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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
वायवीयसंहिता
॥ सप्तविंशोऽध्यायः ॥ देवीशिवमिलनवर्णनम्
मन्दराचलपर गौरीदेवीका स्वागत, महादेवजीके द्वारा उनके और अपने उत्कृष्ट स्वरूप एवं अविच्छेद्य सम्बन्धका प्रकाशन तथा देवीके साथ आये हुए व्याघ्रको उनका गणाध्यक्ष बनाकर अन्तःपुरके द्वारपर सोमनन्दी नामसे प्रतिष्ठित करना ऋषय ऊचुः कृत्वा गौरं वपुर्दिव्यं देवी गिरिवरात्मजा । कथं ददर्श भर्तारं प्रविष्टा मन्दिरं सती ॥ १ ॥ प्रवेशसमये तस्या भवनद्वारगोचरैः । गणेशैः किं कृतं देवः तान् दृष्ट्वा किं तदाकरोत् ॥ २ ॥ ऋषियोंने पूछा-अपने शरीरको दिव्य गौरवर्णसे । युक्त बनाकर गिरिराजकुमारी देवी पार्वतीने जब मन्दराचल प्रदेशमें प्रवेश किया, तब वे अपने पतिसे किस प्रकार मिली ? प्रवेशकालमें उनके भवनद्वारपर रहनेवाले गणेश्वरोंने क्या किया तथा महादेवजीने भी उन्हें देखकर उस समय उनके साथ कैसा बर्ताव किया ? ॥ १-२ ॥ वायुरुवाच प्रवक्तुमञ्जसाशक्यः तादृशः परमो रसः । येन प्रणयगर्भेण भावो भाववतां हृतः ॥ ३ ॥ द्वाःस्थैः ससंभ्रमैरेव देवो देव्यागमोत्सुकः । शङ्कमाना प्रविष्टान्तस्तं च सा समपश्यत ॥ ४ ॥ तैस्तैः प्रणयभावैश्च भवनान्तरवर्तिभिः । गणेन्द्रैर्वन्दिता वाचा प्रणनाम त्रियम्बकम् ॥ ५ ॥ वायुदेवताने कहा-जिस प्रेमगर्भित रसके द्वारा अनुरागी पुरुषोंके मनका हरण हो जाता है, उस परम रसका ठीक-ठीक वर्णन करना असम्भव है । द्वारपाल बड़ी उतावलीसे राह देखते थे । उनके साथ ही महादेवजी भी देवीके आगमनके लिये उत्सुक थे । जब वे भवनमें प्रवेश करने लगी, तब शंकित हो उन-उन प्रेमजनित भावोंसे वे उनकी ओर देखने लगे । देवी भी उनकी ओर उन्हीं भावोंसे देख रही थीं । उस समय उस भवनमें रहनेवाले श्रेष्ठ पार्षदोंने देवीकी वन्दना की । फिर देवीने विनययुक्त वाणीद्वारा भगवान् त्रिलोचनको प्रणाम किया ॥ ३-५ ॥ प्रणम्य नोत्थिता यावत्तावत्तां परमेश्वरः । प्रगृह्य दोर्भ्यामाश्लिष्य परितः परया मुदा ॥ ६ ॥ वे प्रणाम करके अभी उठने भी नहीं पायी थीं कि परमेश्वरने उन्हें दोनों हाथोंसे पकड़कर बड़े आनन्दके साथ हृदयसे लगा लिया ॥ ६ ॥ स्वाङ्के धर्तुं प्रवृत्तोऽपि सा पर्यङ्के न्यषीदत । पर्यङ्कतो बलाद्देवी सोङ्कमारोप्य सुस्मिताम् ॥ ७ ॥ सस्मितो विवृतैर्नेत्रैस्तद्वक्त्रं प्रपिबन्निव । तया संभाषणायेशः पूर्वभाषितमब्रवीत् ॥ ८ ॥ उन्हें वे अपनी गोदमें ही बिठानेके लिये तत्पर हुए, पर तबतक पार्वती पलंगपर बैठ गयीं । फिर इसके बाद शिवजीने मधुर मुसकानसे समन्वित हुई देवीको बलपूर्वक पलंगसे उठाकर अपनी गोदमें बैठा लिया । फिर मुसकराते हुए वे एकटक नेत्रोंसे उनके मुखचन्द्रकी सुधाका पानसा करने लगे । फिर उनसे बातचीत करनेके लिये उन्होंने पहले अपनी ओरसे वार्ता आरम्भ की ॥ ७-८ ॥ देवदेव उवाच - सा दशा च व्यतीता किं तव सर्वाङ्गसुन्दरि । यस्यामनुनयोपायः कोऽपि कोपान्न लभ्यते ॥ ९ ॥ स्वेच्छयापि न कालीति नान्यवर्णवतीति च । त्वत्स्वभावाहृतं चित्तं सुभ्रु चिन्तावहं मम ॥ १० ॥ देवाधिदेव महादेवजी बोले-सर्वांगसुन्दरि प्रिये ! क्या तुम्हारी वह मनोदशा दूर हो गयी, जिसके रहते तुम्हारे क्रोधके कारण मुझे अनुनय-विनयका कोई भी उपाय नहीं सूझता था । मेरा मन स्वेच्छासे भी नहीं, तुम्हारे काले वर्णसे नहीं अथवा अन्य किसी वर्णसे अपहत नहीं हुआ, जैसा कि तुम्हारे स्वभावसे अपहत है । जिसके कारण हे सुभ्रू ! मैं बहुत ही चिन्तित हो गया था ॥ ९-१० ॥ विस्मृतः परमो भावः कथं स्वेच्छाङ्गयोगतः । न सम्भवन्ति ये तत्र चित्तकालुष्यहेतवः ॥ ११ ॥ पृथग्जनवदन्योन्यं विप्रियस्यापि कारणम् । आवयोरपि यद्यस्ति नास्त्येवैतच्चराचरम् ॥ १२ ॥ जो भाव स्वेच्छापूर्वक परस्पर अंगके संयोगसे उत्पन्न नहीं होते, ऐसे परम [भावरूप] रसको तुमने कैसे भुला दिया ? अंगसंयोगसे उत्पन्न भाव तो चित्तमें कालुष्यके हेतु बनते हैं । यदि साधारण लोगोंकी भाँति हम दोनोंमें भी एकदूसरेके अप्रियका कारण विद्यमान है, तब तो इस चराचर जगत्का नाश हुआ ही समझना चाहिये ॥ ११-१२ ॥ अहमग्निशिरोनिष्ठस्त्वं सोमशिरसि स्थिता । अग्नीषोमात्मकं विश्वमावाभ्यां समधिष्ठितम् ॥ १३ ॥ जगद्धिताय चरतोः स्वेच्छाधृतशरीरयोः । आवयोर्विप्रयोगे हि स्यान्निरालम्बनं जगत् ॥ १४ ॥ अस्ति हेत्वन्तरं चात्र शास्त्रयुक्तिविनिश्चितम् । वागर्थमिव चैवैतज्जगत्स्थावरजङ्गमम् ॥ १५ ॥ त्वं हि वागमृतं साक्षादहमर्थामृतं परम् । द्वयमप्यमृतं कस्माद्वियुक्तमुपपद्यते ॥ १६ ॥ मैं अग्निके मस्तकपर स्थित हूँ और तुम सोमके । हम दोनोंसे ही यह अग्नि-सोमात्मक जगत् प्रतिष्ठित है । जगत्के हितके लिये स्वेच्छासे शरीर धारण करके विचरनेवाले हम दोनोंके वियोगमें यह जगत् निराधार हो जायगा । इसमें शास्त्र और युक्तिसे निश्चित किया हुआ दूसरा हेतु भी है । यह स्थावर-जंगमरूप जगत् वाणी और अर्थमय ही है । तुम साक्षात् वाणीमय अमृत हो और मैं अर्थमय परम उत्तम अमृत हूँ । ये दोनों अमृत एक-दूसरेसे विलग कैसे हो सकते हैं ? ॥ १३-१६ ॥ विद्याप्रत्यायिका त्वं मे वेद्योऽहं प्रत्ययात्तव । विद्यावेद्यात्मनोरेव विश्लेषः कथमावयोः ॥ १७ ॥ न कर्मणा सृजामीदं जगत्प्रतिसृजामि च । सर्वस्याज्ञैकलभ्यत्वादाज्ञात्वं हि गरीयसी ॥ १८ ॥ तुम मेरे स्वरूपका बोध करानेवाली विद्या हो और मैं तुम्हारे दिये हुए विश्वासपूर्ण बोधसे जाननेयोग्य परमात्मा हूँ । हम दोनों क्रमशः विद्यात्मा और वेद्यात्मा हैं, फिर हममें वियोग होना कैसे सम्भव है ? मैं अपने प्रयत्नसे जगतकी सृष्टि और संहार नहीं करता । एकमात्र आज्ञासे ही सबकी सृष्टि और संहार उपलब्ध होते हैं । वह अत्यन्त गौरवपूर्ण आज्ञा तुम्हीं हो ॥ १७-१८ ॥ आज्ञैकसारमैश्वर्यं यस्मात्स्वातन्त्र्यलक्षणम् । आज्ञया विप्रयुक्तस्य चैश्वर्यं मम कीदृशम् ॥ १९ ॥ न कदाचिदवस्थानमावयोर्विप्रयुक्तयोः । देवानां कार्यमुद्दिश्य लीलोक्तिं कृतवानहम् ॥ २० ॥ ऐश्वर्यका एकमात्र सार आज्ञा (शासन) है, क्योंकि वही स्वतन्त्रताका लक्षण है । आज्ञासे वियुक्त होनेपर मेरा ऐश्वर्य कैसा होगा । हमलोगोंका एक दूसरेसे विलग होकर रहना कभी सम्भव नहीं है । देवताओंके कार्यकी सिद्धिके उद्देश्यसे ही मैंने [उस दिन] लीलापूर्वक व्यंग्य वचन कहा था ॥ १९-२० ॥ त्वयाप्यविदितं नास्ति कथं कुपितवत्यसि । ततस्त्रिलोकरक्षार्थे कोपो मय्यपि ते कृतः ॥ २१ ॥ यदनर्थाय भूतानां न तदस्ति खलु त्वयि । तुम्हें भी तो यह बात अज्ञात नहीं थी । फिर तुम कुपित कैसे हो गयीं ! अतः यही कहना पड़ता है कि तुमने भी मुझपर जो क्रोध किया था, वह त्रिलोकीकी रक्षाके लिये ही था; क्योंकि तुममें ऐसी कोई बात नहीं है, जो जगत्के प्राणियोंका अनर्थ करनेवाली हो ॥ २१ १/२ ॥ इति प्रियंवदे साक्षादीश्वरे परमेश्वरे ॥ २२ ॥ शृङ्गारभावसाराणां जन्मभूमिरकृत्रिमा । स्वभर्त्रा ललितं तथ्यमुक्तं मत्वा स्मितोत्तरम् ॥ २३ ॥ लज्जया न किमप्यूचे कौशिकी वर्णनात्परम् । तदेव वर्णयाम्यद्य शृणु देव्याश्च वर्णनम् ॥ २४ ॥ इस प्रकार प्रिय वचन बोलनेवाले साक्षात् परमेश्वर शिवके प्रति शृंगाररसके सारभूत भावोंकी प्राकृतिक जन्मभूमि देवी पार्वती अपने पतिकी कही हुई यह मनोहर बात सुनकर तथा इसे सत्य जान मुसकराकर रह गयीं, लज्जावश कोई उत्तर नदेसकी केवल कौशिकी [के यश]-का वर्णन छोड़कर और कुछ उन्होंने नहीं कहा । देवीने कौशिकीके विषयमें जो कुछ कहा, उसका वर्णन करता हूँ ॥ २२-२४ ॥ देव्युवाच किं देवेन न सा दृष्टा या सृष्टा कौशिकी मया । तादृशी कन्यका लोके न भूता न भविष्यति ॥ २५ ॥ तस्या वीर्यं बलं विन्ध्यनिलयं विजयं तथा । शुंभस्य च निशुंभस्य मारणे च रणे तयोः ॥ २६ ॥ प्रत्यक्षफलदानं च लोकाय भजते सदा । लोकानां रक्षणं शश्वद् ब्रह्मा विज्ञापयिष्यति ॥ २७ ॥ देवी बोलीं-'भगवन् ! मैंने जिस कौशिकीकी सृष्टि की है, उसे क्या आपने नहीं देखा है ? वैसी कन्या न तो इस लोकमें हुई है और न होगी । ' यों कहकर देवीने उसके विन्ध्यपर्वतपर निवास करने तथा समरांगणमें शुम्भ और निशुम्भका वध करके उनपर विजय पानेका प्रसंग सुनाकर उसके बल-पराक्रमका वर्णन किया । साथ ही यह भी बताया कि वह उपासना करनेवाले लोगोंको सदा प्रत्यक्ष फल देती है तथा निरन्तर लोकोंकी रक्षा करती रहती है । इस विषयमें ब्रह्माजी आपको आवश्यक बातें बतायेंगे ॥ २५-२७ ॥ इति संभाषमाणाया देव्या एवाज्ञया तदा । व्याघ्रः सख्या समानीय पुरोऽवस्थापितस्तदा ॥ २८ ॥ तं प्रेक्ष्याह पुनर्देवी देवानीतमुपायतम् । व्याघ्रं पश्य न चानेन सदृशो मदुपासकः ॥ २९ ॥ उस समय इस प्रकार बातचीत करती हुई देवीकी आज्ञासे ही एक सखीने उस व्याघ्रको लाकर उनके सामने खड़ा कर दिया । उसे देखकर देवी कहने लगी- 'देव ! यह व्याघ्र मैं आपके लिये भेंट लायी हूँ । आप इसे देखिये । इसके समान मेरा उपासक दूसरा कोई नहीं है ॥ २८-२९ ॥ अनेन दुष्टसंघेभ्यो रक्षितं मत्तपोवनम् । अतीव मम भक्तश्च विश्रब्धश्च स्वरक्षणात् ॥ ३० ॥ स्वदेशं च परित्यज्य प्रसादार्थं समागतः । यदि प्रीतिरभून्मत्तः परां प्रीतिं करोषि मे ॥ ३१ ॥ नित्यमन्तःपुरद्वारि नियोगान्नन्दिनः स्वयम् । रक्षिभिः सह तच्चिह्नैर्वर्ततामयमीश्वर ॥ ३२ ॥ इसने दुष्ट जन्तुओंके समूहसे मेरे तपोवनकी रक्षा की थी । यह मेरा अत्यन्त भक्त है और अपने रक्षणात्मक कार्यसे मेरा विश्वासपात्र बन गया है । मेरी प्रसन्नताके लिये यह अपना देश छोड़कर यहाँ आ गया है । महेश्वर ! यदि मेरे आनेसे आपको प्रसन्नता हुई है और यदि आप मुझसे अत्यन्त प्रेम करते हैं तो मैं चाहती हूँ कि यह नन्दीकी आज्ञासे मेरे अन्तःपुरके द्वारपर अन्य रक्षकोंके साथ उन्हींके चिह्न धारण करके सदा स्थित रहे ॥ ३०-३२ ॥ वायुरुवाच मधुरं प्रणयोदर्कं श्रुत्वा देव्याः शुभं वचः । प्रीतोऽस्मीत्याह तं देवः स चादृश्यत तत्क्षणात् ॥ ३३ ॥ बिभ्रद्वेत्रलतां हैमीं रत्नचित्रं च कञ्चुकम् । छुरिकामुरगप्रख्यां गणेशो रक्षवेषधृक् ॥ ३४ ॥ वायुदेव कहते हैं-देवीके इस मधुर और अन्ततोगत्वा प्रेम बढ़ानेवाले शुभ वचनको सुनकर महादेवजीने कहा'मैं बहुत प्रसन्न हूँ । ' फिर तो वह व्याघ्र उसी क्षण लचकती हुई सुवर्णजटित बेंतकी छड़ी, रत्नोंसे जटित विचित्र कवच, सर्पकी-सी आकृतिवाली छुरी तथा रक्षकोचित वेष धारण किये गणाध्यक्षके पदपर प्रतिष्ठित दिखायी दिया ॥ ३३-३४ ॥ यस्मात्सोमो महादेवो नन्दी चानेन नन्दितः । सोमनन्दीति विख्यातस्तस्मादेष समाख्यया ॥ ३५ ॥ इत्थं देव्याः प्रियं कृत्वा देवश्चर्द्धेन्दुभूषणः । भूषयामास तं दिव्यैर्भूषणै रत्नभूषितैः ॥ ३६ ॥ उसने उमासहित महादेव [और नन्दी]-को आनन्दित किया था । इसलिये सोमनन्दी नामसे विख्यात हुआ । इस प्रकार देवीका प्रिय कार्य करके चन्द्रार्धभूषण महादेवजीने उन्हें रत्नभूषित दिव्य आभूषणोंसे भूषित किया । ३५-३६ ॥ ततः स गौरीं गिरिशो गिरीन्द्रजां सगौरवां सर्वमनोहरां हरः । पर्यङ्कमारोप्य वराङ्गभूषणै र्विभूषयामास शशाङ्कभूषणः ॥ ३७ ॥ चन्द्रभूषण भगवान् शिवने सर्वमनोहारिणी गिरिराजकुमारी गौरी देवीको पलंगपर बिठाकर उस समय सुन्दर अलंकारोंसे स्वयं ही उनका श्रृंगार किया । ॥ ३७ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे देवीशिवमिलनवर्णनं नाम सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें देवीशिव मिलनवर्णन नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २७ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |