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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

वायवीयसंहिता

षड्विंशोऽध्यायः


व्याघ्रगतिवर्णनम्
ब्रह्माजीद्वारा दुष्कर्मी बतानेपर भी गौरीदेवीका शरणागत व्याघ्रको त्यागनेसे इनकार करना और माता-पितासे मिलकर मन्दराचलको जाना


वायुरुवाच
उत्पाद्य कौशिकीं गौरी ब्रह्मणे प्रतिपाद्य ताम् ।
तस्य प्रत्युपकाराय पितामहमथाब्रवीत् ॥ १ ॥
वायुदेवता कहते हैं-कौशिकीको उत्पन्न करके उसे ब्रह्माजीके हाथमें देनेके पश्चात् गौरी देवीने प्रत्युपकारके लिये पितामहसे कहा- ॥ १ ॥

देव्युवाच
दृष्टः किमेष भवता शार्दूलो मदुपाश्रयः ।
अनेन दुष्टसत्त्वेभ्यो रक्षितं मत्तपोवनम् ॥ २ ॥
मय्यर्पितमना एष भजते मामनन्यधीः ।
अस्य संरक्षणादन्यत्प्रियं मम न विद्यते ॥ ३ ॥
भवितव्यमनेनातो ममान्तःपुरचारिणा ।
गणेश्वरपदं चास्मै प्रीत्या दास्यति शङ्करः ॥ ४ ॥
एनमग्रेसरं कृत्वा सखीभिर्गन्तुमुत्सहे ।
प्रदीयतामनुज्ञा मे प्रजानां पतिना त्वया ॥ ५ ॥
देवी बोलीं-क्या आपने मेरे आश्रयमें रहनेवाले इस व्याघ्रको देखा है ? इसने दुष्ट जन्तुओंसे मेरे तपोवनकी रक्षा की है । यह मुझमें अपना मन लगाकर अनन्यभावसे मेरा भजन करता रहा है । अतः इसकी रक्षाके सिवा दूसरा कोई मेरा प्रिय कार्य नहीं है । यह मेरे अन्तःपुरमें विचरनेवाला होगा । भगवान् शंकर इसे प्रसन्नतापूर्वक गणेश्वरका पद प्रदान करेंगे । मैं इसे आगे करके सखियोंके साथ यहाँसे जाना चाहती हूँ । इसके लिये आप मुझे आज्ञा दें; क्योंकि आप प्रजापति हैं ॥ २-५ ॥

इत्युक्तः प्रहसन्ब्रह्मा देवीं मुग्धामिव स्मयन् ।
तस्य तीव्रैः पुरावृत्तैर्दौरात्म्यं समवर्णयत् ॥ ६ ॥
देवीके ऐसा कहनेपर उन्हें भोली-भाली जान हँसते और मुसकराते हुए ब्रह्माजी उस व्याघ्रकी पुरानी क्रूरतापूर्ण करतूतें बताते हुए उसकी दुष्टताका वर्णन करने लगे ॥ ६ ॥

ब्रह्मोवाच
पशौ देवि मृगाः क्रूराः क्व च तेऽनुग्रहः शुभः ।
आशीविषमुखे साक्षादमृतं किं निषिच्यते ॥ ७ ॥
व्याघ्रमात्रेण सन्नेष दुष्टः कोऽपि निशाचरः ।
अनेन भक्षिता गावो ब्राह्मणाश्च तपोधनाः ॥ ८ ॥
तर्पयंस्तान् यथाकामं कामरूपी चरत्यसौ ।
अवश्यं खलु भोक्तव्यं फलं पापस्य कर्मणः ॥ ९ ॥
अतः किं कृपया कृत्यमीदृशेषु दुरात्मसु ।
अनेन देव्याः किं कृत्यं प्रकृत्या कलुषात्मना ॥ १० ॥
ब्रह्माजीने कहा-देवि ! कहाँ तो पशुओंमें क्रूर व्याघ्र और कहाँ यह आपकी मंगलमयी कृपा । आप विषधर सर्पके मुख में साक्षात् अमृत क्यों सींच रही हैं ? यह तो व्याघ्रके रूपमें रहनेवाला कोई दुष्ट निशाचर है । इसने बहुत-सी गौओं और तपस्वी ब्राह्मणोंको खा डाला है । यह उन सबको इच्छानुसार ताप देता हुआ मनमाना रूप धारण करके विचरता है । अत: इसे अपने पापकर्मका फल अवश्य भोगना चाहिये । ऐसे दुष्टोंपर आपको कृपा करनेकी क्या आवश्यकता है ? स्वभावसे ही कलुषित चित्तवाले इस दुष्ट जीवसे देवीको क्या काम है ? ॥ ७-१० ॥

देव्युवाच
यदुक्तं भवता सर्वं तथ्यमस्त्वयमीदृशः ।
तथापि मां प्रपन्नोऽभून्न त्याज्यो मामुपाश्रितः ॥ ११ ॥
देवी बोलीं-आपने जो कुछ कहा है, वह सब ठीक है । यह ऐसा ही सही, तथापि मेरी शरणमें आ गया है । अत: मुझे इसका त्याग नहीं करना चाहिये ॥ ११ ॥

ब्रह्मोवाच
अस्य भक्तिमविज्ञाय प्राग्वृत्तं ते निवेदितम् ।
भक्तिश्चेदस्य किं पापैर्न ते भक्तः प्रणश्यति ॥ १२ ॥
पुण्यकर्मापि किं कुर्यात्त्वदीयाज्ञानपेक्षया ।
अजा प्रज्ञा पुराणी च त्वमेव परमेश्वरी ॥ १३ ॥
ब्रह्माजीने कहा-देवि ! इसकी आपके प्रति भक्ति है, इस बातको जाने बिना ही मैंने आपके समक्ष इसके पूर्वचरित्रका वर्णन किया है । यदि इसके भीतर भक्ति है तो पहलेके पापोंसे इसका क्या बिगड़नेवाला है; क्योंकि आपके भक्तका कभी नाश नहीं होता । जो आपकी आज्ञाका पालन नहीं करता, वह पुण्यकर्मा होकर भी क्या करेगा ? देवि ! आप ही अजन्मा, बुद्धिमती, पुरातन शक्ति और परमेश्वरी हैं ॥ १२-१३ ॥

त्वदधीना हि सर्वेषां बन्धमोक्षव्यवस्थितिः ।
त्वदृते परमा शक्तिः संसिद्धिः कस्य कर्मणा ॥ १४ ॥
त्वमेव विविधा शक्तिः भवानामथ वा स्वयम् ।
अशक्तः कर्मकरणे कर्ता वा किं करिष्यति ॥ १५ ॥
विष्णोश्च मम चान्येषां देवदानवरक्षसाम् ।
तत्तदैश्वर्यसम्प्राप्त्यै तवैवाज्ञा हि कारणम् ॥ १६ ॥
अतीताः खल्वसंख्याता ब्रह्माणो हरयो भवाः ।
अनागतास्त्वसंख्यातास्त्वदाज्ञानुविधायिनः ॥ १७ ॥
त्वामनाराध्य देवेशि पुरुषार्थचतुष्टयम् ।
लब्धुं न शक्यमस्माभिरपि सर्वैः सुरोत्तमैः ॥ १८ ॥
सबके बन्ध और मोक्षको व्यवस्था आपके ही अधीन है । आपके सिवा पराशक्ति कौन है ? आपके बिना किसको कर्मजनित सिद्धि प्राप्त हो सकती है ? आप ही स्वयमेव असंख्य रूद्रोंकी विविधरूपा शक्ति हैं । शक्तिरहित कर्ता काम करनेमें कौन-सी सफलता प्राप्त करेगा ? भगवान् विष्णुको, मुझको तथा अन्य देवता, दानव और राक्षसोंको उन-उन ऐश्वर्योंकी प्राप्ति करानेके लिये आपकी आज्ञा ही कारण है । असंख्य ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र, जो आपकी आज्ञाका पालन करनेवाले हैं, बीत चुके हैं और भविष्यमें भी होंगे । देवेश्वरि ! आपकी आराधना किये बिना हम सब श्रेष्ठ देवता भी धर्म आदि चारों पुरुषार्थोंकी प्राप्ति नहीं कर सकते ॥ १४-१८ ॥

व्यत्यासोऽपि भवेत्सद्यो ब्रह्मत्वस्थावरत्वयोः ।
सुकृतं दुष्कृतं चापि त्वयैव स्थापितं यतः ॥ १९ ॥
त्वं हि सर्वजगद्भर्तुः शिवस्य परमात्मनः ।
अनादिमध्यनिधना शक्तिराद्या सनातनी ॥ २० ॥
आपके संकल्पसे ब्रह्मत्व और स्थावरत्वका तत्काल व्यत्यास (फेर-बदल) भी हो जाता है अर्थात् ब्रह्मा स्थावर (वृक्ष आदि) हो जाता है और स्थावर ब्रह्मा; क्योंकि पुण्य और पापके फलोंकी व्यवस्था आपने ही की है । आप ही जगत्के स्वामी परमात्मा शिवकी अनादि, अमध्य और अनन्त सनातन आदिशक्ति हैं ॥ १९-२० ॥

समस्तलोकयात्रार्थं मूर्तिमाविश्य कामपि ।
क्रीडसे विविधैर्भावैः कस्त्वां जानाति तत्त्वतः ॥ २१ ॥
अतो दुष्कृतकर्मापि व्याघ्रोऽयं त्वदनुग्रहात् ।
प्राप्नोतु परमाँ सिद्धिमत्र कः प्रतिबन्धकः ॥ २२ ॥
आप सम्पूर्ण लोकयात्राका निर्वाह करनेके लिये किसी अद्‌भुत मूर्ति में आविष्ट हो नाना प्रकारके भावोंसे क्रीडा करती हैं । भला, आपको ठीक-ठीक कौन जानता है । अतः यह पापाचारी व्याघ्र भी आज आपकी कृपासे परम सिद्धि प्राप्त करे, इसमें कौन बाधक हो सकता है । २१-२२ ॥

इत्यात्मनः परं भावं स्मारयित्वानुरूपतः ।
ब्रह्मणाभ्यर्थिता गौरी तपसोऽपि न्यवर्तत ॥ २३ ॥
ततो देवीमनुज्ञाप्य ब्रह्मण्यन्तर्हिते सति ।
देवीं च मातरं दृष्ट्‍वा मेनां हिमवता सह ॥ २४ ॥
प्रणम्याश्वास्य बहुधा पितरौ विरहासहौ ।
तपः प्रणयिनो देवी तपोवनमहीरुहान् ॥ २५ ॥
विप्रयोगशुचेवाग्रे पुष्पबाष्पं विमुञ्चतः ।
तत्तच्छाखासमारूढविहगोदीरितै रुतैः ॥ २६ ॥
व्याकुलं बहुधा दीनं विलापमिव कुर्वतः ।
इस प्रकार [देवीको] उनके परम तत्त्वका स्मरण कराकर ब्रह्माजीने जब उचित प्रार्थना की, तब गौरीदेवी तपस्यासे निवृत्त हुई । तदनन्तर देवीकी आज्ञा लेकर ब्रह्माजी अन्तर्धान हो गये । फिर देवीने अपने वियोगको न सह सकनेवाले माता-पिता मेना और हिमवान्का दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया तथा उन्हें नाना प्रकारसे आश्वासन दिया । इसके बाद देवीने तपस्याके प्रेमी तपोवनके वृक्षोंको देखा । वे उनके सामने फूलोंकी वर्षा कर रहे थे । ऐसा जान पड़ता था, मानो उनसे होनेवाले वियोगके शोकसे पीड़ित हो वे आँसू बरसा रहे हों । अपनी शाखाओंपर बैठे हुए विहंगमोंके कलरवोंके व्याजसे मानो वे व्याकुलतापूर्वक नाना प्रकारसे दीनतापूर्ण विलाप कर रहे थे ॥ २३-२६ १/२ ॥

सखीभ्यः कथयन्त्येवं सत्त्वरा भर्तृदर्शने ॥ २७ ॥
पुरस्कृत्य च तं व्याघ्रं स्नेहात्पुत्रमिवौरसम् ।
देहस्य प्रभया चैव दीपयन्ती दिशो दश ॥ २८ ॥
प्रययौ मन्दरं गौरी यत्र भर्ता महेश्वरः ।
सर्वेषां जगतां धाता कर्ता प ॥ २९ ॥
तदनन्तर पतिके दर्शनके लिये उतावली हो उस व्याघ्रको औरस पुत्रकी भाँति स्नेहसे आगे करके सखियोंसे बातचीत करती और देहकी दिव्य प्रभासे दसों दिशाओंको उद्दीपित करती हुई गौरीदेवी मन्दराचलको चली गयीं, जहाँ सम्पूर्ण जगत्के आधार, स्रष्टा, पालक और संहारक पतिदेव महेश्वर विराजमान थे ॥ २७-२९ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे व्याघ्रगतिवर्णनं नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें देवीगौरत्व प्राप्ति नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २६ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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