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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

वायवीयसंहिता

॥ विंशोऽध्यायः ॥


यज्ञविध्वंसनः
गणोंके साथ वीरभद्रका दक्षकी यज्ञभूमिमें आगमन तथा उनके द्वारा दक्षके यज्ञका विध्वंस


वायुरुवाच
ततो विष्णुप्रधानानां सुराणाममितौजसाम् ।
ददर्श च महत्सत्रं चित्रध्वजपरिच्छदम् ॥ १ ॥
सुदर्भऋतुसंस्तीर्णं सुसमिद्धहुताशनम् ।
कांचनैर्यज्ञभाण्डैश्च भ्राजिष्णुभिरलङ्‌कृतम् ॥ २ ॥
ऋषिभिर्यज्ञपटुभिर्यथावत्कर्मकर्तृभिः ।
विधिना वेददृष्टेन स्वनुष्ठितबहुक्रमम् ॥ ३ ॥
देवाङ्गनासहस्राढ्यमप्सरोगणसेवितम् ।
वेणुवीणारवैर्जुष्टं वेदघोषैश्च बृंहितम् ॥ ४ ॥
वायु बोले-इसके पश्चात् वीरभद्रने विष्णुके नेतृत्ववाले तेजस्वी देवगणोंसे युक्त उस महायज्ञको देखा, जो चित्र-विचित्र ध्वजाओंसे सुशोभित था, जहाँ सीधेसीधे श्रेष्ठ कुश बिछे हुए थे, भलीभाँति अग्नि प्रज्वलित हो रही थी, जो चमकते हुए सुवर्णमय यज्ञपात्रोंसे अलंकृत था तथा जिसमें यथोचित कर्म करनेवाले यज्ञकुशल ऋषियोंके द्वारा वेदविहित रीतिसे भलीभांति विविध यज्ञकृत्योंका संचालन हो रहा था, जो हजारों देवांगनाओं एवं अप्सराओंसे समन्वित था, वेणु-वीणाकी ध्वनियोंसे गुंजित था तथा वेदघोषोंसे मानो अभिवृद्धिको प्राप्त हो रहा था ॥ १-४ ॥

दृष्ट्‍वा दक्षाध्वरे वीरो वीरभद्रः प्रतापवान् ।
सिंहनादं तदा चक्रे गंभीरो जलदो यथा ॥ ५ ॥
ततः किलकिलाशब्द आकाशं पूरयन्निव ।
गणेश्वरैः कृतो यज्ञे महान्न्यक्कृतसागरः ॥ ६ ॥
दक्षके यज्ञको देखकर वीर तथा प्रतापी वीरभद्रने गम्भीर मेघके समान सिंहनाद किया । यज्ञभूमिमें गणेश्वरोंके द्वारा किया जाता हुआ किलकिलाहटभरा वह महानाद मानों आकाशको परिपूर्ण-सा कर रहा था और सागरके घोषको तिरस्कृत-सा कर रहा था ॥ ५-६ ॥

तेन शब्देन महताः ग्रस्ता सर्वे दिवौकसः ।
दुद्रुवुः परितो भीताः स्रस्तवस्त्रविभूषणाः ॥ ७ ॥
किंस्विद्भग्नो महामेरुः किंस्वित्सन्दीर्यते मही ।
किमिदं किमिदं वेति जजल्पुस्त्रिदशा भृशम् ॥ ८ ॥
उस महान् शब्दसे आक्रान्त हुए सभी देवगण भयसे व्याकुल हो चारों ओर भागने लगे, उनके वस्त्र एवं आभूषण खिसक गये । उस समय देवगण अत्यधिक संक्षुब्ध हो आपसमें बार-बार कहने लगे-क्या महामेरु टूट गया, अथवा पृथ्वी फट रही है ! यह क्या हो गया, यह क्या हो गया ? ॥ ७-८ ॥

मृगेन्द्राणां यथा नादं गजेन्द्रा गहने वने ।
श्रुत्वा तथाविधं केचित्तत्यजुर्जीवितं भयात् ॥ ९ ॥
पर्वताश्च व्यशीर्यन्त चकम्पे च वसुन्धरा ।
मरुतश्च व्यघूर्णन्त चुक्षुभे मकरालयः ॥ १० ॥
अग्नयो नैव दीप्यन्ते न च दीप्यति भास्करः ।
ग्रहाश्च न प्रकाशन्ते नक्षत्राणि च तारकाः ॥ ११ ॥
एतस्मिन्नेव काले तु यज्ञवाटं तदुज्ज्वलम् ।
संप्राप भगवान्भद्रो भद्रैश्च सह भद्रया ॥ १२ ॥
जिस प्रकार गहन वनमें सिंहोंका नाद सुनकर हाथी व्याकुल हो जाते हैं, उसी तरह उन शब्दोंको सुनकर कुछ लोग भयसे प्राण त्यागने लगे । पर्वत फटने लगे, पृथ्वी कम्पित हो उठी, आँधियाँ चलने लगीं । समुद्र संक्षुब्ध हो उठे, आगका जलना बन्द हो गया, सूर्यकी प्रभा धूमिल हो गयी और नक्षत्रों, ग्रहों तथा तारागणोंका प्रकाश लुप्त हो गया । उसी समय भगवान् वीरभद्र अपने गणों एवं भद्रकालीके साथ उस समुज्ज्वल यज्ञस्थल में पहुँचे ॥ ९-१२ ॥

तं दृष्ट्‍वा भीतभीतोऽपि दक्षो दृढ इव स्थितः ।
क्रुद्धवद् वचनं प्राह को भवान् किमिहेच्छसि ॥ १३ ॥
उन्हें देखकर दक्ष भयभीत होते हुए भी दृढ़की भाँति बैठे रहे और क्रोधित होकर यह वचन कहने लगे-आप कौन हैं और यहाँ क्या चाहते हैं ? ॥ १३ ॥

तस्य तद्वचनं श्रुत्वा दक्षस्य च दुरात्मनः ।
वीरभद्रो महातेजा मेघसंभीरनिःस्वनः ॥ १४ ॥
स्मयन्निव तमालोक्य दक्षं देवाश्च ऋत्विजः ।
अर्थगर्भमसंभ्रान्तमवोचदुचितं वचः ॥ १५ ॥
उस दुरात्मा दक्षके वचनको सुनकर मेघके समान गम्भीर गर्जना करनेवाले महातेजस्वी वीरभद्रने दक्ष, देवताओं तथा ऋत्विजोंकी ओर देखकर हँसते हुए अर्थपूर्ण, सर्वथा सुस्पष्ट एवं उचित वचन कहा- ॥ १४-१५ ॥

वीरभद्र उवाच
वयं ह्यनुचराः सर्वे शर्वस्यामिततेजसः ।
भागाभिलिप्सया प्राप्ता भागो नः सम्प्रदीयताम् ॥ १६ ॥
अथ चेदध्वरेऽस्माकं न भागः परिकल्पितः ।
कथ्यतां कारणं तत्र युध्यतां वा मयामरैः ॥ १७ ॥
इत्युक्तास्ते गणेन्द्रेण देवा दक्षपुरोगमाः ।
ऊचुर्मन्त्राः प्रमाणं नो न वयं प्रभवस्त्विति ॥ १८ ॥
वीरभद्र बोले-हम सब अमिततेजस्वी [भगवान्] रुद्रके अनुचर हैं और अपने भागकी कामनासे यहाँ आये हैं, अतः आप हमारा भाग दीजिये । यदि इस यज्ञमें हमारा भाग नहीं रखा गया है, तो उसका कारण बताइये अथवा इन देवताओंको साथ लेकर मुझसे युद्ध कीजिये । वीरभद्रके द्वारा इस तरह कहे जानेपर दक्षके सहित देवताओंने उनसे कहा-इस विषयमें तो मन्त्र ही प्रमाण हैं । हमलोग इसमें समर्थ नहीं हैं ॥ १६-१८ ॥

मन्त्रा ऊचुः सुरा यूयं मोहोपहतचेतसः ।
येन प्रथमभागार्हं न यजध्वं महेश्वरम् ॥ १९ ॥
मन्त्रोंने कहा-हे देवताओ ! आपलोगोंकी बुद्धि मोहसे ग्रसित है, जिससे आपलोग प्रथम भाग पानेके योग्य महेश्वरका यजन नहीं कर रहे हैं ॥ १९ ॥

मन्त्रोक्ता अपि ते देवाः सर्वे संमूढचेतसः ।
भद्राय न ददुर्भागं तत्प्रहाणमभीप्सवः ॥ २० ॥
यदा तथ्यं च पथ्यं च स्ववाक्यं तद्वृथाऽभवत् ।
तदा ततो ययुर्मन्दा ब्रह्मलोकं सनातनम् ॥ २१ ॥
मन्त्रोंके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भी मूढ़ बुद्धिवाले उन सभी देवताओंने वीरभद्रके बहिष्कारकी कामना करते हुए उनको भाग नहीं दिया । जब उनके अपने वे सत्य एवं हितकर वचन व्यर्थ हो गये, तब वे मन्त्र वहाँसे सनातन ब्रह्मलोकको चले गये । २०-२१ ॥

अथोवाच गणाध्यक्षो देवान्विष्णुपुरोगमान् ।
मन्त्राः प्रमाणं न कृता युष्माभिर्बलगर्वितैः ॥ २२ ॥
यस्मादस्मिन्मखे देवैरित्थं वयमसत्कृताः ।
तस्माद्वो जीवितैः सार्धमपनेष्यामि गर्वितम् ॥ २३ ॥
इसके पश्चात् गणेश्वरने विष्णु आदि देवगणोंसे कहा-बलसे गर्वित आपलोगोंने मन्त्रोंको भी प्रमाण नहीं माना और [तुम] देवताओंने इस यज्ञमें हमलोगोंका ऐसा तिरस्कार किया है, अतः मैं प्राणोंसहित आपलोगोंके घमण्डको विनष्ट कर दूंगा ॥ २२-२३ ॥

इत्युक्त्वा भगवान् क्रुद्धो व्यदहन्नेत्रवह्निना ।
यक्षवाटं महाकूटं यथातिस्रः पुरो हरः ॥ २४ ॥
इस प्रकार कहकर कुपित हुए भगवान् वीरभद्र पर्वतके समान यज्ञवाटको नेत्राग्निसे उसी प्रकार जलाने लगे, जिस प्रकार शंकरने त्रिपुरको जलाया था ॥ २४ ॥

ततो गणेश्वराः सर्वे पर्वतोदग्रविग्रहाः ।
यूपानुत्पाट्य होतॄणां कंठेष्वाबध्य रज्जुभिः ॥ २५ ॥
यज्ञपात्राणि चित्राणि भित्त्वा संचूर्ण्य वारिणि ।
गृहीत्वा चैव यज्ञाङ्गं गङ्गास्रोतसि चिक्षिपुः ॥ २६ ॥
पर्वतोंके समान भयानक शरीरवाले गणेश्वरोंने यज्ञके स्तम्भोंको उखाड़कर हवनकर्ताओंके कण्ठोंमें रस्सियोंसे बाँध दिया और विचित्र रूपवाले यज्ञपात्रोंको तोड़-फोड़कर जलमें और यज्ञकी सभी सामग्री उठाकर गंगामें फेंक दी ॥ २५-२६ ॥

तत्र दिव्यान्नपानानां राशयः पर्वतोपमाः ।
क्षीरनद्योऽमृतस्रावाः सुस्निग्धदधिकर्दमाः ॥ २७ ॥
उच्चावचानि मांसानि भक्ष्याणि सुरभीणि च ।
रसवन्ति च पानानि लेह्यचोष्याणि तानि वै ॥ २८ ॥
वीरास्तद्‌भुञ्जते वक्त्रैर्विलुंपन्ति क्षिपन्ति च ।
वज्रैश्चक्रैर्महाशूलैः शक्तिभिः पाशपट्टिशैः ॥ २९ ॥
मुसलैरसिभिष्टङ्‌कैर्भिन्दिपालैः परश्वधैः ।
उद्धतांस्त्रिदशान्सर्वांल्लोकपालपुरः सरान् ॥ ३० ॥
बिभिदुर्बलिनो वीरा वीरभद्राङ्गसंभवाः ।
वहाँपर जो दिव्य अन्न-पानकी पहाड़-जैसी राशियाँ थी, अमृतके समान मधुर दूधकी नदियाँ, स्निग्ध दधिकी राशियाँ, अनेक प्रकारके फलोंके गूदे, सुगन्धित भोज्य पदार्थ, रसमय पानसामग्री, लेह्य पदार्थ एवं चोष्य पदार्थ थे, उन्हें वे वीर खाने लगे, मुखोंमें डालने लगे और फेंकने लगे । वीरभद्रके शरीरसे उत्पन्न बलवान् वीर वज्र, चक्र, महाशूल, शक्ति, पाश, पट्टिश, मूसल, खड्ग, टंक, भिन्दिपाल तथा फरसोंसे लोकपालादि सभी उद्धत देवताओंपर प्रहार करने लगे ॥ २७-३०-१/२ ॥

छिन्धि भिन्धि क्षिप क्षिप्रं मार्यतां दार्यतामिति ॥ ३१ ॥
0हरस्व प्रहरस्वेति पाटयोत्पाटयेति च ।
संरंभप्रभवाः क्रूराः शब्दाः श्रवणशङ्‌कवः ॥ ३२ ॥
यत्र तत्र गणेशानां जज्ञिरे समरोचिताः ।
विवृत्तनयनाः केचिद् दष्टदंष्ट्रोष्ठतालवः ॥ ३३ ॥
आश्रम स्थान् समाकृष्य मारयन्ति तपोधनान् ।
स्रुवानपहरन्तश्च क्षिपन्तोऽग्निं जलेषु च ॥ ३४ ॥
कलशानपि भिन्दन्तश्छिन्दन्तो मणिवेदिकाः ।
गायन्तश्च नदन्तश्च हसन्तश्च मुहुर्मुहुः ।
रक्तासवं पिबन्तश्च ननृतुर्गणपुङ्गवाः ॥ ३५ ॥
निर्मथ्य सेन्द्रानमरान् गणेन्द्रा वृषेन्द्रनागेन्द्रमृगेन्द्रसाराः ।
चक्रुर्बहून्यप्रतिमप्रभावाः सहर्षरोमाणि विचेष्टितानि ॥ ३६ ॥
इस तरह गणेश्वरोंके 'छेदन करो, भेदन करो, फेंक दो, शीघ्र मारो-काटो, चूर्ण करो, छीन लो, प्रहार करो, उखाड़ दो, फाड़ दो आदि कानोंको शंकुकी भाँति पीड़ा देनेवाले युद्धोचित भयानक शब्द जहाँ-तहाँ होने लगे । कोई आँखोंसे घूर रहा था, तो किसीने अपने दाँतोंसे ओठ और तालुओंको काट लिया । वे श्रेष्ठ गण आश्रमोंमें स्थित तपस्वियोंको खींच-खींचकर पीटने लगे और सुवोंको छीनते हुए तथा अग्नियोंको जलराशिमें डालते हुए, कलशॉको फोड़ते हुए, मणिनिर्मित वेदियोंको नष्ट करते हुए, बारंबार गाते हुए, गरजते हुए, हँसते हुए तथा आसवकी भाँति रक्तको पीते हुए नाचने लगे ॥ ३१-३६ ॥

नन्दन्ति केचित्प्रहरन्ति केचित्
धावन्ति केचित्प्रलपन्ति केचित् ॥ ३७ ॥
श्रेष्ठ वृषभ, गजराज एवं सिंहके समान बलवाले और अप्रतिम प्रभाववाले गणेश्वरोंने इन्द्रसहित सभी देवताओंको रौंदकर रोमांचित कर देनेवाली अनेक भयानक चेष्टाएँ की ॥ ३७ ॥

नृत्यन्ति केचिद्विहसन्ति केचित्
0वल्गन्ति केचित्प्रमथा बलेन ॥ ३८ ॥
कोई प्रमथ आह्लादित हो रहे थे, कोई प्रहार करते, कोई दौड़ते, कोई प्रलाप करते, कोई नाचते, कोई हँसते और कोई बलपूर्वक उछलते-कूदते थे ॥ ३८ ॥

केचिज्जिघृक्षन्ति घनान्स तोयान् 00केचिद्‌ग्रहीतुं रविमुत्पतन्ति ।
केचित्प्रसर्तुं पवनेन सार्द्ध- मिच्छन्ति भीमाः प्रमथा वियत्स्थाः ॥ ३९ ॥
कोई भयंकर प्रमथगण जलसे समन्वित बादलोंको पकड़नेकी इच्छा कर रहे थे, तो कोई सूर्यको पकड़नेके लिये उछल रहे थे और कोई आकाशमें स्थित होकर पवनके साथ उड़नेकी इच्छा कर रहे थे ॥ ३९ ॥

आक्षिप्य केचिच्च वरायुधानि महा भुजङ्गानिव वैनतेयाः
भ्रमन्ति देवानपि विद्रवन्त खमण्डले पर्वतकूटकल्पाः ॥ ४० ॥
कोई प्रमथगण श्रेष्ठ आयुधोंको [कौतूहलवश] पकड़ ले रहे थे, जैसे बड़े-बड़े सौको गरुड़ पकड़ लेते हैं और कोई पर्वतशिखरके सदृश प्रमथगण देवताओंको दौड़ाते हुए आकाशमें विचरण कर रहे थे ॥ ४० ॥

उत्पाट्य चोत्पाट्यगृहाणि केचित् सजालवातायनवेदिकानि ।
विक्षिप्य विक्षिप्य जलस्य मध्ये कालाम्बुदाभाः प्रमथा निनेदुः ॥ ४१ ॥
उद्वर्तितद्वारकपाटकुड्यं विध्वस्तशालावलभीगवाक्षम् ।
अहो बताभज्यत यज्ञवाट- मनाथवद्वाक्यमिवायथार्थम् ॥ ४२ ॥
कोई प्रमथगण जालयुक्त खिड़कियों तथा वेदियोंसे समन्वित घरोंको उखाड़-उखाड़कर उन्हें जलके बीच में फेंक-फेंककर प्रलयकालीन मेघोंके समान गर्जन कर रहे थे । [उस समय विलाप करते हुए लोग कह रहे थे-] अहो ! दुःखका विषय है कि किवाड़ों तथा दीवारोंवाला और ध्वस्त किये गये प्रकोष्ठों, खिड़कियों एवं कँगूरोंवाला यह यज्ञस्थल अप्रामाणिक तथा असत्य कथनकी भाँति विनष्ट हुआ जा रहा है । ४१-४२ ॥

हा नाथ तातेति पितुः सुतेति भ्रातर्ममाम्बेति च मातुलेति ।
उत्पाट्यमानेषु गृहेषु नार्यो ह्यनाथशब्दान्बहुशः प्रचक्रुः ॥ ४३ ॥
उस समय विध्वस्त किये जा रहे घरोंमें स्थित स्त्रियाँ हा नाथ ! हा तात ! हा पिता ! हा पुत्र ! हा भ्रातः ! हा मेरी माता ! हा मातुल ! आदि दैन्यसूचक शब्दोंको बार-बार बोल रही थीं ॥ ४३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे यज्ञविध्वंसनो नाम विंशोऽध्यायः ॥२०॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें यज्ञविध्वंसन नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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