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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

वायवीयसंहिता

॥ चतुर्विंशोऽध्यायः ॥


शिवमन्दरगिरिनिवासक्रीडोक्तवर्णनम्
शिवका तपस्याके लिये मन्दराचलपर गमन, मन्दराचलका वर्णन, शुम्भ-निशुम्भ दैत्यकी उत्पत्ति, ब्रह्माकी प्रार्थनासे उनके वधके लिये शिव और शिवाके विचित्र लीला-प्रपंचका वर्णन


ऋषय ऊचुः
अन्तर्धानगतो देव्या सह सानुचरो हरः ।
क्व यातः कुत्र वासः किं कृत्वा विरराम ह ॥ १ ॥
तदनन्तर ऋषियोंने पूछा-प्रभो ! अपने गणों तथा देवीके साथ अन्तर्धान होकर भगवान् शिव कहाँ गये, कहाँ रहे और क्या करके विरत हुए ? ॥ १ ॥

वायुरुवाच
महीधरवरः श्रीमान् मन्दरश्चित्रकन्दरः ।
दयितो देवदेवस्य निवासस्तपसोऽभवत् ॥ २ ॥
तपो महत्कृतं तेन वोढुं स्वशिरसा शिवौ ।
चिरेण लब्धं तत्पादपङ्‌कजस्पर्शजं सुखम् ॥ ३ ॥
वायुदेव बोले-महर्षियो ! पर्वतोंमें श्रेष्ठ और विचित्र कन्दराओंसे सुशोभित जो परम सुन्दर मन्दराचल है, वही अपनी तपस्याके प्रभावसे देवाधिदेव महादेवजीका प्रिय निवास स्थान हुआ । उसने पार्वती और शिवको अपने सिरपर ढोनेके लिये बड़ा भारी तप किया था और दीर्घकालके बाद तब उसे उनके चरणारविन्दोंके स्पर्शका सुख प्राप्त हुआ ॥ २-३ ॥

तस्य शैलस्य सौन्दर्यं सहस्रवदनैरपि ।
न शक्यं विस्तराद्वक्तुं वर्षकोटिशतैरपि ॥ ४ ॥
शक्यमप्यस्य सौन्दर्यं न वर्णयितुमुत्सहे ।
पर्वतान्तरसौन्दर्यं साधारणविधारणात् ॥ ५ ॥
उस पर्वतके सौन्दर्यका विस्तारपूर्वक वर्णन सहस्रों मुखोंद्वारा सौ करोड़ वर्षों में भी नहीं किया जा सकता । उसके सामने समस्त पर्वतोंका सौन्दर्य तुच्छ हो जाता है । उसका सौन्दर्यवर्णन सम्भव ही नहीं है, अतएव मुझमें उसके सौन्दर्यवर्णनके प्रति उत्साह नहीं है ॥ ४-५ ॥

इदं तु शक्यते वक्तुमस्मिन्पर्वतसुन्दरे ।
ऋद्ध्या कयापि सौन्दर्यमीश्वरावासयोग्यता ॥ ६ ॥
अत एव हि देवेन देव्याः प्रियचिकीर्षया ।
अतीव रमणीयोऽयं गिरिरन्तःपुरीकृतः ॥ ७ ॥
इस सम्बन्धमें यही कहा जा सकता है कि इस सुन्दर पर्वतपर किसी अपूर्व समृद्धिके कारण इसमें शिवजीके निवासकी योग्यता है । इसीलिये महादेवजीने देवीका प्रिय करनेकी इच्छासे उस अत्यन्त रमणीय पर्वतको अपना अन्तःपुर बना लिया ॥ ६-७ ॥

मेखलाभूमयस्तस्य विमलोपलपादपाः ।
शिवयोर्नित्यसान्निध्यान्न्यक्कुर्वन्त्यखिलं जगत् ॥ ८ ॥
उस पर्वतकी मध्यवर्ती भूमियाँ, स्वच्छ पाषाण तथा वृक्ष शिव तथा पार्वतीके नित्य सान्निध्यके कारण समस्त संसार के सौभाग्य]-को तिरस्कृत करते हैं ॥ ८ ॥

पितृभ्यां जगतो नित्यं स्नानपानोपयोगतः ।
अवाप्तपुण्यसंस्कारः प्रसरद्भिरितस्ततः ॥ ९ ॥
लघुशीतलसंस्पर्शैरच्छाच्छैर्निर्झराम्बुभिः ।
अधिराज्येन चाद्रीणामद्रीरेषोऽभिषिच्यते ॥ १० ॥
संसारके माता-पिता देवी पार्वती तथा भगवान् शंकरके स्नान, पान आदिके लिये इधर-उधर बहते हुए झरनोंका शीतल, निर्मल तथा सुपेय जल नित्यप्रति अर्पित करके [यथेष्ट] पुण्य संस्कारोंको प्राप्त किये हुए उस हिमालयका मानो पर्वतोंके अधिपति पदपर [उन झरनोंके जलसे] अभिषेक-सा किया जा रहा है ॥ ९-१० ॥

निशासु शिखरप्रान्तर्वर्तिना स शिलोच्चयः ।
चन्द्रेणाचल साम्राज्यच्छत्रेणेव विराजते ॥ ११ ॥
रात्रिके समय [उदित हुआ] चन्द्रमा हिमालयके शिखरपर स्थित है, [जिससे प्रतीत होता है कि मानो पर्वतोंके साम्राज्यपर अधिष्ठित उस गिरिराजके ऊपर चन्द्ररूपी राजछत्र शोभायमान हो रहा है ॥ ११ ॥

स शैलश्चंचलीभूतैर्बालैश्चामरयोषिताम् ।
सर्वपर्वतसाम्राज्यचामरैरिव वीज्यते ॥ १२ ॥
प्रातरभ्युदिते भानौ भूधरो रत्नभूषितः ।
दर्पणे देहसौभाग्यं द्रष्टुकाम इव स्थितः ॥ १३ ॥
[पर्वतीय भूमिपर विचरण करती हुई] चमरी गायोंके हिलते हुए बालोंसे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानो समस्त पर्वतोंके साम्राज्यपर अधिष्ठित उस हिमालयके ऊपर चंवर डुलाये जा रहे हों । प्रभातकालमें उदित हुए सूर्य में प्रतिबिम्बितसा होता हुआ हिमालय ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानो रलभूषित वह पर्वतराज अपने देहसौन्दर्यको दर्पणमें देखनेको उद्यत-सा हो गया हो ॥ १२-१३ ॥

कूजद्विहङ्गवाचालैर्वातोद्धृतलताभुजैः ।
विमुक्तपुष्पैः सततं व्यालम्बिमृदुपल्लवैः ॥ १४ ॥
लताप्रतानजटिलैस्तरुभिस्तपसैरिव ।
जयाशिषा सहाभ्यर्च्य निषेव्यत इवाद्रिराट् ॥ १५ ॥
लताजालरूपी जटाओंको धारण किये हुए वे [पर्वतीय] वृक्ष वाचाल पक्षियोंके कलरव, लटकते हुए कोमल पल्लवों तथा वायुद्वारा कम्पित लताओंसे झरते हुए पुष्पोंके द्वारा मानो तपस्वियोंकी भाँति गिरिराज हिमालयका समर्चन तथा आशीर्वाचनके साथ विजयाभिनन्दन-सा करते हुए प्रतीत हो रहे हैं ॥ १४-१५ ॥

अधोमुखैरूर्ध्वमुखैः शृङ्गैस्तिर्यङ्मुखैस्तथा ।
प्रपतन्निव पाताले भूपृष्ठादुत्पतन्निव ॥ १६ ॥
परीतः सर्वतो दिक्षु भ्रमन्निव विहायसि ।
पश्यन्निव जगत्सर्वं नृत्यन्निव निरन्तरम् ॥ १७ ॥
गुहामुखैः प्रतिदिनं व्यात्तास्यो विपुलोदरैः ।
अजीर्णलावण्यतया जृंभमाण इवाचलः ॥ १८ ॥
ग्रसन्निव जगत्सर्वं पिबन्निव पयोनिधिम् ।
वमन्निव तमोन्तस्थं माद्यन्निव खमम्बुदैः ॥ १९ ॥
ऊँचे, नीचे तथा तिरछे शृंगोंसे युक्त वह पर्वत मानो पृथ्वीसे पातालमें गिर-सा रहा है अथवा भूपृष्ठसे ऊपरकी ओर उछल-सा रहा है या सभी दिशाओंमें व्याप्त होकर आकाशमें घूम-सा रहा है अथवा सारे संसारको देखता हुआ सदा नृत्य-सा कर रहा है । वह पर्वत विस्तृत उदरवाली विशाल कन्दराओंके द्वारा मानो अपना मुख फैलाकर सौन्दर्यातिशयको अपने में न पचाकर जंभाई-सा ले रहा हो या कि मानो सारे संसारको निगल-सा रहा हो, अथवा सागरको पी-सा रहा हो या अपने भीतर छिपे हुए अन्धकारका वमन-सा कर रहा हो अथवा बादलोंसे आकाशको मदमत्तसा करता हुआ प्रतीत हो रहा है ॥ १६-१९ ॥

निवासभूमयस्तास्ता दर्पणप्रतिमोदराः ।
तिरस्कृतातपाः स्निग्धाश्रमच्छायामहीरुहाः ॥ २० ॥
सरित्सरस्तडागादिसंपर्कशिशिरानिलाः ।
तत्र तत्र निषण्णाभ्यां शिवाभ्यां सफलीकृताः ॥ २१ ॥
तमिमं सर्वतः श्रेष्ठं स्मृत्वा साम्बस्त्रियम्बकः ।
रैभ्याश्रमसमीपस्थश्चान्तर्धानं गतो ययौ ॥ २२ ॥
तत्रोद्यानमनुप्राप्य देव्या सह महेश्वरः ।
रराम रमणीयासु दिव्यान्तःपुरभूमिषु ॥ २३ ॥
दर्पणके समान [उज्वल] अन्तर्देशवाली आवासभूमियों तथा अपनी सघन तथा स्निग्ध छाया-से सूर्यके तापको दूर करनेवाले आश्रमके वृक्षों तथा नदियों, सरोवरों, तड़ागों आदिको छूकर बहनेवाली शीतल हवाओंको उन शिवा-शिवने जहाँ-तहाँ विश्राम करके कृतकृत्य किया । इस सर्वश्रेष्ठ पर्वतका स्मरण करके रैभ्य-आश्रमके समीप स्थित हुए अम्बिकासहित भगवान् त्रिलोचन वहाँसे अन्तर्धान होकर चले गये । मन्दराचलके उद्यानमें पहुँचकर देवीसहित महेश्वर वहाँकी रमणीय तथा दिव्य अन्तःपुरकी भूमियोंमें रमण करने लगे ॥ २०-२३ ॥

तथा गतेषु कालेषु प्रवृद्धासु प्रजासु च ।
दैत्यौ शुंभनिशुंभाख्यौ भ्रातरौ संबभूवतुः ॥ २४ ॥
ताभ्यां तपो बलाद्दत्तं ब्रह्मणा परमेष्टिना ।
अवध्यत्वं जगत्यस्मिन्पुरुषैरखिलैरपि ॥ २५ ॥
अयोनिजा तु या कन्या ह्यंबिकांशसमुद्‌भवा ।
अजातपुंस्पर्शरतिरविलंघ्यपराक्रमा ॥ २६ ॥
तया तु नौ वधः संख्ये तस्यां कामाभिभूतयोः ।
इति चाभ्यर्थितो ब्रह्मा ताभ्यां प्राह तथास्त्विति ॥ २७ ॥
जब इस तरह कुछ समय बीत गया और [ब्रह्माजीकी मैथुनी सृष्टिके द्वारा] प्रजाएँ बढ़ गयीं, तब शुम्भ और निशुम्भ नामक दो दैत्य उत्पन्न हुए । वे परस्पर भाई थे । उनके तपोबलसे प्रभावित हो परमेष्ठी ब्रह्माने उन दोनों भाइयोंको यह वर दिया था कि 'इस जगत्के किसी भी पुरुषसे तुम मारे नहीं जा सकोगे । ' उन दोनोंने ब्रह्माजीसे यह प्रार्थना की थी कि 'पार्वती देवीके अंशसे उत्पन्न जो अयोनिजा कन्या उत्पन्न हो, जिसे पुरुषका स्पर्श तथा रति नहीं प्राप्त हुई हो तथा जो अलंध्य पराक्रमसे सम्पन्न हो, उसके प्रति कामभावसे पीड़ित होनेपर हम युद्धमें उसीके हाथों मारे जायें । ' उनकी इस प्रार्थनापर ब्रह्माजीने 'तथास्तु' कहकर स्वीकृति दे दी । २४-२७ ॥

ततः प्रभृति शक्रादीन्विजित्य समरे सुरान् ।
निःस्वाध्यायवषट्कारं जगच्चक्रतुरक्रमात् ॥ २८ ॥
तयोर्वधाय देवेशं ब्रह्माभ्यर्थितवान्पुनः ।
विनिन्द्यापि रहस्यम्बां क्रोधयित्वा यथा तथा ॥ २९ ॥
तद्वर्णकोशजां शक्तिमकामां कन्यकात्मिकाम् ।
निशुम्भशुंभयोर्हन्त्रीं सुरेभ्यो दातुमर्हसि ॥ ३० ॥
तभीसे युद्ध में इन्द्र आदि देवताओंको जीतकर उन दोनोंने जगत्को अनीतिपूर्वक वेदोंके स्वाध्याय और वषट्कार आदिसे रहित कर दिया । तब ब्रह्माने उन दोनोंके वधके लिये देवेश्वर शिवसे प्रार्थना की-'प्रभो ! आप एकान्तमें देवीकी निन्दा करके भी जैसे-तैसे उन्हें क्रोध दिलाइये और उनके रूप-रंगकी निन्दासे उत्पन्न हुई, कामभावसे रहित, कुमारीस्वरूपा शक्तिको निशुम्भ और शुम्भके वधके लिये देवताओंको अर्पित कीजिये । ॥ २८-३० ॥

एवमभ्यर्थितो धात्रा भगवान्नीललोहितः ।
कालीत्याह रहस्यम्बां निन्दयन्निव सस्मितः ॥ ३१ ॥
ततः क्रुद्धा तदा देवी सुवर्णा वर्णकारणात् ।
स्मयन्ती चाह भर्तारमसमाधेयया गिरा ॥ ३२ ॥
ब्रह्माजीके इस तरह प्रार्थना करनेपर भगवान् नीललोहित रुद्र एकान्तमें पार्वतीकी निन्दा-सी करते हुए मुसकराकर बोले-'तुम तो काली हो । ' तब सुन्दर वर्णवाली देवी पार्वती अपने श्यामवर्णके कारण आक्षेप सुनकर कुपित हो उठीं और पतिदेवसे मुसकराकर समाधानरहित वाणीद्वारा बोली- ॥ ३१-३२ ॥

देव्युवाच
ईदृशो मम वर्णेस्मिन्न रतिर्भवतोऽस्ति चेत् ।
एवावन्तं चिरं कालं कथमेषा नियम्यते ॥ ३३ ॥
देवीने का-प्रभो ! यदि मेरे इस काले रंगपर आपका प्रेम नहीं है तो इतने दीर्घकालसे अपनी इच्छाका आप दमन क्यों करते रहे हैं ? ॥ ३३ ॥

अरत्या वर्तमानोऽपि कथं च रमसे मया ।
न ह्यशक्यं जगत्यस्मिन्नीश्वरस्य जगत्प्रभोः ॥ ३४ ॥
स्वात्मारामस्य भवतो रतिर्न सुखसाधनम् ।
इति हेतोः स्मरो यस्मात्प्रसभं भस्मसात्कृतः ॥ ३५ ॥
जब आपको मेरे इस स्वरूपसे अरुचि थी, तो आप मेरे साथ रमण क्यों करते रहे ? हे जगत्के ईश्वर ! आपके लिये अशक्य तो कुछ भी नहीं है । आप स्वात्मारामके लिये रति सुखका साधन नहीं है, यही कारण है कि आपने बलपूर्वक कामदेवको भस्म कर दिया ॥ ३४-३५ ॥

या च नाभिरता भर्तुरपि सर्वाङ्गसुन्दरी ।
सा वृथैव हि जायेत सर्वैरपि गुणान्तरैः ॥ ३६ ॥
भर्तुर्भोगैकशेषो हि सर्ग एवैष योषिताम् ।
तथासत्यन्यथा भूता नारी कुत्रोपयुज्यते ॥ ३७ ॥
तस्माद्वर्णमिमं त्यक्त्वा त्वया रहसि निन्दितम् ।
वर्णान्तरं भजिष्ये वा न भजिष्यामि वा स्वयम् ॥ ३८ ॥
कोई स्त्री कितनी ही सर्वांगसुन्दरी क्यों न हो, यदि पतिका उसपर अनुराग नहीं हुआ तो अन्य समस्त गुणोंके साथ ही उसका जन्म लेना व्यर्थ हो जाता है । स्त्रियोंकी यह सृष्टि ही पतिके अनुरागका प्रधान अंग है । यदि वह उससे वंचित हो गयी तो इसका और कहाँ उपयोग हो सकता है ? इसलिये आपने एकान्तमें जिसकी निन्दा की है, उस वर्णको त्यागकर अब मैं दूसरा वर्ण ग्रहण करूँगी अथवा स्वयं ही मिट जाऊँगी ॥ ३६-३८ ॥

इत्युक्त्वोत्थाय शयनाद्देवी साचष्ट गद्‌गदम् ।
ययाचेऽनुमतिं भर्तुस्तपसे कृतनिश्चया ॥ ३९ ॥
तथा प्रणयभङ्गेन भीतो भूतपतिः स्वयम् ।
पादयोः प्रणमन्नेव भवानीं प्रत्यभाषत ॥ ४० ॥
ऐसा कहकर देवी पार्वती शय्यासे उठकर खड़ी हो गयीं और तपस्याके लिये दृढ़ निश्चय करके गद्‌गद कण्ठसे जानेकी आज्ञा माँगने लगीं । इस प्रकार प्रेम भंग होनेसे भयभीत हो भूतनाथ भगवान् शिव स्वयं भवानीके चरणोंमें मानो [प्रणामहेतु] गिरते हुए-से बोले- ॥ ३९-४० ॥

ईश्वर उवाच -
अजानती च क्रीडोक्तिं प्रिये किं कुपितासि मे ।
रतिः कुतो वा जायेत त्वत्तश्चेदरतिर्मम ॥ ४१ ॥
माता त्वमस्य जगतः पिताहमधिपस्तथा ।
कथं तदुपपद्येत त्वत्तो नाभिरतिर्मम ॥ ४२ ॥
आवयोरभिकामोऽपि किमसौ कामकारितः ।
यतः कामसमुत्पत्तिः प्रागेव जगदुद्‌भवः ॥ ४३ ॥
पृथग्जनानां रतये कामात्मा कल्पितो मया ।
ततः कथमुपालब्धः कामदाहादहं त्वया ॥ ४४ ॥
भगवान् शिवने कह्म-प्रिये ! मैंने क्रीडा या मनोविनोदके लिये यह बात कही है । मेरे इस अभिप्रायको न जानकर तुम कुपित क्यों हो गयीं ? यदि तुमपर मेरा प्रेम नहीं होगा तो और किसपर हो सकता है ? तुम इस जगत्की माता हो और मैं पिता तथा अधिपति हूँ । फिर तुमपर मेरा प्रेम न होना कैसे सम्भव हो सकता है ! हम दोनोंका वह प्रेम भी क्या कामदेवकी प्रेरणासे हुआ है, कदापि नहीं; क्योंकि कामदेवकी उत्पत्तिसे पहले ही जगत्की उत्पत्ति हुई है । कामदेवकी सृष्टि तो मैंने साधारण लोगोंकी रतिके लिये की है । [ऐसी दशामें] तुम मुझे कामदाहका उलाहना क्यों दे रही हो ? ॥ ४१-४४ ॥

मां वै त्रिदशसामान्यं मन्यमानो मनोभवः ।
मनाक्परिभवं कुर्वन्मया वै भस्मसात्कृतः ॥ ४५ ॥
विहारोऽप्यावयोरस्य जगतस्त्राणकारणात् ।
ततस्तदर्थं त्वय्यद्य क्रीडोक्तिं कृतवाहनम् ॥ ४६ ॥
स चायमचिरादर्थस्तवैवाविष्करिष्यते ।
क्रोधस्य जनकं वाक्यं हृदि कृत्वेदमब्रवीत् ॥ ४७ ॥
कामदेव मुझे साधारण देवताके समान मानकर मेरा कुछ-कुछ तिरस्कार करने लगा था, अत: मैंने उसे भस्म कर दिया । हम दोनोंका यह लीलाविहार भी जगत्की रक्षाके लिये ही है, अत: उसीके लिये आज मैंने तुम्हारे प्रति यह परिहासयुक्त बात कही थी । मेरे इस कथनकी सत्यता तुमपर शीघ्र ही प्रकट हो जायगी । [तब भगवान् शिवके उस] क्रोधोत्पादक वचनको हृदयमें विचारकर देवीने कहना आरम्भ किया- ॥ ४५-४७ ॥

देव्युवाच
श्रुतपूर्वं हि भगवंस्तव चाटुवचो मया ।
येनैवमतिधीराहमपि प्रागभिवंचिता ॥ ४८ ॥
प्राणानप्यप्रिया भर्तुर्नारी या न परित्यजेत् ।
कुलाङ्गना शुभा सद्भिः कुत्सितैव हि गम्यते ॥ ४९ ॥
भूयसी च तवाप्रीतिरगौरमिति मे वपुः ।
क्रीडोक्तिरपि कालीति घटते कथमन्यथा ॥ ५० ॥
सद्भिर्विगर्हितं तस्मात्तव कार्ष्ण्यमसंमतम् ।
अनुत्सृज्य तपोयोगात्स्थातुमेवेह नोत्सहे ॥ ५१ ॥
देवीने कहा-भगवन् ! मैं पूर्वसे ही आपद्वारा कहे गये चाटुकारितापूर्ण वचनोंको सुनती आ रही हूँ, उन्हीं वचनोंके कारण धैर्यशालिनी [या कि अतीव बुद्धिमती] होकर भी मैं आपके द्वारा ठगी जाती रही । पतिके प्यारसे वंचित होनेपर जो नारी अपने प्राणोंका भी परित्याग नहीं कर देती, वह कुलांगना 1और शुभलक्षणा होनेपर भी सत्पुरुषोंद्वारा निन्दित ही समझी जाती है । मेरा शरीर गौर वर्णका नहीं है, इस बातको लेकर आपको बहुत खेद होता है, अन्यथा क्रीडा या परिहासमें भी आपके द्वारा मुझे 'कालीकलूटी' कहा जाना कैसे सम्भव हो सकता था । मेरा कालापन आपको प्रिय नहीं है, इसलिये वह सत्पुरुषोंद्वारा भी निन्दित है; अतः तपस्याद्वारा इसका त्याग किये बिना अब मैं यहाँ रह ही नहीं सकती ॥ ४८-५१ ॥

शिव उवाच -
यद्येवंविधतापस्ते तपसा किं प्रयोजनम् ।
ममेच्छया स्वेच्छया वा वर्णान्तरवती भव ॥ ५२ ॥
शिव बोले-यदि अपनी श्यामताको लेकर तुम्हें इस तरह संताप हो रहा है तो इसके लिये तपस्या करनेकी क्या आवश्यकता है ? तुम मेरी या अपनी इच्छामात्रसे ही दूसरे वर्णसे युक्त हो जाओ ॥ ५२ ॥

देव्युवाच
नेच्छामि भवतो वर्णं स्वयं वा कर्तुमन्यथा ।
ब्रह्माणं तपसाराध्य क्षिप्रं गौरी भवाम्यहम् ॥ ५३ ॥
देवीने कहा-मैं आपसे अपने रंगका परिवर्तन नहीं चाहती । स्वयं भी इसे बदलनेका संकल्प नहीं कर सकती । अब तो तपस्याद्वारा ब्रह्माजीकी आराधना करके ही मैं शीघ्र गौरी हो जाऊँगी ॥ ५३ ॥

ईश्वर उवाच -
मत्प्रसादात्पुरा ब्रह्मा ब्रह्मत्वं प्राप्तवान्पुरा ।
तमाहूय महादेवि तपसा किं करिष्यसि ॥ ५४ ॥
शिव बोले-महादेवि ! पूर्वकालमें मेरी ही कृपासे ब्रह्माको ब्रह्मपदकी प्राप्ति हुई थी । अतः तपस्याद्वारा उन्हें बुलाकर तुम क्या करोगी ? ॥ ५४ ॥

देव्युवाच
त्वत्तो लब्धपदा एव सर्वे ब्रह्मादयः सुराः ।
तथाप्याराध्य तपसा ब्रह्माणं त्वन्नियोगतः ॥ ५५ ॥
पुरा किल सती नाम्ना दक्षस्य दुहिताऽभवम् ।
जगतां पतिमेवं त्वां पतिं प्राप्तवती तथा ॥ ५६ ॥
एवमद्यापि तपसा तोषयित्वा द्विजं विधिम् ।
गौरी भवितुमिच्छामि को दोषः कथ्यतामिह ॥ ५७ ॥
देवीने कहा- इसमें संदेह नहीं कि ब्रह्मा आदि समस्त देवताओंको आपसे ही उत्तम पदोंकी प्राप्ति हुई है, तथापि आपकी आज्ञा पाकर मैं तपस्याद्वारा ब्रह्माजीकी आराधना करके ही अपना अभीष्ट सिद्ध करना चाहती हूँ । पूर्वकालमें जब मैं सतीके नामसे दक्षकी पुत्री हुई थी, तब तपस्याद्वारा ही मैंने आप जगदीश्वरको पतिके रूपमें प्राप्त किया था । इसी प्रकार आज भी तपस्याद्वारा ब्राह्मण ब्रह्माको संतुष्ट करके मैं गौरी होना चाहती हूँ । ऐसा करनेमें यहाँ क्या दोष है ? यह बताइये । ५५-५७ ॥

एवमुक्तो महादेव्या वामदेवः स्मयन्निव ।
न तां निर्बन्धयामास देवकार्यचिकीर्षया ॥ ५८ ॥
महादेवीके ऐसा कहनेपर वामदेव शिवजी मुसकराते हुए-से चुप रह गये । देवताओंका कार्य सिद्ध करनेकी इच्छासे उन्होंने देवीको रोकनेके लिये हठ नहीं किया ॥ ५८ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे शिवमन्दरगिरिनिवासक्रीडोक्तवर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें शिवमन्दरगिरिनिवास क्रीडोक्तिवर्णन नामक चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २४ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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