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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

वायवीयसंहिता

॥ पञ्चविंशोऽध्यायः ॥


देवीगौरत्वभवनम्
पार्वतीकी तपस्या, व्याघ्रपर उनकी कृपा, ब्रह्माजीका देवीके साथ वार्तालाप, देवीके द्वारा काली त्वचाका त्याग और उससे उत्पन्न कौशिकीके द्वारा शुम्भ-निशुम्भका वध


वायुरुवाच
ततः प्रदक्षिणीकृत्य पतिमम्बा पतिव्रता ।
नियम्य च वियोगार्तिं जगाम हिमवद्गिरिम् ॥ १ ॥
वायुदेव कहते हैं-महर्षियो ! तदनन्तर पतिव्रता माता पार्वती पतिकी परिक्रमा करके उनके वियोगसे होनेवाले दुःखको किसी तरह रोककर हिमालयपर्वतपर चली गयीं ॥ १ ॥

तपःकृतवती पूर्वं देशे यस्मिन्सखीजनैः ।
तमेव देशमवृनोत्तपसे प्रणयात्पुनः ॥ २ ॥
ततः स्वपितरं दृष्ट्‍वा मातरं च तयोर्गृहे ।
प्रणम्य वृत्तं विज्ञाप्य ताभ्यां चानुमता सती ॥ ३ ॥
पुनस्तपोवनं गत्वा भूषणानि विसृज्य च ।
स्नात्वा तपस्विनो वेषं कृत्वा परमपावनम् ॥ ४ ॥
संकल्प्य च महातीव्रं तपः परमदुश्चरम् ।
सदा मनसि सन्धाय भर्तुश्चरणपङ्कजम् ॥ ५ ॥
तमेव क्षणिके लिङ्गे ध्यात्वा बाह्यविधानतः ।
त्रिसन्ध्यमभ्यर्चयन्ती वन्यैः पुष्पैः फलादिभिः ॥ ६ ॥
उन्होंने पहले सखियोंके साथ जिस स्थानपर तप किया था, उस स्थानसे उनका प्रेम हो गया था । अत: फिर उसीको उन्होंने तपस्याके लिये चुना । तदनन्तर मातापिताके घर जा उनका दर्शन और प्रणाम करके उन्हें सब तपस्वीका परमपावन वेष धारण करके अत्यन्त तीव्र एवं परम दुष्कर तपस्या करनेका संकल्प किया । वे मन-हीमन सदा पतिके चरणारविन्दोंका चिन्तन करती हुई किसी क्षणिक लिंगमें उन्हींका ध्यान करके पूजनकी बाह्य विधिके अनुसार जंगलके फल-फूल आदि उपकरणोंद्वारा तीनों समय उनका पूजन करती थीं ॥ २-६ ॥

स एव ब्रह्मणो मूर्तिमास्थाय तपसः फलम् ।
प्रदास्यति ममेत्येवं नित्यं कृत्वाऽकरोत्तपः ॥ ७ ॥
तथा तपश्चरन्तीं तां काले बहुतिथे गते ।
दृष्टः कश्चिन्महाव्याघ्रो दुष्टभावादुपागमत् ॥ ८ ॥
तथैवोपगतस्यापि तस्यातीव दुरात्मनः ।
गात्रं चित्रार्पितमिव स्तब्धं तस्याः सकाशतः ॥ ९ ॥
'भगवान् शंकर ही ब्रह्माका रूप धारण करके मेरी तपस्याका फल मुझे देंगे । ' ऐसा दृढ़ विश्वास रखकर वे प्रतिदिन तपस्यामें लगी रहती थीं । इस तरह तपस्या करते-करते जब बहुत समय बीत गया, तब एक दिन उनके पास कोई बहुत बड़ा व्याघ्र देखा गया । वह दुष्टभावसे वहाँ आया था । पार्वतीजीके निकट आते ही उस दुरात्माका शरीर जडवत् हो गया । वह उनके समीप चित्रलिखित-सा दिखायी देने लगा ॥ ७-९ ॥

तं दृष्ट्‍वापि तथा व्याघ्रं दुष्टभावादुपागतम् ।
न पृथग्जनवद्देवी स्वभावेन विविच्यते ॥ १० ॥
स तु विष्टब्धसर्वाङ्गो बुभुक्षापरिपीडितः ।
ममामिषं ततो नान्यदिति मत्वा निरन्तरम् ॥ ११ ॥
निरीक्ष्यमाणः सततं देवीमेव तदाऽनिशम् ।
अतिष्ठदग्रतस्तस्या उपासनमिवाचरत् ॥ १२ ॥
दुष्टभावसे पास आये हुए उस व्याघ्रको देखकर भी देवी पार्वती साधारण नारीकी भाँति स्वभावसे विचलित नहीं हुई । उस व्याघ्रके सारे अंग अकड़ गये थे । वह भूखसे अत्यन्त पीड़ित हो रहा था और यह सोचकर कि 'यही मेरा भोजन है' निरन्तर देवीकी ओर ही देख रहा था । देवीके सामने खड़ा-खड़ा वह रातोंदिन उनकी उपासना-सी करने लगा ॥ १०-१२ ॥

देव्याश्च हृदये नित्यं ममैवायमुपासकः ।
त्राता च दुष्टसत्त्वेभ्य इति प्रववृते कृपा ॥ १३ ॥
तस्या एव कृपायोगात्सद्यो नष्टमलत्रयः ।
बभूव सहसा व्याघ्रो देवीं च बुबुधे तदा ॥ १४ ॥
न्यवर्तत बुभुक्षा च तस्याङ्गस्तम्भनं तथा ।
दौरात्म्यं जन्मसिद्धं च तृप्तिश्च समजायत ॥ १५ ॥
इधर देवीके हृदयमें सदा यही भाव आता था कि यह व्याघ्र मेरा ही उपासक है, दुष्ट वन-जन्तुओंसे मेरी रक्षा करनेवाला है । यह सोचकर वे उसपर कृपा करने लगीं । उन्हींकी कृपासे उसके तीनों प्रकारके मल तत्काल नष्ट हो गये । फिर तो उस व्याघ्रको सहसा देवीके स्वरूपका बोध हुआ, उसकी भूख मिट गयी और उसके अंगोंकी जडता भी दूर हो गयी । साथ ही उसकी जन्मसिद्ध दुष्टता नष्ट हो गयी और उसे निरन्तर तृप्ति बनी रहने लगी ॥ १३-१५ ॥

तदा परमभावेन ज्ञात्वा कार्तार्थ्यमात्मनः ।
सद्योपासक एवैष सिषेवे परमेश्वरीम् ॥ १६ ॥
दुष्टानामपि सत्त्वानां तथान्येषां दुरात्मनाम् ।
स एव द्रावको भूत्वा विचचार तपोवने ॥ १७ ॥
तपश्च ववृधे देव्यास्तीव्रं तीव्रतरात्मकम् ।
उस समय उत्कृष्टरूपसे अपनी कृतार्थताका अनुभव करके वह तत्काल भक्त हो गया और उन परमेश्वरीकी सेवा करने लगा । अब वह अन्य दुष्ट जन्तुओंको खदेड़ता हुआ तपोवनमें विचरने लगा । इधर देवीकी तपस्या बढ़ी और तीव्रसे तीव्रतर होती गयी ॥ १६-१७९१२ ॥

देवाश्च दैत्यनिर्बन्धाद् ब्रह्माणं शरणं गताः ॥ १८ ॥
चक्रुर्निवेदनं देवाः स्वदुःखस्यारिपीडनात् ।
यथा च ददतुः शुम्भनिशुम्भौ वरसम्मदात् ॥ १९ ॥
सोऽपि श्रुत्वा विधिर्दुःखं सुराणां कृपयान्वितः ।
आसीद्दैत्यवधायैव स्मृत्वा हेत्वाश्रयां कथाम् ॥ २० ॥
सामरः प्रार्थितो ब्रह्मा ययौ देव्यास्तपोवनम् ।
संस्मरन्मनसा देवदुःखमोक्षं स्वयत्नतः ॥ २१ ॥
[उसी समय] देवता शुम्भ आदि दैत्योंके दुराग्रहसे दुखी हो ब्रह्माजीकी शरणमें गये । उन्होंने शत्रुपीडनजनित अपने दुःखको उनसे निवेदन किया । शुम्भ और निशुम्भ वरदान पानेके घमंडसे देवताओंको जैसे-जैसे दुःख देते थे, वह सब सुनकर ब्रह्माजीको उनपर बड़ी दया आयी । उन्होंने दैत्यवधके लिये भगवान् शंकरके साथ हुई बातचीतका स्मरण करके और अपने प्रयत्नसे देवताओंके दुःखनाशके विषयमें मन-ही-मन सोचते हुए देवताओंके प्रार्थना करनेपर उनके साथ देवीके तपोवनको प्रस्थान किया ॥ १८-२१ ॥

ददर्श च सुरश्रेष्ठः श्रेष्ठे तपसि निष्ठिताम् ।
प्रतिष्ठामिव विश्वस्य भवानीं परमेश्वरीम् ॥ २२ ॥
ननाम चास्य जगतो मातरं स्वस्य वै हरेः ।
रुद्रस्य च पितुर्भार्यामार्यामद्रीश्वरात्मजाम् ॥ २३ ॥
ब्रह्माणमागतं दृष्ट्‍वा देवी देवगणैः सह ।
अर्घ्यं तदर्हं दत्त्वाऽस्मै स्वागताद्यैरुपाचरत् ॥ २४ ॥
तां च प्रत्युपचारोक्तिं पुरस्कृत्याभिनन्द्य च ।
पप्रच्छ तपसो हेतुमजानन्निव पद्मजः ॥ २५ ॥
वहाँ सुरश्रेष्ठ ब्रह्माने उत्तम तपमें परिनिष्ठित परमेश्वरी पार्वतीको देखा । वे सम्पूर्ण जगत्की प्रतिष्ठा-सी जान पड़ती थीं । अपने, श्रीहरिके तथा रुद्रदेवके भी जन्मदाता पिता महामहेश्वरकी भार्या आर्या जगन्माता गिरिराजनन्दिनी पार्वतीजीको ब्रह्माजीने प्रणाम किया । देवगणोंके साथ ब्रह्माजीको आया देख देवीने उनके योग्य अर्घ्य देकर स्वागत आदिके द्वारा उनका सत्कार किया । बदले में उनका भी सत्कार और अभिनन्दन करके ब्रह्माजी अनजानकी भाँति देवीकी तपस्याका कारण पूछने लगे ॥ २२-२५ ॥

ब्रह्मोवाच
तीव्रेण तपसानेन देव्या किमिह साध्यते ।
तपःफलानां सर्वेषां त्वदधीना हि सिद्धयः ॥ २६ ॥
यश्चैव जगतां भर्ता तमेव परमेश्वरम् ।
भर्तारमात्मना प्राप्य प्राप्तं च तपसः फलम् ॥ २७ ॥
अथवा सर्वमेवैतत्क्रीडाविलसितं तव ।
इदं तु चित्रं देवस्य विरहं सहसे कथम् ॥ २८ ॥
- ब्रह्माजी बोले-देवि ! इस तीव्र तपस्याके द्वारा आप यहाँ किस अभीष्ट मनोरथकी सिद्धि करना चाहती हैं ? तपस्याके सम्पूर्ण फलोंकी सिद्धि तो आपके ही अधीन है । जो समस्त लोकोंके स्वामी हैं, उन्हीं परमेश्वरको पतिके रूपमें पाकर आपने तपस्याका सम्पूर्ण फल प्राप्त कर लिया है अथवा यह सारा ही क्रियाकलाप आपका लीलाविलास है । परंतु आश्चर्यकी बात तो यह है कि आप इतने दिनोंसे महादेवजीके विरहका कष्ट कैसे सह रही हैं ? ॥ २६-२८ ॥

देव्युवाच
सर्गादौ भवतो देवादुत्पत्तिः श्रूयते यदा ।
तदा प्रजानां प्रथमस्त्वं मे प्रथमजः सुतः ॥ २९ ॥
यदा पुनः प्रजावृद्ध्यै ललाटाद्भवतो भवः ।
उत्पन्नोऽभूत्तदा त्वं मे गुरुः श्वशुरभावतः ॥ ३० ॥
यदाभवद्गिरीन्द्रस्ते पुत्रो मम पिता स्वयम् ।
तदा पितामहस्त्वं मे जातो लोकपितामह ॥ ३१ ॥
तदीदृशस्य भवतो लोकयात्राविधायिनः ।
वृत्तवन्तःपुरे भर्ता कथयिष्ये कथं पुनः ॥ ३२ ॥
किमत्र बहुना देहे यश्चायं मम कालिमा ।
त्यक्त्वा सत्त्वविधानेन गौरी भवितुमुत्सहे ॥ ३३ ॥
देवीने कहा-ब्रह्मन् ! जब सृष्टिके आदिकालमें महादेवजीसे आपकी उत्पत्ति सुनी जाती है, तब समस्त प्रजाओंमें प्रथम होनेके कारण आप मेरे ज्येष्ठ पुत्र होते हैं । फिर जब प्रजाकी वृद्धिके लिये आपके ललाटसे भगवान् शिवका प्रादुर्भाव हुआ, तब आप मेरे पतिके पिता और मेरे श्वशुर होनेके कारण गुरुजनोंकी कोटिमें आ जाते हैं और जब मैं यह सोचती हूँ कि स्वयं मेरे पिता गिरिराज हिमालय आपके पुत्र हैं, तब आप मेरे साक्षात् पितामह लगते हैं । लोकपितामह ! इस तरह आप लोकयात्राके विधाता हैं । अन्तः-पुरमें पतिके साथ जो वृत्तान्त घटित हुआ है, उसे मैं आपके सामने कैसे कह सकूँगी ? अतः यहाँ बहुत कहनेसे क्या लाभ ? मेरे शरीरमें जो यह कालापन है, इसे सात्त्विकविधिसे त्यागकर मैं गौरवर्णा होना चाहती हूँ ॥ २९-३३ ॥

ब्रह्मोवाच
एतावता किमर्थेन तीव्रं देवि तपः कृतम् ।
स्वेच्छैव किमपर्याप्ता क्रीडेयं हि तवेदृशी ॥ ३४ ॥
क्रीडाऽपि च जगन्मातस्तव लोकहिताय वै ।
अतो ममेष्टमनया फलं किमपि साध्यताम् ॥ ३५ ॥
ब्रह्माजी बोले-देवि ! इतने ही प्रयोजनके लिये आपने ऐसा कठोर तप क्यों किया ? क्या इसके लिये आपकी इच्छामात्र ही पर्याप्त नहीं थी ? अथवा यह भी आपकी एक लीला ही है । जगन्मातः ! आपकी लीला भी लोकहितके लिये ही होती है । अतः आप इसके द्वारा मेरे एक अभीष्ट फलकी सिद्धि कीजिये ॥ ३४-३५ ॥

निशुंभशुंभनामानौ दैत्यौ दत्तवरौ मया ।
दृप्तौ देवान्प्रबाधेते त्वत्तो लब्धस्तयोर्वधः ॥ ३६ ॥
अलं विलंबनेनात्र त्वं क्षणेन स्थिरा भव ।
शक्तिर्विसृज्यमानाद्य तयोर्मृत्युर्भविष्यति ॥ ३७ ॥
निशुम्भ और शुम्भ नामक दो दैत्य हैं, उनको मैंने वर दे रखा है । इससे उनका घमंड बहुत बढ़ गया है और वे देवताओंको सता रहे हैं । उन दोनोंको आपके ही हाथसे मारे जानेका वरदान प्राप्त हुआ है । अतः अब विलम्ब करनेसे कोई लाभ नहीं । आप क्षणभरके लिये सुस्थिर हो जाइये । आपके द्वारा जो शक्ति रची या छोड़ी जायगी, वही उन दोनों के लिये मृत्युरूपा हो जायगी ॥ ३६-३७ ॥

ब्राह्मणाऽभ्यर्थिता चैव देवी गिरिवरात्मजा ।
त्वक्कोशं सहसोत्सृज्य गौरी सा समजायत ॥ ३८ ॥
सा त्वक्कोशात्मनोत्सृष्टा कौशिकी नाम नामतः ।
काली कालाम्बुदप्रख्या कन्यका समपद्यत ॥ ३९ ॥
ब्रह्माजीके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर गिरिराजकुमारी देवी पार्वती सहसा [अपनी काली] त्वचाके आवरणको उतारकर गौरवर्णा हो गयीं । त्वचाकोष (काली त्वचामय आवरण)-रूपसे त्यागी गयी जो उनकी शक्ति थी, उसका नाम 'कौशिकी' हुआ । वह काले मेघके समान कान्तिवाली कृष्णवर्णा कन्या हो गयी ॥ ३८-३९ ॥

सा तु मायात्मिका शक्तिर्योगनिद्रा च वैष्णवी ।
शंखचक्रत्रिशूलादिसायुधाष्टमहाभुजा ॥ ४० ॥
सौम्या घोरा च मिश्रा च त्रिनेत्रा चन्द्रशेखरा ।
अजातपुंस्पर्शरतिरधृष्या चातिसुन्दरी ॥ ४१ ॥
देवीकी वह मायामयी शक्ति ही योगनिद्रा और वैष्णवी कहलाती है । उसके आठ बड़ी-बड़ी भुजाएँ थीं । उसने उन हाथों में शंख, चक्र और त्रिशूल आदि आयुध धारण कर रखे थे । उस देवीके तीन रूप हैं-सौम्य, घोर और मिश्र । वह तीन नेत्रोंसे युक्त थी । उसने मस्तकपर अर्धचन्द्रका मुकुट धारण कर रखा था । उसे पुरुषका स्पर्श तथा रतिका योग नहीं प्राप्त था और वह [दूसरोंसे] अजेय थी एवं अत्यन्त सुन्दरी थी ॥ ४०-४१ ॥ /

दत्ता च ब्रह्मणे देव्या शक्तिरेषा सनातनी ।
निशुंभस्य च शुंभस्य निहन्त्री दैत्यसिंहयोः ॥ ४२ ॥
ब्रह्मणापि प्रहृष्टेन तस्यै परमशक्तये ।
प्रबलः केसरी दत्तो वाहनत्वे समागतः ॥ ४३ ॥
देवीने अपनी इस सनातन शक्तिको ब्रह्माजीके हाथमें दे दिया । वही दैत्यप्रवर शुम्भ और निशुम्भका वध करनेवाली हुई । उस समय प्रसन्न हुए ब्रह्माजीने उस पराशक्तिको सवारीके लिये एक प्रबल सिंह प्रदान किया, जो उनके साथ ही आया था ॥ ४२-४३ ॥

विन्ध्ये च वसतिं तस्याः पूजामासवपूर्वकैः ।
मांसैर्मत्स्यैरपूपैश्च निर्वर्त्यासौ समादिशत् ॥ ४४ ॥
सा चैव संमता शक्तिर्ब्रह्मणो विश्वकर्मणः ।
प्रणम्य मातरं गौरीं ब्रह्माणं चानुपूर्वशः ॥ ४५ ॥
शक्तिभिश्चापि तुल्याभिः स्वात्मजाभिरनेकशः ।
परीता प्रययौ विन्ध्यं दैत्येन्द्रौ हन्तुमुद्यता ॥ ४६ ॥
उस देवीके रहनेके लिये ब्रह्माजीने विन्ध्य-गिरिपर वासस्थान दिया और वहाँ नाना प्रकारके उपचारोंसे उसका पूजन किया । विश्वकर्मा ब्रह्माके द्वारा सम्मानित हुई वह शक्ति अपनी माता गौरीको और ब्रह्माजीको क्रमशः प्रणाम करके अपने ही अंगोंसे उत्पन्न और अपने ही समान शक्तिशालिनी बहुसंख्यक शक्तियोंको साथ ले दैत्यराज शुम्भ-निशुम्भको मारनेके लिये उद्यत होकर विन्ध्यपर्वतको चली गयी ॥ ४४-४६ ॥

निहतौ च तया तत्र समरे दैत्यपुङ्गवौ ।
तद्बाणैः कामबाणैश्च च्छिन्नभिन्नाङ्गमानसौ ॥ ४७ ॥
तद्युद्धविस्तरश्चात्र न कृतोऽन्यत्र वर्णनात् ।
ऊहनीयं परस्माच्च प्रस्तुतं वर्णयामि वः ॥ ४८ ॥
उसने समरांगणमें शुम्भ-निशुम्भके मन तथा शरीरको अपने हाव-भावरूप बाणों तथा [वास्तविक] बाणोंसे छिन्न-भिन्नकर उन दोनों दैत्यराजोंको मार गिराया । उस बुद्धका अन्यत्र वर्णन हो चुका है, इसलिये उसकी विस्तृत कथा यहाँ नहीं कही गयी । दूसरे स्थलोंसे उसकी ऊहा कर लेनी चाहिये । अब मैं प्रस्तुत प्रसंगका वर्णन करता हूँ ॥ ४७-४८ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे देवीगौरत्वभवनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें देवीगौरत्व प्राप्ति नामक पच्चीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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