाधीनश्चराचरः ॥ १६ ॥
वे सबके आदि, स्वयं आदि एवं अन्तसे रहित, स्वभावसे निर्मल, स्वतन्त्र, परिपूर्ण तथा चराचर विश्वको अपने अधीन किये हुए हैं ॥ १६ ॥

अप्राकृतवपुः श्रीमाँल्लक्ष्यलक्षणवर्जितः ।
अयं मुक्तो मोचकश्च ह्यकालः कालचोदकः ॥ १७ ॥
समस्त ऐश्वर्यसे युक्त ये प्रकृतिसे भिन्न (दिव्य) शरीरवाले, लक्ष्य तथा लक्षणसे रहित, स्वयं मुक्त, दूसरोंको मुक्त करनेवाले और स्वयं कालके वशमें न रहकर कालके भी प्रेरक हैं ॥ १७ ॥

सर्वोपरिकृतावासः सर्वावासश्च सर्ववित् ।
षड्विधाध्वमयस्यास्य सर्वस्य जगतः पतिः ॥ १८ ॥
उत्तरोत्तरभूतानामुत्तरश्च निरुत्तरः ।
अनन्तानन्दसन्दोहमकरन्दमध्रुवतः ॥ १९ ॥
उनका स्थान सबके ऊपर है तथा वे ही सबके आश्रय स्थान एवं सबको जाननेवाले हैं । वे छ: प्रकारके मार्गवाले इस सम्पूर्ण जगत्के स्वामी हैं तथा उत्तरोत्तर उत्कृष्ट प्राणियोंमें सबसे श्रेष्ठ हैं, उनसे बढ़कर कोई दूसरा नहीं है, वे अनन्त आनन्दराशिरूप मकरन्दका पान करनेवाले भ्रमर हैं ॥ १८-१९ ॥

अखण्डजगदण्डानां पिण्डीकरणपण्डितः ।
औदार्यवीर्यगांभीर्यमाधुर्यमकरालयः ॥ २० ॥
नैवास्य सदृशं वस्तु नाधिकं चापि किंचन ।
अतुलः सर्वभूतानां राजराजश्च तिष्ठति ॥ २१ ॥
वे अखण्ड गतिशील ब्रह्माण्डोंके पिण्डीकरणमें पण्डित हैं और औदार्य, पराक्रम, गाम्भीर्य एवं माधुर्यके समुद्र हैं । इनके समान कोई भी वस्तु अर्थात् परमतत्त्व नहीं है और इनसे अधिक भी कोई वस्तु नहीं है । ये सभी प्राणियोंमें अतुलनीय हैं और राजराजेश्वर होकर विराजमान हैं । २०-२१ ॥

अनेन चित्रकृत्येन प्रथमं सृज्यते जगत् ।
अन्तकाले पुनश्चेदं तस्मिन्प्रलयमेष्यते ॥ २२ ॥
अस्य भूतानि वश्यानि अयं सर्वनियोजकः ।
अयं तु परया भक्त्या दृश्यते नान्यथा क्वचित् ॥ २३ ॥
ये अपने अद्‌भुत क्रिया-कलापोंसे जगत्की सृष्टि करते हैं और पुनः अन्तःकाल उपस्थित होनेपर यह जगत् उनमें विलीन हो जाता है । समस्त जीव इनके वशमें हैं, ये सबके प्रेरक हैं, ये परम भक्तिसे ही देखे जा सकते हैं, अन्य उपायोंसे कभी नहीं ॥ २२-२३ ॥

व्रतानि सर्वदानानि तपांसि नियमास्तथा ।
कथितानि पुरा सद्भिर्भावार्थं नात्र संशयः ॥ २४ ॥
हरिश्चाहं च रुद्रश्च तथान्ये च सुरासुराः ।
तपोभिरुग्रैरद्यापि तस्य दर्शनकाङ्‌क्षिणः ॥ २५ ॥
महात्माओंने इनकी प्राप्तिके लिये ही व्रतों, सर्वविध दानों, तों एवं नियमोंका निरूपण किया है, इसमें सन्देह नहीं है । विष्णु, मैं [ब्रह्मा], रुद्र, अन्य देवता एवं असुर आज भी कठोर तपोंके द्वारा उनके दर्शनकी आकांक्षा रखते हैं ॥ २४-२५ ॥

अदृश्यः पतितैर्मूढैर्दुर्जनैरपि कुत्सितैः ।
भक्तैरन्तर्बहिश्चापि पूज्यः संभाष्य एव च ॥ २६ ॥
वे पतित, मूढ, कुत्सित तथा दुर्जन पुरुषों के लिये अदृश्य हैं, किंतु भक्तजनोंके द्वारा बाहर-भीतर पूज्य हैं और सम्भाषणके योग्य हैं ॥ २६ ॥

तदिदं त्रिविधं रूपं स्थूलं सूक्ष्मं ततः परम् ।
अस्मदाद्यमरैर्दृश्यं स्थूलं सूक्ष्मं तु योगिभिः ॥ २७ ॥
ततः परं तु यन्नित्यं ज्ञानमानन्दमव्ययम् ।
तन्निष्ठैस्तत्परैर्भक्तैर्दृश्यं तद् व्रतमाश्रितैः ॥ २८ ॥
उनके तीन रूप हैं, स्थूल, सूक्ष्म एवं उनसे भी परे । हम देवताओंसे उनका स्थूल रूप दृश्य है, योगियोंसे उनका सूक्ष्म रूप दृश्य है, किंतु उससे भी परे जो उनका नित्य-ज्ञानमय, आनन्दमय एवं अविनाशी रूप है, वह तो उनमें निष्ठा रखनेवाले, उनके प्रति परायण रहनेवाले तथा उनके व्रतमें आश्रित जनोंके द्वारा ही दृश्य है । । २७-२८ ॥

बहुनात्र किमुक्तेन गुह्याद्‌गुह्यतरं परम् ।
शिवे भक्तिर्न सन्देहस्तया युक्तो विमुच्यते ॥ २९ ॥
प्रसादादेव सा भक्तिः प्रसादो भक्तिसंभवः ।
यथा चाङ्‌कुरतो बीजं बीजतो वा यथाङ्‌कुरः ॥ ३० ॥
बहुत कहनेका क्या प्रयोजन ? उस परमात्माका परस्वरूप गुप्तसे भी गुप्ततर है । शिवजीमें भक्ति रखनी चाहिये, उससे युक्त प्राणी मुक्त हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं है । वह भक्ति शिवकी कृपासे ही हो सकती है और उनकी कृपा भक्तिसे उत्पन्न होती है, जैसे अंकुरसे बीज और बीजसे अंकुर उत्पन्न होता है ॥ २९-३० ॥

प्रसादपूर्विका एव पशोः सर्वत्र सिद्धयः ।
स एव साधनैरन्ते सर्वैरपि च साध्यते ॥ ३१ ॥
प्रसादसाधनं धर्मः स च वेदेन दर्शितः ।
तदभ्यासवशात्साम्यं पूर्वयोः पुण्यपापयोः ॥ ३२ ॥
उस ईश्वरका प्रसाद प्राप्त हो जानेपर जीवको सर्वत्र सिद्धि प्राप्त हो जाती है । सभी लोग सम्पूर्ण साधनोंसे अन्तमें उसीको प्राप्त करते हैं । परमात्मा शिवको प्रसन्न करनेका साधन धर्म है और वेदने उस धर्मके स्वरूपका प्रतिपादन किया है । उसका अभ्यास करते रहनेसे पूर्वजन्मार्जित पुण्य एवं पापमें समता आ जाती है । ३१-३२ ॥

साम्यात्प्रसादसंपर्को धर्मस्यातिशयस्ततः ।
धर्मातिशयमासाद्य पशोः पापपरिक्षयः ॥ ३३ ॥
एवं प्रक्षीणपापस्य बहुभिर्जन्मभिः क्रमात् ।
सांबे सर्वेश्वरे भक्तिर्ज्ञानपूर्वा प्रजायते ॥ ३४ ॥
उस साम्यसे प्रसाद [प्रसन्नता या चित्तशुद्धि]-की उपलब्धि होती है, उससे धर्मकी वृद्धि होती है और धर्मकी वृद्धिको प्राप्त करके जीवके पापका विनाश हो जाता है । इस प्रकार क्रमसे बहुत जन्म-जन्मान्तरोंमें हुए पापोंका विनाश हो जानेपर साम्बसदाशिवमें ज्ञानपूर्विका भक्ति उत्पन्न होती है । ३३-३४ ॥

भावानुगुणमीशस्य प्रसादो व्यतिरिच्यते ।
प्रसादात्कर्मसन्त्यागः फलतो न स्वरूपतः ॥ ३५ ॥
भक्तोंके भावोंके अनुरूप ही शिवका अनुग्रह प्राप्त होता है, उनका प्रसाद प्राप्त हो जानेपर ही कर्मका त्याग होता है, जिसमें फलवासना नहीं होती, यद्यपि भक्त स्वरूपतः कर्म करता रहता है ॥ ३५ ॥

तस्मात्कर्मफलत्यागाच्छिवधर्मान्वयः शुभः ।
स च गुर्वनपेक्षश्च तदपेक्ष इति द्विधा ॥ ३६ ॥
तदुपरान्त कर्मफलके त्यागसे जीवका शुभ सम्बन्ध शिवधर्मसे हो जाता है । वह [धर्म] भी दो प्रकारका होता है-एक गुरुकी अपेक्षासे रहित तथा दूसरा गुरुकी अपेक्षा रखनेवाला ॥ ३६ ॥

तत्रानपेक्षात्सापेक्षो मुख्यः शतगुणाधिकः ।
शिवधर्मान्वयस्यास्य शिवज्ञानसमन्वयः ॥ ३७ ॥
उसमें गुरुकी अपेक्षा रखनेवाला शिवधर्म गुरुकी अपेक्षा न करनेवालेसे सौ गुना अधिक उत्तम है । जो गुरुकी शिक्षाद्वारा शिवधर्ममें तत्पर रहता है, वह शीघ्र ही शिव-ज्ञानकी प्राप्ति कर लेता है ॥ ३७ ॥

ज्ञनान्वयवशात्पुंसः संसारे दोषदर्शनम् ।
ततो विषयवैराग्यं वैराग्याद्भावसाधनम् ॥ ३८ ॥
ज्ञानयुक्त हो जानेसे मनुष्यको इस जगत्में दोष दिखायी पड़ने लगता है, तदनन्तर विषयोंके प्रति वैराग्य हो जाता है और वैराग्यसे भावसिद्धि हो जाती है ॥ ३८ ॥

भावसिद्ध्युपपन्नस्य ध्याने निष्ठा न कर्मणि ।
ज्ञानध्यानाभियुक्तस्य पुंसो योगः प्रवर्तते ॥ ३९ ॥
भावसिद्धिको प्राप्त हुए व्यक्तिकी निष्ठा ध्यानमें होती है, कर्ममें नहीं । ज्ञान तथा ध्यानसे युक्त मनुष्यको योगकी प्राप्ति होती है ॥ ३९ ॥

योगेन तु परा भक्तिः प्रसादस्तदनन्तरम् ।
प्रसादान्मुच्यते जन्तुर्मुक्तः शिवसमो भवेत् ॥ ४० ॥
योगसे पराभक्ति प्राप्त होती है, इसके पश्चात् [भक्तिकी महिमासे] शिवका प्रसाद उपलब्ध होता है, शिवके प्रसादसे जीव मुक्त हो जाता है और मुक्त हो जानेपर वह शिवके समान हो जाता है ॥ ४० ॥

अनुग्रहप्रकारस्य क्रमोऽयमविवक्षितः ।
यादृशी योग्यता पुंसस्तस्य तादृगनुग्रहः ॥ ४१ ॥
इस प्रकार शिवजीके अनुग्रहका जो यह स्वरूप है, वह इसी प्रकारका है-यह कहना सम्भव नहीं है । मनुष्यकी जैसी योग्यता होती है, उसीके अनुरूप उसे शिवजीका अनुग्रह प्राप्त होता है ॥ ४१ ॥

गर्भस्थो मुच्यते कश्चिज्जायमानस्तथापरः ।
बालो वा तरुणो वाथ वृद्धो वा मुच्यते परः ॥ ४२ ॥
तिर्यग्योनिगतः कश्चिन्मुच्यते नारकोऽपरः ।
अपरस्तु पदं प्राप्तो मुच्यते स्वपदक्षये ॥ ४३ ॥
कश्चित्क्षीणपदो भूत्वा पुनरावर्त्य मुच्यते ।
कश्चिदध्वगतस्तस्मिन् स्थित्वा स्थित्वा विमुच्यते ॥ ४४ ॥
कोई गर्भमें निवास करते ही मुक्त हो जाता है । कोई उत्पन्न होते ही, कोई बालक होकर, कोई युवा होकर और कोई वृद्ध होकर मुक्त हो जाता है । कोई पशु-पक्षियोंकी योनिमें मुक्त हो जाता है । कोई नरकमें और कोई वैकुण्ठादि उत्तम लोक प्राप्तकर पुण्य-क्षय हो जानेपर मुक्त हो जाता है । कोई [पुण्यशेष होनेपर] अपने पदसे च्युत होकर संसारमें जन्म लेकर मुक्त होता है । कोई संसाररूपी मार्ग में क्रमश: जन्म-मरणका चक्र प्राप्तकर धीरे-धीरे मुक्त होता है । ४२-४४ ॥

तस्मान्नैकप्रकारेण नराणां मुक्तिरिष्यते ।
ज्ञानभावानुरूपेण प्रसादेनैव निर्वृतिः ॥ ४५ ॥
अतः मनुष्योंकी मुक्ति अनेक प्रकारसे होती है । ज्ञान और भक्तिके अनुरूप शिवकी कृपा प्राप्त होनेपर मुक्ति होती है ॥ ४५ ॥

तस्मादस्य प्रसादार्थं वाङ्मनोदोषवर्जिताः ।
ध्यायन्तः शिवमेवैकं सदारतनयाग्नयः ॥ ४६ ॥
तन्निष्ठास्तत्पराः सर्वे तद्युक्तास्तदुपाश्रयाः ।
सर्वक्रियाः प्रकुर्वाणास्तमेव मनसा गताः ॥ ४७ ॥
अतः इन्हें प्रसन्न करनेके लिये वाणी, मन तथा शरीरके दोषोंको त्यागकर स्त्री-पुत्रों एवं अग्नियोंके सहित आप सभीको शिवजीका ध्यान, उनमें निष्ठा, भक्ति, शिवशरणागति एवं मनसे उनका ध्यान करते हुए समस्त क्रियाएँ करनी चाहिये ॥ ४६-४७ ॥

दीर्घसूत्रसमारब्धं दिव्यवर्षसहस्रकम् ।
सत्रान्ते मन्त्रयोगेन वायुस्तत्र गमिष्यति ॥ ४८ ॥
स एव भवतः श्रेयः सोपायं कथयिष्यति ।
ततो वाराणसी पुण्या पुरी परमशोभना ॥ ४९ ॥
गन्तव्या यत्र विश्वेशो देव्या सह पिनाकधृक् ।
सदा विहरति श्रीमान् भक्तानुग्रहकारणात् ॥ ५० ॥
इस समय आपलोगोंने जो दिव्य सहस्रवर्षवाला दीर्घ यज्ञानुष्ठान प्रवर्तित किया है, उस यज्ञके अन्तमें मन्त्रद्वारा आवाहन करनेपर वायुदेव वहाँ पधारेंगे । वे ही आपलोगोंके कल्याणका साधन एवं उपाय बतायेंगे । इसके पश्चात् आपलोग परम सुन्दर तथा पुण्यमयी वाराणसी पुरी चले जाना, जहाँ पिनाकपाणि भगवान् विश्वनाथ भक्तजनोंपर अनुग्रह करनेके लिये देवी पार्वतीके साथ सदा विहार करते हैं । ४८-५० ॥

तत्राश्चर्यं महद् दृष्ट्‍वा मत्समीपं गमिष्यथ ।
ततो वः कथयिष्यामि मोक्षोपाय द्विजोत्तमाः ॥ ५१ ॥
येनैकजन्मना मुक्तिर्युष्मत्करतले स्थिता ।
अनेकजन्मसंसारबन्धनिर्मोक्षकारिणी ॥ ५२ ॥
हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! आपलोग वहाँ बड़ा भारी आश्चर्य देखकर मेरे पास आना, तब मैं आपलोगोंको मुक्तिका उपाय बताऊँगा, जिससे जन्म-जन्मान्तरके संसार-बन्धनसे छुटकारा दिलानेवाली मुक्ति आपलोगोंको एक ही जन्ममें मिल जायगी ॥ ५१-५२ ॥

एतन्मनोमयं चक्रं मया सृष्टं विसृज्यते ।
यत्रास्य शीर्यते नेमिः स देशस्तपसः शुभः ॥ ५३ ॥
इत्युक्त्वा सूर्यसंकाशं चक्रं दृष्ट्‍वा मनोमयम् ।
प्रणिपत्य महादेवं विससर्ज पितामहः ॥ ५४ ॥
मैंने इस मनोमय चक्रका निर्माण किया है, मैं इस चक्रको छोड़ रहा हूँ, जहाँ इसकी नेमि टूटकर गिर जाय, वही देश तपस्याके लिये शुभ होगाऐसा कहकर पितामहने उस सूर्यतुल्य मनोमय चक्रकी ओर देखकर और महादेवजीको प्रणामकर उसे छोड़ दिया । ५३-५४ ॥

तेऽपि हृष्टतरा विप्राः प्रणम्य जगतां प्रभुम् ।
प्रययुस्तस्य चक्रस्य यत्र नेमिरशीर्यत ॥ ५५ ॥
चक्रं तदपि संक्षिप्तं श्लक्ष्णं चारुशिलातले ।
विमलस्वादुपानीये निजपात वने क्वचित् ॥ ५६ ॥
तद्वनं तेन विख्यातं नैमिषं मुनिपूजितम् ।
अनेकयक्षगन्धर्वविद्याधरसमाकुलम् ॥ ५७ ॥
वे ब्राह्मण भी अत्यन्त प्रसन्न होकर लोकनाथ ब्रह्माजीको प्रणाम करके उस स्थानके लिये चल दिये, जहाँ उस चक्रकी नेमि विशीर्ण होनेवाली थी । इसके पश्चात् वह फेंका गया कान्तिमय चक्र स्वादिष्ट एवं विमल जलसे युक्त [सरोवरवाले] किसी वनमें एक मनोहर शिलातलपर गिर पड़ा, इसी कारणसे वह वन मुनिपूजित नैमिषारण्य नामसे विख्यात हुआ, जो अनेक यक्ष, गन्धर्व और विद्याधरोंसे व्याप्त है । ५५-५७ ॥

अष्टादश समुद्रस्य द्वीपानश्नन्पुरूरवाः ।
विलासवशमुर्वश्या यातो दैवेन चोदितः ॥ ५८ ॥
अक्रमेण हरन्मोहाद्यज्ञवाटं हिरण्मयम् ।
मुनिभिर्यत्र संक्रुद्धैः कुशवज्रैर्निपातितः ॥ ५९ ॥
समुद्रोंसे वेष्टित अठारह द्वीपोंका उपभोग करनेवाले महाराज पुरूरवा* प्रारब्धसे प्रेरित होकर उर्वशीके रूपसौन्दर्यके वशीभूत हो गये और उन्होंने अज्ञानवश धर्मका अतिक्रमण करके [ऋषियोंकी] सुवर्णमयी यज्ञशालाका हरण कर लिया, तब कुपित मुनियोंने अभिमन्त्रित होनेसे वज्रसदृश प्रभाववाले कुशोंसे उन्हें विनष्ट कर दिया ॥ ५८-५९ ॥

विश्वं सिसृक्षमाणा वै यत्र विश्वसृजः पुरा ।
सत्रमारेभिरे दिव्यं ब्रह्मज्ञा गार्हपत्यगाः ॥ ६० ॥
ऋषिभिर्यत्र विद्वद्भिः शब्दार्थन्यायकोविदैः ।
शक्तिप्रज्ञाक्रियायोगैर्विधिरासीदनुष्ठितः ॥ ६१ ॥
यत्र वेदविदो नित्यं वेदवादबहिष्कृतान् ।
वादजल्पबलैर्घ्नन्ति वचोभिरतिवादिनः ॥ ६२ ॥
स्फटिकमयमहीभृत्पादजाभ्यः शिलाभ्य।
प्रसरदमृतकल्पः स्वच्छपानीयरम्यम् ।
अतिरसफलवृक्षप्रायमव्यालसत्त्वं ।
तपस उचितमासीन्नैमिषं तन्मुनीनाम् ॥ ६३ ॥
जहाँपर पूर्वकालमें वेदज्ञ, गार्हपत्याग्निके उपासक एवं विश्वकी सृष्टि करनेवाले महर्षियोंने ब्रह्मदेवके उद्देश्यसे यज्ञका प्रारम्भ किया था, जिस यज्ञमें शब्दशास्त्र, अर्थशास्त्र और न्यायशास्त्रके ज्ञाता विद्वान् महर्षियोंने अपनी शक्ति, प्रज्ञा तथा क्रियाके माध्यमसे शास्त्रीय विधिका अनुष्ठान किया था, जहाँपर वेदवेत्ता ब्राह्मण वेदोंको न माननेवाले और स्वच्छन्द शास्त्रका निर्माण करनेवाले नास्तिकोंको तार्किक प्रक्रियाके द्वारा निरन्तर पराजित करते हैं, जहाँ स्फटिक मणिमय पर्वतकी शिलाओंसे अमृतके समान मधुर निर्मल जल प्रवाहित होता रहता है, वृक्षोंपर स्वादिष्ट रसीले फल लगे रहते हैं एवं अनेक जीव-जन्तु निवास करते हैं-इस प्रकारका वह नैमिषारण्य मुनियोंके तपके योग्य है ॥ ६०-६३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे नैमिषोपाख्यानं नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें नैमिषोपाख्यान नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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