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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
वायवीयसंहिता
॥ एकादशोऽध्यायः ॥ सृष्ट्यादिवर्णनम्
अवान्तर सर्ग और प्रतिसर्गका वर्णन मुनय ऊचुः मन्वन्तराणि सर्वाणि कल्पभेदांश्च सर्वशः । तेष्वेवान्तरसर्गं च प्रतिसर्गं च नो वद ॥ १ ॥ मनि बोले-[हे देव !] अब सभी मन्वन्तरों, समस्त कल्पभेदों और उनमें होनेवाले अवान्तर सर्ग तथा प्रतिसर्गका वर्णन हमलोगोंसे कीजिये ॥ १ ॥ वायुरुवाच कालसंख्याविवृत्तस्य परार्धो ब्रह्मणः स्मृतः । तावांश्चैवास्य कालोन्यस्तस्यान्ते प्रतिसृज्यते ॥ २ ॥ दिवसे दिवसे तस्य ब्रह्मणः पूर्वजन्मनः । चतुर्दश महाभागा मनूनां परिवृत्तयः ॥ ३ ॥ अनादित्वादनन्तत्वादज्ञेयत्वाच्च कृत्स्नशः । मन्वन्तराणि कल्पाश्च न शक्या वचनात्पृथक् ॥ ४ ॥ वायु बोले-[हे मुनियो !] मैंने कालगणनाके प्रसंगमें कहा है कि ब्रह्माकी आयु परार्धपर्यन्त है । जब परार्धकाल पूर्ण हो जाता है, तो सृष्टि विनष्ट हो जाती है । सबसे पहले उत्पन्न होनेवाले उन ब्रह्माजीके एक-एक दिनमें चौदह-चौदह मनुओंका काल व्यतीत होता है । अनादि, अनन्त तथा अज्ञेय होनेसे सभी मन्वन्तर और कल्पोंका वर्णन अलग-अलग नहीं किया जा सकता है ॥ २-४ ॥ उक्तेष्वपि च सर्वेषु शृण्वतां वो वचो मम । किमिहास्ति फलं तस्मान्न पृथक् वक्तुमुत्सहे ॥ ५ ॥ आपलोग मेरी बात सुनिये । उन सभीका वर्णन किये जानेपर भी उस वर्णनका कोई फल नहीं है, इसीलिये मैं उन्हें पृथकूपसे नहीं कह सकता ॥ ५ ॥ य एव खलु कल्पेषु कल्पः संप्रति वर्तते । तत्र संक्षिप्य वर्तन्ते सृष्टयः प्रतिसृष्टयः ॥ ६ ॥ यस्त्वयं वर्तते कल्पो वाराहो नाम नामतः । अस्मिन्नपि द्विजश्रेष्ठा मनवस्तु चतुर्दश ॥ ७ ॥ इस समय कल्पोंके क्रममें जो वर्तमान कल्प चल रहा है, उसी में संक्षिप्त रूपसे सृष्टि और संहार होते हैं । हे द्विजश्रेष्ठो । यह जो वाराह नामक कल्प चल रहा है, इसमें भी चौदह मनु हैं ॥ ६-७ ॥ स्वायंभुवादयः सप्त सप्त सावर्णिकादयः । तेषु वैवस्वतो नाम सप्तमो वर्तते मनुः ॥ ८ ॥ स्वायम्भुव आदि [जो पूर्ववर्ती] सात मनु हैं तथा सावर्णि आदि [जो उत्तरवर्ती] सात मनु हैं । उनमें इस समय सातवें वैवस्वत मनु वर्तमान हैं ॥ ८ ॥ मन्वन्तरेषु सर्वेषु सर्गसंहारवृत्तयः । प्रायः समा भवन्तीति तर्कः कार्यो विजानता ॥ ९ ॥ सभी मन्वन्तरोंमें सृष्टि और संहारका क्रम समान ही होता है-विद्वानोंको ऐसा जानना चाहिये ॥ ९ ॥ पूर्वकल्पे परावृत्ते प्रवृत्ते कालमारुते । समुन्मूलितमूलेषु वृक्षेषु च वनेषु च ॥ १० ॥ जगन्ति तृणवत्त्रीणि देवे दहति पावके । वृष्ट्या भुवि निषिक्तायां विवेलेष्वर्णवेषु च ॥ ११ ॥ दिक्षु सर्वासु मग्नासु वारिपूरे महीयसि । तदद्भिश्चटुलाक्षेपैस्तरङ्गभुजमण्डलैः ॥ १२ ॥ प्रारब्धचण्डनृत्येषु ततः प्रलयवारिषु । ब्रह्मा नारायणो भूत्वा सुष्वाप सलिले सुखम् ॥ १३ ॥ इमं चोदाहरन्मन्त्रं श्लोकं नारायणं प्रति । तं शृणुध्वं मुनिश्रेष्ठास्तदर्थं चाक्षराश्रयम् ॥ १४ ॥ आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः । अयनं तस्य ता यस्मात्तेन नारायणः स्मृतः ॥ १५ ॥ इस कल्पके पहले जब प्रलयकाल उपस्थित हुआ, तब बड़े जोरसे आँधी चलने लगी, वृक्ष एवं वन उखड़कर नष्ट हो गये, अग्निदेवने तीनों लोकोंको तृणके समान जला डाला, वर्षासे पृथ्वी भर उठी, सभी समुद्र उद्वेलित हो उठे, महान् जलराशिमें सभी दिशाएँ मग्न हो गयीं, उस प्रलयकालीन जलमें समुद्र अपनी चंचल तरंगरूपी भुजाओंको ऊपर उठा-उठाकर भयानक नृत्य करने लगे, उस समय ब्रह्माजी नारायणरूप होकर सुखपूर्वक जलमें शयन कर रहे थे । उन नारायणके प्रति यह मन्त्रात्मक श्लोक कहा गया है, हे मुनिश्रेष्ठो ! अक्षर [परमतत्त्व]-का प्रतिपादन करनेवाले उस अर्थको सुनिये-जलको नार कहा गया है । क्योंकि उसकी उत्पत्ति भगवान् नरसे हुई है । वही जल पूर्वकालमें उनके रहनेका स्थान हुआ, इसीलिये उन्हें नारायण कहा गया है ॥ १०-१५ ॥ शिवयोगमयीं निद्रां कुर्वन्तं त्रिदशेश्वरम् । बद्धांजलि पुटाः सिद्धा जनलोकनिवासिनः ॥ १६ ॥ स्तोत्रैः प्रबोधयामासुः प्रभातसमये सुराः । यथा सृष्ट्यादिसमये ईश्वरं श्रुतयः पुरा ॥ १७ ॥ ततः प्रबुद्ध उत्थाय शयनात्तोयमध्यगात् । उदैक्षत दिशः सर्वा योगनिद्रालसेक्षणः ॥ १८ ॥ इसके पश्चात् प्रातःकाल उपस्थित होनेपर शिवयोगमयी निद्रा लेते हुए देवेश्वर [नारायणस्वरूप ब्रह्माजी]-को जनलोकनिवासी सिद्धगण तथा देवता हाथ जोड़कर अनेक प्रकारके स्तोत्रोंसे जगाने लगे, जैसे पूर्वकालमें सृष्टिके प्रारम्भमें श्रुतियाँ ईश्वरको जगाती रही हैं । तब योगनिद्रासे अलसाये नेत्रोंवाले वे [नारायणस्वरूप ब्रह्माजी] निद्रा त्यागकर तथा जलके मध्यमें स्थित शय्यासे उठ करके सभी दिशाओंको देखने लगे ॥ १६–१८ ॥ नापश्यत्स तदा किंचित्स्वात्मनो व्यतिरेकि यत् । सविस्मय इवासीनः परां चिन्तामुपागमत् ॥ १९ ॥ क्व सा भगवती या तु मनोज्ञा महती मही । नानाविधमहाशैलनदीनगरकानना ॥ २० ॥ जब उन्होंने अपने अतिरिक्त कुछ भी नहीं देखा, तब विस्मित होकर यह चिन्ता करने लगे-अनेक प्रकारके महाशैल, नदी, नगर तथा वनवाली, मनोहर एवं विशाल जो ऐश्वर्यशालिनी पृथ्वी थी, वह कहाँ चली गयी ? ॥ १९-२० ॥ एवं संचिन्तयन्ब्रह्मा बुबुधे नैव भूस्थितिम् । तदा सस्मार पितरं भगवन्तं त्रिलोचनम् ॥ २१ ॥ स्मरणाद्देवदेवस्य भवस्यामिततेजसः । ज्ञातवान्सलिले मग्नां धरणीं धरणीपतिः ॥ २२ ॥ इस तरह सोचते हुए ब्रह्माजीको जब पृथ्वीकी स्थितिका ज्ञान नहीं हुआ, तो वे अपने पिता भगवान् सदाशिवका स्मरण करने लगे । तब अमित तेजस्वी देवदेव सदाशिवका स्मरण करते ही धरणीपति ब्रह्मदेवने जान लिया कि पृथ्वी जलमें निमग्न है । ॥ २१-२२ ॥ ततो भूमेः समुद्धारं कर्तुकामः प्रजापतिः । जलक्रीडोचितं दिव्यं वाराहं रूपमस्मरत् ॥ २३ ॥ महापर्वतवर्ष्माणं महाजलदनिःस्वनम् । नीलमेघप्रतीकाशं दीप्तशब्दं भयानकम् ॥ २४ ॥ पीनवृत्तघनस्कन्धपीनोन्नतकटीतटम् । ह्रस्ववृत्तोरुजंघाग्रं सुतीक्ष्णपुरमण्डलम् ॥ २५ ॥ पद्मरागमणिप्रख्यं वृत्तभीषणलोचनम् । वृत्तदीर्घमहागात्रं स्तब्धकर्णस्थलोज्ज्वलम् ॥ २६ ॥ उदीर्णोच्छ्वासनिश्वासघूर्णितप्रलयार्णवम् । विस्फुरत्सुसटाच्छन्नकपोलस्कन्धबन्धुरम् ॥ २७ ॥ मणिभिर्भूषणैश्चित्रैर्महारत्नैःपरिष्कृतम् । विराजमानं विद्युद्भिर्मेघसंघमिवोन्नतम् ॥ २८ ॥ आस्थाय विपुलं रूपं वाराहममितं विधिः । पृथिव्युद्धरणार्थाय प्रविवेश रसातलम् ॥ २९ ॥ तत्पश्चात् पृथ्वीका उद्धार करनेकी इच्छावाले प्रजापतिने जलक्रीडाके योग्य दिव्य वाराहरूपका स्मरण किया । महान् पर्वतके समान शरीरवाले, महामेषके समान गर्जनवाले, नीलमेघसदृश कान्तिवाले तथा उत्कट, भयानक शब्द करते हुए, मोटे सुपुष्ट और गोल कन्धेवाले, मोटे और ऊँचे कटिप्रदेशवाले, छोटे एवं गोल ऊरु तथा जंघाके अग्रभागवाले, तीक्ष्ण खुरमण्डलवाले, पद्यरागमणिके समान आभावाले, गोल एवं भयानक नेत्रवाले और दीर्घ गोल गात्रवाले, स्तब्ध तथा उज्ज्वल कर्णप्रदेशवाले, छोड़े गये दीर्घ श्वासोच्छ्वाससे प्रलयकालीन समुद्रको क्षुब्ध करनेवाले, बिखरे अयालोंसे आच्छन्न कपोल एवं स्कन्धभागवाले, मणिजटित आभूषणों तथा अद्भुत महारत्नोंसे अलंकृत, मानो विद्युत्से सुशोभित ऊँचा मेघमण्डल ही स्थित हो-ऐसे अत्यधिक विशाल वराहरूपको धारण करके पृथ्वीका उद्धार करनेके लिये ब्रह्माजी रसातलमें प्रविष्ट हुए । २३-२९ ॥ स तदा शुशुभेऽतीव सूकरो गिरिसंनिभः । लिङ्गाकृतेर्महेशस्य पादमूलं गतो यथा ॥ ३० ॥ ततः स सलिले मग्नां पृथिवीं पृथिवीधरः । उद्धृत्यालिङ्ग्य दंष्ट्राभ्यामुन्ममज्ज रसातलात् ॥ ३१ ॥ पर्वतके समान [विशाल] शूकररूपधारी वे ब्रह्माजी शिवलिंगके पादपीठके समान अत्यन्त शोभायमान हो रहे थे । इसके पश्चात् वे जलमें निमग्न पृथ्वीको उठाकर अपने दाढ़के ऊपर धारणकर रसातलसे ऊपर आये ॥ ३०-३१ ॥ तं दृष्ट्वा मुनयः सिद्धा जनलोकनिवासिनः । मुमुदुर्ननृतुर्मूर्ध्नि तस्य पुष्पैरवाकिरन् ॥ ३२ ॥ उन्हें देखकर जनलोकनिवासी मुनि एवं सिद्धगण हर्षित होकर नृत्य करने लगे और उनके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ ३२ ॥ वपुर्महावराहस्य शुशुभे पुष्पसंवृतम् । पतद्भिरिव खद्योतैः प्राशुरंजनपर्वतः ॥ ३३ ॥ उस समय पुष्पोंसे आच्छादित महावाराहका शरीर उड़-उड़कर गिरते हुए खद्योतोंसे आवत अंजनपर्वतके समान शोभायमान हो रहा था ॥ ३३ ॥ ततः संस्थानमानीय वराहो महतीं महीम् । स्वमेव रूपमास्थाय स्थापयामास वै विभुः ॥ ३४ ॥ पृथिवीं च समीकृत्य पृथिव्यां स्थापयन् गिरीन् । भूराद्यांश्चतुरो लोकान् कल्पयामास पूर्ववत् ॥ ३५ ॥ इति स ह महतीं महीं महीध्रैः प्रलयमहाजलधेरधःस्थमध्यात् । उपरि च विनिवेश्य विश्वकर्मा चरमचरं च जगत्ससर्ज भूयः ॥ ३६ ॥ तत्पश्चात् भगवान् वराहने महती पृथ्वीको लाकर अपना रूप धारण करके उसे यथास्थान स्थापित कर दिया । उन्होंने पृथ्वीको समतल करके उस पृथ्वीपर पर्वतोंकी स्थापना करते हुए पूर्वकी भाँति भू: आदि चार लोकोंको भी स्थापित किया । इस प्रकार प्रलयकालीन महासागरके नीचे स्थित जलके बीचसे पर्वतोंसहित विशाल पृथ्वीको जलके ऊपर स्थापित करके पुनः उन विश्वकर्माने उसपर चराचर जगत्की रचना की ॥ ३४-३६ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे सृष्ट्यादिवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें सृष्टि आदिवर्णन नामक ग्यारहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |