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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

वायवीयसंहिता

॥ चतुर्थोऽध्यायः ॥


वायुसमागमो
नैमिषारण्यमें दीर्घसत्रके अन्तमें मुनियोंके पास वायुदेवताका आगमन


सूत उवाच
तस्मिन्देशे महाभागा मुनयः शंसितव्रताः ।
अर्चयन्तो महादेवं सत्रमारेभिरे तदा ॥ १ ॥
सूतजी बोले-उस समय उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महाभाग्यवान् उन ऋषियोंने महादेवका अर्चन करते हुए उस स्थानमें यज्ञानुष्ठान प्रारम्भ किया ॥ १ ॥

तच्च सत्रं प्रववृते सर्वाश्चर्यं महर्षिणाम् ।
विश्वं सिसृक्षमाणानां पुरा विश्वसृजामिव ॥ २ ॥
उन महर्षियोंका वह यज्ञ अनेक प्रकारके आश्चर्योसे वैसे ही परिपूर्ण था, जिस प्रकार पूर्व समयमें सृष्टिकी इच्छा करनेवाले विश्वस्त्रष्टा प्रजापतियोंका यज्ञ था ॥ २ ॥

अथ काले गते सत्रे समाप्ते भूरिदक्षिणे ।
पितामहनियोगेन वायुस्तत्रागमत्स्वयम् ॥ ३ ॥
कुछ समय बीत जानेपर प्रचुर दक्षिणावाला वह यज्ञ जब समाप्त हो गया, तब ब्रह्माजीकी आज्ञासे वहाँ स्वयं वायुदेव आये ॥ ३ ॥

शिष्यः स्वयंभुवो देवः सर्वप्रत्यक्षदृग्वशी ।
आज्ञायां मरुतो यस्य संस्थिताः सप्तसप्तकाः ॥ ४ ॥
प्रेरयञ्छश्वदङ्गानि प्राणाद्याभिः स्ववृत्तिभिः ।
सर्वभूतशरीराणां कुरुते यश्च धारणम् ॥ ५ ॥
अणिमादिभिरष्टाभिरैश्वर्यैश्च समन्वितः ।
तिर्यक्कालादिभिर्मेध्यैर्भुवनानि बिभर्ति यः ॥ ६ ॥
आकाशयोनिर्द्विगुणः स्पर्शशब्दसमन्वयात् ।
तेजसां प्रकृतिश्चेति यमाहुस्तत्त्वचिन्तकाः ॥ ७ ॥
तमाश्रमगतं दृष्ट्‍वा मुनयो दीर्घसत्रिणः ।
पितामहवचः स्मृत्वा प्रहर्षमतुलं ययुः ॥ ८ ॥
वे वायुदेव साक्षात् स्वयम्भू ब्रह्माजीके शिष्य, सब कुछ प्रत्यक्ष देखनेवाले तथा इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले थे । जिनकी आज्ञामें उनचास मरुद्‌गण सर्वदा समुद्यत रहते हैं, जो प्राण आदि अपनी वृत्तियोंके द्वारा अंगोंको चेष्टावान् करते रहते हैं, जो समस्त प्राणियोंके शरीरोंको धारण करते हैं, जो अणिमादि आठ प्रकारकी सिद्धियों तथा नानाविध ऐश्वर्योंसे युक्त हैं, जो तिरछी पड़नेवाली अपनी पवित्र गतियोंसे भुवनोंको धारण करते हैं, जो आकाशसे उत्पन्न हुए हैं, जो स्पर्श एवं शब्द नामक दो गुणोंवाले हैं, तत्त्ववेत्ता लोग जिन्हें तेजोंकी प्रकृति कहते हैं-उन्हें आश्रममें आया देखकर दीर्घकालिक यज्ञ करनेवाले मुनिगण ब्रह्माजीके वचनका स्मरणकर अत्यन्त प्रसन्न हो गये ॥ ४-८ ॥

अभ्युत्थाय ततः सर्वे प्रणम्यांबरसंभवम् ।
चामीकरमयं तस्मै विष्टरं समकल्पयन् ॥ ९ ॥
तब सभीने उठकर आकाशजन्मा वायुदेवको प्रणामकर उन्हें [बैठनेके लिये] सुवर्णमय आसन प्रदान किया ॥ ९ ॥

सोऽपि तत्र समासीनो मुनिभिः सम्यगर्चितः ।
प्रतिनन्द्य च तान् सर्वान् पप्रच्छ कुशलं ततः ॥ १० ॥
इसके पश्चात् मुनियोंने उस आसनपर बैठे हुए वायुदेवकी भलीभाँति पूजा की और उन्होंने भी उन सभीकी प्रशंसाकर उनसे कुशल पूछा ॥ १० ॥

वायुरुवाच
अत्र वः कुशलं विप्राः कच्चिद्वृत्ते महाक्रतौ ।
कच्चिद्यज्ञहनो दैत्या न बाधेरन्सुरद्विषः ॥ ११ ॥
प्रायश्चित्तं दुरिष्टं वा न कच्चित्समजायत ।
स्तोत्रमन्त्रजपैर्देवान् पितॄन् पित्र्यैश्च कर्मभिः ॥ १२ ॥
कच्चिदभ्यर्च्य युष्माभिर्विधिरासीत्स्वनुष्ठितः ।
निवृत्ते च महासत्रे पश्चात्किं वश्चिकीर्षितम् ॥ १३ ॥
वायु बोले-हे ब्राह्मणो ! इस महायज्ञके पूरे होनेतक आपलोग सकुशल तो रहे; यज्ञमें विघ्न डालनेवाले देवशत्रु दैत्योंने कहीं विघ्न तो उपस्थित नहीं किया ? आपके इस यज्ञमें कोई प्रत्यवाय अथवा उपद्रव तो नहीं हुआ ? आपलोगोंने स्तवन तथा मन्त्रजपके द्वारा देवगणोंका तथा पितृ-कोंके द्वारा पितरोंका पूजनकर ठीक तरहसे यज्ञानुष्ठानकी विधि सम्पन्न तो कर ली । अब इस महायज्ञके समाप्त हो जानेके अनन्तर आपलोगोंकी क्या करनेकी इच्छा है ? ॥ ११-१३ ॥

इत्युक्ता मुनयः सर्वे वायुना शिवभाविना ।
प्रहृष्टमनसः पूताः प्रत्यूचुर्विनयान्विताः ॥ १४ ॥
तब शिवभक्त वायुके द्वारा इस प्रकार पूछे गये सभी मुनि प्रसन्नचित्त तथा विनयावनत होकर कहने लगे- ॥ १४ ॥

मुनय ऊचुः
अद्य नः कुशलं सर्वमद्य साधु भवेत्तपः ।
अस्मच्छ्रेयोऽभिवृद्ध्यर्थं भवानत्रागतो यतः ॥ १५ ॥
मुनि बोले-जब आप हमारे कल्याणकी वृद्धिके लिये यहाँ आ गये हैं तो आज हमलोगोंका पूर्णतः मंगल हो गया और हमारी तपस्या सफल हो गयी ॥ १५ ॥

शृणु चेदं पुरावृत्तं तमसाक्रान्तमानसैः ।
उपासितः पुरास्माभिर्विज्ञानार्थं प्रजापतिः ॥ १६ ॥
अब आप पहलेका एक वृत्तान्त सुनिये । तमोगुणसे आक्रान्त मनवाले हमलोगोंने पूर्वकालमें विशिष्ट ज्ञानके निमित्त प्रजापति ब्रह्माजीकी उपासना की थी ॥ १६ ॥

सोप्यस्माननुगृह्याह शरण्यः शरणागतान् ।
सर्वस्मादधिको रुद्रो विप्राः परमकारणम् ॥ १७ ॥
तमप्रतर्क्यं याथात्म्यं भक्तिमानेव पश्यति ।
भक्तिश्चास्य प्रसादेन प्रसादादेव निर्वृतिः ॥ १८ ॥
तब शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले उन्होंने हम शरणागतोंपर कृपा करके कहा-हे ब्राह्मणो ! सभी कारणोंके कारण रुद्रदेव सर्वश्रेष्ठ हैं । तर्कसे परे उन रुद्र देवताको यथार्थ रूपसे भक्तिमान् ही देख सकता है और इन्हींकी प्रसन्नतासे भक्ति मिलती है और [अन्तमें] मुक्ति भी प्राप्त होती है ॥ १७-१८ ॥

तस्मादस्य प्रसादार्थं नैमिषे सत्रयोगतः ।
यजध्वं दीर्घसत्रेण रुद्रं परमकारणम् ॥ १९ ॥
तत्प्रसादेन सत्रान्ते वायुस्तत्रागमिष्यति ।
तन्मुखाज्ज्ञानलाभो वस्तत्र श्रेयो भविष्यति ॥ २० ॥
अतः आपलोग इनकी प्रसन्नता प्राप्त करनेहेतु नैमिषारण्यमें यज्ञनियमोंमें दीक्षित होकर दीर्घसत्रके द्वारा परमकारण रुद्रका यजन कीजिये । तब उनकी प्रसन्नतासे यज्ञके अन्तमें वायुदेव आयेंगे । उनके मुखसे आपलोगोंको ज्ञानलाभ होगा और कल्याणकी प्राप्ति होगी ॥ १९-२० ॥

इत्यादिश्य वयं सर्वे प्रेषिताः परमेष्ठिना ।
अस्मिन्देशे महाभाग तवागमनकाङ्‌क्षिणः ॥ २१ ॥
इस प्रकारका आदेश देकर ब्रह्माजीने हमलोगोंको इस स्थानपर भेजा है । हे महाभाग ! हमलोग आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ॥ २१ ॥

दीर्घसत्रं समासीना दिव्यवर्षसहस्रकम् ।
अतस्तवागमादन्यत्प्रार्थ्यं नो नास्ति किंचन ॥ २२ ॥
दिव्य हजार वर्षपर्यन्त हमलोग यहाँ बैठकर जो दीर्घसत्र कर रहे थे, उसका उद्देश्य आपके आगमनके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं था ॥ २२ ॥

इत्याकर्ण्य पुरावृत्तमृषीणां दीर्घसत्रिणाम् ।
वायुः प्रीतमना भूत्वा तत्रासीन्मुनिसंवृतः ॥ २३ ॥
तब प्रसन्न मनसे वायुदेवने दीर्घसत्र करनेवाले ऋषियोंके उस प्राचीन वृत्तान्तका श्रवण किया और मुनियोंसे घिरे हुए वे वहींपर विराजमान हो गये ॥ २३ ॥

ततस्तैर्मुनिभिः पृष्टस्तेषां भावविवृद्धये ।
सर्गादि शार्वमैश्वर्यं समासादवदद् विभुः ॥ २४ ॥
इसके पश्चात् मुनियोंके द्वारा पूछे जानेपर शिवमें उनकी भक्ति बढ़ानेके लिये सर्वव्यापक वायुदेवने सृष्टिकी उत्पत्ति एवं शिवका ऐश्वर्य संक्षेपमें बताया ॥ २४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे वायुसमागमो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें वायुसमागम नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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