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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
वायवीयसंहिता
॥ द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ श्रेष्ठानुष्ठानवर्णनम्
परम धर्मका प्रतिपादन, शैवागमके अनुसार पाशुपत ज्ञान तथा उसके साधनोंका वर्णन ऋषय ऊचुः किं तच्छ्रेष्टमनुष्ठानं मोक्षो येनपरोक्षितः । तत्तस्य साधनं चाद्य वक्तुमर्हसि मारुत ॥ १ ॥ ऋषियोंने पूछा-वायुदेव ! वह कौन-सा श्रेष्ठ अनुष्ठान है, जो मोक्षस्वरूप ज्ञानको अपरोक्ष कर देता है ? उसको और उसके साधनोंको आज आप हमें बतानेकी कृपा करें ॥ १ ॥ वायुरुवाच शैवो हि परमो धर्मः श्रेष्ठानुष्ठानशब्दितः । यत्रापरोक्षो लक्ष्येत साक्षान्मोक्षप्रदः शिवः ॥ २ ॥ वायुने कहा-भगवान् शिवका बताया हुआ जो परम धर्म है, उसीको श्रेष्ठ अनुष्ठान कहा गया है । उसके सिद्ध होनेपर साक्षात् मोक्षदायक शिव अपरोक्ष हो जाते हैं ॥ २ ॥ स तु पञ्चविधो ज्ञेयः पञ्चभिः पर्वभिः क्रमात् । क्रियातपोजपध्यानज्ञानात्मभिरनुत्तरैः ॥ ३ ॥ तैरेव सोत्तरैः सिद्धो धर्मस्तु परमो मतः । परोक्षमपरोक्षं च ज्ञानं यत्र च मोक्षदम् ॥ ४ ॥ वह परम धर्म पाँचों पोंके कारण क्रमशः पाँच प्रकारका जानना चाहिये । उन पर्वोके नाम हैं-क्रिया, तप, जप, ध्यान और ज्ञान । ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं, उन उत्कृष्ट साधनोंसे सिद्ध हुआ धर्म परम धर्म माना गया है । जहाँ परोक्ष ज्ञान भी अपरोक्ष ज्ञान होकर मोक्षदायक होता है ॥ ३-४ ॥ परमोऽपरमश्चोभौ धर्मौ हि श्रुतिचोदितौ । धर्मशब्दाभिधेयेऽर्थे प्रमाणं श्रुतिरेव नः ॥ ५ ॥ परमो योगपर्यन्तो धर्मः श्रुतिशिरोगतः । धर्मस्त्वपरमस्तद्वदधः श्रुतिमुखोत्थितः ॥ ६ ॥ वैदिक धर्म दो प्रकारके बताये गये हैं-परम और अपरम । 'धर्म' शब्दसे प्रतिपाद्य अर्थमें हमारे लिये श्रुति ही प्रमाण है । योगपर्यन्त जो परम धर्म है, वह श्रुतियोंके शिरोभूत उपनिषद्में वर्णित है और जो अपरम धर्म है, वह उसकी अपेक्षा नीचे श्रुतिके मुख-भागसे अर्थात् संहिता-मन्त्रोंद्वारा प्रतिपादित हुआ है ॥ ५-६ ॥ अपश्वात्माधिकारत्वाद्यो धमः परमो मतः । साधारणस्ततोऽन्यस्तु सर्वेषामधिकारतः ॥ ७ ॥ स चायं परमो धर्मः परधर्मस्य साधनम् । धर्मशास्त्रादिभिः सम्यक् साङ्ग एवोपबृंहितः ॥ ८ ॥ जिसमें पशु (बद्ध) जीवोंका अधिकार नहीं है, वह वेदान्तवर्णित धर्म 'परम धर्म' माना गया है । उससे भिन्न जो यज्ञ-यागादि हैं, उसमें सबका अधिकार होनेसे वह साधारण या 'अपरम धर्म' कहलाता है । जो अपरम धर्म है, वही परम धर्मका साधन है । धर्मशास्त्र आदिके द्वारा उसका सम्यक् रूपसे विस्तारपूर्वक सांगोपांग निरूपण हुआ है ॥ ७-८ ॥ शैवो यः परमो धर्मः श्रेष्ठानुष्ठानशब्दितः । इतिहासपुराणाभ्यां कथंचिदुपबृंहितः ॥ ९ ॥ शैवागमैस्तु संपन्नः सहाङ्गोपाङ्गविस्तरः । तत्संस्काराधिकारैश्च सम्यगेवोपबृंहितः ॥ १० ॥ भगवान् शिवके द्वारा प्रतिपादित जो परम धर्म है, उसीका नाम श्रेष्ठ अनुष्ठान है । इतिहास और पुराणोंद्वारा उसका किसी प्रकार विस्तार हुआ है, परंतु शैवशास्त्रोंद्वारा उसके विस्तारका सांगोपांग निरूपण किया गया है । वहीं उसके स्वरूपका सम्यक् रूपसे प्रतिपादन हुआ है । साथ ही उसके संस्कार और अधिकार भी सम्यक् रूपसे विस्तारपूर्वक बताये गये हैं ॥ ९-१० ॥ शैवागमो हि द्विविधः श्रौतोऽश्रौतश्च संस्कृतः । श्रुतिसारमयः श्रौतः स्वतन्त्र इतरो मतः ॥ ११ ॥ स्वतन्त्रो दशधा पूर्वं तथाष्टादशधा पुनः । कामिकादिसमाख्याभिः सिद्धः सिद्धान्तसंज्ञितः ॥ १२ ॥ शैव-आगमके दो भेद हैं-ौत और अश्रौत । जो श्रुतिके सार तत्त्वसे सम्पन्न है, वह संस्कारसम्पन्न श्रौत है; और जो स्वतन्त्र है, वह अश्रौत माना गया है । स्वतन्त्र शैवागम पहले दस प्रकारका था, फिर अठारह प्रकारका हुआ । वह कामिका आदि संज्ञाओंसे सिद्ध होकर सिद्धान्त नाम धारण करता है । । ११-१२ ॥ श्रुतिसारमयो यस्तु शतकोटिप्रविस्तरः । परं पाशुपतं यत्र व्रतं ज्ञानं च कथ्यते ॥ १३ ॥ युगावर्तेषु शिष्येत योगाचार्यस्वरूपिणा । तत्र तत्रावतीर्णेन शिवेनैव प्रवर्त्यते ॥ १४ ॥ श्रुतिसारमय जो शैव-शास्त्र है, उसका विस्तार सौ करोड़ श्लोकोंमें किया गया है । उसीमें उत्कृष्ट 'पाशुपत व्रत' और 'पाशुपत ज्ञान' का वर्णन किया गया है । युगयुगमें होनेवाले शिष्योंको उसका उपदेश देनेके लिये भगवान् शिव स्वयं ही योगाचार्यरूपसे जहाँ-तहाँ अवतीर्ण हो उसका प्रचार करते हैं ॥ १३-१४ ॥ संक्षिप्यास्य प्रवक्तारश्चत्वारः परमर्षय । रुरुर्दधीचोऽगस्त्यश्च उपमन्युर्महायशाः ॥ १५ ॥ ते च पाशुपता ज्ञेयाः संहितानां प्रवर्तकाः । तत्सन्ततीया गुरवः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ १६ ॥ इस शैव-शास्त्रको संक्षिप्त करके उसके सिद्धान्तका प्रवचन करनेवाले मुख्यत: चार महर्षि है-रुरु, दधीच, अगस्त्य और महायशस्वी उपमन्यु । उन्हें संहिताओंका प्रवर्तक 'पाशुपत' जानना चाहिये । उनकी संतानपरम्परामें सैकड़ों-हजारों गुरुजन हो चुके हैं । १५-१६ ॥ तत्रोक्तः परमो धर्मश्चर्याद्यात्मा चतुर्विधः । तेषु पाशुपतो योगः शिवं प्रत्यक्षयेद् दृढम् ॥ १७ ॥ तस्माच्छ्रेष्ठमनुष्ठानं योगरह्मः पाशुपतो मतः । तत्राप्युपायको युक्तो ब्रह्मणा स तु कथ्यते ॥ १८ ॥ पाशुपत सिद्धान्तमें जो परम धर्म बताया गया है, वह चर्या* आदि चार पादोंके कारण चार प्रकारका माना गया है । उन चारोंमें जो पाशुपत योग है, वह दृढ़तापूर्वक शिवका साक्षात्कार करानेवाला है । इसलिये पाशुपत योग ही श्रेष्ठ अनुष्ठान माना गया है । उसमें भी ब्रह्माजीने जो उपाय बताया है, उसका वर्णन किया जाता है ॥ १७-१८ ॥ नामाष्टकमयो योगः शिवेन परिकल्पितः । तेन योगेन सहसा शैवी प्रज्ञा प्रजायते ॥ १९ ॥ प्रज्ञया परमं ज्ञानमचिराल्लभते स्थिरम् । प्रसीदति शिवस्तस्य यस्य ज्ञानं प्रतिष्ठितम् ॥ २० ॥ भगवान् शिवके द्वारा परिकल्पित जो 'नामाष्टकमय योग' है, उसके द्वारा सहसा 'शैवी प्रज्ञा' का उदय होता है । उस प्रज्ञाद्वारा पुरुष शीघ्र ही सुस्थिर परम ज्ञान प्राप्त कर लेता है । जिसके हृदयमें वह ज्ञान प्रतिष्ठित हो जाता है, उसके ऊपर भगवान् शिव प्रसन्न होते हैं । १९-२० ॥ प्रसादात्परमो योगो यः शिवं चापरोक्षयेत् । शिवापरोक्षात्संसारकारणेन वियुज्यते ॥ २१ ॥ ततः स्यान्मुक्तसंसारो मुक्तः शिवसमो भवेत् । ब्रह्मप्रोक्त इत्युपायः स एव पृथगुच्यते ॥ २२ ॥ उनके कृपा-प्रसादसे वह परम योग सिद्ध होता है, जो शिवका अपरोक्ष दर्शन कराता है । शिवके अपरोक्ष ज्ञानसे संसार-बन्धनका कारण दूर हो जाता है । इस प्रकार संसारसे मुक्त हुआ पुरुष शिवके समान हो जाता है । यह ब्रह्माजीका बताया हुआ उपाय है । उसीका पृथक् वर्णन करते हैं ॥ २१-२२ ॥ शिवो महेश्वरश्चैव रुद्रो विष्णुः पितामहः । संसारवैद्यः सर्वज्ञः परमात्मेति मुख्यतः ॥ २३ ॥ शिव, महेश्वर, रुद्र, विष्णु, पितामह (ब्रह्मा), संसारवैद्य, सर्वज्ञ और परमात्मा-ये मुख्यतः आठ नाम हैं । ये आठों मुख्य नाम शिवके प्रतिपादक हैं ॥ २३ ॥ नामाष्टकमिदं मुख्यं शिवस्य प्रतिपादकम् । आद्यन्तु पञ्चकं ज्ञेयं शान्त्यतीताद्यनुक्रमात् ॥ २४ ॥ संज्ञा सदाशिवादीनां पञ्चोपाधिपरिग्रहात् । उपाधिविनिवृत्तौ तु यथास्वं विनिवर्तते ॥ २५ ॥ पदमेव हि तं नित्यमनित्याः पदिनः स्मृताः । पदानां परिववृतौ तु मुच्यन्ते पदिनो यतः ॥ २६ ॥ इनमेंसे आदिके पाँच नाम क्रमशः शान्त्यतीता आदि पाँच कलाओंसे सम्बन्ध रखते हैं और उन पाँच उपाधिोको ग्रहण करनेसे सदाशिव आदिके बोधक होते हैं । उपाधिकी निवृत्ति होनेपर इन भेदोंकी निवृत्ति हो जाती है । वह पद तो नित्य है । किंतु उस पदपर प्रतिष्ठित होनेवाले अनित्य कहे गये हैं । पदोंका परिवर्तन होनेपर पदवाले पुरुष मुक्त हो जाते हैं ॥ २४-२६ ॥ परिवृत्त्यन्तरे भूयस्तत्पदप्राप्तिरुच्यते । आत्मान्तराभिधानं स्याद्यदाद्यं नामपञ्चकम् ॥ २७ ॥ अन्यत्तु त्रितयं नाम्नामुपादानादियोगतः । त्रिविधोपाधिवचनाच्छिव एवानुवर्तते ॥ २८ ॥ परिवर्तनके अनन्तर पुनः दूसरे आत्माओंको उस पदकी प्राप्ति बतायी जाती है और उन्हींके वे आदिके पाँच नाम नियत होते हैं । उपादान आदिके योगसे अन्य तीन नाम (संसारवैद्य, सर्वज्ञ और परमात्मा) भी त्रिविध उपाधिका प्रतिपादन करते हुए शिवमें ही अनुगत होते हैं । । २७-२८ ॥ अनादिमलसंश्लेषः प्रागभावात्स्वभावतः । अत्यन्तं परिशुद्धात्मेत्यतोऽयं शिव उच्यते ॥ २९ ॥ अथवाशेषकल्याणगुणैकधन ईश्वरः । शिव इत्युच्यते सद्भिः शिवतत्त्वार्थवादिभिः ॥ ३० ॥ अनादि मलका संसर्ग उनमें पहलेसे ही नहीं है तथा वे स्वभावतः अत्यन्त शुद्धस्वरूप हैं, इसलिये 'शिव' कहलाते हैं अथवा वे ईश्वर समस्त कल्याणमय गुणोंके एकमात्र घनीभूत विग्रह हैं । इसलिये शिवतत्त्वके अर्थको जाननेवाले श्रेष्ठ महात्मा उन्हें शिव कहते हैं ॥ २९-३० ॥ त्रयोविंशतितत्त्वेभ्यः प्रकृतिर्हि परा मता । प्रकृतेस्तु परं प्राहुः पुरुषं पञ्चविंशकम् ॥ ३१ ॥ यं वेदादौ स्वरं प्राहुर्वाच्यवाचकभावतः । तेईस तत्त्वोंसे परे जो प्रकृति बतायी गयी है, उससे भी परे पचीसवें तत्त्वके स्थानमें पुरुषको बताया गया है, जिसे वेदके आदिमें ओंकाररूप कहा गया है । ओंकार और पुरुषमें वाच्य-वाचक-भाव सम्बन्ध है । ३१ १/२ ॥ वेदैकवेद्ययाथात्म्याद्वेदान्ते च प्रतिष्ठितः ॥ ३२ ॥ तस्य प्रकृतिलीनस्य यः परः स महेश्वरः । तदधीनप्रवृत्तित्वात्प्रकृतेः पुरुषस्य च ॥ ३३ ॥ अथवा त्रिगुणं तत्त्वमुपेयमिदमव्ययम् । मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् ॥ ३४ ॥ उसके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान एकमात्र वेदसे ही होता है । वे ही वेदान्तमें प्रतिष्ठित हैं । किंतु वह प्रकृतिसे संयुक्त है; अतः उससे भी परे जो परम पुरुष है, उसका नाम 'महेश्वर' है; क्योंकि प्रकृति और पुरुष दोनोंकीप्रवृत्ति उसीके अधीन है अथवा यह जो अविनाशी त्रिगुणमय तत्व है, इसे प्रकृति समझना चाहिये । इस प्रकृतिको माया कहते हैं । यह माया जिनकी शक्ति है, उन मायापतिका नाम 'महेश्वर' है । ३२-३४ ॥ मायाविक्षोभकोऽनन्तो महेश्वरसमन्वयात् । कालात्मा परमात्मादिः स्थूलः सूक्ष्मः प्रकीर्तितः ॥ ३५ ॥ रुद् दुःखं दुःखहेतुर्वा तद्रावयति नः प्रभुः । रुद्र इत्युच्यते सद्भिः शिवः परमकारणम् ॥ ३६ ॥ महेश्वरके सम्बन्धसे जो माया अथवा प्रकृतिमें क्षोभ उत्पन्न करते हैं, वे अनन्त [या 'विष्णु'] कहे गये हैं । वे ही कालात्मा और परमात्मा आदि नामोंसे पुकारे जाते हैं । उन्हींको स्थूल और सूक्ष्मरूप भी कहा गया है । दुःख अथवा दुःखके हेतुका नाम 'रुत्' है । जो प्रभु उसका द्रावण करते हैं-उसे मार भगाते हैं, उन परम कारण शिवको साधु पुरुष 'रुद्र' कहते हैं ॥ ३५-३६ ॥ तत्त्वादिभूतपर्यन्तं शरीरादिष्वतन्द्रितः । व्याप्याधितिष्ठति शिवस्ततो रुद्र इतस्ततः ॥ ३७ ॥ जगतः पितृभूतानां शिवो मूर्त्यात्मनामपि । पितृभावेन सर्वेषां पितामह उदीरितः ॥ ३८ ॥ कला, काल आदि तत्त्वोंसे लेकर भूतोंमें पृथ्वीपर्यन्त जो छत्तीस* तत्त्व हैं, उन्हींसे शरीर बनता है । उस शरीर, इन्द्रिय आदिमें जो तन्द्रारहित हो व्यापकरूपसे स्थित हैं, वे भगवान् शिव 'रुद्र' कहे गये । जगत्के पितारूप जो मुर्त्यात्मा हैं, उन सबके पिताके रूपमें भगवान् शिव विराजमान हैं; इसलिये वे 'पितामह' कहे गये हैं ॥ ३७-३८ ॥ निदानज्ञो यथा वैद्यो रोगस्य विनिवर्तकः । उपायैर्भेषजैस्तद्वल्लयभोगाधिकारतः ॥ ३९ ॥ संसारस्येश्वरो नित्यं समूलस्य निवर्तकः । संसारवैद्य इत्युक्तः सर्वतत्त्वार्थवेदिभिः ॥ ४० ॥ जैसे रोगोंके निदानको जाननेवाला वैद्य तदनुकूल उपायों और दवाओंसे रोगको दूर कर देता है, उसी तरह ईश्वर लययोगाधिकारसे सदा जड़-मूलसहित संसाररोगकी निवृत्ति करते हैं; अतः सम्पूर्ण तत्त्वोंके ज्ञाता विद्वान् उन्हें 'संसारवैद्य' कहते हैं ॥ ३९-४० ॥ दशार्थज्ञानसिद्ध्यर्थमिन्द्रियेष्वेषु सत्स्वपि । त्रिकालभाविनो भावान्स्थूलान्सूक्ष्मानशेषतः ॥ ४१ ॥ अणवो नैव जानन्ति माययैव मलावृताः । असत्स्वपि च सर्वेषु सर्वार्थज्ञानहेतुषु ॥ ४२ ॥ यद्यथावस्थितं वस्तु तत्तथैव सदाशिवः । अयत्नेनैव जानाति तस्मात्सर्वज्ञ उच्यते ॥ ४३ ॥ सर्वात्मा परमैरेभिर्गुणैर्नित्यसमन्वयात् । स्वस्मात्परात्मविरहात्परमात्मा शिवः स्वयम् ॥ ४४ ॥ दस विषयोंके ज्ञानके लिये दसों इन्द्रियोंके होते हुए भी जीव तीनों कालोंमें होनेवाले स्थूल-सूक्ष्म पदार्थोको पूर्णरूपसे नहीं जानते; क्योंकि मायाने ही उन्हें मलसे आवृत कर दिया है । परंतु भगवान् सदाशिव सम्पूर्ण विषयोंके ज्ञानके साधनभूत इन्द्रियादिके न होनेपर भी जो वस्तु जिस रूपमें स्थित है, उसे उसी रूपमें ठीक-ठीक जानते हैं; इसलिये वे 'सर्वज्ञ' कहलाते हैं । जो इन सभी उत्तम गुणोंसे नित्य संयुक्त होनेके कारण सबके आत्मा हैं, जिनके लिये अपनेसे अतिरिक्त किसी दूसरे आत्माकी सत्ता नहीं है, वे भगवान् शिव स्वयं ही 'परमात्मा' हैं ॥ ४१-४४ ॥ नामाष्टकमिदं चैव लब्ध्वाचार्यप्रसादतः । निवृत्त्यादिकलाग्रन्थिं शिवाद्यैः पञ्चनामभिः ॥ ४५ ॥ यथास्वं क्रमशश्छित्वा शोधयित्वा यथागुणम् । गुणितैरेव सोद्धातैरनिरुद्धैरथापि वा ॥ ४६ ॥ हृत्कण्ठतालुभ्रूमध्यब्रह्मरन्ध्रसमन्विताम् । छित्त्वा पर्यष्टकाकारं स्वात्मानं च सुषुम्णया ॥ ४७ ॥ द्वादशान्तःस्थितस्येन्दोर्नीत्वोपरि शिवौजसि । संहृत्यं वदनं पश्चाद्यथासंस्करणं लयात् ॥ ४८ ॥ आचार्यकी कृपासे इन आठों नामोंका अर्थसहित उपदेश पाकर शिव आदि पाँच नामोंद्वारा निवृत्ति आदि पाँचों कलाओंकी ग्रन्धिका क्रमशः छेदन और गुणके अनुसार शोधन करके गुणित, उद्घातयुक्त और अनिरुद्ध प्राणोंद्वारा हृदय, कण्ठ, तालु, भ्रूमध्य और ब्रह्मरन्ध्रसे युक्त पुर्यष्टकका भेदन करके सुषुम्णा नाड़ीद्वारा अपने आत्माको सहस्रार चक्रके भीतर ले जाय । [उसका शुभ्रवर्ण है । वह तरुण सूर्यके सदृश रक्तवर्ण केसरके द्वारा रंजित और अधोमुख है । उसके पचास दलोंमें स्थित 'अ' से लेकर 'क्ष' तक सबिन्दु अक्षर-कर्णिकाके बीचमें गोलाकार चन्द्रमण्डल है । यह चन्द्रमण्डल छत्राकारमें स्थित है । उसने एक ऊर्ध्वमुख द्वादश-दल कमलको आवृत कर रखा है । उस कमलकी कर्णिकामें विद्युत्-सदृश अकथादि त्रिकोण यन्त्र है । उस यन्त्रके चारों ओर सुधासागर होनेके कारण वह मणिद्वीपके आकारका हो गया है । उस द्वीपके मध्यभागमें मणिपीठ है । उसके बीचमें नादविन्दुके ऊपर हंसपीठ है । उसपर परम शिव विराजमान हैं । ] उक्त चन्द्रमण्डलके ऊपर स्थित शिवके तेजमें अपने आत्माको संयुक्त करे ॥ ४५-४८ ॥ शाक्तेनामृतवर्षेण संसिक्तायां तनौ पुनः । अवतार्य स्वमात्मानममृतात्माकृतिं हृदि ॥ ४९ ॥ द्वादशान्तःस्थितस्येन्दोः परस्ताच्छ्वेतपङ्कजे । समासीनं महादेवं शङ्करम्भक्तवत्सलम् ॥ ५० ॥ अर्धनारीश्वरं देवं निर्मलं मधुराकृतिम् । शुद्धस्फटिकसंकाशं प्रसन्नं शीतलद्युतिम् ॥ ५१ ॥ इस प्रकार जीवको शिवमें लीन करके शाक्त अमृतवर्षाके द्वारा अपने शरीरके अभिषिक्त होनेकी भावना करे । तत्पश्चात् अमृतमय विग्रहवाले अपने आत्माको ब्रह्मरन्ध्रसे उतारकर हृदयमें द्वादश-दल कमलके भीतर स्थित चन्द्रमासे परे श्वेत कमलपर अर्धनारीश्वर रूपमें विराजमान मनोहर आकृतिवाले निर्मल देव भक्तवत्सल महादेव शंकरका चिन्तन करे । उनकी अंगकान्ति शुद्धस्फटिक मणिके समान उज्ज्वल है । वे शीतल प्रभासे युक्त और प्रसन्न हैं । ४९-५१ ॥ ध्यात्वा हि मानसे देवं स्वस्थचित्तोऽथ मानवः । शिवनामाष्टकेनैव भावपुष्पैः समर्चयेत् ॥ ५२ ॥ अभ्यर्चनान्ते तु पुनः प्राणानायम्य मानवः । सम्यक् चित्तं समाधाय शार्वं नामाष्टकं जपेत् ॥ ५३ ॥ नाभौ चाष्टाहुतीर्हुत्वा पूर्णाहुत्या नमस्ततः । अष्टपुष्पप्रदानेन कृत्वाभ्यर्चनमन्तिमम् ॥ ५४ ॥ निवेदयेत्स्वमात्मानं चुलुकोदकवर्त्मना । इस प्रकार मन-ही-मन ध्यान करके शान्तचित्त हुआ मनुष्य शिवके आठ नामोद्वारा ही भावमय पुष्पोंसे उनकी पूजा करे । पूजनके अन्तमें पुनः प्राणायाम करके चित्तको भलीभाँति एकाग्र रखते हुए शिवनामाष्टकका जप करे । फिर भावनाद्वारा नाभिमें आठ आहुतियोंका हवन करके पूर्णाहुति एवं नमस्कारपूर्वक आठ फूल चढ़ाकर अन्तिम अर्चना पूरी करके चुल्लूमें लिये हुए जलको आत्मसमर्पणकी भावनासे शिवके चरणोंमें समर्पित कर दे ॥ ५२-५४ १/२ ॥ एवं कृत्वाचिरादेव ज्ञानं पाशुपतं शुभम् ॥ ५५ ॥ लभते तत्प्रतिष्ठां च वृत्तं चानुत्तमं तथा । योगं च परमं लब्ध्वा मुच्यते नात्र संशयः ॥ ५६ ॥ इस प्रकार करनेसे शीघ्र ही मंगलमय पाशुपत ज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है और साधक उस ज्ञानकी सुस्थिरता पा लेता है । साथ ही वह परम उत्तम पाशुपतव्रत एवं परम योगको पाकर मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है ॥ ५५-५६ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे श्रेष्ठानुष्ठानवर्णनं नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें श्रेष्ठानुष्ठानवर्णन नामक बत्तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३२ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |