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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

वायवीयसंहिता

॥ एकविंशोऽध्यायः ॥


देवदण्डवर्णनम्
वीरभद्रका दक्षके यज्ञमें आये देवताओंको दण्ड देना तथा दक्षका सिर काटना


वायुरुवाच
ततस्त्रिदशमुख्यास्ते विष्णुशक्रपुरोगमाः ।
सर्वे भयपरित्रस्ता दुद्रुवुर्भयविह्वलाः ॥ १ ॥
वायु बोले-[हे विप्रगण !] तब देवताओंमें प्रमुख वे विष्णु, इन्द्रादि उस भयंकर [वीरभद्र]-से संत्रस्त हो गये तथा भयसे व्याकुल हो पलायन करने लगे ॥ १ ॥

निजैरदूषितैरङ्गैर्दृष्ट्‍वा देवानुपद्रुतान् ।
दण्ड्यानदण्डितान् मत्वा चुकोप गणपुङ्गवः ॥ २ ॥
देवताओंको उनके स्वस्थ अंगोंसे युक्त देखकर तथा दण्डयोग्य होनेपर भी बिना दण्ड पाये भागते हुए जानकर गणश्रेष्ठ वीरभद्र क्रोधित हो उठे ॥ २ ॥

ततस्त्रिशूलमादाय शर्वशक्तिनिबर्हणम् ।
ऊर्ध्वदृष्टिर्महाबाहुर्मुखाज्ज्वालाः समुत्सृजन् ॥ ३ ॥
अमरानपि दुद्राव द्विरदानिव केसरी ।
तानभिद्रवतस्तस्य गमनं सुमनोहरम् ॥ ४ ॥
वाराणस्येव मत्तस्य जगाम प्रेक्षणीयताम् ।
ततस्तत्क्षोभयामास महत्सुरबलं बली ॥ ५ ॥
महासरोवरं यद्वन्मत्तो वारणयूथपः ।
विकुर्वन्बहुधा वर्णान्नीलपाण्डुरलोहितान् ॥ ६ ॥
तत्पश्चात् सभी शक्तियोंको विनष्ट करनेवाले त्रिशूलको लेकर वे महाबाहु वीरभद्र ऊपरकी ओर दृष्टि किये हुए तथा मुखसे आग उगलते हुए उसी तरह देवताओंको दौड़ा लिये, जैसे सिंह हाथियोंको दौडाता है । उस समय उनको दौड़ाते हुए वीरभद्रकी अति मनोहर चाल मदसे परिपूर्ण हाथीकी चालके समान दिखायी पड़ने लगी । उन बलशालीने देवताओंकी महान् सेनाको उसी प्रकार क्षुब्ध कर दिया, जैसे मतवाला हाथी महासरोवरको मथकर उसे नील, पाण्डुर, लोहित आदि वर्णीवाला कर देता है ॥ ३-६ ॥

विभ्रद् व्याघ्राजिनं वासो हेमप्रवरतारकम् ।
छिन्दन् भिन्दन्नुदक्लिन्दन्दारयन्प्रमथन्नपि ॥ ७ ॥
व्यचरद्देवसंघेषु भद्रोऽग्निरिव कक्षगः ।
तत्र तत्र महावेगाच्चरन्तं शूलधारिणम् ॥ ८ ॥
तमेकं त्रिदशाः सर्वे सहस्रमिव मेनिरे ।
उस समय व्याघ्रचर्म पहने हुए और श्रेष्ठ चमकीले सुवर्णनिर्मित तारोंवाले वस्त्र धारण किये वीरभद्र छेदन करते हुए, भेदन करते हुए. फेंकते हुए, गीला करते हुए, फाड़ते हुए और मथते हुए देवताओंके मध्य वैसे ही विचरण करने लगे, जिस प्रकार सूखी घास के मध्यमें अग्नि प्रज्वलित होती है । सभी देवताओंने यहाँ-वहाँ अकेले विचरण करते हुए त्रिशूलधारी एक वीरभद्रको हजारोंकी संख्यामें माना ॥ ७-८ १/२ ॥

भद्रकाली च संक्रुद्धा युद्धवृद्धमदोद्धता ॥ ९ ॥
मुक्तज्वालेन शूलेन निर्बिभेद रणे सुरान् ।
स तया रुरुचे भद्रो रुद्रकोपसमुद्भवः ॥ १० ॥
प्रभयेव युगान्ताग्निश्चलया धूमधूम्रया ।
भद्रकाली तदायुद्धे विद्रुतत्रिदशा बभौ ॥ ११ ॥
कल्पे शेषानलज्वालादग्धाविश्वजगद्यथा ।
युद्धके कारण बढ़े हुए मदसे उन्मत्त भद्रकालीने अत्यधिक कुपित होकर अग्नि उगलते हुए अपने त्रिशूलसे देवताओंको युद्धमें मारना प्रारम्भ कर दिया । रुद्रके क्रोधसे उत्पन्न वीरभद्र उनके साथ उसी प्रकार सुशोभित होने लगे, जिस प्रकार प्रलयाग्नि चलायमान धुएँसे धूम्रवर्णवाली प्रभाके साथ सुशोभित होती है । उस समय युद्धमें देवताओंको भगाती हुई भद्रकाली वैसे ही शोभित हो रही थीं, मानो कल्पान्तमें समग्र विश्वको दग्ध करती हुई शेषके मुखसे निकली अग्निज्वाला हो ॥ ९-११ १/२ ॥

तदा सवाजिनं सूर्यं रुद्रान् रुद्रगणाग्रणीः ॥ १२ ॥
भद्रो मूर्ध्नि जघानाशु वामपादेन लीलया ।
असिभिः पावकं भद्रः पट्टिशैस्तु यमं यमीम् ॥ १३ ॥
रुद्रान् दृढेन शूलेन मुद्गरैर्वरुणं दृढैः ।
परिघैर्निर्ऋतिं वायुं टङ्कैष्टङ्कधरः स्वयम् ॥ १४ ॥
निर्बिभेद रणे वीरो लीलयैव गणेश्वरः ।
सर्वान्देवगणान्सद्यो मुनीन् शंभोर्विरोधिनः ॥ १५ ॥
ततो देवः सरस्वत्या नासिकाग्रं सुशोभनम् ।
चिच्छेद करजाग्रेण देवमातुस्तथैव च ॥ १६ ॥
चिच्छेद च कुठारेण बाहुदण्डं विभावसोः ।
अग्रतो द्व्यङ्गुलां जिह्वां मातुर्देव्या लुलाव च ॥ १७ ॥
गणेश्वर वीरभद्रने [दक्षके द्वारा आहूत] रुद्रगणों तथा अश्वसहित सूर्यके सिरपर खेल ही खेलमें बड़ी शीघ्रतासे अपने बायें पैरसे प्रहार किया । उन वीरभद्रने अग्निपर तलवारसे, यम तथा यमीपर पद्रिशसे, रुद्रोपर कठोर शूलसे, वरुणपर दृढ़ मुद्‌गरोंसे, परिघोंसे नितिपर तथा टंकोंसे वायुपर प्रहार किया । इस तरह संग्राममें वीर गणेश्वर वीरभद्रने लीलापूर्वक शीघ्र ही समस्त देवताओं तथा शिवविरोधी मुनियोंको मार गिराया । इसके अनन्तर वीरभद्रने सरस्वती तथा देवमाता अदितिकी अति सुन्दर नासिकाके अग्रभागको अपने नखसे विदीर्ण कर दिया, कुठारसे अग्निकी भुजा काट दी तथा हविष्यको ग्रहण करनेवाली दो अँगुल जीभ काट डाली । १२-१७ ॥

स्वाहादेव्यास्तथा देवो दक्षिणं नासिकापुटम् ।
चकर्त करजाग्रेण वामं च स्तनचूचुकम् ॥ १८ ॥
उन देवने अपने नखाग्रसे स्वाहा देवीकी नासिकाका दक्षिण भाग और उनका बायाँ स्तनाग्र काट लिया ॥ १८ ॥

भगस्य विपुले नेत्रे शतपत्रसमप्रभे ।
प्रसह्योत्पाटयामास भद्रः परमवेगवान् ॥ १९ ॥
परम वेगशाली वीरभद्रने बलपूर्वक भगदेवताके कमलके समान बड़े-बड़े नेत्रोंको निकाल लिया ॥ १९ ॥

पूष्णो दशनरेखां च दीप्तां मुक्तावलीमिव ।
जघान धनुषः कोट्या स तेनास्पष्टवागभूत् ॥ २० ॥
उन्होंने पूषा देवताकी चमकती हुई मोतीकी मालाके सदृश दन्तपंक्तिको धनुषकी नोंकसे तोड़ दिया, जिससे वे स्पष्ट बोलनेमें असमर्थ हो गये ॥ २० ॥

ततश्चन्द्रमसं देवः पादाङ्गुष्ठेन लीलया ।
क्षणं कृमिवदाक्रम्य घर्षयामास भूतले ॥ २१ ॥
शिरश्चिच्छेद दक्षस्य भद्रः परमकोपतः ।
क्रोशन्त्यामेव वैरिण्यां भद्रकाल्यै ददौ च तत् ॥ २२ ॥
तत्पश्चात् उन देवने चन्द्रदेवताको लीलापूर्वक कौड़ेके समान पृथ्वीपर पटककर अपने चरणके अंगूठेसे उन्हें पीस डाला । वीरभद्रने अत्यधिक क्रोधित हो दक्षका सिर काट लिया और वीरिणीके रोते-कलपते रहनेपर भी उसे भद्रकालीको दे दिया ॥ २१-२२ । ।

तत्प्रहृष्टा समादाय शिरस्तालफलोपमम् ।
सा देवी कन्दुकक्रीडां चकार समराङ्गणे ॥ २३ ॥
ततो दक्षस्य यज्ञस्त्री कुशीला भर्तृभिर्यथा ।
पादाभ्यां चैव हस्ताभ्यां हन्यते स्म गणेश्वरैः ॥ २४ ॥
ताड़के फलके समान उस सिरको लेकर वे देवी अत्यधिक हर्षित होकर रणभूमिमें कन्दुक-क्रीड़ा करने लगीं । इसके बाद गणेश्वर लोग दक्षकी यज्ञस्वी (यजमानी)को पैरों एवं हाथोंसे इस प्रकार मारने लगे, जिस प्रकार शीलविहीन नारीको उसके पति मारते हैं । । २३-२४ ॥

अरिष्टनेमिनं सोमं धर्मं चैव प्रजापतिम् ।
बहुपुत्रं चाङ्गिरसं कृशाश्वं काश्यपं तथा ॥ २५ ॥
गले प्रगृह्य बलिनो गणपाः सिंहविक्रमाः ।
भर्त्सयन्तो भृशं वाग्भिर्निर्जघ्नुर्मूर्ध्नि मुष्टिभिः ॥ २६ ॥
इसके पश्चात् बलशाली तथा सिंहके समान पराक्रमवाले गणेश्वरोंने अरिष्टनेमि, सोम, धर्म, प्रजापति, बहुत-से पुत्रोंवाले अंगिरा, कृशाश्व तथा कश्यपका गला पकड़कर दुर्वचनोंसे उन्हें झिड़कते हुए घूसोंसे उनके सिरोंपर प्रहार करना शुरू कर दिया ॥ २५-२६ ॥

धर्षिता भूतवेतालैर्दाराः सुतपरिग्रहाः ।
यथा कलियुगे जारैर्बलेन कुलयोषितः ॥ २७ ॥
उस समय उन भूत-वेतालोंके द्वारा पुत्र एवं पतिसहित स्त्रियाँ इस तरह अपमानित की गयीं, जैसे कलियुगमें व्यभिचारियोंद्वारा बलपूर्वक कुलीन नारियाँ सतायी जाती हैं ॥ २७ ॥

तच्च विध्वस्तकलशं भग्नयूपं गतोत्सवम् ।
प्रदीपितमहाशालं प्रभिन्नद्वारतोरणम् ॥ २८ ॥
उत्पाटितसुरानीकं हन्यमानं तपोधनम् ।
प्रशान्तब्रह्मनिर्घोषं प्रक्षीणजनसञ्चयम् ॥ २९ ॥
क्रन्दमानातुरस्त्रीकं हताशेषपरिच्छदम् ।
शून्यारण्यनिभं जज्ञे यज्ञवाटं तदार्दितम् ॥ ३० ॥
गणेश्वरोंके उपद्रवसे उस यज्ञस्थानके सारे कलश विनष्ट हो गये, यज्ञस्तम्भ टूट गया, वह स्थान आनन्दरहित हो गया, यज्ञशाला जलने लगी, द्वार-तोरण तोड़ दिये गये, देवताओंकी सेना छिन्न-भिन्न हो गयी, तपस्वी मारे जाने लगे, वेदका घोष बन्द हो गया, जनसमूह तितरबितर हो गया, आतुरों और स्त्रियोंका क्रन्दन होने लगा, सभी यज्ञसामग्री विनष्ट हो गयी; इस तरह [उन गणेश्वरोंसे] नष्ट-भ्रष्ट किया गया वह यज्ञस्थल अरण्यके समान शून्य प्रतीत होने लगा ॥ २८-३० ॥

शूलवेगप्ररुग्णाश्च भिन्नबाहूरुवक्षसः ।
विनिकृत्तोत्तमाङ्गाश्च पेतुरुर्व्यां सुरोत्तमाः ॥ ३१ ॥
शूलके तीव्र प्रहारसे कटे हुए भुजा, ऊरु, वक्षःस्थल तथा सिरवाले श्रेष्ठ देवता पृथ्वीपर गिरे हुए थे ॥ ३१ ॥

हतेषु तेषु देवेषु पतितेषुः सहस्रशः ।
प्रविवेश गणेशानः क्षणादाहवनीयकम् ॥ ३२ ॥
इस प्रकार हजारों देवताओंके मारे जाने तथा पृथ्वीपर गिर जानेपर वे गणेश्वर (वीरभद्र) क्षणमात्रमें वहाँ पहुँचे, जहाँ आहवनीयाग्नि जल रही थी ॥ ३२ ॥

प्रविष्टमथ तं दृष्ट्‍वा भद्रं कालाग्निसंनिभम् ।
दुद्राव मरणाद्भीतो यज्ञो मृगवपुर्धरः ॥ ३३ ॥
स विस्फार्य महच्चापं दृढज्याघोषणभीषणम् ।
भद्रस्तमभिदुद्राव विक्षिपन्नेव सायकान् ॥ ३४ ॥
आकर्णपूर्णमाकृष्टं धनुरम्बुदसंनिभम् ।
नादयामास च ज्यां द्यां खं च भूमिं च सर्वशः ॥ ३५ ॥
कालाग्निके समान उन वीरभद्रको यज्ञस्थलमें प्रविष्ट हुआ देखकर मरणसे भयभीत यज्ञ मृगरूप धारणकर भागने लगा । उन वीरभद्रने कठोर प्रत्यंचाके भयानक शब्दवाला महाधनुष खींचकर बाणोंको छोड़ते हुए यज्ञका पीछा किया । जब यज्ञका वध करने हेतु वीरभद्रने बादलके समान शब्द करनेवाला अपना धनुष कानतक खींचकर प्रत्यंचाकी टंकार की, उस समय उसके शब्दसे दिशाएँ, स्वर्ग तथा भूमि कम्पायमान हो उठे ॥ ३३-३५ ॥

तमुपश्रित्य सन्नादं हतोऽस्मीत्येव विह्वलम् ।
शरणार्धेन वक्रेण स वीरोऽध्वरपूरुषम् ॥ ३६ ॥
महाभयस्खलत्पादं वेपन्तं विगतत्विषम् ।
मृगरूपेण धावन्तं विशिरस्कं तदाकरोत् ॥ ३७ ॥
उस भयानक शब्दको सुनकर 'हाय ! अब मैं मरा' इस प्रकार कहकर वह यज्ञ विह्वल हो गया । वीरभद्रने अत्यधिक भयके कारण लड़खड़ाते पैरोंवाले, काँपते हुए तथा कान्तिसे रहित उस दौड़ते हुए मृगरूपधारी यज्ञपुरुषको सिरविहीन कर दिया ॥ ३६-३७ ॥

तमीदृशमवज्ञातं दृष्ट्‍वा वै सूर्यसंभवम् ।
विष्णुः परमसंक्रुद्धो युद्धायाभवदुद्यतः ॥ ३८ ॥
तमुवाह महावेगात्स्कन्धेन नतसन्धिना ।
सर्वेषां वयसां राजा गरुडः पन्नगाशनः ॥ ३९ ॥
देवाश्च हतशिष्टा ये देवराजपुरोगमाः ।
प्रचक्रुस्तस्य साहाय्यं प्राणांस्त्यक्तुमिवोद्यताः ॥ ४० ॥
यज्ञाग्निसे उत्पन्न उस यज्ञका इस प्रकार अपमान होते देखकर विष्णु अति कुपित होकर युद्ध करनेके लिये उद्यत हुए । पक्षियोंके राजा तथा सर्पभोजी गरुड़ बड़े वेगसे उन विष्णुको अपने झुके हुए सन्धि भागवाले कन्धोपर बैठाकर चल दिये । उस समय मरनेसे बचे हुए जो इन्द्रादि देवता थे, वे अपने प्राणतक देनेके लिये तैयार होकर उनकी सहायता करने लगे ॥ ३८-४० ॥

विष्णुना सहितान्देवान् मृगेन्द्रः क्रोष्टुकानिव ।
दृष्ट्‍वा जहास भूतेन्द्रो मृगेन्द्र इव विव्यथः ॥ ४१ ॥
विष्णुसहित देवताओंको देखकर वीरभद्र इस तरह हँसने लगे, जैसे सियारोंको देखकर सिंह निडर हो उनका उपहास करता है । ४१ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे देवदण्डवर्णनं नामैकविंशोऽध्यायः ॥२१॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें देवदण्डवर्णन नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २१ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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