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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

वायवीयसंहिता

॥ अष्टाविंशोऽध्यायः ॥


भस्मतत्त्ववर्णनम्
अग्नि और सोमके स्वरूपका विवेचन तथा जगत्की अग्नीषोमात्मकताका प्रतिपादन


ऋषय ऊचुः
देवीं समादधानेन देवेनेदं किमीरितम् ।
अग्निषोमात्मकं विश्वं वागर्थात्मकमित्यपि ॥ १ ॥
आज्ञैकसारमैश्वर्यमाज्ञात्वमिति चोदितम् ।
तदिदं श्रोतुमिच्छामो यथावदनुपूर्वशः ॥ २ ॥
ऋषियोंने पूछा-प्रभो ! पार्वती देवीका समाधान करते हुए महादेवजीने यह बात क्यों कही कि 'सम्पूर्ण विश्व अग्नीषोमात्मक एवं वागर्थात्मक है । ऐश्वर्यका सार एकमात्र आज्ञा ही है और वह आज्ञा तुम हो । ' अतः इस विषयमें हम क्रमशः यथार्थ बातें सुनना चाहते हैं ॥ १-२ ॥

वायुरुवाच
अग्निरित्युच्यते रौद्री घोरा या तैजसी तनुः ।
सोमः शाक्तोऽमृतमयः शक्तेः शान्तिकरी तनुः ॥ ३ ॥
वायुदेव बोले-महर्षियो ! रुद्रदेवका जो घोर तेजोमय शरीर है, उसे अग्नि कहते हैं और अमृतमय सोम शक्तिका स्वरूप है; क्योंकि शक्तिका शरीर शान्तिकारक है ॥ ३ ॥

अमृतं यत्प्रतिष्ठा सा तेजो विद्या कला स्वयम् ।
भूतसूक्ष्मेषु सर्वेषु त एव रसतेजसी ॥ ४ ॥
द्विविधा तेजसो वृत्तिः सूर्यात्मा चानलात्मिका ।
तथैव रसवृत्तिश्च सोमात्मा च जलात्मिका ॥ ५ ॥
जो अमृत है, वह प्रतिष्ठा नामक कला है और जो तेज है, वह साक्षात् विद्या नामक कला है । सम्पूर्ण सूक्ष्म भूतोंमें वे ही दोनों रस और तेज हैं । तेजकी वृत्ति दो प्रकारकी है । एक सूर्यरूपा है और दूसरी अग्निरूपा । इसी तरह रसवृत्ति भी दो प्रकारकी है-एक सोमरूपिणी और दूसरी जलरूपिणी ॥ ४-५ ॥

विद्युदादिमयन्तेजो मधुरादिमयो रसः ।
तेजोरसविभेदैस्तु धृतमेतच्चराचरम् ॥ ६ ॥
तेज विद्युत् आदिके रूपमें उपलब्ध होता है तथा रस मधुर आदिके रूपमें । तेज और रसके भेदोंने ही इस चराचर जगत्को धारण कर रखा है ॥ ६ ॥

अग्नेरमृतनिष्पत्तिरमृतेनाग्निरेधते ।
अत एव हि विक्रान्तमग्नीषोमं जगद्धितम् ॥ ७ ॥
हविषे सस्यसम्पत्तिर्वृष्टिः सस्याभिवृद्धये ।
वृष्टेरेव हविस्तस्मादग्नीषोमधृतं जगत् ॥ ८ ॥
अग्निसे अमृतकी उत्पत्ति होती है और अमृतस्वरूप घीसे अग्निकी वृद्धि होती है, अतएव अग्नि और सोमको दी हुई आहुति जगत्के लिये हितकारक होती है । शस्यसम्पत्ति हविष्यका उत्पादन करती है । वर्षा शस्यको बढ़ाती है । इस प्रकार वर्षासे ही हविष्यका प्रादुर्भाव होता है, जिससे यह अग्नीषोमात्मक जगत् टिका हुआ है ॥ ७-८ ॥

अग्निरूर्ध्वं ज्वलत्येष यावत्सौम्यं परामृतम् ।
यावदग्न्यास्पदं सौम्यममृतं च स्रवत्यधः ॥ ९ ॥
अत एव हि कालाग्निरधस्ताच्छक्तिरूर्ध्वतः ।
यावदादहनं चोर्ध्वमधश्चाप्लावनं भवेत् ॥ १० ॥
अग्नि वहाँतक ऊपरको प्रज्वलित होता है, जहाँतक सोम-सम्बन्धी परम अमृत विद्यमान है और जहाँतक अग्निका स्थान है, वहाँतक सोमसम्बन्धी अमृत नीचेको झरता है । इसीलिये कालाग्नि नीचे है और शक्ति ऊपर । जहाँतक अग्नि है, उसकी गति ऊपरकी ओर है और जो जलका आप्लावन है, उसकी गति नीचेकी ओर है ॥ ९-१० ॥

आधारशक्त्यैव धृतः कालाग्निरयमूर्ध्वगः ।
तथैव निम्नगः सोमः शिवशक्तिपदास्पदः ॥ ११ ॥
शिवश्चोर्ध्वमधः शक्तिरूर्ध्वं शक्तिरधः शिवः ।
तदित्थं शिवशक्तिभ्यां नाव्याप्तमिह किञ्चन ॥ १२ ॥
आधारशक्तिने ही इस ऊर्ध्वगामी कालाग्निको धारण कर रखा है तथा निम्नगामी सोम शिव-शक्तिके आधारपर प्रतिष्ठित है । शिव ऊपर हैं और शक्ति नीचे तथा शक्ति ऊपर है और शिव नीचे । इस प्रकार शिव और शक्तिने यहाँ सब कुछ व्याप्त कर रखा है ॥ ११-१२ ॥

असकृच्चाग्निना दग्धं जगद्यद्भस्मसात्कृतम् ।
अग्नेर्वीर्यमिदं चाहुस्तद्वीर्यं भस्म यत्ततः ॥ १३ ॥
यश्चेत्थं भस्मसद्भावं ज्ञात्वा स्नाति च भस्मना ।
अग्निरित्यादिभिर्मन्त्रैर्बद्धः पाशात्प्रमुच्यते ॥ १४ ॥
बारंबार अग्निद्वारा जलाया हुआ यह जगत् भस्मसात् हो जाता है । यह अग्निका वीर्य है । भस्मको ही अग्निका वीर्य कहते हैं । जो इस प्रकार भस्मके श्रेष्ठ स्वरूपको जानकर 'अग्निः' इत्यादि मन्त्रोंद्वारा भस्मसे स्नान करता है, वह बँधा हुआ जीव पाशसे मुक्त हो जाता है ॥ १३-१४ ॥

अग्नेर्वीर्यं तु यद्भस्म सोमेनाप्लावितं पुनः ।
अयोगयुक्त्या प्रकृतेरधिकाराय कल्पते ॥ १५ ॥
योगयुक्त्या तु तद्भस्म प्लाव्यमानं समन्ततः ।
शाक्तेनामृतवर्षेण चाधिकारान्निवर्तयेत् ॥ १६ ॥
अग्निके वीर्यरूप भस्मको सोमने अयोगयुक्तिके द्वारा फिर आप्लावित किया; इसलिये वह प्रकृतिके अधिकारमें चला गया । यदि योगयुक्तिसे शाक्त अमृतवपकि द्वारा उस भस्मका सब ओर आप्लावन हो तो वह प्रकृतिके अधिकारोंको निवृत्त कर देता है ॥ १५-१६ ॥

अतो मृत्युंजयायेत्थममृतप्लावनं सदा ।
शिवशक्त्यमृतस्पर्शे लब्धं येन कुतो मृतिः ॥ १७ ॥
यो वेद दहनं गुह्यं प्लावनं च यथोदितम् ।
अग्नीषोमपदं हित्वा न स भूयोऽभिजायते ॥ १८ ॥
अतः इस तरहका अमृतप्लावन सदा मृत्युपर विजय पानेके लिये ही होता है । शिवाग्निके साथ शक्तिसम्बन्धी अमृतका स्पर्श होनेपर जिसने अमृतका आप्लावन प्राप्त कर लिया, उसकी मृत्यु कैसे हो सकती है ? जो अग्निके इस गुह्य स्वरूपको तथा पूर्वोक्त अमृतप्लावनको ठीक ठीक जानता है, वह अग्नीषोमात्मक जगत्को त्यागकर फिर यहाँ जन्म नहीं लेता ॥ १७-१८ ॥

शिवाग्निना तनुं दग्ध्वा शक्तिसौम्यामृतेन यः ।
प्लावयेद्योगमार्गेण सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १९ ॥
हृदि कृत्वेममर्थं वै देवेन समुदाहृतम् ।
अग्नीषोमात्मकं विश्वं जगदित्यनुरूपतः ॥ २० ॥
जो शिवाग्निसे शरीरको दग्ध करके शक्तिस्वरूप सोमामृतसे योगमार्गके द्वारा इसे आप्लावित करता है, वह अमृतस्वरूप हो जाता है । इसी अभिप्रायको हृदयमें धारण करके महादेवजीने इस सम्पूर्ण जगत्को अग्नीषोमात्मक कहा था । उनका वह कथन सर्वथा उचित है ॥ १९-२० ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे भस्मतत्त्ववर्णनं नामाष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें भस्मतत्त्ववर्णन नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २८ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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