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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
वायवीयसंहिता
॥ पञ्चमोऽध्यायः ॥ शिवतत्त्वज्ञानवर्णनम्
ऋषियोंके पूछनेपर वायुदेवद्वारा पशु, पाश एवं पशुपतिका तात्त्विक विवेचन सूत उवाच - तत्र पूर्वं महाभागा नैमिषारण्यवासिनः । प्रणिपत्य यथान्यायं पप्रच्छुः पवनं प्रभुम् ॥ १ ॥ सूतजी बोले-हे महाभाग्यवान् ऋषियो ! नैमिषारण्यनिवासी उन ऋषियोंने विधिपूर्वक वायुदेवको प्रणामकर उनसे पहले पूछा ॥ १ ॥ नैमिषीया ऊचुः भवान् कथमनुप्राप्तो ज्ञानमीश्वरगोचरम् । कथं च शिवभावस्ते ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः ॥ २ ॥ नैमिषारण्यके ऋषियोंने पूछा-देव ! आपने ईश्वरविषयक ज्ञान कैसे प्राप्त किया ? तथा आप अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीके शिष्य किस प्रकार हुए ? ॥ २ ॥ वायुरुवाच एकोनविंशतिः कल्पो विज्ञेयः श्वेतलोहितः । तस्मिन्कल्पे चतुर्वक्त्रः स्रष्टुकामोऽतपत्तपः ॥ ३ ॥ तपसा तेन तीव्रेण तुष्टस्तस्य पिता स्वयम् । दिव्यं कौमारमास्थाय रूपं रूपवतां वरः ॥ ४ ॥ श्वेतो नाम मुनिर्भूत्वा दिव्यां वाचमुदीरयन् । दर्शनं प्रददौ तस्मै देवदेवो महेश्वरः ॥ ५ ॥ तं दृष्ट्वा पितरं ब्रह्मा ब्रह्मणोऽधिपतिं पतिम् । प्रणम्य परमज्ञानं गायत्र्या सह लब्धवान् ॥ ६ ॥ ततः स लब्धविज्ञानो विश्वकर्मा चतुर्मुखः । असृजत्सर्वभूतानि स्थावराणि चराणि च ॥ ७ ॥ यतः श्रुत्वामृतं लब्धं ब्रह्मणा परमेश्वरात् । ततस्तद्वदनादेव मया लब्धं तपोबलात् ॥ ८ ॥ वायुदेवता बोले-महर्षियो ! उन्नीसवें कल्पका नाम श्वेतलोहितकल्प समझना चाहिये । उसी कल्पमें चतुर्मुख ब्रह्माने सृष्टिकी कामनासे तपस्या की । उनकी उस तीव्र तपस्यासे संतुष्ट हो स्वयं उनके पिता देवदेव महेश्वरने उन्हें दर्शन दिया । वे दिव्य कुमारावस्थासे युक्त रूप धारण करके रूपवानोंमें श्रेष्ठ श्वेत नामक मुनि, होकर दिव्य वाणी बोलते हुए उनके सामने उपस्थित हुए । वेदोंके अधिपति तथा सबके पालक पिता महेश्वरका दर्शन करके गायत्रीसहित ब्रह्माजीने उन्हें प्रणाम कियाऔर उन्हींसे उत्तम ज्ञान पाया । ज्ञान पाकर विश्वकर्मा चतुर्मुख ब्रह्मा सम्पूर्ण चराचर भूतोंकी सृष्टि करने लगे । साक्षात् परमेश्वर शिवसे सुनकर ब्रह्माजीने अमृतस्वरूप ज्ञान प्राप्त किया था, इसलिये मैंने तपस्याके बलसे उन्हींके मुखसे उस ज्ञानको उपलब्ध किया ॥ ३-८ ॥ मुनय ऊचुः किं तज्ज्ञानं त्वया लब्धं तथ्यात्तथ्यन्तरं शुभम् । यत्र कृत्वा परां निष्ठां पुरुषः सुखमृच्छति ॥ ९ ॥ मुनियोंने पूछा-आपने वह कौन-सा ज्ञान प्राप्त किया, जो सत्यसे भी परम सत्य एवं शुभ है तथा जिसमें उत्तम निष्ठा रखकर पुरुष परमानन्दको प्राप्त करता है ? ॥ ९ ॥ वायुरुवाच पशुपाशपतिज्ञानं यल्लब्धं तु मया पुरा । तत्र निष्ठा परा कार्या पुरुषेण सुखार्थिना ॥ १० ॥ अज्ञानप्रभवं दुःखं ज्ञानेनैव निवर्त्तेते । ज्ञानं वस्तुपरिच्छेदो वस्तु च द्विविधं स्मृतम् ॥ ११ ॥ अजडं च जडं चैव नियन्तृ च तयोरपि । पशुः पाशः पतिश्चेति कथ्यते तत्त्रयं क्रमात् ॥ १२ ॥ वायदेवता बोले-महर्षियो ! मैंने पूर्वकालमें पशुपाश और पशुपतिका जो ज्ञान प्राप्त किया था, सुख चाहनेवाले पुरुषको उसीमें ऊँची निष्ठा रखनी चाहिये । अज्ञानसे उत्पन्न होनेवाला दुःख ज्ञानसे ही दूर होता है । वस्तुके विवेकका नाम ज्ञान है । वस्तुके तीन भेद माने गये हैं-जड (प्रकृति), चेतन (जीव) और उन दोनोंका नियन्ता (परमेश्वर) । इन्हीं तीनोंको क्रमसे पाश, पशु तथा पशुपति कहते हैं ॥ १०-१२ ॥ अक्षरं च क्षरं चैव क्षराक्षरपरं तथा । तदेतत्त्रितयं भूम्ना कथ्यते तत्त्ववेदिभिः ॥ १३ ॥ अक्षरं पशुरित्युक्तः क्षरं पाश उदाहृतः । क्षराक्षरपरं यत्तत् पतिरित्यभिधीयते ॥ १४ ॥ तत्त्वज्ञ पुरुष प्राय: इन्हीं तीन तत्त्वोंको क्षर, अक्षर तथा उन दोनोंसे अतीत कहते हैं । अक्षर ही पशु कहा गया है । क्षर तत्त्वका ही नाम पाश है तथा क्षर और अक्षर दोनोंसे परे जो परमतत्त्व है, उसीको पति या पशुपति कहते हैं ॥ १३-१४ ॥ मुनय ऊचुः किं तदक्षरमित्युक्तं किं च क्षरमुदाहृतम् । तयोश्च परमं किं वा तदेतद् ब्रूहि मारुत ॥ १५ ॥ मुनिगण बोले-हे मारुत ! क्षर किसे कहा गया है और अक्षर किसे कहते हैं एवं उन दोनों क्षराक्षरसे परे क्या है ? उसका वर्णन कीजिये ॥ १५ ॥ वायुरुवाच प्रकृतिः क्षरमित्युक्तं पुरुषोऽक्षर उच्यते । ताविमौ प्रेरयत्यन्यः स परः परमेश्वरः ॥ १६ ॥ वायुदेव बोले-प्रकृतिको ही क्षर कहा गया है । पुरुष (जीव)-को अक्षर कहते हैं और जो इन दोनोंको प्रेरित करता है, वह क्षर और अक्षर दोनोंसे भिन्न तत्त्व ही परमेश्वर कहा गया है ॥ १६ ॥ मुनय ऊचुः कैषा प्रकृतिरित्युक्ता क एष पुरुषो मतः । अनयोः केन सम्बन्धः कोयं प्रेरक ईश्वरः ॥ १७ ॥ मुनिगण बोले-हे देव ! यह प्रकृति कौन कही गयी है, और यह पुरुष कौन कहा गया है ? इनका सम्बन्ध किसके द्वारा होता है और यह प्रेरक ईश्वर कौन है ? ॥ १७ ॥ वायुरुवाच माया प्रकृतिरुद्दिष्टा पुरुषो माययाऽऽवृतः । संबन्धो मूलकर्मभ्यां शिवः प्रेरक ईश्वरः ॥ १८ ॥ वायुदेव बोले-मायाका ही नाम प्रकृति है । पुरुष उस मायासे आवृत है । मल और कर्मके द्वारा प्रकृतिका पुरुषके साथ सम्बन्ध होता है । शिव ही इन दोनोंके प्रेरक ईश्वर हैं ॥ १८ ॥ मुनय ऊचुः केयं माया समाख्याता किंरूपो मायया वृतः । मूलं कीदृक् कुतो वास्य किं शिवत्वं कुतः शिवः ॥ १९ ॥ मुनिगण बोले-माया किसे कहते हैं, मायासे आच्छादित होनेपर पुरुष किस रूपका हो जाता है, यह मल क्या है और कहाँसे आया, शिवतत्त्व क्या है तथा शिव कौन है ? ॥ १९ ॥ वायुरुवाच माया माहेश्वरी शक्तिश्चिद्रूपो मायया वृतः । मलश्चिच्छादको नैजो विशुद्धिः शिवता स्वतः ॥ २० ॥ वायुदेव बोले-माया महेश्वरकी शक्ति है । चित्स्वरूप जीव उस मायासे आवृत है । चेतन जीवको आच्छादित करनेवाला अज्ञानमय पाश ही मल कहलाता है । उससे शुद्ध हो जानेपर जीव स्वतः शिव हो जाता है । वह विशुद्धता ही शिवत्व है ॥ २० ॥ मुनय ऊचुः आवृणोति कथं माया व्यापिनं केन हेतुना । किमर्थं चावृतिः पुंसः केन वा विनिवर्तते ॥ २१ ॥ मुनियोंने पूछा-सर्वव्यापी चेतनको माया किस हेतुसे आवृत करती है ? किसलिये पुरुषको आवरण प्राप्त होता है ? और किस उपायसे उसका निवारण होता है ? ॥ २१ ॥ वायुरुवाच आवृतिर्व्यपिनोऽपि स्याद्व्यापि यस्मात्कलाद्यपि । हेतुः कर्मैव भोगार्थं निवर्तेत मलक्षयात् ॥ २२ ॥ वायुदेवता बोले-व्यापक तत्त्वको भी आंशिक आवरण प्राप्त होता है; क्योंकि कला आदि भी व्यापक हैं । भोगके लिये किया गया कर्म ही उस आवरणमें कारण है । मलका नाश होनेसे वह आवरण दूर हो जाता है ॥ २२ ॥ मुनय ऊचुः कलादि कथ्यते किं तत्कर्म वा किमुदाहृतम् । तत्किमादि किमन्तं वा किं फलं वा किमाश्रयम् ॥ २३ ॥ मुनिगण बोले-हे वायुदेव ! वह कलादि क्या है, कर्म किसे कहते हैं ? उसका आदि एवं अन्त क्या है और उसका फल तथा आश्रय क्या है ? ॥ २३ ॥ कस्य भोगेन किं भोग्यं किं वा तद्भोगसाधनम् । मलक्षयस्य को हेतुः कीदृक् क्षीणमलः पुमान् ॥ २४ ॥ किसके भोगसे क्या भोगना पड़ता है, उस भोगका साधन क्या है, मलक्षयका हेतु क्या है और क्षीणमलवाला पुरुष कैसा होता है ? ॥ २४ ॥ वायुरुवाच कला विद्या च रागश्च कालो नियतिरेव च । कलादयः समाख्याता यो भोक्ता पुरुषो भवेत् ॥ २५ ॥ पुण्यपापात्मकं कर्म सुखदुःखफलं तु यत् । अनादिमलभोगान्तमज्ञानात्मसमाश्रयम् ॥ २६ ॥ भोगः कर्मविनाशाय भोगमव्यक्तमुच्यते । बाह्यान्तःकरणद्वारं शरीरं भोगसाधनम् ॥ २७ ॥ भावातिशयलब्धेन प्रसादेन मलक्षयः । क्षीणे चात्ममले तस्मिन् पुमान् शिवसमो भवेत् ॥ २८ ॥ वायुदेवता बोले-कला, विद्या, राग, काल और नियति- इन्हींको कलादि कहते हैं । कर्मफलका जो उपभोग करता है, उसीका नाम पुरुष (जीव) है । कर्म दो प्रकारके हैं-पुण्यकर्म और पापकर्म । पुण्यकर्मका फल सुख और पापकर्मका फल दुःख है । कर्म अनादि है और फलका उपभोग कर लेनेपर उसका अन्त हो जाता है । यद्यपि जड कर्मका चेतन आत्मासे कुछ सम्बन्ध नहीं है, तथापि अज्ञानवश जीवने उसे अपनेआपमें मान रखा है । भोग कर्मका विनाश करनेवाला है, प्रकृतिको भोग्य कहते हैं और भोगका साधन है शरीर । बाह्य इन्द्रियाँ और अन्त:करण उसके द्वार हैं । अतिशय भक्तिभावसे उपलब्ध हुए महेश्वरके कृपाप्रसादसे मलका नाश होता है और मलका नाश हो जानेपर पुरुष निर्मल-शिवके समान हो जाता है ॥ २५-२८ ॥ मुनय ऊचुः कलादिपञ्चतत्त्वानां किं कर्म पृथगुच्यते । भोक्तेति पुरुषश्चेति येनात्मा व्यपदिश्यते ॥ २९ ॥ किमात्मकं तदव्यक्तं केनाकारेण भुज्यते । किं तस्य शरणं भुक्तौ शरीरं च किमुच्यते ॥ ३० ॥ मुनिगण बोले-कलादि पाँच तत्त्वोंका अलगअलग कर्म क्या कहा जाता है ? क्या आत्माको ही भोक्ता एवं पुरुषके नामसे पुकारा जाता है ? उस अव्यक्त तत्त्वका स्वरूप क्या है और वह किस प्रकारसे भोगा जाता है ? उस [भोग्य]-के भोगका आश्रय क्या है और शरीर किसे कहते हैं ? ॥ २९-३० ॥ वायुरुवाच दिक्क्रियाव्यंजका विद्या कालो रागः प्रवर्तकः । कालोऽवच्छेदकस्तत्र नियतिस्तु नियामिका ॥ ३१ ॥ अव्यक्तं कारणं यत्तत्त्रिगुणं प्रभवाप्ययम् । प्रधानं प्रकृतिश्चेति यदाहुस्तत्त्वचिन्तकाः ॥ ३२ ॥ कलातस्तदभिव्यक्तमनभिव्यक्तलक्षणम् । सुखदुःखविमोहात्मा भुज्यते गुणवांस्त्रिधा ॥ ३३ ॥ वायुदेवता बोले-विद्या पुरुषकी ज्ञानशक्तिको और कला उसकी क्रियाशक्तिको अभिव्यक्त करनेवाली है । राग भोग्य वस्तुके लिये क्रियामें प्रवृत्त करनेवाला होता है । काल उसमें अवच्छेदक होता है और नियति उसे नियन्त्रणमें रखनेवाली है । अव्यक्तरूप जो कारण है, वह त्रिगुणमय है; उसीसे जड जगत्की उत्पत्ति होती है और उसीमें उसका लय होता है । तत्त्वचिन्तक पुरुष उस अव्यक्तको ही प्रधान और प्रकृति कहते हैं । अप्रकटित लक्षणोंवाला वह प्रधान तत्त्व कलाओंके माध्यमसे अभिव्यक्तिको प्राप्त करता है । उस सत्त्वादिगुणत्रयात्मक प्रधानका स्वरूप सुख-दुःख-विमोहात्मक है, जो पुरुषके द्वारा भोगा जाता है ॥ ३१-३३ ॥ सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः । प्रकृतौ सूक्ष्मरूपेण तिले तैलमिव स्थिताः ॥ ३४ ॥ सुखं च सुखहेतुश्च समासात्सात्त्विकं स्मृतम् । राजसं तद्विपर्यासात् स्तंभमोहौ तु तामसौ ॥ ३५ ॥ सात्त्विक्यूर्ध्वगतिः प्रोक्ता मध्यमा तु गतिर्या सा राजसी परिपठ्यते ॥ ३६ ॥ सत्त्व, रज और तम-ये तीनों गुण प्रकृतिसे प्रकट होते हैं; तिलमें तेलकी भाँति वे प्रकृतिमें सूक्ष्मरूपसे विद्यमान रहते हैं । सुख और उसके हेतुको संक्षेपसे सात्त्विक कहा गया है, दुःख और उसके हेतु राजस कार्य हैं तथा जडता और मोह-वे तमोगुणके कार्य हैं । सात्त्विकी वृत्ति ऊध्र्वमें ले जानेवाली है, तामसी वृत्ति अधोगतिमें डालनेवाली है तथा राजसी वृत्ति मध्यम स्थितिमें रखनेवाली है ॥ ३४-३६ ॥ तन्मात्रापञ्चकं चैव भूतपञ्चकमेव च । ज्ञानेन्द्रियाणि पञ्चैक्यं पञ्च कर्मेन्द्रियाणि च ॥ ३७ ॥ प्रधानबुद्ध्यहङ्कारमनांसि च चतुष्टयम् । समासादेवमव्यक्तं सविकारमुदाहृतम् ॥ ३८ ॥ पाँच तन्मात्राएँ, पाँच भूत, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा प्रधान (चित्त), महत्तत्त्व (बुद्धि), अहंकार और मन-ये चार अन्तःकरण-सब मिलकर चौबीस तत्व होते हैं । इस प्रकार संक्षेपसे ही विकारसहित अव्यक्त (प्रकृति)-का वर्णन किया गया ॥ ३७-३८ ॥ तत्कारणदशापन्नमव्यक्तमिति कथ्यते । व्यक्तं कार्यदशापन्नं शरीरादिघटादिवत् ॥ ३९ ॥ यथा घटादिकं कार्यं मृदादेर्नातिभिद्यते । शरीरादि तथा व्यक्तमव्यक्तान्नातिभिद्यते ॥ ४० ॥ तस्मादव्यक्तमेवैक्यकारणं करणानि च । शरीरं च तदाधारं तद्भोग्यं चापि नेतरत् ॥ ४१ ॥ कारणावस्थामें रहनेपर ही इसे अव्यक्त कहते हैं और शरीर आदिके रूपमें जब वह कार्यावस्थाको प्राप्त होता है, तब उसकी 'व्यक्त' संज्ञा होती है-ठीक उसी तरह, जैसे कारणावस्थामें स्थित होनेपर जिसे हम 'मिट्टी' कहते हैं, वही कार्यावस्थामें 'घट' आदि नाम धारण कर लेती है । जैसे घट आदि कार्य मृत्तिका आदि कारणसे अधिक भिन्न नहीं है, उसी प्रकार शरीर आदि व्यक्त पदार्थ अव्यक्तसे अधिक भिन्न नहीं हैं । इसलिये एकमात्र अव्यक्त ही कारण, करण, उनका आधारभूत शरीर तथा भोग्य वस्तु है, दूसरा कोई नहीं ॥ ३९-४१ ॥ मुनय ऊचुः बुद्धीन्द्रियशरीरेभ्यो व्यतिरेकस्य कस्यचित् । आत्मशब्दाभिधेयस्य वस्तुतोऽपि कुतः स्थितिः ॥ ४२ ॥ मुनियोंने पूछा-प्रभो ! बुद्धि, इन्द्रिय और शरीरसे व्यतिरिक्त किसी आत्मा नामक वस्तुकी वास्तविक स्थिति कहाँ है ? ॥ ४२ ॥ वायुरुवाच बुद्धीन्द्रियशरीरेभ्यो व्यतिरेको विभोर्ध्रुवम् । अस्त्येव कश्चिदात्मेति हेतुस्तत्र सुदुर्गमः ॥ ४३ ॥ बुद्धीन्द्रियशरीराणां नात्मता सद्भिरिष्यते । स्मृतेरनियतज्ञानादयावद्देहवेदनात् ॥ ४४ ॥ अतः स्मर्तानुभूतानामशेषज्ञेयगोचरः । अन्तर्यामीति वेदेषु वेदान्तेषु च गीयते ॥ ४५ ॥ वायुदेवता बोले-महर्षियो ! सर्वव्यापी चेतनका बुद्धि, इन्द्रिय और शरीरसे पार्थक्य अवश्य है । आत्मा नामक कोई पदार्थ निश्चय ही विद्यमान है; परन्तु उसकी सत्तामें किसी हेतुकी उपलब्धि बहुत ही कठिन है ! सत्पुरुष बुद्धि, इन्द्रिय और शरीरको आत्मा नहीं मानते; क्योंकि स्मृति (बुद्धिका ज्ञान) अनियत है तथा उसे सम्पूर्ण शरीरका एक साथ अनुभव नहीं होता । इसीलिये वेदों और वेदान्तोंमें आत्माको पूर्वानुभूत विषयोंका स्मरणकर्ता, सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों में व्यापक तथा अन्तर्यामी कहा जाता है ॥ ४३-४५ ॥ सर्वं तत्र स सर्वत्र व्याप्य तिष्ठति शाश्वतः । तथापि क्वापि केनापि व्यक्तमेष न दृश्यते ॥ ४६ ॥ नैवायं चक्षुषा ग्राह्यो नापरैरिन्द्रियैरपि । मनसैव प्रदीप्तेन महानात्मावसीयते ॥ ४७ ॥ उसमें सब कुछ है और वह शाश्वत आत्मा सभीको व्याप्त करके सर्वत्र स्थित रहता है, फिर भी व्यक्तरूपमें कोई भी कहीं भी उसे प्रत्यक्ष नहीं देख पाता है । यह नेत्र तथा अन्य इन्द्रियोंसे भी ग्राह्य नहीं है । वह महान् आत्मा ज्ञानप्रदीप्त मनसे ही ग्राह्य है । ४६-४७ ॥ न च स्त्री न पुमानेष नैव चापि नपुंसकः । नैवोर्ध्वं नापि तिर्यक् च नाधस्तान्न कुतश्चन ॥ ४८ ॥ अशरीरं शरीरेषु चलेषु स्थाणुमव्ययम् । सदा पश्यति तं धीरो नरः प्रत्यवमर्शनात् ॥ ४९ ॥ किमत्र बहुनोक्तेन पुरुषो देहतः पृथक् । अपृथग्ये तु पश्यन्ति ह्यसम्यक् तेषु दर्शनम् ॥ ५० ॥ यह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ही है । न ऊपर है, न अगल-बगल में है, न नीचे है और न किसी स्थान-विशेषमें । यह सम्पूर्ण चल शरीरोंमें अविचल, निराकार एवं अविनाशीरूपसे स्थित है । ज्ञानी पुरुष निरन्तर विचार करनेसे उस आत्मतत्त्वका साक्षात्कार कर पाते हैं । बहुत कहनेसे क्या प्रयोजन ? आत्मा देहसे पृथक् है । जो लोग इसे अपृथक् देखते हैं, उनको इसका यथार्थ ज्ञान नहीं है ॥ ४८-५० ॥ यच्छरीरमिदं प्रोक्तं पुरुषस्य ततः परम् । अशुद्धमवशं दुःखमध्रुवं न च विद्यते ॥ ५१ ॥ विपदां वीजभूतेन पुरुषस्तेन संयुतः । सुखी दुःखी च मूढश्च भवति स्वेन कर्मणा ॥ ५२ ॥ अद्भिराप्लवितं क्षेत्रं जनयत्यङ्कुरं यथा । आज्ञानात्प्लावितं कर्म देहं जनयते तथा ॥ ५३ ॥ पुरुषका जो वह शरीर कहा गया है, इससे बढ़कर अशुद्ध, पराधीन, दु:खमय और अस्थिर दूसरी कोई वस्तु नहीं है । शरीर ही सब विपत्तियोंका मूल कारण है । उससे युक्त हुआ पुरुष अपने कर्मके अनुसार सुखी, दुखी और मूढ़ होता है । जैसे पानीसे सींचा हुआ खेत अंकुर उत्पन्न करता है, उसी प्रकार अज्ञानसे आप्लावित हुआ कर्म नूतन शरीरको जन्म देता है । ५१-५३ ॥ अत्यन्तमसुखावासाः स्मृताश्चैकान्तमृत्यवः । अनागता अतीताश्च तनवोऽस्य सहस्रशः ॥ ५४ ॥ आगत्यागत्य शीर्णेषु शरीरेषु शरीरिणः । अत्यन्तवसतिः क्वापि न केनापि च लभ्यते ॥ ५५ ॥ ये शरीर अत्यन्त दु:खोंके आलय माने जाते हैं । इनकी मृत्यु अनिवार्य होती है । भूतकालमें कितने ही शरीर नष्ट हो गये और भविष्यकालमें सहस्रों शरीर आनेवाले हैं, वे सब आ-आकर जब जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं, तब पुरुष उन्हें छोड़ देता है । कोई भी जीवात्मा किसी भी शरीरमें अनन्त कालतक रहनेका अवसर नहीं पाता ॥ ५४-५५ ॥ छादितश्च वियुक्तश्च शरीरैरेषु लक्ष्यते । चन्द्रबिंबवदाकाशे तरलैरभ्रसञ्चयैः ॥ ५६ ॥ अनेकदेहभेदेन भिन्ना वृत्तिरिहात्मनः । अष्टापदपरिक्षेपे ह्यक्षमुद्रेव लक्ष्यते ॥ ५७ ॥ कभी यह शरीरोंमें व्याप्त होकर निवास करता है और कभी उन्हें छोड़ देता है, जैसे चन्द्रबिम्ब आकाशमें कभी चंचल मेघोंसे आच्छादित रहता है और कभी मुक्त रहता है । इसकी वृत्ति देहभेदसे भिन्न-भिन्न रसोंवाली होती है, जिस प्रकार पासा एक होते हुए भी पटलपर फेंके जानेपर भिन्न-भिन्न रूपोंमें दिखायी पड़ता है ॥ ५६-५७ ॥ नैवास्य भविता कश्चिन्नासौ भवति कस्यचित् । पथि सङ्गम एवायं दारैः पुत्रैश्च बन्धुभिः ॥ ५८ ॥ यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ । समेत्य च व्यपेयातां तद्वद्भूतसमागमः ॥ ५९ ॥ यहाँ स्त्रियों, पुत्रों और बन्धु-बान्धवोंसे जो मिलन होता है, वह पथिकको मार्गमें मिले हुए दूसरे पथिकोंके समागमके ही समान है । जैसे महासागरमें एक काष्ठ कहींसे और दूसरा काष्ठ कहींसे बहता आता है, वे दोनों काष्ठ कहीं थोड़ी देरके लिये मिल जाते हैं और मिलकर फिर बिछुड़ जाते हैं । उसी प्रकार प्राणियोंका यह समागम भी संयोग-वियोगसे युक्त है । ५८-५९ ॥ स पश्यति शरीरं तच्छरीरं तन्न पश्यति । तौ पश्यति परः कश्चित्तावुभौ तं न पश्यतः ॥ ६० ॥ वह [परमात्मा] शरीर [और जीवात्मा]-को [तत्त्वतः] जानता है, किंतु शरीर उसे नहीं जान पाता; परमतत्त्व शरीरादिका द्रष्टा [ज्ञाता] होकर भी इनके द्वारा दृश्य अर्थात् ज्ञेय नहीं है ॥ ६० ॥ ब्रह्माद्याः स्थावरान्ताश्च पशवः परिकीर्तिताः । पशूनामेव सर्वेषां प्रोक्तमेतन्निदर्शनम् ॥ ६१ ॥ स एष बध्यते पाशैः सुखदुःखाशनः पशुः । लीलासाधनभूतो य ईश्वरस्येति सूरयः ॥ ६२ ॥ अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्गं वा श्वभ्रमेव वा ॥ ६३ ॥ ब्रह्माजीसे लेकर स्थावर प्राणियोंतक सभी जीव पशु कहे गये हैं । उन सभी पशुओंके लिये ही यह दृष्टान्त या दर्शन-शास्त्र कहा गया है । यह जीव पाशोंमें बंधता और सुख-दुःख भोगता है, इसलिये 'पशु' कहलाता है । यह ईश्वरकी लीलाका साधन-भूत है, ऐसा ज्ञानी महात्मा कहते हैं । यह जीव अज्ञानी है एवं अपने सुखदुःखको भोगनमें सर्वदा परतन्त्र है । यह ईश्वरसे प्रेरित होकर स्वर्ग अथवा नरकमें जाता है ॥ ६१-६३ ॥ सूत उवाच इत्याकर्ण्यानिलवचो मुनयः प्रीतमानसाः । प्रोचुः प्रणम्य तं वायुं शैवागमविचक्षणम् ॥ ६४ ॥ सूतजी बोले-वायुका यह वचन सुनकर मुनिगण प्रसन्नचित्त हो गये और शैवागममें कुशल वायुदेवको प्रणाम करके कहने लगे ॥ ६४ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे शिवतत्त्वज्ञानवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें शिवतत्त्वज्ञानवर्णन नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |