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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

वायवीयसंहिता

॥ त्रयोविंशोऽध्यायः ॥


गिरिशानुनयः
पराजित देवोंके द्वारा की गयी स्तुतिसे प्रसन्न शिवका यज्ञकी सम्पूर्ति करना तथा देवताओंको सान्त्वना देकर अन्तर्धान होना


वायुरुवाच
इति संछिन्नभिन्नाङ्गा देवा विष्णुपुरोगमाः ।
क्षणात्कष्टां दशामेत्य त्रेसुः स्तोकावशेषिता ॥ १ ॥
वायुदेव बोले-[हे विप्रवरो !] इस प्रकार अस्वोंसे छिन्न-भिन्न अंगोंवाले विष्णु आदि देवता क्षणमात्रमें कष्टको प्राप्तकर युद्धमें शेष देवताओंके साथ व्याकुल हो गये ॥ १ ॥

त्रस्तांस्तान्समरे वीरान् देवानन्यांश्च वै गणाः ।
प्रमथाः परमक्रुद्धा वीरभद्रप्रणोदिताः ॥ २ ॥
प्रगृह्य च तथा दोषं निगडैरायसैर्दृढैः ।
बबन्धुः पाणिपादेषु कन्धरेषूदरेषु च ॥ ३ ॥
वीरभद्र के द्वारा प्रेरित क्रोधी प्रमथगणोंने देवताओंके अपराधके अनुसार युद्धमें बचे हुए उन अन्य भयभीत देववीरोंको पकड़कर अत्यन्त दृढ़ लोहेकी जंजीरोंसे उनके हाथ, पैर, कन्धा तथा पेट बाँध दिये ॥ २-३ ॥

तस्मिन्नवसरे ब्रह्मा भद्रमद्रीन्द्रजानुतम् ।
सारथ्याल्लब्धवात्सल्यः प्रार्थयन् प्रणतोऽब्रवीत् ॥ ४ ॥
अलं क्रोधेन भगवन्नष्टाश्चैते दिवौकसः ।
प्रसीद क्षम्यतां सर्वं रोमजैः सह सुव्रत ॥ ५ ॥
उस समय देवी पार्वतीके स्नेह-पात्र उन वीरभद्रके सारथी होनेके कारण अनुग्रहको प्राप्त हुए ब्रह्माजी प्रार्थना करते हुए विनयपूर्वक कहने लगे-हे भगवन् ! अब क्रोधका शमन कीजिये; ये देवता विनष्ट हो चुके हैं । हे सुव्रत ! प्रसन्न होइये और अपने रोमसे उत्पन्न गणोंके साथ आप इन सभीको क्षमा कीजिये ॥ ४-५ ॥

एवं विज्ञापितस्तेन ब्रह्मणा परमेष्ठिना ।
शमं जगाम संप्रीतो गणपस्तस्य गौरवात् ॥ ६ ॥
देवाश्च लब्धावसरा देवदेवस्य मन्त्रिणः ।
धारयन्तोऽञ्जलीन्मूर्ध्नि तुष्टुवुर्विविधैः स्तवैः ॥ ७ ॥
उन परमेष्ठी ब्रह्माजीके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर अति प्रसन्न हुए गणाधिप [वीरभद्र] उनके गौरवके कारण शान्त हो गये । देवता भी उचित समय जानकर सिरपर अंजलि धारणकर अनेक प्रकारके स्तोत्रोंसे देवदेव शिवके मन्त्री वीरभद्रकी स्तुति करने लगे ॥ ६-७ ॥

देवा ऊचुः
नमः शिवाय शान्ताय यज्ञहन्त्रे त्रिशूलिने ।
रुद्रभद्राय रुद्राणां पतये रुद्रभूतये ॥ ८ ॥
कालाग्निरुद्ररूपाय कालकामाङ्गहारिणे ।
देवतानां शिरोहन्त्रे दक्षस्य च दुरात्मनः ॥ ९ ॥
संसर्गादस्य पापस्य दक्षस्य क्लिष्टकर्मणः ।
शासिताः समरे वीर त्वया वयमनिन्दिताः ॥ १० ॥
देवगण बोले-शिव, शान्तस्वरूप, यज्ञहन्ता, त्रिशूलधारी, रुद्रभद्र, रुद्रपति एवं रुद्रभूति, कालाग्निरुद्ररूप, काल तथा कामदेवके शरीरको विनष्ट करनेवाले देवताओं तथा दुरात्मा दक्षके सिरका छेदन करनेवाले आपको नमस्कार है । हे वीर ! यद्यपि हमलोग निरपराध हैं, फिर भी इस पापी दक्षके संसर्गके कारण आपने हमलोगोंको संग्राममें दण्ड दिया है । ८-१० ॥

दग्धाश्चामी वयं सर्वे त्वत्तो भीताश्च भो प्रभो ।
त्वमेव गतिरस्माकं त्राहि नः शरणागतान् ॥ ११ ॥
हे प्रभो ! आपने हमलोगोंको [अपनी कोपाग्निसे] जला-सा दिया है, इसलिये हम आपसे डरे हुए हैं, अब आप ही हमारे रक्षक हैं, हम शरणागतोंकी रक्षा कीजिये ॥ ११ ॥

वायुरुवाच
तुष्टस्त्वेवं स्तुतो देवान् विसृज्य निगडात्प्रभुः ।
आनयद्देवदेवस्य समीपममरानिह ॥ १२ ॥
देवोऽपि तत्र भगवानन्तरिक्षे स्थितः प्रभुः ।
सगणः सर्वगः शर्वः सर्वलोकमहेश्वरः ॥ १३ ॥
वायु बोले- इस प्रकार स्तुतिसे प्रसन्न हुए प्रभु वीरभद्र देवताओंको लोहेकी जंजीरसे मुक्त करके उनको देवदेव [शिव]-के समीप ले आये । उस समय सर्वसमर्थ, सर्वलोकमहेश्वर, सर्वव्यापी भगवान् सदाशिव गणोंके साथ अन्तरिक्षमें विराजमान थे ॥ १२-१३ ॥

तं दृष्ट्‍वा परमेशानं देवा विष्णुपुरोगमाः ।
प्रीता अपि च भीताश्च नमश्चक्रुर्महेश्वरम् ॥ १४ ॥
उन परमेश्वरको देखकर विष्णु आदि देवताओंने डरे होनेपर भी प्रसन्नतापूर्वक महेश्वरको प्रणाम किया ॥ १४ ॥

दृष्ट्‍वा तानमरान्भीतान्प्रणतार्तिहरो हरः ।
इदमाह महादेवः प्रहसन् प्रेक्ष्य पार्वतीम् ॥ १५ ॥
तब उन देवताओंको डरा हुआ देखकर दीनोंके दुःखको दूर करनेवाले महादेव पार्वतीकी ओर देखकर देवताओंसे हँसते हुए यह कहने लगे- ॥ १५ ॥

महादेव उवाच
मा भैष्ट त्रिदशाः सर्वे यूयं वै मामिकाः प्रजाः ।
अनुग्रहार्थमेवेह धृतो दण्डः कृपालुना ॥ १६ ॥
भवतां निर्ज्जराणां हि क्षान्तोऽस्माभिर्व्यतिक्रमः ।
क्रुद्धेष्वस्मासु युष्माकं न स्थितिर्न च जीवितम् ॥ १७ ॥
महादेव बोले-हे देवताओ ! डरिये मत, क्योंकि आप सभी लोग मेरी प्रजा हैं, कृपालु वीरभद्रने अनुग्रहके लिये ही आपलोगोंको दण्डित किया है । अब हम लोगोंने आप देवगणोंके अपराधको क्षमा कर दिया, हम लोगोंके क्रोधित हो जानेपर न आप लोगोंकी स्थिति रह सकती है और न जीवन रह सकता है ॥ १६-१७ ॥

वायुरुवाच
इत्युक्तास्त्रिदशाः सर्वे शर्वेणामिततेजसा ।
सद्यो विगतसन्देहा ननृतुर्विबुधा मुदा ॥ १८ ॥
वायु बोले-अमिततेजस्वी सदाशिवने सभी देवताओंसे ऐसा कहा, तब वे देवता शीघ्र ही सन्देहरहित होकर प्रसन्नतापूर्वक नाचने लगे ॥ १८ ॥

प्रसन्नमनसो भूत्वानन्दविह्वलमानसाः ।
स्तुतिमारेभिरे कर्तुं शङ्करस्य दिवौकसः ॥ १९ ॥
वे देवता प्रसन्नचित्त तथा आनन्दविह्वल मनवाले होकर शिवजीकी स्तुति करने लगे ॥ १९ ॥

देवा ऊचुः
त्वमेव देवाखिललोककर्ता पाता च हर्ता परमेश्वरोऽसि ।
कविष्णुरुद्राख्यस्वरूपभेदै रजस्तमः सत्त्वधृतात्ममूर्ते ॥ २० ॥
सर्वमूर्ते नमस्तेऽस्तु विश्वभावन पावन ।
अमूर्ते भक्तहेतोर्हि गृहीताकृतिसौख्यद ॥ २१ ॥
देवगण बोले-हे देव ! ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र नामक स्वरूपभेदोंसे रजोगुण, सत्त्वगुण तथा तमोगुणको धारण करनेवाले आत्ममूर्ते ! आप कर्ता, पालक तथा संहारक परमेश्वर हैं । हे सर्वमूर्ते ! हे विश्वभावन ! हे पावन ! हे अमूर्ते ! हे भक्तोंको सुख देनेके लिये स्वरूप धारण करनेवाले ! आपको नमस्कार है ॥ २०-२१ ॥

चन्द्रोऽगदो हि देवेश कृपातस्तव शङ्कर ।
निमज्जनान्मृतः प्राप सुखं मिहिरजाजलिः ॥ २२ ॥
हे देवेश ! आपकी कृपासे ही चन्द्रमा [यक्ष्माके] रोगसे मुक्त हो गये । हे शंकर ! मिहिरजाजलिने जलमें डूबकर मर जानेके बाद भी पुनः जीवित हो आपकी दयासे सुख प्राप्त किया ॥ २२ ॥

सीमन्तिनी हतधवा तव पूजनतः प्रभो ।
सौभाग्यमतुलं प्राप सोमवारव्रतात्सुतान् ॥ २३ ॥
हे प्रभो ! सीमन्तिनीने सोमवारका व्रत करनेसे तथा आपके पूजनके प्रभावसे पतिके मर जानेपर भी पुनः अतुल सौभाग्य तथा अनेक पुत्रोंको प्राप्त किया ॥ २३ ॥

श्रीकराय ददौ देवः स्वीयं पदमनुत्तमम् ।
सुदर्शनमरक्षस्त्वं नृपमण्डलभीतितः ॥ २४ ॥
हे देव ! आपने श्रीकरको अपना उत्तम पद प्रदान किया और राजाओंके भयसे सुदर्शनकी रक्षा की ॥ २४ ॥

मेदुरं तारयामास सदारं च घृणानिधिः ।
शारदां विधवां चक्रे सधवां क्रियया भवान् ॥ २५ ॥
आप कृपालुने स्त्रीसहित मेदुरका उद्धार किया और अपनी कृपासे विधवा शारदाको सधवा बना दिया ॥ २५ ॥

भद्रायुषो विपत्तिं च विच्छिद्य त्वमदाः सुखम् ।
सौमिनी भवबन्धाद्वै मुक्ताऽभूत्तव सेवनात् ॥ २६ ॥
आपने भद्रायुकी विपत्ति दूर करके उसे सुख प्रदान किया और आपकी सेवाके प्रभावसे सौमिनी संसारबन्धनसे मुक्त हो गयी ॥ २६ ॥

विष्णुरुवाच
त्वं शंभो कहरीशाश्च रजः सत्त्वतमोगुणैः ।
कर्ता पाता तथा हर्ता जनानुग्रहकाङ्क्षया ॥ २७ ॥
विष्णु बोले-हे शिवजी ! आप प्राणियोंपर अनुग्रह करनेकी कामनासे रज, सत्त्व और तमोगुणसे ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्रमूर्ति धारणकर इस जगत्की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करते हैं । ॥ २७ ॥

सर्वगर्वापहारी च सर्वतेजोविलासकः ।
सर्वविद्यादिगूढश्च सर्वानुग्रहकारकः ॥ २८ ॥
आप सभीका घमण्ड दूर करनेवाले हैं, सभीको तेज प्रदान करनेवाले, सभी विद्याओंमें गुप्त रूपसे निवास करनेवाले एवं सबपर अनुग्रह करनेवाले हैं ॥ २८ ॥

त्वत्तः सर्वं च त्वं सर्वं त्वयि सर्वं गिरीश्वर ।
त्राहि त्राहि पुनस्त्राहि कृपां कुरु ममोपरि ॥ २९ ॥
अथास्मिन्नन्तरे ब्रह्मा प्रणिपत्य कृतांजलिः ।
एवं त्ववसरं प्राप्य व्यज्ञापयत शूलिने ॥ ३० ॥
हे गिरीश्वर ! आपसे सब कुछ है, आप ही सब कुछ हैं और सब कुछ आपमें ही स्थित है । मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये, पुनः रक्षा कीजिये और मुझपर दया कीजिये । इसके बाद उचित अवसर पाकर ब्रह्माजी हाथ जोड़कर प्रणाम करके शिवजीसे इस प्रकार कहने लगे- ॥ २९-३० ॥

ब्रह्मोवाच
जय देव महादेव प्रणतार्तिविभंजन ।
ईदृशेष्वपराधेषु कोऽन्यस्त्वत्तः प्रसीदति ॥ ३१ ॥
लब्धमानो भविष्यन्ति ये पुरा निहिता मृधे ।
प्रत्यापत्तिर्न कस्य स्यात्प्रसन्ने परमेश्वरे ॥ ३२ ॥
यदिदं देवदेवानां कृतमन्तुषु दूषणम् ।
तदिदं भूषणं मन्ये त अङ्गीकारगौरवात् ॥ ३३ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे देव ! भक्तोंका दुःख दूर करनेवाले ! आपकी जय हो । इस प्रकारका अपराध करनेवालोंपर भी आपके अतिरिक्त और कौन प्रसन्न हो सकता है । जो देवता इस संग्रामभूमिमें पहले मारे गये हैं, वे फिर जीवित हो उठे । [आप] परमेश्वरके प्रसन्न हो जानेपर किसकी अभ्युन्नति नहीं हो सकती है अर्थात् सभीका अभ्युदय ही होगा । हे देव ! देवताओंके शरीरोंमें जो ये घाव हो गये हैं, आपके अंगीकार करनेके गौरवसे उन्हें मैं भूषण ही मानता हूँ ॥ ३१-३३ ॥

इति विज्ञाप्यमानस्तु ब्रह्मणा परमेष्ठिना ।
विलोक्य वदनं देव्या देवदेवः स्मयन्निव ॥ ३४ ॥
पुत्रभूतस्य वात्सल्याद्‌ ब्रह्मणः पद्मजन्मनः ।
देवादीनां यथापूर्वमङ्गानि प्रददौ प्रभुः ॥ ३५ ॥
परमेष्ठी ब्रह्माके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर पार्वतीके मुखकी ओर देखकर मुसकराते हुए देवदेव प्रभुने पुत्रस्वरूप कमलयोनि ब्रह्माके वात्सल्यके कारण देवताओंके अंगोंको पहलेकी भाँति कर दिया ॥ ३४-३५ ॥

प्रथमाद्यैश्च या देव्यो दण्डिता देवमातरः ।
तासामपि यथापूर्वाण्यङ्गानि गिरिशो ददौ ॥ ३६ ॥
दक्षस्य भगवानेव स्वयं ब्रह्मा पितामहः ।
तत्पापानुगुणं चक्रे जरच्छागमुखं मुखम् ॥ ३७ ॥
सोऽपि संज्ञां ततो लब्ध्वा स दृष्ट्‍वा जीवितः सुधी ।
भीतः कृताञ्जलिः शंभुं तुष्टाव प्रलपन्बहु ॥ ३८ ॥
इसी प्रकार प्रमोंके द्वारा जो देवियाँ तथा देवमाताएँ दण्डित की गयी थीं, सदाशिवने उनके भी अंगोंको पूर्वक समान कर दिया । स्वयं पितामह भगवान् ब्रह्माने दक्षके पापके अनुसार वृद्ध बकरेके मुखके समान उनका मुख बना दिया । इसके पश्चात् जीवित हुए वे बुद्धिमान् दक्ष भी चेतना प्राप्त करके शिवजीको देखकर भयभीत हो हाथ जोड़कर बहुत प्रलाप करते हुए शिवकी स्तुति करने लगे- ॥ ३६-३८ ॥

दक्ष उवाच
जय देव जगन्नाथ लोकानुग्रहकारक ।
कृपां कुरु महेशानापराधं मे क्षमस्व ह ॥ ३९ ॥
कर्ता भर्ता च हर्ता च त्वमेव जगतां प्रभो ।
मया ज्ञातं विशेषेण विष्ण्वादिसकलेश्वरः ॥ ४० ॥
त्वयैव विततं सर्वं व्याप्तं सृष्टं न नाशितम् ।
न हि त्वदधिकाः केचिदीशास्तेऽच्युतकादयः ॥ ४१ ॥
दक्ष बोले-लोकपर अनुग्रह करनेवाले हे जगन्नाथ ! हे देव ! आपकी जय हो । हे महेशान ! आप मुझपर कृपा कीजिये और मेरे अपराधको क्षमा कीजिये । हे प्रभो ! आप ही जगत्के कर्ता, भर्ता, हता तथा प्रभु हैं, मैं विशेषरूपसे जान गया कि आप विष्णु आदि सभीके ईश्वर हैं । आपने ही सारे जगत्का विस्तार किया है, आप सर्वत्र व्याप्त हैं, आप ही इसकी सृष्टि और विनाश करते हैं । विष्णु आदि कोई भी देवता आपसे बढ़कर नहीं हैं ॥ ३९-४१ ॥

वायुरुवाच
तं तथा व्याकुलं भीतं प्रलपन्तं कृतागसम् ।
स्मयन्निवावदत्प्रेक्ष्य मा भैरिति घृणानिधिः ॥ ४२ ॥
तथोक्त्वा ब्रह्मणस्तस्य पितुः प्रियचिकीर्षया ।
गाणपत्यं ददौ तस्मै दक्षायाक्षयमीश्वरः ॥ ४३ ॥
ततो ब्रह्मादयो देवा अभिवन्द्य कृतांजलिः ।
तुष्टुवुः प्रश्रया वाचा शङ्करं गिरिजाधिपम् ॥ ४४ ॥
वायु बोले-तब अपराध किये हुए. व्याकुल, भयभीत तथा गिड़गिड़ाते हुए उन दक्षको देखकर करुणानिधि शिवजीने मुसकराते हुए कहा-'हे दक्ष !] भयभीत मत होइये । ' ऐसा कहकर शिवजीने उनके पिता ब्रह्माजीका प्रिय करनेकी इच्छासे दक्षको अक्षय गाणपत्यपद प्रदान किया । तदनन्तर ब्रह्मादि देवता हाथ जोड़कर प्रणाम करके विनम्र वाणीमें गिरिजापति शंकरकी स्तुति करने लगे ॥ ४२-४४ ॥

ब्रह्मादय ऊचुः
जय शङ्कर देवेश दीनानाथ महाप्रभो ।
कृपां कुरु महेशानापराधं नो क्षमस्व वै ॥ ४५ ॥
ब्रह्मा आदि [देवता] बोले-हे शंकर ! हे देवेश ! हे दीनानाथ ! हे महाप्रभो ! हे महेशान ! कृपा कीजिये और हमारे अपराधको क्षमा कीजिये ॥ ४५ ॥

मखपाल मखाधीश मखविध्वंसकारक ।
कृपां कुरु महेशानापराधं नः क्षमस्व वै ॥ ४६ ॥
देवदेव परेशान भक्तप्राणप्रपोषक ।
दुष्टदण्डप्रदः स्वामिन्कृपां कुरु नमोऽस्तु ते ॥ ४७ ॥
हे यज्ञपालक ! हे यज्ञाधीश ! हे दक्षयज्ञविध्वंसकारक ! हे महेशान ! कृपा कीजिये और हमलोगोंके अपराधको क्षमा कीजिये । हे देवदेव ! हे परेशान ! हे भक्तप्राणपोषक ! आप दुष्टोंको दण्ड देनेवाले हैं । हे दुष्टदण्डप्रद स्वामिन् ! कृपा करें, आपको नमस्कार है ॥ ४६-४७ ॥

त्वं प्रभो गर्वहर्ता वै दुष्टानां त्वामजानताम् ।
रक्षको हि विशेषेण सतां त्वत्सक्तचेतसाम् ॥ ४८ ॥
हे प्रभो ! जो आपको नहीं जानते-ऐसे दुष्टोंका आप गर्व दूर करते हैं और अपनेमें आसक्त चित्तवाले सत्पुरुषोंके आप रक्षक हैं ॥ ४८ ॥

अद्‌भुतं चरितं ते हि निश्चितं कृपया तव ।
सर्वापराधः क्षन्तव्यो विभवो दीनवत्सलाः ॥ ४९ ॥
हे प्रभो ! आपकी दयासे ही अब हमलोगोंने निश्चय किया है कि आपका चरित्र अद्‌भुत है । हे दीनवत्सल प्रभो ! हमारे द्वारा जो भी अपराध किये गये हैं, उन्हें क्षमा कर दीजिये ॥ ४९ ॥

वायुरुवाच
इति स्तुतो महादेवो ब्रह्माद्यैरमरैः प्रभुः ।
स भक्तवत्सलः स्वामी तुतोष करुणोदधिः ॥ ५० ॥
चकारानुग्रहं तेषां ब्रह्मादीनां दिवौकसाम् ।
ददौ वरांश्च सुप्रीत्या शङ्करो दीनवत्सलः ॥ ५१ ॥
स च ततस्त्रिदशान् शरणागतान् परमकारुणिकः परमेश्वरः ।
अनुगतस्मितलक्षणया गिरा शमितसर्वभयः समभाषत ॥ ५२ ॥
वायु बोले-इस प्रकार ब्रह्मादि देवताओंद्वारा स्तुत वे करुणासागर, भक्तवत्सल प्रभु महादेव प्रसन्न हो गये । तब दीनवत्सल भगवान् शंकरने ब्रह्मा आदि देवगर्णोपर अनुग्रह किया और अत्यन्त प्रेमपूर्वक उन्हें वर प्रदान किया । तत्पश्चात् सबके भयको दूर करनेवाले वे परम दयालु परमेश्वर शरणमें आये हुए देवताओंसे अनुगतोंके प्रति स्वाभाविक रूपसे मन्दहास्ययुक्त वाणीमें कहने लगे- ॥ ५०-५२ ॥

शिव उवाच
यदिदमाग इहाचरितं सुरैर्विधिनियोगवशादिव यन्त्रितैः ।
शरणमेव गतानवलोक्य वस्तदखिलं किल विस्मृतमेव नः ॥ ५३ ॥
शिवजी बोले-देवताओंने यह जो अपराध किया है, वह दैवकी परवशतासे ही किया है । अब आपलोगोंको शरणागत देखकर हमने निश्चय ही वह समस्त अपराध भुला दिया ॥ ५३ ॥

तदिह यूयमपि प्रकृतं मनस्यविगणय्य विमर्दमपत्रपाः ।
हरिविरिंचिसुरेन्द्रमुखाः सुखं व्रजत देवपुरं प्रति संप्रति ॥ ५४ ॥
इति सुरानभिधाय सुरेश्वरो निकृतदक्षकृतक्रतुरक्रतुः ।
सगिरिजानुचरः सपरिच्छदः स्थित इवाम्बरतोन्तरधाद्धरः ॥ ५५ ॥
हे विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्रादि देवगणो ! अब आपलोग भी इस संग्रामभूमिमें अपनी दुर्दशाका मनमें ध्यान न करके लज्जाका परित्यागकर सुखपूर्वक देवलोकको इस समय प्रस्थान करें । देवताओंसे ऐसा कहकर दक्ष-यज्ञका विनाशकर पार्वती एवं गणोंके साथ शिवजी आकाशमें विराजमान हो अन्तर्धान हो गये ॥ ५४-५५ ॥

अथ सुरा अपि ते विगतव्यथाः कथितभद्रसुभद्रपराक्रमाः ।
सपदि खेन सुखेन यथासुखं ययुरनेकमुखाः मघवन्मुखाः ॥ ५६ ॥
- इसके पश्चात् व्यथारहित वे इन्द्रादि देवगण भी वीरभद्रके कल्याणकारी पराक्रमका वर्णन करते हुए सुखपूर्वक आकाशमार्गसे शीघ्र ही अपने-अपने स्थानोंको चले गये ॥ ५६ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे गिरिशानुनयो नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें गिरिशानुनय नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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