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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

वायवीयसंहिता

॥ एकत्रिंशोऽध्यायः ॥


ज्ञानोपदेशः
शिवजीकी सर्वेश्वरता, सर्वनियामकता तथा मोक्षप्रदताका निरूपण


वायुरुवाच
स्थाने संशयितं विप्रा भवद्भिर्हेतुचोदितैः ।
जिज्ञासा हि न नास्तिक्यं साधयेत्साधुबुद्धिषु ॥ १ ॥
प्रमणमत्र वक्ष्यामि सतां मोहनिवर्तकम् ।
असतां त्वन्यथाभावः प्रसादेन विना प्रभोः ॥ २ ॥
वायुदेवताने कहा-ब्राह्मणो ! आपलोगोंने युक्तियोंसे प्रेरित होकर जो संशय उपस्थित किया है, वह उचित ही है; क्योंकि किसी बातको जाननेकी इच्छा अथवा तत्त्वज्ञानके लिये उठाया गया प्रश्न साधु-बुद्धिवाले पुरुषोंमें नास्तिकताका उत्पादन नहीं कर सकता । मैं इस विषयमें ऐसा प्रमाण प्रस्तुत करूँगा, जो सत्पुरुषोंके मोहको दूर करनेवाला है । असत् पुरुषोंका जो अन्यथा भाव होता है, उसमें प्रभु शिवकी कृपाका अभाव ही कारण है । १-२ ॥

शिवस्य परिपूर्णस्य परानुग्रहमन्तरा ।
न किंचिदपि कर्तव्यमिति साधु विनिश्चितम् ॥ ३ ॥
स्वभाव एव पर्याप्तः परानुग्रहकर्मणि ।
अन्यथा निःस्वभवेन न किमप्यनुगृह्यते ॥ ४ ॥
परं सर्वमनुग्राह्यं पशुपाशात्मकं जगत् ।
परस्यानुग्रहार्थं तु पत्युराज्ञासमन्वयः ॥ ५ ॥
पतिराज्ञापकः सर्वमनुगृह्णाति सर्वदा ।
तदर्थमर्थस्वीकारे परतन्त्रः कथं शिवः ॥ ६ ॥
परिपूर्ण परमात्मा शिवके परम अनुग्रहके बिना कुछ भी कर्तव्य नहीं है, ऐसा निश्चय किया गया है । परानुग्रह कर्ममें स्वभाव ही पर्याप्त (पूर्णतः समर्थ) है, अन्यथा निःस्वभाव पुरुष किसीपर भी अनुग्रह नहीं कर सकता । पशु और पाशरूप सारा जगत् ही पर कहा गया है । वह अनुग्रहका पात्र है । परको अनुगृहीत करनेके लिये पतिकी आज्ञाका समन्वय आवश्यक है । पति आज्ञा देनेवाला है, वही सदा सबपर अनुग्रह करता है । उस अनुग्रहके लिये ही आज्ञा-रूप अर्थको स्वीकार करनेपर शिव परतन्त्र कैसे कहे जा सकते हैं ? ॥ ३-६ ॥

अनुग्राह्यनपेक्षोऽस्ति न हि कश्चिदनुग्रहः ।
अतः स्वातन्त्र्यशब्दार्थाननपेक्षत्वलक्षणः ॥ ७ ॥
एतत्पुनरनुग्राह्यं परतन्त्रं तदिष्यते ।
अनुग्रहाद् ऋते तस्य भुक्तिमुक्त्योरनन्वयात् ॥ ८ ॥
अनुग्राहककी अपेक्षा न रखकर कोई भी अनुग्रह सिद्ध नहीं हो सकता । अतः स्वातन्त्र्य-शब्दके अर्थकी अपेक्षा न रखना ही अनुग्रहका लक्षण है । जो अनुग्राहा है, वह परतन्त्र माना जाता है; क्योंकि पतिके अनुग्रहके बिना उसे भोग और मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती ॥ ७-८ ॥

मूर्तात्मनोऽप्यनुग्राह्या शिवाज्ञाननिवर्तनात् ।
अज्ञानाधिष्ठितं शम्भोर्न किंचिदिह विद्यते ॥ ९ ॥
येनोपलभ्यतेऽस्माभिः सकलेनापि निष्कलः ।
स मूर्त्यात्मा शिवः शैवमूर्तिरित्युपचर्यते ॥ १० ॥
जो मूात्मा हैं, वे भी अनुग्रहके पात्र हैं । क्योंकि उनसे भी शिवकी आज्ञाकी निवृत्ति नहीं होती-वे भी शिवकी आज्ञासे बाहर नहीं हैं । यहाँ कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो शिवकी आज्ञाके अधीन न हो । सकल (सगुण या साकार) होनेपर भी जिसके द्वारा हमें निष्कल (निर्गुण या निराकार) शिवकी प्राप्ति होती है, उस मूर्ति या लिंगके रूपमें साक्षात् शिव ही विराज रहे हैं । वह शिवकी मूर्ति है' यह बात तो उपचारसे कही जाती है ॥ ९-१० ॥

न ह्यसौ निष्कलः साक्षाच्छिवः परमकारणम् ।
साकारेणानुभावेन केनाप्यनुपलक्षितः ॥ ११ ॥
प्रमाणगम्यतामात्रं तत्स्वभावोपपादकम् ।
न तावतात्रोपेक्षाधीरुपलक्षणमन्तरा ॥ १२ ॥
जो साक्षात् निष्कल तथा परम कारणरूप शिव हैं, वे किसीके द्वारा भी साकार अनुभावसे उपलक्षित नहीं होते, ऐसी बात नहीं है । यहाँ प्रमाणगम्य होना उनके स्वभावका उपपादक नहीं है, प्रमाण अथवा प्रतीकमात्रसे अपेक्षा-बुद्धिका उदय नहीं होता । वे परम तत्त्वके उपलक्षणमात्र हैं, इसके सिवा उनका और कोई अभिप्राय नहीं है ॥ ११-१२ ॥

आत्मोपमोल्बणं साक्षान्मूर्तिरेव हि काचन ।
शिवस्य मूर्तिर्मूर्त्यात्मा परस्तस्योपलक्षणम् ॥ १३ ॥
यथा काष्ठेष्वनारूढो न वह्निरुपलभ्यते ।
एवं शिवोऽपि मूर्त्यात्मन्यनारूढ इति स्थितिः ॥ १४ ॥
कोई-न-कोई मूर्ति ही आत्माका साक्षात् उपलक्षण होती है । 'शिवकी मूर्ति है' इस कथनका अभिप्राय यह है कि उस मूर्तिके रूपमें परम शिव विराजमान हैं । मूर्ति उनका उपलक्षण है । जैसे काष्ठ आदि आलम्बनका आश्रय लिये बिना केवल अग्नि कहीं उपलब्ध नहीं होती, उसी प्रकार शिव भी मूात्मामें आरूढ़ हुए बिना उपलब्ध नहीं होते । यही वस्तुस्थिति है ॥ १३-१४ ॥

यथाग्निमानयेत्युक्ते ज्वलत्काष्ठादृते स्वयम् ।
नाग्निरानीयते तद्वत्पूज्यो मूर्त्यात्मना शिवः ॥ १५ ॥
अत एव हि पूजादौ मूर्त्यात्मपरिकल्पनम् ।
मूर्त्यात्मनि कृतं साक्षाच्छिव एव कृतं यतः ॥ १६ ॥
जैसे किसीसे यह कहनेपर कि 'तुम आग ले आओ' उसके द्वारा जलती हुई लकड़ी आदिके सिवा साक्षात् अग्नि नहीं लायी जाती, उसी प्रकार शिवका पूजन भी मूर्तिरूपमें ही हो सकता है, अन्यथा नहीं । इसीलिये पूजा आदिमें 'मूर्त्यात्मा' की परिकल्पना होती है; क्योंकि मूर्त्यात्माके प्रति जो कुछ किया जाता है, वह साक्षात् शिवके प्रति किया गया ही माना गया है ॥ १५-१६ ॥

लिङ्गादावपि तत्कृत्यमर्चायां च विशेषतः ।
तत्तन्मूर्त्यात्मभावेन शिवोऽस्माभिरुपास्यते ॥ १७ ॥
यथानुगृह्यते सोऽपि मूर्त्यात्मा पारमेष्ठिना ।
तथा मूर्त्यात्मनिष्ठेन शिवेन पशवो वयम् ॥ १८ ॥
लोकानुग्रहणायैव शिवेन परमेष्ठिना ।
सदाशिवादयः सर्वे मूर्त्यात्मनोऽप्यधिष्ठिताः ॥ १९ ॥
लिंग आदिमें, विशेषतः अर्चाविग्रहमें जो पूजनकृत्य होता है, वह भगवान् शिवका ही पूजन है । उन-उन मूर्तियोंके रूपमें शिवकी भावना करके हमलोग शिवकी ही उपासना करते हैं । जैसे परमेष्ठी शिव मूर्त्यात्मापर अनुग्रह करते हैं, उसी प्रकार मूात्मामें स्थित शिव हम पशुऑपर अनुग्रह करते हैं । परमेष्ठी शिवने लोकपर अनुग्रह करनेके लिये ही सदाशिव आदि सम्पूर्ण मूात्माओंको अधिष्ठितअपनी आज्ञामें रखकर अनुगृहीत किया है । १७-१९ ॥

आत्मनामेव भोगाय मोक्षाय च विशेषतः ।
तत्त्वातत्त्वस्वरूपेषु मूर्त्यात्मसु शिवान्वयः ॥ २० ॥
आत्माओं [जीवों]-के ही भोग तथा मोक्षके लिये विशेष रूपसे तात्त्विक तथा अतात्त्विक स्वरूपोंवाले मूर्त्यात्माओंमें शिवकी अवस्थिति देखी जाती है ॥ २० ॥

भोगः कर्मविपाकात्मा सुखदुःखात्मको मतः ।
न च कर्म शिवोऽस्तीति तस्य भोगः किमात्मकः ॥ २१ ॥
सर्वं शिवोऽनुगृह्णाति न निगृह्णाति किंचन ।
निगृह्णतां तु ये दोषाः शिवे तेषामसंभवात् ॥ २२ ॥
ये पुनर्निग्रहाः केचिद् ब्रह्मादिषु निदर्शिताः ।
तेऽपि लोकहितायैव कृताः श्रीकण्ठमूर्तिना ॥ २३ ॥
सुख-दुःखात्मक फलभोग तो किये गये कर्मोका ही परिणाम माना जाता है तो फिर कर्मफलोंका भोग किस प्रकार हो सकेगा ? भगवान् शिव सबपर अनुग्रह ही करते हैं, किसीका निग्रह नहीं करते, क्योंकि निग्रह करनेवाले लोगोंमें जो दोष होते हैं, वे शिवमें असम्भव हैं । ब्रह्मा आदिके प्रति जो निग्रह देखे गये हैं, वे भी श्रीकण्ठमूर्ति शिवके द्वारा लोकहितके लिये ही किये गये हैं ॥ २१-२३ ॥

ब्रह्माण्डस्याधिपत्यं हि श्रीकण्ठस्य न संशयः ।
श्रीकण्ठाख्यां शिवो मूर्तिं क्रीडतीमधितिष्ठति ॥ २४ ॥
सदोषा एव देवाद्या निगृहीता यथोदितम् ।
ततस्तेपि विपाप्मानः प्रजाश्चापि गतज्वराः ॥ २५ ॥
निग्रहोऽपि स्वरूपेण विदुषां न जुगुप्सितः ।
अत एव हि दण्ड्येषु दण्डो राज्ञां प्रशस्यते ॥ २६ ॥
भगवान् शंकर [संसारके नियमन आदिकी] क्रीडामें निरत श्रीकण्ठ नामक स्वरूपमें अधिष्ठित हैं और वह श्रीकण्ठमूर्ति ही इस ब्रह्माण्डपर अधिकार करके स्थित है, इसमें सन्देह नहीं है । अपराधयुक्त होनेके कारण देवगण भी [शिवजीके द्वारा] उचित रीतिसे अनुशासित किये गये थे, इससे वे पापरहित हो गये और प्रजाजनोंका क्लेश भी दूर हो गया । विद्वानोंकी दृष्टि में निग्रह भी स्वरूपसे दूषित नहीं है । (जब वह राग-द्वेषसे प्रेरित होकर किया जाता है, तभी निन्दनीय माना जाता है । ) इसीलिये दण्डनीय अपराधियोंको राजाओंकी ओरसे मिले हुए दण्डकी प्रशंसा की जाती है । २४-२६ ॥

यत्सिद्धिरीश्वरत्वेन कार्यवर्गस्य कृत्स्नशः ।
न स चेदीशतां कुर्याज्जगतः कथमीश्वरः ॥ २७ ॥
ईशेच्छा च विधातृत्वं विधेराज्ञापनं परम् ।
आज्ञावश्यमिदं कुर्यान्न कुर्यादिति शासनम् ॥ २८ ॥
जिन्होंने अपने ऐश्वर्यके द्वारा समस्त कार्योंको पूर्ण किया था, वे यदि अपने ऐश्वर्यको प्रकट न करें तो उन्हें संसार ईश्वर कैसे मानेगा ? भगवान् शिवकी इच्छा ही उनका विधानकर्तृत्व है और विधान उनकी सामर्थ्यशालिनी आज्ञा है । यह कर्तव्य है और यह कर्तव्य नहीं है' इस प्रकारके अनुशासनका नाम आज्ञा है ॥ २७-२८ ॥

तच्छासनानुवर्तित्वं साधुभावस्य लक्षणम् ।
विपरीतसमाधोः स्यान्न सर्वं तत्तु दृश्यते ॥ २९ ॥
साधु संरक्षणीयं चेद्विनिवर्त्यमसाधु यत् ।
निवर्तते च सामादेरन्ते दण्डो हि साधनम् ॥ ३० ॥
हितार्थलक्षणं चेदं दण्डान्तमनुशासनम् ।
अतो यद्विपरीतं तदहितं संप्रचक्षते ॥ ३१ ॥
जो लोग उनके इस अनुशासनका पालन करते हैं, वे ही साधुजन हैं तथा [शिवानुशासनसे] विपरीत आचरण करनेवाला असाधु कहलाता है । अतएव सभी लोग साधु नहीं हो पाते । यदि साधुकी रक्षा करनी है तो असाधुका निवारण करना ही होगा । पहले साम आदि तीन उपायोंसे असाधुके निवारणका प्रयत्ल किया जाता है । यदि यह प्रयत्न सफल नहीं हुआ तो अन्तमें चौथे उपाय दण्डका ही आश्रय लिया जाता है । यह दण्डान्त अनुशासन लोकहितके लिये ही किया जाना चाहिये । यही उसके औचित्यको परिलक्षित कराता है । यदि अनुशासन इसके विपरीत हो तो उसे अहितकर कहते हैं । २९-३१ ॥

हिते सदा निषण्णानामीश्वरस्य निदर्शनम् ।
स कथं दुष्यते सद्भिरसतामेव निग्रहात् ॥ ३२ ॥
जो सदा हितमें ही लगे रहनेवाले हैं, उन्हें ईश्वरका दृष्टान्त अपने सामने रखना चाहिये । (ईश्वर केवल दुष्टोंको ही दण्ड देते हैं, इसीलिये निर्दोष कहे जाते हैं । ) अतः जो दुष्टोंको ही दण्ड देता है, वह उस निग्रह-कर्मको लेकर सत्पुरुषोंद्वारा लांछित कैसे किया जा सकता है ? ॥ ३२ ॥

अयुक्तकारिणो लोके गर्हणीया विवेकिता ।
यदुद्वेजयते लोकं तदयुक्तं प्रचक्षते ॥ ३३ ॥
सर्वोऽपि निग्रहो लोके न च विद्वेषपूर्वकः ।
न हि द्वेष्टि पिता पुत्रं यो निगृह्याति शिक्षयेत् ॥ ३४ ॥
माध्यस्थेनापि निग्राह्यान्यो निगृह्णाति मार्गतः ।
तस्याप्यवश्यं यत्किंचिन्नैर्घृण्यमनुवर्तते ॥ ३५ ॥
अयुक्त अर्थात् अनुचित कर्म करनेवाले लोग विवेकी पुरुषके द्वारा गर्हित माने जाते हैं और जो कर्म लोगोंको उद्विग्न करता है, वह कर्म अयुक्त कहलाता है । लोकमें जहाँ कहीं भी निग्रह होता है, वह यदि विद्वेषपूर्वक न हो, तभी श्रेष्ठ माना जाता है । जो पिता पुत्रको दण्ड देकर उसे अधिक शिक्षित बनाता है, वह उससे द्वेष नहीं करता । तटस्थ भावसे जो व्यक्ति दण्डनीय लोगोंको अनुशासित करता है, उसमें भी यत्किंचित् कठोरता देखी ही जाती है ॥ ३३-३५ ॥

अन्यथा न हिनस्त्येव सदोषानप्यसौ परान् ।
हिनस्ति चायमप्यज्ञान्परं माध्यस्थ्यमाचरन् ॥ ३६ ॥
यदि उसमें कठोरता न हो तो वह अपराधी पुरुषोंको दण्डित ही कैसे करेगा, पर वह मध्यस्थ भावमें स्थित रहकर भी अज्ञ पुरुषोंको दण्डित करता है । ३६ ॥

तस्माद्दुःखात्मिकां हिंसां कुर्वाणो यः सनिर्घृणः ।
इति निर्बन्धयन्त्येके नियमो नेति चापरे ॥ ३७ ॥
इसलिये [भले ही वह मध्यस्थ भाववाला क्यों न हो, पर] दण्डित करता हुआ व्यक्ति निर्दय होता ही है-ऐसा कुछ लोग कहते हैं और दूसरे लोग कहते हैं कि ऐसा कोई [निश्चित] नियम नहीं है ॥ ३७ ॥

निदानज्ञस्य भिषजो रुग्णो हिंसां प्रयुञ्जतः ।
न किञ्चिदपि नैर्घृण्यं घृणैवात्र प्रयोजिका ॥ ३८ ॥
जिस प्रकार रोगके कारणको जाननेवाला वैद्य रोगीके प्रति निर्दयतापूर्ण व्यवहार करता हुआ भी [वस्तुतः] तनिक भी निर्दयी नहीं होता, अपितु उसका यह व्यवहार दयासे ही प्रेरित होता है ॥ ३८ ॥

घृणापि न गुणायैव हिंस्रेषु प्रतियोगिषु ।
तादृशेषु घृणी भ्रान्त्या घृणान्तरितनिर्घृणः ॥ ३९ ॥
उपेक्षापीह दोषाय रक्ष्येषु प्रतियोगिषु ।
शक्तौ सत्यामुपेक्षातो रक्ष्यः सद्यो विपद्यते ॥ ४० ॥
सर्पस्यास्यगतं पश्यन् यस्तु रक्ष्यमुपेक्षते ।
दोषाभासान्समुत्प्रेक्ष्य फलतः सोऽपि निर्घृणः ॥ ४१ ॥
हिंसाके लिये उद्यत शत्रुके प्रति की गयी दया उपकारिणी नहीं होती, यदि कदाचित् वैसे लोगोंके प्रति व्यक्ति भ्रमवश दयावान् हो भी जाय तो अन्ततोगत्वा उसे निर्दय होना ही पड़ता है । रक्षणीय व्यक्तिकी रक्षा न करना और दण्डनीय व्यक्तिको दण्ड न देना-यह दोनों ही प्रकारकी उपेक्षा दोषपूर्ण है । सामर्थ्यके होनेपर भी यदि रक्षणीय व्यक्तिकी रक्षा न की जाय तो शीघ्र ही रक्षणीय व्यक्तिका नाश हो जाता है । सकि मुखमें जाते हुए व्यक्तिको देखते हुए भी जो पुरुष दोषाभासोंका अनुमानकर उस रक्षणीय व्यक्तिकी उपेक्षा कर देता है, वस्तुतः वह भी निर्दय ही होता है ॥ ३९-४१ ॥

तस्माद् घृणा गुणायैव सर्वथेति न संमतम् ।
संमतं प्राप्तकामित्वं सर्वं त्वन्यदसम्मतम् ॥ ४२ ॥
इसलिये दया प्रत्येक समय कल्याणकारिणी ही होती है-ऐसा मानना उचित नहीं है । अतएव आवश्यकतानुरूप व्यवहार ही उचित है तथा उसके अतिरिक्त व्यवहार अनुचित कहा गया है ॥ ४२ ॥ ।

मूर्त्यात्मस्वपि रागाद्या दोषाः सन्त्येव वस्तुतः ।
तथापि तेषामेवैते न शिवस्य तु सर्वथा ॥ ४३ ॥
मूात्माओंमें भी राग आदि दोष होते ही हैं, पर वे दोष वस्तुत: उनके ही समझने चाहिये, [सर्वव्यापक होनेपर भी] शिवमें दोषोंकी स्थिति सर्वथा नहीं है ॥ ४३ ॥

अग्नावपि समाविष्टं ताम्रं खलु सकालिकम् ।
इति नाग्निरसौ दुष्येत्ताम्रसंसर्गकारणात् ॥ ४४ ॥
मलसे युक्त ताम्रका अग्निमें प्रक्षेप होनेपर भी वह अग्नि [समल] ताम्रके संसर्गसे मलिन नहीं होती ॥ ४४ ॥

नाग्नेरशुचिसंसर्गादशुचित्वमपेक्षते ।
अशुचेस्त्वग्निसंयोगाच्छुचित्वमपि जायते ॥ ४५ ॥
एवं शोध्यात्मसंसर्गान्न ह्यशुद्धः शिवो भवेत् ।
शिवसंसर्गतस्त्वेष शोध्यात्मैव हि शुध्यति ॥ ४६ ॥
अपवित्र वस्तुओंका संसर्ग होनेपर भी अग्निमें अपवित्रता नहीं देखी जाती, किंतु अग्निके संसर्गसे अपवित्र वस्तु पवित्र हो जाती है । इस प्रकार शुद्ध करनेयोग्य [मलावृत] जीवके संसर्गसे शिवजी अशुद्ध नहीं होते, अपितु उनके संसर्गसे अशुद्ध जीव शुद्ध हो जाता है । । ४५-४६ ॥

अयस्यग्नौ समाविष्टे दाहोऽग्नेरेव नायसः ।
मूर्तात्मन्येवमैश्वर्यमीश्वरस्यैव नात्मनाम् ॥ ४७ ॥
जैसे अग्निमें गिरे हुए लोहेमें जो दाहकता है, वह लोहेकी नहीं अपितु अग्निकी ही है, उसी प्रकार मात्मामें स्थित जो ऐश्वर्य है, वह वस्तुतः शिवका ही है, आत्माओं [मूात्मा]-का नहीं ॥ ४७ ॥

न हि काष्ठं ज्वलत्यूर्ध्वमग्निरेव ज्वलत्यसौ ।
काष्ठस्याङ्गारता नाग्नेरेवमत्रापि योज्यताम् ।
अत एव जगत्यस्मिन्काष्ठपाषाणमृत्स्वपि ॥ ४८ ॥
शिवावेशवशादेव शिवत्वमुपचर्यते ।
तैर्गुणैरुपरक्तानां दोषाय च गुणाय च ॥ ४९ ॥
काष्ठ कभी ऊपरकी ओर नहीं जलता अपितु अग्नि [-की शिखा] ही ऊपरकी ओर जलती है । इसी प्रकार काष्ठ ही अंगारके रूपमें देखा जाता है, न कि अग्निऐसा ही इस विषयमें भी समझ लेना चाहिये । इसलिये इस संसारमें भी काष्ठ, पाषाण, मृत्तिका आदिमें शिवकी व्याप्ति होनेके कारण उनका शिवरूपसे व्यवहार किया जाता है । मैत्री आदि गुण चित्तवृत्तिरूप होनेके कारण गौण कहे गये हैं । उन्हीं गुणोंसे उपरत होनेके कारण [जीवोंके] कर्म दोषयुक्त तथा गुणयुक्त हो जाते हैं । ४८-४९ ॥

यत्तु गौणमगौणं च तत्सर्वमनुगृह्णतः ।
न गुणाय न दोषाय शिवस्य गुणवृत्तयः ॥ ५० ॥
न चानुग्रहशब्दार्थं गौणमाहुर्विपश्चितः ।
संसारमोचनं किं तु शैवमाज्ञामयं हितम् ॥ ५१ ॥
ये गुणात्मक वृत्तियाँ चाहे प्रधान हों या अप्रधान हों, पर इससे अनुग्रहकर्ता भगवान् शिवमें न दोषकी स्थिति होती है और न गुणकी ही स्थिति होती है । अनुग्रह शब्दके तात्पर्यको विद्वानोंने लाक्षणिक नहीं कहा है, उनके मतमें यह अर्थ संसारबन्धनसे छुड़ानेवाला तथा कल्याणकारी शिवादेश है । ५०-५१ ॥

हितं तदाज्ञाकरणं यद्धितं तदनुग्रहः ।
सर्वं हिते नियुञ्जानः सर्वानुग्रहकारकः ॥ ५२ ॥
यस्तूपकारशब्दार्थस्तमप्याहुरनुग्रहम् ।
तस्यापि हितरूपत्वाच्छिवः सर्वोपकारकः ॥ ५३ ॥
हिते सदा नियुक्तं तु सर्वं चिदचिदात्मकम् ।
स्वभावप्रतिबन्धं तत्समं न लभते हितम् ॥ ५४ ॥
शिवकी आज्ञाका पालन ही हित है और जो हित है, वही उनका अनुग्रह है । अतएव सबको हितमें नियुक्त करनेवाले शिव सबपर अनुग्रह करनेवाले कहे गये हैं । जो 'उपकार' शब्दका अर्थ है, उसे भी अनुग्रह ही कहा गया है । क्योंकि उपकार भी हितरूप ही होता है । अतः सबका उपकार करनेवाले शिव सर्वानुग्राहक हैं । शिवके द्वारा जड़-चेतन सभी सदा हितमें ही नियुक्त होते हैं । परंतु सबको जो एक साथ और एक समान हितकी उपलब्धि नहीं होती, इसमें उनका स्वभाव ही प्रतिबन्धक है । ५२-५४ ॥

यथा विकासयत्येव रविः पद्मानि भानुभिः ।
समं न विकसत्येव स्वस्वभावानुरोधतः ॥ ५५ ॥
स्वभावोऽपि हि भावानां भाविनोऽर्थस्य कारणम् ।
न हि स्वभावो नश्यन्तमर्थं कर्तृषु साधयेत् ॥ ५६ ॥
सुवर्णमेव नाङ्गारं द्रावयत्यग्निसङ्गमः ।
एवं पक्वमलानेव मोचयेन्न शिवः परान् ॥ ५७ ॥
जैसे सूर्य अपनी किरणोंद्वारा सभी कमलोंको विकासके लिये प्रेरित करते हैं, परंतु वे अपने-अपने स्वभावके अनुसार एक साथ और एक समान विकसित नहीं होते, स्वभाव भी पदार्थोके भावी अर्थका कारण होता है, किंतु वह नष्ट होते हुए अर्थको कर्ताओंके लिये सिद्ध नहीं कर सकता । जैसे अग्निका संयोग सुवर्णको ही पिघलाता है, कोयले या अंगारको नहीं, उसी प्रकार भगवान् शिव परिपक्व मलवाले पशुओंको ही बन्धनमुक्त करते हैं, दूसरोंको नहीं ॥ ५५-५७ ॥

यद्यथा भवितुं योग्यं तत्तथा न भवेत्स्वयम् ।
विना भावनया कर्ता स्वतन्त्रः सन्ततो भवेत् ॥ ५८ ॥
जो वस्तु जैसी होनी चाहिये, वैसी वह स्वयं नहीं बनती । वैसी बननेके लिये कर्ताको भावनाका सहयोग होना आवश्यक है । कर्ताकी भावनाके बिना ऐसा होना सम्भव नहीं है, अतः कर्ता सदा स्वतन्त्र होता है । ५८ ॥

स्वभावविमलो यद्वत्सर्वानुग्राहकः शिवः ।
स्वभावमलिनास्तद्वदात्मनो जीवसंज्ञिताः ॥ ५९ ॥
अन्यथा संसरन्त्येते नियमान्न शिवः कथम् ।
कर्ममायानुबन्धोऽस्य संसारः कथ्यते बुधैः ॥ ६० ॥
अनुबन्धोऽयमस्यैव न शिवस्येति हेतुमान् ।
स हेतुरात्मनामेव निजो नागन्तुको मलः ॥ ६१ ॥
आगन्तुकत्वे कस्यापि भाव्यं केनापि हेतुना ।
योऽयं हेतुरसावेकस्त्वविचित्रस्वभावतः ॥ ६२ ॥
सबपर अनुग्रह करनेवाले शिव जिस तरह स्वभावसे ही निर्मल हैं, उसी तरह 'जीव' संज्ञा धारण करनेवाली आत्माएँ स्वभावतः मलिन होती हैं । यदि ऐसी बात न होती तो वे जीव क्यों नियमपूर्वक संसारमें भटकते और शिव क्यों संसार-बन्धनसे परे रहते ? विद्वान् पुरुष कर्म और मायाके बन्धनको ही जीवका 'संसार' कहते हैं । यह बन्धन जीवको ही प्राप्त होता है, शिवको नहीं । इसमें कारण है, जीवका स्वाभाविक मल । वह कारणभूत मल जीवोंका अपना स्वभाव ही है, आगन्तुक नहीं है । यदि आगन्तुक होता तो किसीको भी किसी भी कारणसे बन्धन प्राप्त हो जाता । जो यह हेतु है, वह एक है; क्योंकि सब जीवोंका स्वभाव एक-सा है ॥ ५९-६२ ॥

आत्मतायाः समत्वेऽपि बद्धा मुक्ताः परे यतः ।
बद्धेष्वेव पुनः केचिल्लयभोगाधिकारतः ॥ ६३ ॥
ज्ञानैश्वर्यादिवैषम्यं भजन्ते सोत्तराधराः ।
केचिन्मूर्त्यात्मतां यान्ति केचिदासन्नगोचराः ॥ ६४ ॥
। यद्यपि सबमें एक-सा आत्मभाव है, तो भी मलके परिपाक और अपरिपाकके कारण कुछ जीव बद्ध हैं और कुछ बन्धनसे मुक्त हैं । बद्ध जीवोंमें भी कुछ लोग लय और भोगके अधिकारके अनुसार उत्कृष्ट और निकृष्ट होकर ज्ञान और ऐश्वर्य आदिकी विषमताको प्राप्त होते हैं अर्थात् कुछ लोग अधिक ज्ञान और ऐश्वर्यसे युक्त होते हैं तथा कुछ लोग कम । कोई मूात्मा होते हैं और कोई साक्षात् शिवके समीप विचरनेवाले होते हैं । ६३-६४ ॥

मूर्त्यात्मसु शिवाः केचिदध्वनां मूर्धसु स्थिताः ।
मध्ये महेश्वरा रुद्रास्त्वर्वाचीनपदे स्थिताः ॥ ६५ ॥
मूात्माओंमें भी कोई तो शिवस्वरूप हो छहों अध्वाओंके ऊपर स्थित होते हैं, कोई अध्वाओंके मध्यमार्गमें महेश्वर होकर रहते हैं और कोई निम्नभागमें रुद्ररूपसे स्थित होते हैं ॥ ६५ ॥

आसन्नेऽपि च मायायाः परस्मात्कारणात्त्रयम् ।
तत्राप्यात्मा स्थितोऽधस्तादन्तरात्मा च मध्यतः ॥ ६६ ॥
परस्तात्परमात्मेति ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।
वर्तन्ते वसवः केचित्परमात्मपदाश्रयाः ॥ ६७ ॥
अन्तरात्मपदे केचित्केचिदात्मपदे तथा ।
शिवके समीपवर्ती स्वरूपमें भी मायासे परे होनेके कारण उत्कृष्ट, मध्यम और निकृष्टके भेदसे तीन श्रेणियाँ होती हैं-वहाँ निम्न स्थानमें आत्माको स्थिति है, मध्यम स्थानमें अन्तरात्माकी स्थिति है और जो सबसे उत्कृष्ट श्रेणीका स्थान है, उसमें परमात्माकी स्थिति है । ये ही क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर कहलाते हैं । कोई पशु (जीव) परमात्मपदका आश्रय लेनेवाले होते हैं, कोई अन्तरात्मपदपर और आत्मपदपर प्रतिष्ठित होते हैं । ६६-६७.५ ॥

शान्त्यतीतपदे शैवाः शान्ते माहेश्वरे ततः ॥ ६८ ॥
विद्यायां तु यथा रौद्राः प्रतिष्ठायां तु वैष्णवाः ।
निवृत्तौ च तथात्मानो ब्रह्मा ब्रह्माङ्गयोनयः ॥ ६९ ॥
शैव शान्त्यतीत पदका तथा माहेश्वरगण शान्तिपदका सेवन करते हैं । विद्यापदमें रौद्रगण एवं प्रतिष्ठापदमें वैष्णव स्थितिलाभ करते हैं । निवृत्तिपदमें ब्रह्माजी तथा उनके शरीरसे उत्पन्न दिव्यात्माएँ निवास करती हैं । ६८-६९ ॥

देवयोन्यष्टकं मुख्यं मानुष्यमथ मध्यमम् ।
पक्ष्यादयोऽधमाः पञ्च योनयस्ताश्चतुर्दश ॥ ७० ॥
अष्टविध देवयोनियाँ प्रधान मानी गयी है, मनुष्ययोनि मध्यम हैं और पंचविध पशुयोनियाँ अधम कही गयी हैं । इस प्रकार ये चौदह योनियाँ कही गयी हैं । ७० ॥

उत्तराधरभावोऽपि ज्ञेयः संसारिणो मलः ।
यथाऽऽमभावो मुक्तस्य पूर्वं पश्चात्तु पक्वता ॥ ७१ ॥
मलोऽप्यामश्च पक्वश्च भवेत्संसारकारणम् ।
संसारी जीवका उत्कृष्ट तथा अपकृष्ट भाव ही वस्तुतः उसका स्वाभाविक मल कहा गया है, जिस प्रकार खायी गयी भोज्य वस्तुकी पूर्वावस्थाको आम कहते हैं और खानेके उपरान्त उसी वस्तुकी पक्व संज्ञा हो जाती है । उसी प्रकार मल भी पक्व और आमके भेदसे दो प्रकारका होता है, यह द्विविध मल ही [जन्ममरणादिरूप] संसारका कारण होता है ॥ ७१ १/२ ॥

आमे त्वधरता पुंसां पक्वे तूत्तरता क्रमात् ॥ ७२ ॥
पश्वात्मानस्त्रिधा भिन्ना एकद्वित्रिमलाः क्रमात् ।
अत्रोत्तरा एकमला द्विमला मध्यमा मताः ।
त्रिमलास्त्वधमा ज्ञेया यथोत्तरमधिष्ठिताः ॥ ७३ ॥
त्रिमलानधितिष्ठन्ति द्विमलैकमलाः क्रमात् ।
इत्थमौपाधिको भेदो विश्वस्य परिकल्पितः ॥ ७४ ॥
अपक्व मल जीवगणोंकी अधोगतिका कारण होता है और पक्व मल उनकी क्रमशः ऊर्ध्वगतिका कारण बनता है । ये पशु जीवात्मा एक, दो तथा तीन मलोंसे युक्त होते हैं । एक मलसे युक्त जीव यहाँ श्रेष्ठ कहा गया है, दो मलोंवाला मध्यम तथा तीन मलवाला जीव अधम कहा गया है । ये मलावृत जीव उत्तरोत्तर अधिष्ठित हैं । तीन मलवालोंपर दो मलवाले तथा उनपर एक मलवाले अधिष्ठित होते हैं । इस प्रकार मलरूप उपाधिके कारण संसारी जीवॉका भेद परिकल्पित किया गया है । ७२-७४ । ।

एकद्वित्रिमलान्सर्वाञ्छिव एकोऽधितिष्ठति ।
अशिवात्मकमप्येतच्छिवेनाधिष्ठितं यथा ॥ ७५ ॥
अरुद्रात्मकमित्येवं रुद्रैर्जगदधिष्ठितम्
अण्डान्ता हि महाभूमिः शतरुद्राद्यधिष्ठिता ॥ ७६ ॥
मायान्तमन्तरिक्षं तु ह्यमरेशादिभिः क्रमात् ।
अङ्गुष्ठमात्रपर्यन्तैः समन्तात्सन्ततं ततम् । ॥ ७७ ॥
एक, दो तथा तीन मलवाले सभी जीवोंपर एकमात्र भगवान् शिवका आधिपत्य है । यह जगत् जिस प्रकार अशिवात्मक अर्थात् अभद्र होकर भी शिवसे अधिष्ठित है, उसी प्रकार अरुद्रात्मक होकर भी रुद्रोंद्वारा अधिष्ठित होता है । [समस्त] ब्रह्माण्डात्मिका यह महाभूमि शतरुद्र आदिके द्वारा अधिष्ठित है तथा उनसे अधिष्ठित यह महाभूमि मायासे आवेष्टित और अन्तरिक्षसे निरन्तर आवृत तथा अंगुष्ठमात्र परिमाणवाले अमरेशादि देवगणोंसे अधिष्ठित है । । ७५-७७ ॥

महामायावसाना द्यौर्वाय्वाद्यैर्भुवनाधिपैः ।
अनाश्रितान्तैरध्वान्तर्वर्तिभिः समधिष्ठिताः ॥ ७८ ॥
ते हि साक्षाद्दिविषदस्त्वन्तरिक्षसदस्तथा
पृथिवीषद इत्येवं देवा देवव्रतैः स्तुता ॥ ७९ ॥
महामायापर्यन्त यह धुलोक वाम आदि भुवनपतियोंके द्वारा अधिष्ठित है तथा साक्षात् सम्बन्ध न होनेपर भी [पूर्वोक्त] षडध्वाके अन्तर्वर्ती देवगणोंसे भी अधिष्ठित है । वामादि दिविषद, अमरेशादि अन्तरिक्षसद् तथा शतरुद्रादि पृथिवीषद्-इन देवगणोंका देवोपासक [मुनिगण] सर्वदा स्तवन करते रहते हैं । ७८-७९ ॥

एवं त्रिभिर्मलैरामैः पक्वैरेव पृथक्पृथक् ।
निदानभूतैः संसाररोगः पुंसां प्रवर्तते ॥ ८० ॥
संसाररोगके कारणभूत, [अल्प पक्व,] पक्व तथा अपक्व-इन तीनों मलोंके द्वारा मनुष्य [जन्म-मरणरूप] संसाररोगसे ग्रस्त होते हैं ॥ ८० ॥

अस्य रोगस्य भैषज्यं ज्ञानमेव न चापरम् ।
भिषगाज्ञापकः शम्भुः शिवः परमकारणम् ॥ ८१ ॥
इस संसाररोगकी औषधि ज्ञानके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है । कल्याणस्वरूप, परमकारण भगवान शिव ही आज्ञारूप औषधि प्रदान करनेवाले वैद्य हैं । ८१ ॥

अदुःखेनाऽपि शक्तोऽसौ पशून्मोचयितुं शिवः ।
कथं दुःखं करोतीति नात्र कार्या विचारणा ॥ ८२ ॥
दुःखमेव हि सर्वोऽपि संसार इति निश्चितम् ।
कथं दुःखमदुःखं स्यात्स्वभावो ह्यविपर्ययः ॥ ८३ ॥
भगवान् शिव तो अनायास ही समस्त पशुओंको बन्धनसे मुक्त करनेमें समर्थ हैं । फिर वे उन्हें बन्धनमें डाले रखकर क्यों दुःख देते हैं ? यहाँ ऐसा विचार या संदेह नहीं करना चाहिये; क्योंकि सारा संसार दुःखरूप ही है, ऐसा विचारवानोंका निश्चित सिद्धान्त है । जो स्वभावतः दुःखमय है, वह दु:खरहित कैसे हो सकता है । स्वभावमें उलट-फेर नहीं हो सकता ॥ ८२-८३ ॥

न हि रोगी ह्यरोगी स्याद्भिषग्भैषज्यकारणात् ।
रोगार्तं तु भिषग्रोगाद्भैषजैः सुखमुद्धरेत् ॥ ८४ ॥
एवं स्वभावमलिनान्स्वभावाद्दुःखिनः पशून् ।
स्वाज्ञौषधविधानेन दुःखान्मोचयते शिवः ॥ ८५ ॥
न भिषक् कारणं रोगे शिवः संसारकारणम् ।
इत्येतदपि वैषम्यं न दोषायास्य कल्पते ॥ ८६ ॥
दुःखे स्वभावसंसिद्धे कथन्तत्कारणं शिवः ।
स्वाभाविको मलः पुंसां स हि संसारयत्यमून् ॥ ८७ ॥
वैद्यकी दवासे रोग अरोग नहीं होता । वह रोगपीड़ित मनुष्यका अपनी दवासे सुखपूर्वक उद्धार कर देता है । इसी प्रकार जो स्वभावतः मलिन और स्वभावसे ही दुखी हैं, उन पशुओंको अपनी आज्ञारूपी ओषधि देकर शिव दुःखसे छुड़ा देते हैं । रोग होने में वैद्य कारण नहीं है, परंतु संसारकी उत्पत्तिमें शिव कारण हैं । अत: रोग और वैद्यके दृष्टान्तसे शिव और संसारके दार्टान्तमें समानता नहीं है । इसलिये इसके द्वारा शिवपर दोषारोपण नहीं किया जा सकता । जब दुःख स्वभाव-सिद्ध है, तब शिव उसके कारण कैसे हो सकते हैं ? जीवोंमें जो स्वाभाविक मल है, वही उन्हें संसारके चक्रमें डालता है । ८४-८७ ॥

संसारकारणं यत्तु मलं मायाद्यचेतनम् ।
तत्स्वयं न प्रवर्तेत शिवसान्निध्यमन्तरा ॥ ८८ ॥
यथा मणिरयस्कान्तः सान्निध्यादुपकारकः ।
अयसश्चलतस्तद्वच्छिवोऽप्यस्येति सूरयः ॥ ८९ ॥
विद्वानोंका कहना है कि संसारका कारणभूत जो मल-अचेतन माया आदि है, वह शिवका सांनिध्य प्राप्त किये बिना स्वयं चेष्टाशील नहीं हो सकता । जैसे चुम्बकमणि लोहेका सांनिध्य पाकर ही उपकारक होता है-लोहेको खींचता है, उसी प्रकार शिव भी जड माया आदिका सांनिध्य पाकर ही उसके उपकारक होते हैं, उसे सचेष्ट बनाते हैं । ८८-८९ ॥

न निवर्तयितुं शक्यं सान्निध्यं सदकारणम् ।
अधिष्ठाता ततो नित्यमज्ञातो जगतः शिवः ॥ ९० ॥
न शिवेन विना किंचित्प्रवृत्तमिह विद्यते ।
तत्प्रेरितमिदं सर्वं तथापि न स मुह्यति ॥ ९१ ॥
उनके विद्यमान सांनिध्यको अकारण हटाया नहीं जा सकता । अतः जगत्के लिये जो सदा अज्ञात हैं, वे शिव ही इसके अधिष्ठाता हैं । शिवके बिना यहाँ कोई भी प्रवृत्त (चेष्टाशील) नहीं होता, उनकी आज्ञाके बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता । उनसे प्रेरित होकर ही यह सारा जगत् विभिन्न प्रकारकी चेष्टाएँ करता है, तथापि वे शिव कभी मोहित नहीं होते ॥ ९०-९१ ॥

शक्तिराज्ञात्मिका तस्य नियन्त्री विश्वतोमुखी ।
तया ततमिदं शश्वत्तथापि स न दुष्यति ॥ ९२ ॥
अनिदं प्रथमं सर्वमीशितव्यं स ईश्वरः ।
ईशनाच्च तदीयाज्ञा तथापि स न दुष्यति ॥ ९३ ॥
उनकी आज्ञारूपिणी जो शक्ति है, वही सबका नियन्त्रण करती है । उसका सब ओर मुख है । उसीने सदा इस सम्पूर्ण दृश्यप्रपंचका विस्तार किया है, तथापि उसके दोषसे शिव दूषित नहीं होते । यह समस्त जगत् शिवसे प्रेरित होता है, किंतु इससे शिवका स्वस्वरूप विकृत नहीं होता । प्रेरणा अथवा शासनका कार्य शिवकी आज्ञाके द्वारा सम्पन्न होता है ॥ ९२-९३ ॥

योऽन्यथा मन्यते मोहात्स विनष्यति दुर्मतिः ।
तच्छक्तिवैभवादेव तथापि स न दुष्यति ॥ ९४ ॥
जो दुर्बुद्धि मानव मोहवश इसके विपरीत मान्यता रखता है, वह नष्ट हो जाता है । शिवकी शक्तिके वैभवसे ही संसार चलता है तथापि इससे शिव दूषित नहीं होते ॥ ९४ ॥

एतस्मिन्नन्तरे व्योम्नः श्रुताः वागरीरिणी ।
सत्यमोममृतं सौम्यमित्याविरभवत्स्फुटम् ॥ ९५ ॥
ततो हृष्टतराः सर्वे विनष्टाशेषसंशयाः ।
मुनयो विस्मयाविष्टाः प्रेणेमुः पवनं प्रभुम् ॥ ९६ ॥
तथा विगतसन्देहान्कृत्वापि पवनो मुनीन् ।
नैते प्रतिष्ठितज्ञाना इति मत्वैवमब्रवीत् ॥ ९७ ॥
इसी समय आकाशसे शरीररहित वाणी सुनायी दी-'सत्यम् ओम् अमृतं सौम्यम्'* इन पदोंका वहाँ स्पष्ट उच्चारण हुआ, उसे सुनकर सब लोग बहुत प्रसन्न हुए । उनके समस्त संशयोंका निवारण हो गया तथा उन मुनियोंने विस्मित हो प्रभु पवनदेवको प्रणाम किया । इस प्रकार उन मुनियोंको संदेहरहित करके भी वायुदेवने यह नहीं माना कि इन्हें पूर्ण ज्ञान हो गया । इनका ज्ञान अभी प्रतिष्ठित नहीं हुआ है' ऐसा समझकर ही वे इस प्रकार बोले- ॥ ९५-९७ ॥

वायुरुवाच्व
परोक्षमपरोक्षं च द्विविधं ज्ञानमिष्यते ।
परोक्षमस्थिरं प्राहुरपरोक्षं तु सुस्थिरम् ॥ ९८ ॥
हेतूपदेशगम्यं यत्तत्परोक्षं प्रचक्षते ।
अपरोक्षं पुनः श्रेष्ठादनुष्ठानाद्भविष्यति ॥ ९९ ॥
नापरोक्षादृते मोक्ष इति कृत्वा विनिश्चयम् ।
श्रेष्ठानुष्ठानसिद्ध्यर्थं प्रयतध्वमतन्द्रिताः ॥ १०० ॥
वायुदेवताने कर-मुनियो ! परोक्ष और अपरोक्षके भेदसे ज्ञान दो प्रकारका माना गया है । परोक्ष ज्ञानको अस्थिर कहा जाता है और अपरोक्ष ज्ञानको सुस्थिर । युक्तिपूर्ण उपदेशसे जो ज्ञान होता है, उसे विद्वान् पुरुष परोक्ष कहते हैं । वही श्रेष्ठ अनुष्ठानसे अपरोक्ष हो जायगा । अपरोक्ष ज्ञानके बिना मोक्ष नहीं होता, ऐसा निश्चय करके तुमलोग आलस्यरहित हो श्रेष्ठ अनुष्ठानकी सिद्धिके लिये प्रयत्न करो ॥ ९८-१०० ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे ज्ञानोपदेशो नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें ज्ञानोपदेश नामक इकतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३१ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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