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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
वायवीयसंहिता
॥ अष्टादशोऽध्यायः ॥ सतीदेहत्यागो
दक्षके शिवसे द्वेषका कारण ऋषय ऊचुः देवी दक्षस्य तनया त्यक्त्वा दाक्षायणी तनुम् । कथं हिमवतः पुत्री मेनायामभवत्पुरा ॥ १ ॥ कथं च निन्दितो रुद्रो दक्षेण च महात्मना । निमित्तमपि किं तत्र येन स्यान्निन्दितो भवः ॥ २ ॥ उत्पन्नश्च कथं दक्षो अभिशापाद्भवस्य तु । चाक्षुषस्यान्तरे पूर्वं मनोः प्रब्रूहि मारुत ॥ ३ ॥ ऋषि बोले-पूर्वकालमें दक्षकी पुत्री सती देवी दक्षसे उत्पन्न हुए अपने शरीरका त्यागकर किस तरह हिमालयपत्नी मेनामें जन्म लेकर हिमालयकी पुत्री हुई ? महात्मा दक्षने रुद्रकी निन्दा क्यों की और उसमें क्या कारण था, जिससे रुद्रदेवको निन्दित होना पड़ा ? शिवजीके शापके कारण चाक्षुष मन्वन्तरमें दक्षकी पुनः उत्पत्ति कैसे हुई ? हे वायुदेव ! यह सब बताइये ॥ १-३ ॥ वायुरुवाच शृण्वन्तु कथयिष्यामि दक्षस्य लघुचेतसः । वृत्तं पापात् प्रमादाच्च विश्वामरविदूषणम् ॥ ४ ॥ वायुदेव बोले-सुनिये, अत्यन्त तुच्छ स्वभाववाले दक्ष पाप एवं प्रमादके कारण जिस तरह जगत्के देवताओंको निन्दितकर कलंकके भागी बने, उन सभी कथाओंको मैं आपलोगोंसे कह रहा हूँ ॥ ४ ॥ पुरा सुरासुराः सर्वे सिद्धाश्च परमर्षयः । कदाचिद् द्रष्टुमीशानं हिमवच्छिखरं ययुः ॥ ५ ॥ पूर्व समयमें कभी शिवजीके दर्शनके लिये देवता, असुर, सिद्ध एवं महर्षिगण हिमालयके शिखरपर गये ॥ ५ ॥ तदा देवश्च देवी च दिव्यासनगतावुभौ । दर्शनं ददतुस्तेषां देवादीनां द्विजोत्तमाः ॥ ६ ॥ हे द्विजश्रेष्ठो ! वहाँ दिव्य आसनपर विराजमान शंकर एवं देवीने उन देवता आदिको दर्शन दिया ॥ ६ ॥ तदानीमेव दक्षोऽपि गतस्तत्र सहामरैः । जामातरं हरं द्रष्टुं द्रष्टुं चात्मसुतां सतीम् ॥ ७ ॥ उस समय देवताओंके साथ दक्ष भी अपनी पुत्री सती तथा जामाता शंकरको देखनेके लिये गये हुए थे ॥ ७ ॥ तदात्मगौरवाद्देवो देव्या दक्षे समागते । देवादिभ्यो विशेषेण न कदाचिदभूत्स्मृतिः ॥ ८ ॥ उस समय देवीके साथ स्थित भगवान् सदाशिव अपनी स्वरूपमहिमामें निमग्न होनेके कारण (लोकव्यवहारमें अनासक्त होनेसे) आये हुए पितृतुल्य श्वशुर दक्षका देवताओंकी अपेक्षा विशेष आदर करना चाहिये, इस बातका तनिक भी स्मरण न कर सके ॥ ८ ॥ तस्य तस्याः परं भावमज्ञातुश्चापि केवलम् । पुत्रीत्येवं विमूढस्य तस्यां वैरमजायत ॥ ९ ॥ भगवान् सदाशिव तथा सतीकी परम महिमासे अपरिचित तथा सती देवीको केवल पुत्री समझनेवाले दक्ष [इसी कारण] सतीसे द्वेष करने लगे ॥ ९ ॥ ततस्तेनैव वैरेण विधिना च प्रचोदितः । नाजुवाह भवं दक्षो दीक्षितस्तामपि द्विषन् ॥ १० ॥ इसी वैरभावके कारण तथा दुर्भाग्यसे प्रेरित हुए [यज्ञ]-दीक्षित दक्षने द्वेषवश न केवल शिवजीको अपितु अपनी पुत्रीको भी यज्ञमें आमन्त्रित नहीं किया ॥ १० ॥ अन्याञ्जामातरः सर्वानाहूय स यथाक्रमम् । शतशः पुष्कलामर्चाञ्चकार च पृथक् पृथक् ॥ ११ ॥ जितने भी अन्य जामाता थे, उन सभीको बुलाकर दक्षने पृथक्-पृथक् उनका अत्यधिक सत्कार किया ॥ ११ ॥ तथा तान्सङ्गतान् श्रुत्वा नारदस्य मुखात्तदा । ययौ रुद्राय रुद्राणी विज्ञाप्य भवनं पितुः ॥ १२ ॥ तब नारदजीके मुखसे अपने पिताके यज्ञमें उन सभीको गया हुआ सुनकर रुद्राणी भी रुद्रदेवको सूचितकर पिताके भवन जाने लगीं ॥ १२ ॥ अथ संनिहितं दिव्यं विमानं विश्वतोमुखम् । लक्षणाढ्यं सुखारोहमतिमात्रं मनोहरम् ॥ १३ ॥ तप्तजांबूनदप्रख्यं चित्ररत्नपरिष्कृतम् । मुक्तामयवितानाग्र्यं स्रग्दामसमलङ्कृतम् ॥ १४ ॥ तप्तकांचननिर्व्यूहं रत्नस्तंभशतावृतम् । वज्रकल्पितसोपानं विद्रुमस्तंभतोरणम् ॥ १५ ॥ पुष्पपट्टपरिस्तीर्णं चित्ररत्नमहासनम् । वज्रजालकिरच्छिद्रमच्छिद्रमणिकुट्टिमम् ॥ १६ ॥ मणिदण्डमनोज्ञेन महावृषभलक्ष्मणा । अलङ्कृतपुरोभागभ्रशुभ्रेण केतुना ॥ १७ ॥ रत्नकंचुकगुप्ताङ्गैश्चित्रवेत्रैकपाणिभिः । अधिष्ठितमहाद्वारमप्रधृष्यैर्गुणेश्वरैः ॥ १८ ॥ मृदङ्गतालगीतादिवेणुवीणाविशारदैः । विदग्धवेषभाषैश्च बहुभिः स्त्रीजनैर्वृतम् ॥ १९ ॥ आरुरोह महादेवी सह प्रियसखीजनैः । [उनकी यात्राके लिये आया हुआ जो विमान था, वह] चारों और खिड़कियोंवाला, सभी प्रकारके लक्षणोंसे समन्वित, सुखपूर्वक आरोहणके लिये अतीव योग्य, मनको मोहित करनेवाला, सर्वोत्तम्, तप्त स्वर्णके समान देदीप्यमान, विचित्र रत्नोंसे परिष्कृत, मोतियोंसे युक्त वितानसे सुशोभित, मालाओंसे अलंकृत, विचित्र तप्त स्वर्ण-जैसी कान्तिवाली खुटियोंसे युक्त, सैकड़ों रत्नजटित स्तम्भोंसे आवृत, हीरेसे निर्मित सीढ़ियोंवाला, मूंगोंके तोरणसे सुशोभित स्तम्भवाला, विछे हुए पुष्पोंसे युक्त विचित्र रत्नॉक आसनसे शोभायमान, हीरेकी जालियोंवाला, दोषरहित मणियोंसे निर्मित फर्शवाला था, जिसमें मणिमय मनोहर दण्ड लगा था और जो महावृषभके चिह्नसे अंकित था, ऐसे मेघसदृश उज्ज्वल ध्वजसे अलंकृत पूर्वभागवाले, रत्नजटित कंचुकसे ढ़के हुए देहवाले तथा हाथमें बेंत धारण किये हुए दुर्धर्ष गणेश्वरोंसे अधिष्ठित महाद्वारवाले, मृदंग-ताल-गीतवेणु-वीणावादनमें प्रवीण तथा मनोहर वेष धारण की हुई बहुत-सी स्त्रियोंसे घिरे हुए तथा अपने पास लाये गये उस दिव्य विमानपर महादेवी अपनी प्रिय सखियोंके साथ आरूढ़ हुई । । १३-१९ १/२ ॥ चामरव्यजने तस्या वज्रदण्डमनोहरे ॥ २० ॥ गृहीत्वा रुद्रकन्ये द्वे विवीजतुरुभे शुभे । तदाचामरयोर्मध्ये देव्या वदनमाबभौ ॥ २१ ॥ अन्योऽन्यं युध्यतोर्मध्ये हंसयोरिव पङ्कजम् । छत्रं शशिनिभं तस्याश्चूडोपरि सुमालिनी ॥ २२ ॥ धृतमुक्तापरिक्षिप्तं बभार प्रेमनिर्भरा । तच्छत्रमुज्ज्वलं देव्या रुरुचे वदनोपरि ॥ २३ ॥ उपर्यमृतभाण्डस्य मण्डलं शशिनो यथा । अथ चाग्रे समासीना सुस्मितास्या शुभावती ॥ २४ ॥ अक्षद्यूतविनोदेन रमयामास वै सतीम् । सुयशाः पादुके देव्याः शुभे रत्नपरिष्कृते ॥ २५ ॥ स्तनयोरन्तरे कृत्वा तदा देवीमसेवत । अन्या कांचनचार्वङ्गी दीप्तं जग्राह दर्पणम् ॥ २६ ॥ अपरा तालवृन्तं च परा तांबूलपेटिकाम् । काचित्क्रीडाशुकं चारु करेऽकुरुत भामिनी ॥ २७ ॥ उस समय दो सुन्दर रुद्रकन्याएँ हीरेसे जटित दण्डवाले दो मनोहर चामर हाथों में लेकर उनके दोनों ओरसे डुला रही थीं । उस समय दोनों चामरोंके मध्य देवीका मुखमण्डल इस प्रकार शोभायमान होने लगा, जैसे परस्पर लड़ते हुए दो हंसोंके मध्य कमल सुशोभित हो रहा हो । सुमालिनीने प्रेमसे परिपूर्ण होकर भगवती सतीके शिरोभागमें चन्द्रके समान मनको मुग्ध करनेवाले छत्रको लगाया । वह मोतीकी झालरोंसे सुसज्जित था । देवीके मुखमण्डलपर वह समुज्ज्वल मनोहर छत्र इस तरह शोभायमान हो रहा था, मानो अमृतकलशके ऊपर चन्द्रमा सुशोभित हो रहा हो । देवी सतीके सम्मुख बैठी मन्द मुसकान करती हुई शुभावती पासेके खेलद्वारा सती देवीका मनोविनोद कर रही थी । सुयशा देवीकी रत्नजटित सुन्दर पादुका अपने वक्षःस्थलसे लगाकर उनकी सेवा कर रही थी । स्वर्णके समान अंगवाली कोई दूसरी सखी हाथमें उज्वल दर्पण धारण की हुई थी । किसी सखीने तालवृन्त धारण कर रखा था तो कोई पानदान लिये हुए थी । एक सुन्दरीने हाथमें मनोहर क्रीडाशुक धारण कर रखा था ॥ २०-२७ ॥ काचित्तु सुमनोज्ञानि पुष्पाणि सुरभीणि च । काचिदाभरणाधारं बभार कमलेक्षणा ॥ २८ ॥ काचिच्च पुनरालेपं सुप्रसूतं शुभांजनम् । अन्याश्च सदृशास्तास्ता यथास्वमुचितक्रियाः ॥ २९ ॥ आवृत्त्या तां महादेवीमसेवन्त समन्ततः । अतीव शुशुभे तासामन्तरे परमेश्वरी ॥ ३० ॥ तारापरिषदो मध्ये चन्द्रलेखेव शारदी । कोई मनको मुग्ध करनेवाले सुगन्धित पुष्प तथा कोई कमलनयना स्त्री आभूषणोंकी पेटी लिये हुए थी । किसीके हाथमें सुगन्धित आलेप, उत्तम फूल एवं सुन्दर अंजन था । इसी तरह अन्यान्य दासियाँ उन महादेवीको चारों ओरसे घेरकर अपने-अपने अनुकूल कार्योंमें लगकर उनकी सेवा कर रही थीं । वे परमेश्वरी उनके बीचमें इस तरह अत्यधिक सुशोभित हो रही थीं, जिस तरह तारोंके समूहके मध्यमें शरत्कालीन चन्द्ररेखा सुशोभित होती है ॥ २८-३० १/२ ॥ ततः शंखसमुत्थस्य नादस्य समनन्तरम् ॥ ३१ ॥ प्रास्थानिको महानादः पटहः समताड्यत । ततो मधुरवाद्यानि सह तालोद्यतैः स्वनैः ॥ ३२ ॥ अनाहतानि सन्नेदुः काहलानां शतानि च । इसके पश्चात् शंखध्वनिके होते ही महान् ध्वनि करनेवाले, प्रस्थानके सूचक नगाड़े बज उठे । ताल और स्वरसे समन्वित दूसरे भी सुमधुर बाजे और बिना आघातके सैकड़ों काहल नामक बाजे भी बजने लगे ॥ ३१-३२ १/२ ॥ सायुधानां गणेशानां महेशसमतेजसाम् ॥ ३३ ॥ सहस्राणि शतान्यष्टौ तदानीं पुरतो ययुः । तेषां मध्ये वृषारूढो गजारूढो यथा गुरुः ॥ ३४ ॥ जगाम गणपः श्रीमान् सोमनन्दीश्वरार्चितः । उस समय महादेवके समान अमित तेजस्वी एक हजार आठ सौ गणेशोंके समूह अस्त्र-शस्वसे युक्त हो उनके आगे चलने लगे । उन गणोंके मध्यमें बैलपर सवार देववन्दित श्रीमान् गणपति सोमनन्दी हाथीपर आरूढ़ देवगुरु बृहस्पतिके समान चलने लगे ॥ ३३-३४ १/२ ॥ देवदुन्दुभयो नेदुर्दिवि दिव्यसुखा घनाः ॥ ३५ ॥ ननृतुर्मुनयः सर्वे मुमुदुः सिद्धयोगिनः । ससृजुः पुष्पवृष्टिं च वितानोपरि वारिदाः ॥ ३६ ॥ तदा देवगणैश्चान्यैः पथि सर्वत्र सङ्गता । क्षणादिव पितुर्गेहं प्रविवेश महेश्वरी ॥ ३७ ॥ तां दृष्ट्वा कुपितो दक्षश्चात्मनः क्षयकारणात् । तस्या यवीयसीभ्योऽपि चक्रे पूजाम सत्कृताम् ॥ ३८ ॥ तदा शशिमुखी देवी पितरं सदसि स्थितम् । अंबिका युक्तमव्यग्रमुवाचाकृपणं वचः ॥ ३९ ॥ उस समय आकाशमें कानोंको सुख देनेवाले देवगणोंके नगाड़े बजने लगे । सभी मुनिगण नाचने लगे, सिद्ध और योगी हर्षित हो उठे एवं बादल वितानके ऊपर पुष्पवृष्टि करने लगे । मार्गमें अनेक देवताओं तथा अन्य लोगोंसे मिलती हुई वे महेश्वरी थोड़ी देरमें अपने पिता दक्षके घर पहुँच गयीं । उन्हें देखकर अपनी मृत्युके वशीभूत हुए दक्ष कुपित हो उठे और उन्होंने सतीका उतना भी सत्कार नहीं किया, जितना कि उनकी छोटी बहनोंका किया था । इसके बाद उन चन्द्रमुखी सती देवीने सभामें विराजमान अपने पिता दक्षसे युक्तियुक्त, उदार तथा धैर्ययुक्त वाणीमें कहा- ॥ ३५-३९ ॥ देव्युवाच ब्रह्मादयः पिशाचान्ता यस्याज्ञावशवर्तिनः । स देवः सांप्रतं तात विधिना नार्चितः किल ॥ ४० ॥ तदास्तां मम ज्यायस्याः पुत्र्याः पूजां किमीदृशीम् । असत्कृतामवज्ञाय कृतवानसि गर्हितम् ॥ ४१ ॥ देवी बोलीं-हे तात ! ब्रह्मासे लेकर पिशाचपर्यन्त जिनकी आज्ञाका पालन करते हैं, आपने इस समय उन देवाधिदेवकी विधिपूर्वक अर्चना नहीं की । उनकी पूजाकी बात तो छोड़िये, आपको मुझ ज्येष्ठ पुत्रीका सत्कार भी क्या इसी तरह करना चाहिये ? आपने मेरा सत्कार न करके निन्दित कार्य किया है ॥ ४०-४१ ॥ एवमुक्तोऽब्रवीदेनां दक्षः क्रोधादमर्षितः । त्वत्तः श्रेष्ठा विशिष्टाश्च पूज्या बालाः सुता मम ॥ ४२ ॥ तासां तु ये च भर्तारस्ते मे बहुमता मुदा । गुणैश्चाप्यधिकाः सर्वैर्भर्तुस्ते त्र्यंबकादपि ॥ ४३ ॥ स्तब्धात्मा तामसः शर्वः त्वमिमं समुपाश्रिता । तेन त्वामवमन्येऽहं प्रतिकूलो हि मे भवः ॥ ४४ ॥ सती देवीने जब उनसे इस प्रकार कहा, तब दक्षने क्रोधसे व्याकुल होकर कहा-ये मेरी पुत्रियाँ तुम्हारी अपेक्षा श्रेष्ठ, विशिष्ट और पूज्य हैं । इनके जो पति हैं, वे भी मेरे लिये अत्यन्त माननीय हैं और वे सभी तुम्हारे पति त्रिनेत्र शिवसे गुणोंमें बहुत अधिक हैं । जिनकी तुम आश्रिता हो, वे शिव स्तब्ध और तमोगुणी हैं । मैंने तुम्हारा अपमान इसीलिये किया; क्योंकि शिव मेरे अनुकूल नहीं हैं । ४२-४४ ॥ तथोक्ता पितरं दक्षं क्रुद्धा देवी तमब्रवीत् । शृण्वतामेव सर्वेषां ये यज्ञसदसि स्थिताः ॥ ४५ ॥ अकस्मान्मम भर्तारमजाताशेषदूषणम् । वाचा दूषयसे दक्ष साक्षाल्लोकमहेश्वरम् ॥ ४६ ॥ इस तरह दक्षके कहनेपर यज्ञमें जो सदस्य स्थित थे, उन सभीको सुनाते हुए वे देवी अपने पिता दक्षसे कहने लगीं-हे दक्ष ! आपने सर्वथा निर्दोष साक्षात् लोकमहेश्वर मेरे पतिको वचनोंद्वारा अकारण दूषित बताया है । ४५-४६ ॥ विद्याचौरो गुरुद्रोही वेदेश्वरविदूषकः । त एते बहुपाप्मानः सर्वे दण्ड्या इति श्रुतिः ॥ ४७ ॥ तस्मादत्युत्कटस्यास्य पापस्य सदृशो भृशम् । सहसा दारुणो दण्डस्तव दैवाद्भविष्यति ॥ ४८ ॥ त्वया न पूजितो यस्माद्देवदेवस्त्रियम्बकः । तस्मात्तव कुलं दुष्टं नष्टमित्यवधारय ॥ ४९ ॥ विद्याकी चोरी करनेवाला, गुरुद्रोही एवं वेद तथा ईश्वरकी निन्दा करनेवाला-ये सभी पापी दण्डके योग्य हैं, ऐसी वेदाज्ञा है । इसलिये दैवयोगसे आपको उसी महापापके समान ही दारुण दण्ड सहसा प्राप्त होगा । आपने देवाधिदेव सदाशिवकी पूजा नहीं की, अत: आपका दूषित कुल नष्ट हो गया-ऐसा समझिये ॥ ४७-४९ ॥ इत्युक्त्वा पितरं रुष्टा सती सन्त्यक्तसाध्वसा । तदीयां च तनुं त्यक्त्वा हिमवन्तं ययौ गिरिम् ॥ ५० ॥ इस तरह क्रोधित हुई सती देवीने निर्भय होकर अपने पितासे ऐसा कहकर उनसे सम्बन्धित शरीरको त्याग दिया और हिमालयपर्वतपर चली गयीं ॥ ५० ॥ स पर्वतपरः श्रीमाँल्लब्धपुण्यफलोदयः । तदर्थमेव कृतवान् सुचिरं दुश्चरं तपः ॥ ५१ ॥ तस्मात्तमनुगृह्णाति भूधरेश्वरमीश्वरी । स्वेच्छया पितरं चक्रे स्वात्मनो योगमायया ॥ ५२ ॥ पुण्य फलोंकी समृद्धिवाले श्रीमान् पर्वतश्रेष्ठ हिमालयने उन भगवतीकी प्राप्तिके लिये सुदीर्घकालपर्यन्त दुष्कर तप किया था । इसीलिये उन ईश्वरीने उन पर्वतराज हिमालयपर अनुग्रह किया और योगमायाके द्वारा अपनी इच्छासे उन्हें अपना पिता बनाया ॥ ५१-५२ ॥ यदा गता सती दक्षं विनिन्द्य भयविह्वला । तदा तिरोहिता मन्त्रा विहतश्च ततोऽध्वरः ॥ ५३ ॥ तदुपश्रुत्य गमनं देव्यास्त्रिपुरमर्दनः । दक्षाय च ऋषिभ्यश्च चुकोप च शशाप तान् ॥ ५४ ॥ यस्मादवमता दक्ष मत्कृतेऽनागसा सती । पूजिताश्चेतराः सर्वाः स्वसुता भर्तृभिः सह ॥ ५५ ॥ वैवस्वतेऽन्तरे तस्मात्तव जामातरस्त्वमी । उत्पत्स्यन्ते समं सर्वे ब्रह्मयज्ञेष्वयोनिजाः ॥ ५६ ॥ भविता मानुषो राजा चाक्षुषस्य त्वमन्वये । प्राचीनबर्हिषः पौत्रः पुत्रश्चापि प्रचेतसः ॥ ५७ ॥ अहं तत्रापि ते विघ्नमाचरिष्यामि दुर्मते । धर्मार्थकामयुक्तेषु कर्मस्वपि पुनः पुनः ॥ ५८ ॥ जिस समय सती भयसे व्याकुल दक्षकी निन्दा करके गयीं, उसी समय मन्त्र तिरोहित हो गये और वह यज्ञ विनष्ट हो गया । शिवजीने देवीके गमनका समाचार सुनकर दक्ष तथा ऋषियोंपर अत्यधिक क्रोध किया और उन्हें शाप दे दिया । हे दक्ष ! आपने मेरे कारण दोषरहित सतीका अपमान किया और पतियोंसहित अपनी अन्य सभी पुत्रियोंका सत्कार किया, अतः आपके ये सभी अयोनिज जामाता वैवस्वत मन्वन्तरमें ब्रह्माजीके द्वारा प्रवर्तित यज्ञोंमें उत्पन्न होंगे और आप चाक्षुष मन्वन्तरमें प्राचीनवर्हिके पौत्र तथा प्रचेताओंके पुत्र होकर मनुष्योंके राजा बनेंगे । हे दुर्मते ! मैं उस समय आपके धर्म, अर्थ, कामसे युक्त कार्योंमें बारंबार विन डागा ॥ ५३-५८ ॥ तेनैवं व्याहृतो दक्षो रुद्रेणामिततेजसा । स्वायंभुवीं तनुं त्यक्त्वा पपात भुवि दुःखितः ॥ ५९ ॥ ततः प्राचेतसो दक्षो जज्ञे वै चाक्षुषेऽन्तरे । प्राचीनबर्हिषः पौत्रः पुत्रश्चैव प्रचेतसाम् ॥ ६० ॥ जिस समय अमित तेजस्वी रुद्रने दक्षके प्रति ऐसा कहा, उसी समय दुखी दक्ष ब्रह्मदेवसे उत्पन्न अपने देहका त्यागकर पृथ्वीपर गिर पड़े । इसके पश्चात् वही प्राचेतस दक्ष चाक्षुष मन्वन्तरमें प्राचेतस नामसे प्रचेताओंके पुत्र और प्राचीनबर्हिके पौत्रके रूपमें पृथ्वीपर उत्पन्न हुए ॥ ५९-६० ॥ भृग्वादयोऽपि जाता वै मनोर्वैवस्वतस्य तु । अन्तरे ब्रह्मणो यज्ञे वारुणीं बिभ्रतस्तनुम् ॥ ६१ ॥ वे भृगु आदि महर्षि भी वैवस्वत मन्वन्तरके ब्रह्माजीके यज्ञमें वरुणके पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुए । ६१ ॥ तदा दक्षस्य धर्मार्थं यज्ञे तस्य दुरात्मनः । महेशः कृतवान् विघ्नं मना वैवस्वते सति ॥ ६२ ॥ तब वैवस्वत मन्वन्तरमें उन दुरात्मा दक्षके धर्मार्थ प्रवृत्त होनेपर महादेवने विघ्न किया ॥ ६२ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहिताया पूर्वखण्डे सतीदेहत्यागो नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें सतीदेहत्याग नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |