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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
वायवीयसंहिता
॥ त्रिंशोऽध्यायः ॥ शिवतत्त्वप्रश्नः
ऋषियोंका शिवतत्त्वविषयक प्रश्न ऋषय ऊचुः चरितानि विचित्राणि गृह्याणि गहनानि च । दुर्विज्ञेयानि देवैश्च मोहयन्ति मनांसि नः ॥ १ ॥ ऋषिगण बोले-शिवजीके चरित्र अद्भुत, गोपनीय, गहन तथा देवताओंद्वारा भी दुर्विज्ञेय हैं, वे हम सभीके मनको मोहित कर देते हैं ॥ १ ॥ शिवयोस्तत्त्वसम्बन्धे न दोष उपलभ्यते । चरितैः प्राकृतो भावस्तयोरपि विभाव्यते ॥ २ ॥ शिव और शिवाके [विचित्र] चरित्रोंके आधारपर भले ही लौकिकताको प्रतीति हो, पर वस्तुत: उनके नित्य सम्बन्धमें किसी भी दोषकी कल्पना नहीं की जा सकती ॥ २ ॥ ब्रह्मादयोऽपि लोकानां सृष्टिस्थित्यन्तहेतवः । निग्रहानुग्रहौ प्राप्य शिवस्य वशवर्तिनः ॥ ३ ॥ शिवः पुनर्न कस्यापि निग्रहानुग्रहास्पदम् । अतोऽनायत्तमैश्वर्यं तस्यैवेति विनिश्चितम् ॥ ४ ॥ लोकोंके सृजन, पालन तथा संहारके कारणस्वरूप ब्रह्मा आदि भी निग्रह-अनुग्रहको प्राप्त करते हुए शिवके वशमें रहते हैं । शिवजी किसीके भी निग्रह तथा अनुग्रहपर आश्रित नहीं हैं, अतः उनका ऐश्वर्य भी किसीके द्वारा प्रदत्त या कहींसे आया हुआ नहीं हैयह सुनिश्चित है ॥ ३-४ ॥ यद्येवमीदृशैश्वर्यं तत्तु स्वातन्त्र्यलक्षणम् । / स्वभावसिद्धं चैतस्य मूर्तिमत्तास्पदं भवेत् ॥ ५ ॥ अगर शिवजीका ऐश्वर्य इस प्रकारका है तो उसे स्वाभाविक रूपसे नित्यसिद्ध स्वतन्त्रताका ज्ञापक समझना चाहिये, जबकि ऐसा नहीं है । क्योंकि नित्य स्वतन्त्र सत्ता आकारके अधीन कैसे हो सकती है ? ॥ ५ ॥ न मूर्तिश्च स्वतन्त्रस्य घटते मूलहेतुना । मूर्तेरपि च कार्यत्वात्तत्सिद्धिः स्यादहैतुकी ॥ ६ ॥ स्वतन्त्र सत्ताका मूर्तिपरतन्त्र होना सिद्ध नहीं होता, क्योंकि वह तो [सभीका] मूल कारण है, जबकि मूर्ति तो कार्य अथवा उत्पाद्य है, ऐसी स्थितिमें मूर्तिको भी हेतुरहित या नित्य मानना पड़ेगा ॥ ६ ॥ सर्वत्र परमो भावोऽपरमश्चान्य उच्यते । परमापरमौ भावौ कथमेकत्र सङ्गतौ ॥ ७ ॥ परमभाव तथा उसे पृथक् अपरमभाव-इन दो भावोंकी सर्वत्र चर्चा की जाती है । [ये दोनों ही भाव परस्पर विरुद्ध होनेसे भिन्न-भिन्न आधारोंका आश्रय लेते हैं । ऐसी दशामें परम तथा अपरमभावकी स्थिति एक ही अधिकरण अर्थात् भगवान् शिवमें कैसे संगत हो सकती है ? ॥ ७ ॥ निष्फलो हि स्वभावोऽस्य परमः परमात्मनः । स एव सकलः कस्मात्स्वभावो ह्यविपर्ययः ॥ ८ ॥ परमात्माका परम स्वभाव निष्कल कहा गया है तो फिर वह सकल किस प्रकार हो गया; क्योंकि स्वभावमें तो किसी भी प्रकार विपरीतता होती नहीं है ॥ ८ ॥ स्वभावो विपरीतश्चेत्स्वतन्त्रः स्वेच्छया यदि । न करोति किमीशानो नित्यानित्यविपर्ययम् ॥ ९ ॥ यदि कदाचित् 'परमात्मा अपनी इच्छासे स्व स्वभावसे विपरीत स्वभाववाला भी हो सकता है' ऐसा कहें तो वह ऐश्वर्यशाली परमात्मा नित्यानित्यविपर्यय क्यों नहीं कर देता अर्थात् नित्यको अनित्य तथा अनित्यको नित्य क्यों नहीं बना देता ? ॥ ९ ॥ मूर्तात्मा सकलः कश्चित्स चान्यो निष्फलः शिवः । शिवेनाधिष्ठितश्चेति सर्वत्र लघु कथ्यते ॥ १० ॥ यदि यह कहा जाय कि सकलस्वरूप मूात्मा कोई और है तथा निष्कलस्वरूप शिव उससे भिन्न कोई अन्य तत्त्व है तो फिर निश्चयपूर्वक यह क्यों कहा जाता है कि सर्वत्र शिव ही अधिष्ठित हैं अर्थात् उनसे भिन्न किसी अन्य तत्त्वकी अधिष्ठान सत्ता नहीं है ? ॥ १० ॥ ? मूर्त्यात्मैव तदा मूर्तिः शिवस्यास्य भवेदिति । तस्य मूर्तौ मूर्तिमतोः पारतन्त्र्यं हि निश्चितम् ॥ ११ ॥ यदि ये कहें कि मूात्मा वस्तुतः उन शिवकी अभिव्यक्तिमात्र है तो फिर उस मूर्ति [के माध्यम]-से [शिवके अभिव्यक्त होनेके कारण] निश्चय ही उन मूर्तिमान् शिवकी परतन्त्रता सिद्ध हो जायगी ॥ ११ ॥ अन्यथा निरपेक्षेण मूर्तिः स्वीक्रियते कथम् । मूर्तिस्वीकरणं तस्मान्मूर्तौ साध्यफलेप्सया ॥ १२ ॥ यदि शिव [ अभिव्यक्तिके लिये] मूर्तिके परतन्त्र न होते तो उन निरपेक्षके द्वारा मूर्तिको स्वीकार ही क्यों किया जाता ? इससे यह सिद्ध होता है कि मूर्तिसे सिद्ध होनेवाले प्रयोजनकी ही कामनासे शिव मूर्तिको स्वीकार करते हैं ॥ १२ ॥ न हि स्वेच्छाशरीरत्वं स्वातन्त्र्यायोपपद्यते । स्वेच्छैव तादृशी पुंसां यस्मात्कर्मानुसारिणी ॥ १३ ॥ स्वेच्छासे शरीर धारण करना [परमात्माके] स्वातन्त्र्यको सिद्ध करनेवाला हेतु भी नहीं माना जा सकता; क्योंकि अन्य पुरुषोंमें भी कर्मका अनुसरण करनेवाली वैसी ही स्वेच्छा देखी जाती है ? ॥ १३ ॥ स्वीकर्तुं स्वेच्छया देहं हातुं च प्रभवन्त्युत । ब्रह्मादयः पिशाचान्ताः किं ते कर्मातिवर्तिनः ॥ १४ ॥ अपनी इच्छासे [कर्मानुसार] देह धारण करने तथा उसका त्याग करनेमें ब्रह्मासे लेकर पिशाचपर्यन्त [सभी प्राणी] समर्थ हैं तो क्या उनको कर्मका अतिक्रमण करनेवाला मान लिया जाय ? ॥ १४ ॥ इच्छया देहनिर्माणमिन्द्रजालोपमं विदुः । अणिमादिगुणैश्वर्यवशीकारानतिक्रमात् ॥ १५ ॥ [अपनी] इच्छासे देहनिर्माण तो इन्द्रजालके समान कहा गया है, अणिमा आदि सिद्धियोंको वशमें करनेसे ही यह सम्भव है ॥ १५ ॥ विश्वरूपं दधद्विष्णुर्दधीचेन महर्षिणा । युध्यता समुपालब्धस्तद्रूपं दधता स्वयम् ॥ १६ ॥ [महाराज क्षुपकी ओरसे] युद्ध करते हुए भगवान् विष्णुने जब विश्वरूप दिखाकर दधीचको स्तब्ध करना चाहा, तब महर्षि दधीचने स्वयं भी विष्णुका रूप धारणकर उनकी वंचना की ॥ १६ ॥ सर्वस्मादधिकस्यापि शिवस्य परमात्मनः । शरीरवत्तयान्यात्मसाधर्म्यं प्रतिभाति नः ॥ १७ ॥ हमलोगोंको तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सबसे उत्कृष्ट होकर भी जब परमात्मा शिव शरीर धारण करते हैं तो वे [निश्चय ही] अन्य प्राणियोंके समान हैं ॥ १७ ॥ सर्वानुग्राहकं प्राहुः शिवं परमकारणम् । स निर्गृह्णाति देवानां सर्वानुग्राहकः कथम् ॥ १८ ॥ परम कारण शिवको सबपर अनुग्रह करनेवाला कहा गया है । वे देवताओंका निग्रह भी करते हैं, तो फिर वे सबपर अनुग्रह करनेवाले कैसे हैं ? ॥ १८ ॥ चिच्छेद बहुशो देवो ब्रह्मणः पञ्चमं शिरः । शिवनिन्दां प्रकुर्वन्तं पुत्रेति कुमतेर्हठात् ॥ १९ ॥ विष्णोरपि नृसिंहस्य रभसा शरभाकृतिः । बिभेद पद्भ्यामाक्रम्य हृदयं नखरैः खरैः ॥ २० ॥ दुर्बुद्धिवश शिवको पुत्र मानकर पुनः-पुन: निन्दामें तत्पर हुए ब्रह्माजीके पाँचवें सिरको शिवने काट डाला था । शरभरूपधारी शिवने शीघ्रतापूर्वक अपने पैरोंसे आक्रमण करके नृसिंहरूपवाले विष्णुके हृदयको तीक्ष्ण नाखूनोंसे विदीर्ण कर दिया था ॥ १९-२० ॥ देवस्त्रीषु च देवेषु दक्षस्याध्वरकारणात् । वीरेण वीरभद्रेण न हि कश्चिददण्डितः ॥ २१ ॥ दक्षके यज्ञमें भाग लेनेके कारण देवस्त्रियों तथा देवताओंमें ऐसा कोई नहीं था, जो पराक्रमी वीरभद्रके द्वारा दण्डित नहीं किया गया हो ॥ २१ ॥ पुरत्रयं च सस्त्रीकं सदैत्यं सह बालकैः । क्षणेनैकेन देवेन नेत्राग्नेरिन्धनीकृतम् ॥ २२ ॥ शिवजीने स्त्रियों, दैत्यों तथा बालकासहित त्रिपुरको एक क्षणमें अपने नेत्रकी अग्निसे जला दिया था ॥ २२ ॥ प्रजानां रतिहेतुश्च कामो रतिपतिः स्वयम् । क्रोशतामेव देवानां हुतो नेत्रहुताशने ॥ २३ ॥ गावश्च कश्चिद्दुग्धौघं स्रवन्त्यो मूर्ध्नि खेचराः । सरुषा प्रेक्ष्य देवेन तत्क्षणे भस्मसात्कृताः ॥ २४ ॥ प्रजाओंकी [उत्पत्ति तथा स्त्री-पुरुषोंकी पारस्परिक] रतिके हेतुस्वरूप रतिपति कामदेव देवताओंके चीखनेचिल्लानेपर भी शिवजीकी नेत्राग्निमें भस्म हो गये थे । उनके सिरपर दुग्धधारा गिराती हुई कुछ आकाशचारिणी गायोंको भी प्रभु शिवने क्रोधपूर्वक देखकर उसी क्षण भस्म कर दिया था ॥ २३-२४ ॥ जलन्धरासुरो दीर्णश्चक्रीकृत्य जलं पदा । बद्ध्वानन्तेन यो विष्णुं चिक्षेप शतयोजनम् ॥ २५ ॥ तमेव जलसन्धायी शूलेनैव जघान सः । तच्चक्रं तपसा लब्ध्वा लब्धवीर्यो हरिः सदा ॥ २६ ॥ जिसने शेषनाग [-को रजु बनाकर उस]-से विष्णुको बाँधकर उन्हें सौ योजन दूर फेंक दिया था, उस जलन्धरासुरको [शिवजीने] अपने चरणसे जलको चक्राकृति बनाकर भयभीत कर दिया । जलमें स्थित हुए शिवजीने उस दैत्यको त्रिशूलसे मार डाला । तपस्या करके भगवान् शिवसे [उनके सुदर्शन नामक] चक्रको प्राप्तकर विष्णु भगवान् सदाके लिये [अपूर्व] पराक्रमी हो गये ॥ २५-२६ ॥ जिघांसतां सुरारीणां कुलं निर्घृणचेतसाम् । त्रिशूलेनान्धकस्योरः शिखिनैवोपतापितम् ॥ २७ ॥ शिवजीने हिंसाके लिये दयारहित देवशत्रुओंके कुल तथा अन्धक दैत्यके हृदयको त्रिशूलकी अग्निसे सन्तप्त कर दिया था । ॥ २७ ॥ कण्ठात्कालाङ्गनां सृष्ट्वा दारकोऽपि निपातितः । कौशिकीं जनयित्वा तु गौर्यास्त्वक्कोशगोचराम् ॥ २८ ॥ शुंभः सह निशुंभेन प्रापितो मरणं रणे । कण्ठसे कृष्णवर्णा नारीको उत्पन्न करके उन्होंने दारुकका संहार कराया और गौरीके त्वचाकोशमें [अव्यक्त रूपसे] विद्यमान कौशिकीका प्रादुर्भाव कराके युद्धमें निशुम्भसहित शुम्भका वध कराया ॥ २८-१/२ ॥ श्रुतं च महदाख्यानं स्कान्दे स्कन्दसमाश्रयम् ॥ २९ ॥ वधार्थे तारकाख्यस्य दैत्येन्द्रस्येन्द्रविद्विषः । ब्रह्मणाभ्यर्थितो देवो मन्दरान्तःपुरं गतः ॥ ३० ॥ कार्तिकेयसे सम्बन्धित महान् आख्यान स्कन्दपुराणमें सुना गया है । इन्द्रके शत्रु तारक नामक दैत्यराजके वधके लिये ब्रह्माजीने मन्दराचलपर अन्तःपुरमें शिवजीसे प्रार्थना की थी ॥ २९-३० ॥ विहृत्य सुचिरं देव्या विहारातिप्रसङ्गतः । रसां रसातलं नीतामिव कृत्वाभिधां ततः ॥ ३१ ॥ देवीं च वंचयंस्तस्यां स्ववीर्यमतिदुर्वहम् । अविसृज्य विसृज्याग्नौ हविः पूतमिवामृतम् ॥ ३२ ॥ [उस समय] शिवजी सुदीर्घकालतक भगवती पार्वतीके साथ [मन्दराचलपर] लीलाविहार करते रहे । उनके असाधारण लीला-प्रसंगोंसे ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो पृथ्वी रसातलको ही चली जायगी । उन्होंने लीलावश भगवतीकी वंचनाकर उनमें अपने तेजका आधान न करके उस दुर्वह तेजको अग्निमें पवित्र आज्य हविके समान विसर्जित कर दिया । ३१-३२ ॥ गङ्गादिष्वपि निक्षिप्य वह्निद्वारा तदंशतः । तत्समाहृत्य शनकैस्तोकं स्तोकमितस्ततः ॥ ३३ ॥ स्वाहया कृत्तिकारूपात्स्वभर्त्रा रममाणया । सुवर्णीभूतया न्यस्तं मेरौ शरवणे क्वचित् ॥ ३४ ॥ अग्निदेवने उस [शैव] तेजको अनेक अंशोंमें विभक्त करके गंगा आदि नदियोंमें डाल दिया । तदुपरान्त भगवती स्वाहाने कृत्तिकाओंका रूप धारण करके जहाँ-तहाँ अंशरूपसे विकीर्ण उस तेजको ग्रहण कर लिया । तदुपरान्त सुमेरुपर्वतपर अग्निदेवके साथ विहार करती हुई स्वर्णवर्णा स्वाहा देवीने उस तेजको वहीं सरकण्डोंके वनमें किसी स्थानपर स्थापित कर दिया ॥ ३३-३४ ॥ सन्दीपयित्वा कालेन तस्य भासा दिशो दश । रञ्जयित्वा गिरीन्सर्वान् कांचनीकृत्य मेरुणा ॥ ३५ ॥ ततश्चिरेण कालेन संजाते तत्र तेजसि । कुमारे सुकुमाराङ्गे कुमाराणां निदर्शने ॥ ३६ ॥ तच्छैशवं स्वरूपं च तस्य दृष्ट्वा मनोहरम् । सह देवसुरैर्लोकैर्विस्मिते च विमोहिते ॥ ३७ ॥ समय आनेपर वह तेज [अग्निके समान] प्रज्वलित हो उठा और उसने अपने प्रकाशसे दसों दिशाओंको मानो अनुरंजित-सा कर दिया तथा सुमेरुसहित [निकटवर्ती] सभी पर्वतोंको स्वर्णमय बना दिया । तत्पश्चात् दीर्घकालके बीतनेपर कुमारोंके सदृश सुकुमार देहवाला वह शिवपुत्र प्रादुर्भूत हुआ । उसके शैशवोचित मनोहर स्वरूपको देखकर देवताओं तथा असुर आदिके सहित सभी लोग आश्चर्यचकित एवं मुग्ध हो गये ॥ ३५-३७ ॥ देवोऽपि स्वयमायातः पुत्रदर्शनलालसः । सह देव्याङ्कमारोप्य ततोऽस्य स्मेरमाननम् ॥ ३८ ॥ पीतामृतमिवस्नेहविवशेनान्तरात्मना । उस समय पुत्रको देखनेकी अभिलाषा लिये हुए देवी पार्वतीके साथ स्वयं भगवान् शिव भी वहाँ आ पहुँचे । उन्होंने बालकको गोदमें बैठा लिया और उस मुसकराते हुए बालककी मुखमाधुरीको वे स्नेहविवश चित्तसे मानो अमृतके समान पीने लगे ॥ ३८ १/२ । । देवेष्वपि च पश्यत्सु वीतरागैस्तपस्विभिः ॥ ३९ ॥ स्वस्य वक्षःस्थले स्वैरं नर्तयित्वा कुमारकम् । अनुभूय च तत्क्रीडां संभाव्य च परस्परम् ॥ ४० ॥ स्तन्यमाज्ञापयन्देव्याः पाययित्वामृतोपमम् । तवावतारो जगतां हितायेत्यनुशास्य च ॥ ४१ ॥ स्वयं देवश्च देवी च न तृप्तिमुपजग्मतुः । वीतराग तपस्वियोंके साथ वहाँ उपस्थित देवताओंके समक्ष ही शिवजीने अपने वक्षःस्थलपर इच्छानुरूप बालकको नचाकर तथा उसकी बालकोचित क्रीडाओंके सुखका अनुभव करके देवी पार्वतीको दुग्धपान करानेके लिये संकेत किया, देवीने भी आदरसहित शिवजीकी आज्ञा मानकर उसे अमृतसदृश दुग्ध पिलाया । तदनन्तर उस बालकसे यह कहकर कि 'तुम्हारा आविर्भाव संसारके कल्याणके लिये हुआ है' भगवती पार्वती तथा स्वयं महादेव शंकर तृप्त नहीं हो सके । ३९-४१ १/२ ॥ ततः शक्रेण सन्धाय बिभ्यता तारकासुरात् ॥ ४२ ॥ कारयित्वाभिषेकं च सेनापत्ये दिवौकसाम् । पुत्रमन्तरतः कृत्वा देवेन त्रिपुरद्विषः ॥ ४३ ॥ स्वयमन्तर्हितेनैव स्कन्दमिन्द्रादिरक्षितम् । तच्छक्त्या क्रौञ्चभेदिन्या युधि कालाग्निकल्पया ॥ ४४ ॥ छेदितं तारकस्यापि शिरः शक्रभिया सह । स्तुतिं चक्रुर्विशेषेण हरिधातृमुखाः सुराः ॥ ४५ ॥ तदुपरान्त तारकासुरसे भयभीत इन्द्रके साथ परामर्श करके त्रिपुरारि शिवने [अपने पुत्रका] देवसेनापतिक पदपर अभिषेक करवाया । इन्द्र आदि देवताओंसे संरक्षित कुमार स्कन्दको सेनाके मध्यमें भेजकर शिवज अदृश्य होकर वहीं स्थित हो गये । उस युद्ध में कुमारने क्रौंच पर्वतको विदीर्ण करनेवाली प्रलयकालीन अग्निक समान (देदीप्यमान] उस शक्तिसे इन्द्रके भयके साथसाथ तारकासुरका मस्तक भी काट डाला । तब ब्रह्मा. विष्णु आदि देवताओंने कुमारका विशेष स्तवन किया ॥ ४२-४५ ॥ तथा रक्षोऽधिपः साक्षाद्रावणो बलगर्वितः । उद्धरन्स्वभुजैर्दीर्घैः कैलासं गिरिमात्मनः ॥ ४६ ॥ तदागोऽसहमानस्य देवदेवस्य शूलिनः । पदाङ्गुष्ठपरिस्पन्दान्ममज्ज मृदितो भुवि ॥ ४७ ॥ ऐसे ही अपने बलसे गर्वित होकर अपनी विशाल भुजाओंसे कैलासपर्वतको उठाने में लगा हुआ राक्षसराज साक्षात् रावण उस पापको सहन न करनेवाले देवदेव शिवके पैरके अँगूठेके स्पन्दनमात्रसे मसल दिया गया और भूमिमें चला गया ॥ ४६-४७ ॥ बटोः केनचिदर्थेन स्वाश्रितस्य गतायुषः । त्वरयागत्य देवेन पादान्तं गमितोन्तकः ॥ ४८ ॥ स्ववाहनमविज्ञाय वृषेन्द्रं वडवानलः । सगलग्रहमानीतस्ततोऽस्त्येकोदकं जगत् ॥ ४९ ॥ समाप्त हुई आयुवाले किसी वटुकने प्रयोजनवश शिवजीका आश्रय ग्रहण किया था । जब यमराजने उसके प्राणोंको हरण करना चाहा तो भगवान् शिवने शीघ्रतासे आ करके यमराजको पैरोंतले दबा लिया । [एक बार शिवजी] बडवानलको ही अपना वाहन वृषभ समझकर उसे गला पकड़ करके ले आये, जिसके कारण सारा संसार जलमय हो गया ॥ ४८-४/९ ॥ अलोकविदितैस्तैस्तैर्वृत्तैरानन्दसुन्दरैः । अङ्गहारक्रमेणेदमसकृच्चालितं जगत् ॥ ५० ॥ लोक जिन्हें जाननेमें समर्थ नहीं है, ऐसे आंगिक चेष्टाओंसे युक्त एवं आनन्द तथा सौन्दर्यसे परिपूर्ण नृत्ताभिनयोंक द्वारा अनेक बार शिवजीने जगत्को चलायमान कर दिया था ॥ ५० ॥ शान्त एव सदा सर्वमनुगृह्णाति चेच्छिवः । सर्वाणि पूरयेदेव कथं शक्तेन मोचयेत् ॥ ५१ ॥ अनादिकर्म वैचित्र्यमपि नात्र नियामकम् । कारणं खलु कर्मापि भवेदीश्वरकारितम् ॥ ५२ ॥ किमत्र बहुनोक्तेन नास्तिक्यं हेतुकारकम् । यथा ह्याशु निवर्तेत तथा कथय मारुत ॥ ५३ ॥ वायुदेव ! यदि शिव सदा शान्तभावसे रहकर ही सबपर अनुग्रह करते हैं तो सबकी अभिलाषाओंको एक साथ ही पूर्ण क्यों नहीं कर देते ? जो सब कुछ करनेमें समर्थ होगा, वह सबको एक साथ ही बन्धन-मुक्त क्यों नहीं कर सकेगा ? यदि कहें अनादिकालसे चले आनेवाले सबके विचित्र कर्म अलग-अलग हैं, अतः सबको एक समान फल नहीं मिल सकता तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि कौकी विचित्रता भी यहाँ नियामक नहीं हो सकती । कारण कि वे कर्म भी ईश्वरके करानेसे ही होते हैं । इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या लाभ । उपर्युक्तरूपसे विभिन्न युक्तियोंद्वारा फैलायी गयी नास्तिकता जिस प्रकारसे शीघ्र ही निवृत्त हो जाय, वैसा उपदेश दीजिये ॥ ५१-५३ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे शिवतत्त्वप्रश्नो नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें शिवतत्वविषयक प्रश्न नामक तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३० ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |