![]() |
॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
वायवीयसंहिता
॥ एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ वागर्थकतत्त्ववर्णनं
जगत् 'वाणी और अर्थरूप' है-इसका प्रतिपादन वायुरुवाच निवेदयामि जगतो वागर्थात्म्यं कृतं यथा । षडध्ववेदनं सम्यक् समासान्न तु विस्तरात् ॥ १ ॥ नास्ति कश्चिदशब्दार्थो नापि शब्दो निरर्थकः । ततो हि समये शब्दः सर्वः सर्वार्थबोधकः ॥ २ ॥ वायुदेवता कहते हैं-महर्षियो ! अब यह बता रहा हूँ कि जगत्की वागर्थात्मकताकी सिद्धि कैसे की गयी है । छ: अध्याओं (मार्गो)-का सम्यक् ज्ञान मैं संक्षेपसे ही करा रहा हूँ, विस्तारसे नहीं । कोई भी ऐसा अर्थ नहीं है, जो बिना शब्दका हो और कोई भी ऐसा शब्द नहीं है, जो बिना अर्थका हो । अतः समयानुसार सभी शब्द सम्पूर्ण अर्थोके बोधक होते हैं ॥ १-२ ॥ प्रकृतेः परिणामोऽयं द्विधा शब्दार्थभावना । तामाहुः प्राकृतीं मूर्तिं शिवयोः परमात्मनोः ॥ ३ ॥ प्रकृतिका यह परिणाम शब्दभावना और अर्थभावनाके भेदसे दो प्रकारका है । उसे परमात्मा शिव तथा पार्वतीकी प्राकृत मूर्ति कहते हैं ॥ ३ ॥ शब्दात्मिका विभूतिर्या सा त्रिधा कथ्यते बुधैः । स्थूला सूक्ष्मा परा चेति स्थूला या श्रुतिगोचरा ॥ ४ ॥ सूक्ष्मा चिन्तामयी प्रोक्ता चिन्तया रहिता परा । या शक्तिः सा परा शक्तिः शिवतत्त्वसमाश्रया ॥ ५ ॥ उनकी जो शब्दमयी विभूति है, उसे विद्वान् तीन प्रकारकी बताते हैं-स्थूला, सूक्ष्मा और परा । स्थूला वह है, जो कानोंको प्रत्यक्ष सुनायी देती है: जो केवल चिन्तनमें आती है, वह सूक्ष्मा कही गयी है और जो चिन्तनकी भी सीमासे परे है, उसे परा कहा गया है । वह शक्तिस्वरूपा है । वही शिवतत्त्वके आश्रित रहनेवाली पराशक्ति कही गयी है ॥ ४-५ ॥ ज्ञानशक्तिसमायोगादिच्छोपोद्बलिका तथा । सर्वशक्तिसमष्ट्यात्मा शक्तितत्त्वसमाख्यया ॥ ६ ॥ समस्तकार्यजातस्य मूलप्रकृतितां गता । सैव कुण्डलिनी माया शुद्धाध्वपरमा सती ॥ ७ ॥ ज्ञानशक्तिके संयोगसे वही इच्छाकी उपोबलिका (उसे दृढ़ करनेवाली) होती है । वह सम्पूर्ण शक्तियोंकी समष्टिरूपा है । वही शक्तितत्त्वके नामसे विख्यात हो समस्त कार्यसमूहकी मूल प्रकृति मानी गयी है । उसीको कुण्डलिनी कहा गया है । वही विशुद्धाध्वपरा सत्तामयी माया है ॥ ६-७ ॥ सा विभागस्वरूपैव षडध्वात्मा विजृंभते । तत्र शब्दास्त्रयोऽध्वानस्त्रयश्चार्थाः समीरिताः ॥ ८ ॥ सर्वेषामपि वै पुंसां नैजशुद्ध्यनुरूपतः । लयभोगाधिकाराः स्युः सर्वतत्त्वविभागतः ॥ ९ ॥ वह स्वरूपतः विभागरहित होती हुई भी छ: अध्वाओंके रूपमें विस्तारको प्राप्त होती है । उन छ: अध्वाओंमेंसे तीन तो शब्दरूप हैं और तीन अर्थरूप बताये गये हैं । सभी पुरुषोंको आत्मशुद्धिके अनुरूप सम्पूर्ण तत्त्वोंके विभागसे लय और भोगके अधिकार प्राप्त होते हैं ॥ ८-९ ॥ कलाभिस्तानि तत्त्वानि व्याप्तान्येव यथातथम् । परस्याः प्रकृतेरादौ पञ्चधा परिणामतः ॥ १० ॥ कलाश्च ता निवृत्त्याद्याः पर्याप्ता इति निश्चयः । मन्त्राध्वा च पदाध्वा च वर्णाध्वा चेति शब्दतः ॥ ११ ॥ भुवनाध्वा च तत्त्वाध्वा कलाध्वा चार्थतः क्रमात् । अत्रान्योऽन्यं च सर्वेषां व्याप्यव्यापकतोच्यते ॥ १२ ॥ वे सम्पूर्ण तत्त्व कलाओंद्वारा यथायोग्य व्याप्त हैं । परा प्रकृतिके जो आदिमें पाँच प्रकारके परिणाम होते हैं, वे ही निवृत्ति आदि कलाएँ हैं । मन्त्राध्या, पदाध्वा और वर्णावा-ये तीन अध्वा शब्दसे सम्बन्ध रखते हैं तथा भुवनाध्वा, तत्त्वाध्वा और कलाध्या-ये तीन अर्थसे सम्बन्ध रखनेवाले हैं । इन सबमें भी परस्पर व्याप्यव्यापक भाव बताया जाता है । १०-१२ ॥ मन्त्राः सर्वैः पदैर्व्याप्ता वाक्यभावात्पदानि च । वर्णैर्वर्णसमूहं हि पदमाहुर्विपश्चितः ॥ १३ ॥ वर्णास्तु भुवनैर्व्याप्तास्तेषां तेषूपलंभनात् । भुवनान्यपि तत्त्वौघैरुत्पत्त्यान्तर्बहिष्क्रमात् ॥ १४ ॥ सम्पूर्ण मन्त्र पदोंसे व्याप्त हैं; क्योंकि वे वाक्यरूप हैं । सम्पूर्ण पद भी वर्णोसे व्याप्त हैं; क्योंकि विद्वान् पुरुष वर्गों के समूहको ही पद कहते हैं । वे वर्ण भी भुवनोंसे व्याप्त हैं; क्योंकि उन्हींमें उनकी उपलब्धि होती है । भुवन भी तत्त्वोंके समूहद्वारा बाहर-भीतरसे व्याप्त हैं; क्योंकि उनकी उत्पत्ति ही तत्वोंसे हुई है ॥ १३-१४ ॥ व्याप्तानि कारणैस्तत्त्वैरारब्धत्वादनेकशः । अन्तरादुत्थितानीह भुवनानि तु कानिचित् ॥ १५ ॥ पौराणिकानि चान्यानि विज्ञेयानि शिवागमे । सांख्ययोगप्रसिद्धानि तत्त्वान्यपि च कानिचित् ॥ १६ ॥ उन कारणभूत तत्त्वोंसे ही उनका आरम्भ हुआ है । अनेक भुवन उनके अन्दरसे ही प्रकट हुए हैं । उनमेंसे । कुछ तो पुराणों में प्रसिद्ध हैं । अन्य भुवनोंका ज्ञान शिवसम्बन्धी आगमसे प्राप्त करना चाहिये । कुछ तत्त्व सांख्य और योगशास्त्रोंमें भी प्रसिद्ध हैं । १५-१६ ॥ शिवशास्त्रप्रसिद्धानि ततोऽन्यान्यपि कृत्स्नशः । कलाभिस्तानि तत्त्वानि व्याप्तान्येव यथातथम् ॥ १७ ॥ परस्याः प्रकृतेरादौ पञ्चधा परिणामतः । कलाश्च ता निवृत्त्याद्या व्याप्ताः पञ्च यथोत्तरम् ॥ १८ ॥ शिवशास्त्रोंमें प्रसिद्ध तथा दूसरे-दूसरे भी जो तत्त्व हैं, वे सब-के-सब कलाओंद्वारा यथायोग्य व्याप्त हैं । परा प्रकृतिके जो आदिकालमें पाँच परिणाम हुए, वे ही निवृत्ति आदि कलाएँ हैं । वे पाँच कलाएँ उत्तरोत्तर तत्त्वोंसे व्याप्त हैं ॥ १७-१८ ॥ व्यापिकातः परा शक्तिरविभक्ता षडध्वनाम् । परप्रकृतिभावस्य तत्सत्त्वाच्छिवतत्त्वतः ॥ १९ ॥ शक्त्यादि च पृथिव्यन्तं शिवतत्त्वसमुद्भवम् । व्याप्तमेकेन तेनैव मृदा कुंभादिकं यथा ॥ २० ॥ अतः परा शक्ति सर्वत्र व्यापक है । वह विभागरहित होकर भी छ: अध्वाओंके रूपमें विभक्त है । परप्रकृतिका शिवतत्त्वसे सम्बन्ध होनेपर शक्तिसे लेकर पृथ्वीतत्त्वपर्यन्त सम्पूर्ण तत्त्वोंका प्रादुर्भाव शिवतत्त्वसे हुआ है । अतः जैसे घड़े आदि मिट्टीसे व्याप्त हैं, उसी प्रकार वे सारे तत्त्व एकमात्र शिवसे ही व्याप्त हैं ॥ १९-२० ॥ शैवं तत्परमं धाम यत्प्राप्यं षड्भिरध्वभिः । व्यापिकाऽव्यापिका शक्तिः पञ्चतत्त्वविशोधनात् ॥ २१ ॥ निवृत्त्या रुद्रपर्यन्तं स्थितिरण्डस्य शोध्यते । प्रतिष्ठया तदूर्ध्वं तु यावदव्यक्तगोचरम् ॥ २२ ॥ जो छ: अध्वाओंसे प्राप्त होनेवाला है, वही शिवका परम धाम है । पाँच तत्त्वोंके शोधनसे व्यापिका और अव्यापिका शक्ति जानी जाती है । निवृत्तिकलाके द्वारा रुद्रलोकपर्यन्त ब्रह्माण्डकी स्थितिका शोधन होता है । प्रतिष्ठा-कलाद्वारा उससे भी ऊपर जहाँतक अव्यक्तकी सीमा है, वहाँतकका शोधन किया जाता है । २१-२२ ॥ तदूर्ध्वं विद्यया मध्ये यावद्विश्वेश्वरावधि । शान्त्या तदूर्ध्वं मध्वान्ते विशुद्धिः शान्त्यतीतया ॥ २३ ॥ यामाहुः परमं व्योम परप्रकृतियोगतः । मध्यवर्तिनी विद्या-कलाद्वारा उससे भी ऊपर विद्येश्वरपर्यन्त स्थानका शोधन होता है । शान्ति-कलाद्वारा उससे भी ऊपरके स्थानका तथा शान्त्यतीता-कलाके द्वारा अध्वाके अन्ततकका शोधन हो जाता है । उसीको परप्रकृतिके योगके कारण 'परम व्योम' कहा गया है ॥ २३ १/२ ॥ एतानि पञ्चतत्त्वानि यैर्व्याप्तमखिलं जगत् ॥ २४ ॥ अत्रैव सर्वमेवेदं द्रष्टव्यं खलु साधकैः । अध्वव्याप्तिमविज्ञाय शुद्धिं यः कर्तुमिच्छति ॥ २५ ॥ स विप्रलम्भकः शुद्धेर्नालं प्रापयितुं फलम् । वृथा परिश्रमस्तस्य निरयायैव केवलम् ॥ २६ ॥ ये पाँच तत्त्व बताये गये, जिनसे सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है । वहीं साधकोंको यह सब कुछ देखना चाहिये; जो अध्वाकी व्याप्तिको न जानकर शोधन करना चाहता है, वह शुद्धिसे वंचित रह जाता है, उसके फलको नहीं पा सकता । उसका सारा परिश्रम व्यर्थ, केवल नरककी ही प्राप्ति करानेवाला होता है ॥ २४-२६ ॥ शक्तिपातसमायोगादृते तत्त्वानि तत्त्वतः । तद्व्याप्तिस्तद्विवृद्धिश्च ज्ञातुमेवं न शक्यते ॥ २७ ॥ शक्तिराज्ञा परा शैवी चिद्रूपा परमेश्वरी । शिवोऽधितिष्ठत्यखिलं यया कारणभूतया ॥ २८ ॥ शक्तिपातका संयोग हुए बिना तत्त्वोंका ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो सकता । उनकी व्याप्ति और वृद्धिका ज्ञान भी असम्भव है । शिवकी जो चित्स्वरूपा परमेश्वरी परा शक्ति है, वही आज्ञा है । उस कारणरूपा आज्ञाके सहयोगसे ही शिव सम्पूर्ण विश्वके अधिष्ठाता होते हैं । २७-२८ ॥ नात्मनो नैव मायैषा न विकारो विचारतः । न बन्धो नापि मुक्तिश्च बन्धमुक्तिविधायिनी ॥ २९ ॥ सर्वैश्वर्यपराकाष्ठा शिवस्यव्यभिचारिणी । समानधर्मिणी तस्य तैस्तैर्भावैर्विशेषतः ॥ ३० ॥ विचारदृष्टिसे देखा जाय तो आत्मामें कभी विकार नहीं होता । यह विकारकी प्रतीति मायामात्र है । न तो बन्धन है और न उस बन्धनसे छुटकारा दिलानेवाली कोई मुक्ति है । शिवकी जो अव्यभिचारिणी पराशक्ति है, वही सम्पूर्ण ऐश्वर्यकी पराकाष्ठा है । वह उन्हींके समान धर्मवाली है और विशेषतः उनके उन-उन विलक्षण भावोंसे युक्त है । २९-३० ॥ स तयैव गृही सापि तेनैव गृहिणी सदा । तयोरपत्यं यत्कार्यं परप्रकृतिजं जगत् ॥ ३१ ॥ स कर्ता कारणं सेति तयोर्भेदो व्यवस्थितः । एक एव शिवः साक्षाद् द्विधाऽसौ समवस्थितः ॥ ३२ ॥ उसी शक्तिके साथ शिव गृहस्थ बने हुए हैं और वह भी सदा उन शिवके ही साथ उनकी गृहिणी बनकर रहती है । जो पराप्रकृतिजन्य जगत्-रूप कार्य है, वही उन शिव-दम्पतीकी संतान है । शिव कर्ता हैं और शक्ति कारण । यही उन दोनोंका भेद है । वास्तवमें एकमात्र साक्षात् शिव ही दो रूपोंमें स्थित हैं ॥ ३१-३२ ॥ स्त्रीपुंसभावेन तयोर्भेद इत्यपि केचन । अपरे तु परा शक्तिः शिवस्य समवायिनी ॥ ३३ ॥ प्रभेव भानोश्चिद्रूपा भिन्नैवेति व्यवस्थितिः । तस्माच्छिवः परो हेतुस्तस्याज्ञा परमेश्वरी ॥ ३४ ॥ कुछ लोगोंका कहना है कि स्त्री और पुरुषरूपमें ही उनका भेद है । अन्य लोग कहते हैं कि पराशक्ति शिवमें नित्य समवेत है । जैसे प्रभा सूर्यसे भिन्न नहीं है, उसी प्रकार चित्स्वरूपिणी पराशक्ति शिवसे अभिन्न ही है । यही सिद्धान्त है अतः शिव परम कारण हैं, उनकी आज्ञा ही परमेश्वरी है । ३३-३४ ॥ तयैव प्रेरिता शैवी मूलप्रकृतिरव्यया । महामाया च माया च प्रकृतिस्त्रिगुणेति च ॥ ३५ ॥ त्रिविधा कार्यभेदेन सा प्रसूते षडध्वनः । स वागर्थमयश्चाध्वा षड्विधो निखिलं जगत् ॥ ३६ ॥ अस्यैव विस्तरं प्राहुः शास्त्रजातमशेषतः ॥ ३७ ॥ उसी कारणसे प्रेरित होकर शिवकी अविनाशी मूल प्रकृति कार्यभेदसे महामाया, माया और त्रिगुणात्मिका प्रकृति-इन तीन रूपोंमें स्थित हो छः अध्वाओंको प्रकट करती है । वह छ: प्रकारका अध्वा वागर्थमय है, वही सम्पूर्ण जगत्के रूपमें स्थित है; सभी शास्त्रसमूह इसी भावका विस्तारसे प्रतिपादन करते हैं ॥ ३५-३७ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे वागर्थकतत्त्ववर्णनं नामैकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें वागर्धात्मकतत्ववर्णन नामक उनतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २९ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |