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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

वायवीयसंहिता

॥ त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥


पशुपतिव्रतविधानवर्णनम्
पाशुपत-व्रतकी विधि और महिमा तथा भस्मधारणकी महत्ता


ऋषय ऊचुः
भगवञ्छ्रोतुमिच्छामो व्रतं पाशुपतं परम् ।
ब्रह्मादयोऽपि यत्कृत्वा सर्वे पाशुपताः स्मृताः ॥ १ ॥
ऋषि बोले-भगवन् ! हम परम उत्तम पाशुपतव्रतको सुनना चाहते हैं, जिसका अनुष्ठान करके ब्रह्मा आदि सब देवता पाशुपत माने गये हैं ॥ १ ॥

वायुरुवाच
रहस्यं वः प्रवक्ष्यामि सर्वपापनिकृन्तनम् ।
व्रतं पाशुपतं श्रौतमथर्वशिरसि श्रुतम् ॥ २ ॥
वायुदेवने कहा-मैं तुम सब लोगोंको गोपनीय पाशुपत-व्रतका रहस्य बताता हूँ, जिसका अथर्ववेदके शीर्षभागमें वर्णन है तथा जो सभी पापोंका नाश करनेवाला है ॥ २ ॥

कालश्चैत्री पौर्णमासी देशः शिवपरिग्रहः ।
क्षेत्रारामाद्यरण्यं वा प्रशस्तः शुभलक्षणः ॥ ३ ॥
तत्र पूर्वं त्रयोदश्यां सुस्नातः सुकृताह्निकः ।
अनुज्ञाप्य स्वमाचार्यं संपूज्य प्रणिपत्य च ॥ ४ ॥
पूजां वैशेषिकीं कृत्वा शुक्लांबरधरः स्वयम् ।
शुक्लयज्ञोपवीती च शुक्लमाल्यानुलेपनः ॥ ५ ॥
चित्रासे युक्त पौर्णमासी इसके लिये उत्तम काल है । शिवके द्वारा अनुगृहीत स्थान ही इसके लिये उत्तम देश है अथवा क्षेत्र, बगीचे आदि तथा वनप्रान्त भी शुभ एवं प्रशस्त देश हैं । पहले त्रयोदशीको भलीभाँति स्नान करके नित्यकर्म सम्पन्न कर ले । फिर अपने आचार्यकी आज्ञा लेकर उनका पूजन और नमस्कार करके [व्रतके अंगरूपसे देवताओंकी] विशेष पूजा करे । उपासकको स्वयं श्वेत वस्त्र, श्वेत यज्ञोपवीत, श्वेत पुष्प और श्वेत चन्दन धारण करना चाहिये ॥ ३-५ ॥

दर्भासने समासीनो दर्भमुष्टिं प्रगृह्य च ।
प्राणायामत्रयं कृत्वा प्राङ्मुखो वाप्युदङ्मुखः ।
ध्यात्वा देवं च देवीं च तद्विज्ञापनवर्त्मना ॥ ६ ॥
व्रतमेतत्करोमीति भवेत्संकल्प्य दीक्षितः ।
यावच्छरीरपातं वा द्वादशाब्दमथापि वा ॥ ७ ॥
तदर्धं वा तदर्धं वा मासद्वादशकं तु वा ।
तदर्धं वा तदर्धं वा मासमेकमथापि वा ॥ ८ ॥
दिनद्वादशकं वाऽथ दिनषट्कमथापि वा ।
तदर्धं दिनमेकं वा व्रतसंकल्पनावधि ॥ ९ ॥
वह कुशके आसनपर बैठकर हाथमें मुट्ठीभर कुश ले पूर्व या उत्तरकी ओर मुंह करके तीन प्राणायाम करनेके पश्चात् भगवान् शिव और देवी पार्वतीका ध्यान करे । फिर यह संकल्प करे कि मैं शिवशास्त्रमें बतायी हुई विधिके अनुसार यह पाशुपत-व्रत करूंगा । वह जबतक शरीर गिर न जाय, तबतकके लिये अथवा बारह, छ: या तीन वर्षोंके लिये अथवा बारह, छ:, तीन या एक महीनेके लिये अथवा बारह, छ:, तीन या एक दिनके लिये इस व्रतकी दीक्षा ले ॥ ६-९ ॥

अग्निमाधाय विधिवद्विरजाहोमकारणात् ।
हुत्वाज्येन समिद्भिश्च चरुणा च यथाक्रमम् ॥ १० ॥
पूर्णामापूर्य तां भूयस्तत्त्वानां शुद्धिमुद्दिशन् ।
जुहुयान्मूलमन्त्रेण तैरेव समिदादिभिः ॥ ११ ॥
संकल्प करनेके बाद विरजा होमके लिये विधिवत् अग्निकी स्थापना करके क्रमश: घी, समिधा और चरुसे हवन करके पूर्णाहुति सम्पन्न करे । तत्पश्चात् तत्त्वॉकी शुद्धिके उद्देश्यसे मूलमन्त्रद्वारा उन समिधा आदि सामग्रियोंकी ही फिर आहुतियाँ दे ॥ १०-११ ॥

तत्त्वान्येतानि मद्देहे शुद्ध्यन्तामित्यनुस्मरन् ।
पञ्चभूतानि तन्मात्राः पञ्चकर्मेन्द्रियाणि च ॥ १२ ॥
ज्ञानकर्मविभेदेन पञ्चकर्मविभागशः ।
त्वगादिधातवः सप्त पञ्च प्राणादिवायवः ॥ १३ ॥
मनोबुद्धिरहंख्यातिर्गुणाः प्रकृतिपूरुषौ ।
रागो विद्याकले चैव नियतिः काल एव च ॥ १४ ॥
माया च शुद्धिविद्या च महेश्वरसदाशिवौ ।
शक्तिश्च शिवतत्त्वं च तत्त्वानि क्रमशो विदुः ॥ १५ ॥
उस समय वह बारंबार यह चिन्तन करे कि 'मेरे शरीरमें जो ये तत्त्व हैं, सब शुद्ध हो जायें । ' उन तत्त्वोंके नाम इस प्रकार हैं-पाँचों भूत, उनकी पाँचों तन्मात्राएँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच विषय, त्वचा आदि सात धातुएँ, प्राण आदि पाँच वायु, मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति, पुरुष, राग, विद्या, कला, नियति, काल, माया, शुद्ध विद्या, महेश्वर, सदाशिव, शक्ति-तत्व और शिव-तत्त्व-ये क्रमशः तत्त्व कहे गये हैं । १२-१५ ॥

मन्त्रैस्तु विरजैर्हुत्वा होतासौ विरजा भवेत् ।
शिवानुग्रहमासाद्य ज्ञानवान्स हि जायते ॥ १६ ॥
विरजा मन्त्रोंसे आहुति करके होता रजोगुणरहित शुद्ध हो जाता है । फिर शिवका अनुग्रह पाकर वह ज्ञानवान् होता है ॥ १६ ॥

अथ गोमयमादाय पिण्डीकृत्याभिमन्त्र्य च ।
विन्यस्याग्नौ च सम्प्रोक्ष्य दिने तस्मिन्हविष्यभुक् ॥ १७ ॥
प्रभाते तु चतुर्दश्यां कृत्वा सर्वं पुरोदितम् ।
दिने तस्मिन्निराहारः कालं शेषं समापयेत् ॥ १८ ॥
तदनन्तर गोबर लाकर उसकी पिण्डी बनाये । फिर उसे मन्त्रद्वारा अभिमन्त्रित करके अग्निमें डाल दे । इसके बाद इसका प्रोक्षण करके उस दिन व्रती केवल हविष्य खाकर रहे । जब रात बीतकर प्रात:काल आये, तब चतुर्दशीमें पुनः पूर्वोक्त सब कृत्य करे । उस दिन शेष समय निराहार रहकर ही बिताये ॥ १७-१८ ॥

प्रातः पर्वणि चाप्येवं कृत्वा होमावसानतः ।
उपसंहृत्य रुद्राग्निं गृह्णीयाद्‌भस्म यत्नतः ॥ १९ ॥
ततश्च जटिलो मुण्डी शिखैकजट एव वा ।
भूत्वा स्नात्वा ततो वीतलज्जश्चेत्स्याद्दिगम्बरः ॥ २० ॥
अपि काषायवसनश्चर्मचीराम्बरोऽथ वा ।
एकाम्बरो वल्कली वा भवेद्दण्डी च मेखली ॥ २१ ॥
फिर पूर्णिमाको प्रात:काल इसी तरह होमपर्यन्त कर्म करके रुद्राग्निका उपसंहार करे । तदनन्तर यत्नपूर्वक उसमेंसे भस्म ग्रहण करे । इसके बाद साधक चाहे जटा रखा ले, चाहे सारा सिर मुड़ा ले या चाहे तो केवल सिरपर शिखा धारण करे । इसके बाद स्नान करके यदि वह लोकलज्जासे ऊपर उठ गया हो तो दिगम्बर हो जाय । अथवा गेरुआ वस्त्र, मृगचर्म या फटे-पुराने चीथड़ेको ही धारण कर ले । एक वस्त्र धारण करे या वल्कल पहनकर रहे । कटिमें मेखला धारण करके हाथमें दण्ड ले ले ॥ १९-२१ ॥

प्रक्षाल्य चरणौ पश्चाद् द्विराचम्यात्मनस्तनुम् ।
संकुलीकृत्य तद्भस्म विरजानलसंभवम् ॥ २२ ॥
अग्निरित्यादिभिर्मन्त्रैः षड्भिराथर्वणैः क्रमात् ।
विभृज्याङ्गानि मूर्धादिचरणान्तानि तैः स्पृशेत् ॥ २३ ॥
तदनन्तर दोनों पैर धोकर आचमन करे । विरजाग्निसे प्रकट हुए भस्मको एकत्र करके 'अग्निरिति भस्म' इत्यादि छ: अथर्ववेदीय मन्त्रोंद्वारा उसे अपने शरीरमें लगाये । मस्तकसे लेकर पैरतक सभी अंगोंमें उसे अच्छी तरह मल ले ॥ २२-२३ ॥

ततस्तेन क्रमेणैव समुद्धृत्य च भस्मना ।
सर्वाङ्गोद्धूलनं कुर्यात्प्रणवेन शिवेन वा ॥ २४ ॥
ततस्त्रिपुण्ड्रं रचयेत्त्रियायुषसमाह्वयम् ।
शिवभावं समागम्य शिवयोगमथाचरेत् ॥ २५ ॥
तत्पश्चात् इसी क्रमसे प्रणव या शिवमन्त्रद्वारा सर्वागमें भस्म रमाकर 'त्र्यायुधम्' इत्यादि मन्त्रोंसे ललाट आदि अंगोंमें त्रिपुण्डकी रचना करे । इस प्रकार शिवभावको प्राप्त हो शिवयोगका आचरण करे ॥ २४-२५ ॥

कुर्यात् त्रिसन्ध्यमप्येवमेतत्पाशुपतं व्रतम् ।
भुक्तिमुक्तिप्रदं चैतत्पशुत्वं विनिवर्तयेत् ॥ २६ ॥
तत्पशुत्वं परित्यज्य कृत्वा पाशुपतं व्रतम् ।
पूजनीयो महादेवो लिङ्गमूर्तिः सनातनः ॥ २७ ॥
तीनों संध्याओंके समय ऐसा ही करना चाहिये । यही 'पाशुपत-व्रत' है, जो भोग और मोक्ष देनेवाला है । यह जीवोंके पशुभावको निवृत्त कर देता है । इस प्रकार पाशुपत-व्रतके अनुष्ठानद्वारा पशुत्वका परित्याग करके लिंगमूर्ति सनातन महादेवजीका पूजन करना चाहिये ॥ २६-२७ ॥

पद्ममष्टदलं हैमं नवरत्नैरलङ्‌कृतम् ।
कर्णिकाकेशरोपेतमासनं परिकल्पयेत् ॥ २८ ॥
विभवे तदभावे तु रक्तं सितमथापि वा ।
पद्मं तस्याप्यभावे तु केवलं भावनामयम् ॥ २९ ॥
यदि वैभव हो तो सोनेका अष्टदल कमल बनवाये, जिसमें नौ प्रकारके रत्न जड़े गये हों । उसमें कर्णिकाऔर केसर भी हों । ऐसे कमलको भगवान्का आसन बनाये । धनाभाव होनेपर लाल या सफेद कमलके फूलका आसन अर्पित करे । वह भी न मिले तो केवल भावनामय कमल समर्पित करे ॥ २८-२९ ॥

तत्पद्मकर्णिकामध्ये कृत्वा लिङ्गं कनीयसम् ।
स्फाटिकं पीठिकोपेतं पूजयेद्विधिवत्क्रमात् ॥ ३० ॥
उस कमलकी कर्णिकाके मध्यमें पीठिकासहित छोटेसे स्फटिकमणिमय लिंगकी स्थापना करके क्रमशः विधिपूर्वक उसका पूजन करे ॥ ३० ॥

प्रतिष्ठाप्य विधानेन तल्लि‍ङ्गं कृतशोधनम् ।
परिकल्प्यासनं मूर्तिं पञ्चवक्त्रप्रकारतः ॥ ३१ ॥
पञ्चगव्यादिभिः पूर्णैर्यथाविभवसंभृतैः ।
स्नापयेत्कलशैः पूर्णैरष्टापदसमुद्‌भवैः ॥ ३२ ॥
उस लिंगका शोधन करके पहले शास्त्रीय विधिके अनुसार उसकी स्थापना कर लेनी चाहिये । फिर आसन दे पंचमुखके प्रकारसे मूर्तिकी कल्पना करके पंचगव्य आदिसे पूर्ण, अपने वैभवके अनुसार संगृहीत, भरे हुए सुवर्णनिर्मित कलशोंसे उस मूर्तिको स्नान कराये ॥ ३१-३२ ॥

गन्धद्रव्यैः सकर्पूरैश्चन्दनाद्यैः सकुङ्‌कुमैः ।
सवेदिकं समालिप्य लिङ्गं भूषणभूषितम् ॥ ३३ ॥
बिल्वपत्रैश्च पद्मैश्च रक्तैः श्वेतैस्तथोत्पलैः ।
नीलोत्पलैस्तथान्यैश्च पुष्पैस्तैस्तैः सुगन्धिभिः ॥ ३४ ॥
पुण्यैः प्रशस्तैः पत्रैश्च चित्रैर्दूर्वाक्षतादिभिः ।
समभ्यर्च्य यथालाभं महापूजाविधानतः ॥ ३५ ॥
फिर सुगन्धित द्रव्य, कपूर, चन्दन और कुंकुम आदिसे वेदीसहित भूषणभूषित शिवलिंगका अनुलेपन करके बिल्वपत्र, लाल कमल, श्वेत कमल, नील कमल, अन्यान्य सुगन्धित पुष्प, पवित्र एवं उत्तम पत्र तथा दूर्वा और अक्षत आदि विचित्र उपचार चढ़ाकर यथाप्राप्त सामग्रियोंद्वारा महापूजनकी विधिसे उसमें मूर्तिकी अभ्यर्चना करे ॥ ३३-३५ ॥

धूपं दीपं तथा चापि नैवेद्यं च समादिशेत् ।
निवेदयित्वा विभवे कल्याणं च समाचरेत् ॥ ३६ ॥
फिर धूप, दीप और नैवेद्य निवेदन करे । वैभवसम्पन्न होनेपर इस तरह भगवान् शिवको उत्तम वस्तुएँ निवेदन करके अपना कल्याण करे ॥ ३६ ॥

इष्टानि च विशिष्टानि न्यायेनोपार्जितानि च ।
सर्वद्रव्याणि देयानि व्रते तस्मिन्विशेषतः ॥ ३७ ॥
श्रीपत्रोत्पलपद्मानां संख्या साहस्रिकी मता ।
प्रत्येकमपरा संख्या शतमष्टोत्तरं द्विजाः ॥ ३८ ॥
तत्रापि च विशेषेण न त्यजेद्बिल्वपत्रकम् ।
उस व्रतमें विशेषतः वे सभी वस्तुएँ देनी चाहिये, जो अपनेको अधिक प्रिय हों, श्रेष्ठ हों, और न्यायपूर्वक उपार्जित हुई हों । हे द्विजो ! बिल्वपत्र, उत्पल और कमलोंकी संख्या एक-एक हजार होनी चाहिये । अन्य पत्रों और फूलोंमेंसे प्रत्येककी संख्या एक सौ आठ होनी चाहिये । इन सामग्रियोंमें भी बिल्वपत्रको विशेष यत्नपूर्वक जुटाये । उसे भूलकर भी न छोड़े ॥ ३७-३८ १/२ ॥

हैममेकं परं प्राहुः पद्मं पद्मसहस्रकात् ॥ ३९ ॥
नीलोत्पलादिष्वप्येतत्समानं बिल्बपत्रकैः ।
पुष्पान्तरे न नियमो यथालाभं निवेदयेत् ॥ ४० ॥
अष्टाङ्गमर्घ्यमुत्कृष्टं धूपालेपौ विशेषतः ।
सोनेका बना हुआ एक ही कमल एक सहरून कमलोंसे श्रेष्ठ बताया गया है । नील कमल आदिके विषयमें भी यही बात है । ये सब बिल्वपत्रोंके समान ही महत्त्व रखते हैं । अन्य पुष्पोंके लिये कोई नियम नहीं है । वे जितने मिलें, उतने ही चढ़ाने चाहिये । अष्टांग अर्घ्य उत्कृष्ट माना जाता है । धूप और आलेप (चन्दन)- के विषयमें विशेष बात यह है ॥ ३९-४०-१/२ ॥

चन्दनं वामदेवाख्ये हरितालं च पौरुषे ॥ ४१ ॥
ईशाने भसितं केचिदालेपनमितीदृशम् ।
न धूपमिति मन्यन्ते धूपान्तरविधानतः ।
सितागुरुमघोराख्ये मुखे कृष्णागुरुं पुनः ॥ ४२ ॥
पौरुषे गुग्गुलं सव्ये सौम्ये सौगन्धिकं मुखे ।
ईशानेऽपि ह्युशीरादि देयाद्धूपं विशेषतः ॥ ४३ ॥
'वामदेव' नामक मुखमें चन्दन, 'तत्पुरुष' नामक मुखमें हरिताल और 'ईशान' नामक मुखमें भस्म लगाना चाहिये । कोई-कोई भस्मकी जगह आलेपनका विधान करते हैं । दूसरे प्रकारके धूपका विधान होनेसे कुछ लोग प्रसिद्ध धूपका निषेध करते हैं । 'अघोर' नामक मुखके लिये श्वेत अगुरुका धूप देना चाहिये । तत्पुरुष' नामक मुखके लिये कृष्ण अगुरुके धूपका विधान है । 'वामदेव' के लिये सौगन्धिक, 'सद्योजात' मुखके लिये गुग्गुल तथा 'ईशान' के लिये भी उशीर आदि धूपको विशेषरूपसे देना चाहिये । ४१-४३ ॥

शर्करामधुकर्पूरकपिलाघृतसंयुतम् ।
चन्दनागुरुकाष्ठाद्यं सामान्यं संप्रचक्षते ॥ ४४ ॥
शर्करा, मधु, कपूर, कपिला गायका घी, चन्दनका चूरा तथा अगुरु नामक काष्ठ आदिका चूर्ण-इन सबको मिलाकर जो धूप तैयार किया जाता है, उसे सब [देवताओं]-के लिये सामान्यरूपसे उपयोगके योग्य बताया गया है । । ४४ ॥

कर्पूरवर्तिराज्याढ्या देया दीपावलिस्ततः ।
अर्घ्यमाचमनं देयं प्रतिवक्त्रमतः परम् ॥ ४५ ॥
कपूरकी बत्ती और घीके दीपक जलाकर दीपमाला देनी चाहिये । तत्पश्चात् प्रत्येक मुखके लिये पृथक्पृथक् अर्घ्य और आचमन देनेका विधान है ॥ ४५ ॥

प्रथमावरणे पूज्यो क्रमाद्धेरम्बषण्मुखौ ।
ब्रह्माङ्गानि ततश्चैव प्रथमावरणेऽर्चिते ॥ ४६ ॥
द्वितीयावरणे पूज्या विघ्नेशाश्चक्रवर्तिनः ।
तृतीयावरणे पूज्या भवाद्या अष्टमूर्तयः ॥ ४७ ॥
प्रथम आवरणमें गणेश और कार्तिकेयकी पूजा करनी चाहिये । उनके साथ ही बाह्य अंगोंकी भी पूजा आवश्यक है । प्रथमावरणकी पूजा हो जानेपर द्वितीयावरणमें चक्रवर्ती विघ्नेश्वरोंका पूजन करना चाहिये । तृतीयावरणमें भव आदि अष्टमूर्तियोंकी पूजाका विधान है । ४६-४७ ॥

महादेवादयस्तत्र तथैकादशमूर्तयः ।
चतुर्थावरणे पूज्याः सर्व एव गणेश्वराः ॥ ४८ ॥
बहिरेव तु पद्मस्य पञ्चमावरणे क्रमात् ।
दशदिक्पतयः पूज्याः सास्त्राः सानुचरास्तथा ॥ ४९ ॥
वहीं महादेव आदि एकादश मूर्तियोंका भी पूजन आवश्यक है । चौथे आवरणमें सभी गणेश्वर पूजनीय हैं । पंचमावरणमें कमलके बाह्यभागमें दस दिक्पालों, उनके अस्त्रों और अनुचरोंकी क्रमशः पूजा करनी चाहिये । ४८-४९ ॥

ब्रह्मणो मानसाः पुत्राः सर्वेऽपि ज्योतिषां गणाः ।
सर्वा देव्यश्च देवाश्च सर्वे सर्वे च खेचराः ॥ ५० ॥
पातालवासिनश्चान्ये सर्वे मुनिगणा अपि ।
योगिनो हि मखाः सर्वे पतङ्गा मातरस्तथा ॥ ५१ ॥
क्षेत्रपालाश्च सगणाः सर्वं चैतच्चराचरम् ।
पूजनीयं शिवप्रीत्या मत्त्वा शंभुविभूतिमत् ॥ ५२ ॥
वहीं ब्रह्माके मानस पुत्रोंकी, समस्त ज्योतिर्गणोंकी, सब देवी-देवताओंकी, सभी आकाशचारियोंकी, पातालवासियोंकी, अखिल मुनीश्वरोंकी, योगियोंकी, सब यज्ञोंकी, द्वादश सूर्योकी, मातृकाओंकी, गोंसहित क्षेत्रपालोंकी और इस समस्त चराचर जगत्की पूजा करनी चाहिये । इन सबको शंकरजीकी विभूति मानकर शिवकी प्रसन्नताके लिये ही इनका पूजन करना उचित है ॥ ५०-५२ ॥

अथावरणपूजान्ते संपूज्य परमेश्वरम् ।
साज्यं सव्यञ्जनं हृद्यं हविर्भक्त्या निवेदयेत् ॥ ५३ ॥
मुखवासादिकं दत्त्वा ताम्बूलं सोपदंशकम् ।
अलङ्‌कृत्य च भूयोऽपि नानापुष्पविभूषणैः ॥ ५४ ॥
नीराजनान्ते विस्तीर्य पूजाशेषं समापयेत् ।
चषकं सोपकारं च शयनं च समर्पयेत् ॥ ५५ ॥
इस प्रकार आवरणपूजाके पश्चात् परमेश्वर शिवका पूजन करके उन्हें भक्तिपूर्वक घृत और व्यंजनसहित मनोहर हविष्य निवेदन करना चाहिये । मुखशुद्धिके लिये आवश्यक उपकरणोंसहित ताम्बूल देकर नाना प्रकारके फूलोंसे पुनः इष्टदेवका श्रृंगार करे । आरती उतारे । तत्पश्चात् पूजनका शेष कृत्य पूर्ण करे । पानचषक तथा उपकारक सामग्रियोंसहित शय्या समर्पित करे ॥ ५३-५५ ॥

चन्द्रसंकाशहारं च शयनीयं समर्पयेत् ।
आद्यं नृपोचितं हृद्यं तत्सर्वमनुरूपतः ॥ ५६ ॥
कृत्वा च कारयित्वा च हित्वा च प्रतिपूजनम् ।
व्योमकेशस्तवं जप्त्वा विद्यां पञ्चाक्षरीं जपेत् ॥ ५७ ॥
शय्यापर चन्द्रमाके समान चमकीला हार दे । राजोचित मनोहर वस्तुएँ सब प्रकारसे संचित करके दे । स्वयं पूजन करे, दूसरोंसे भी कराये तथा प्रत्येक पूजनमें आहुति दे । इसके बाद व्योमकेश भगवान् शिवकी स्तुति-प्रार्थना करके पंचाक्षरी विद्याको जपे । । ५६-५७ ॥

प्रदक्षिणां प्रणामं च कृत्वात्मानं समर्पयेत् ।
ततः पुरस्ताद्देवस्य गुरुविप्रौ च पूजयेत् ॥ ५८ ॥
दत्त्वार्घ्यमष्टौ पुष्पाणि देवमुद्वास्य लिङ्गतः ।
अग्नेश्चाग्निं सुसंयम्य ह्युद्वास्य च तमप्युत ॥ ५९ ॥
परिक्रमा और प्रणाम करके अपने-आपको समर्पित करे । तदनन्तर इष्टदेवके सामने ही गुरु और ब्राह्मणकी पूजा करे । इसके बाद अर्घ्य और आठ फूल देकर पूजित लिंग या मूर्तिसे देवताका विसर्जन करे । फिर अग्निदेवका भी विसर्जन करके पूजा समाप्त करे ॥ ५८-५९ ॥

प्रत्यहं च जनस्त्वेवं कुर्यात्सेवां पुरोदिताम् ।
ततस्तत्साम्बुजं लिङ्गं सर्वोपकरणान्वितम् ॥ ६० ॥
समर्पयेत्स्वगुरवे स्थापयेद्वा शिवालये ।
मनुष्यको चाहिये कि प्रतिदिन इसी प्रकार पूर्वोक्तरूपसे सेवा करे । पूजनके अन्तमें [सुवर्णमय] कमल तथा अन्य सब उपकरणोंसहित उस शिवलिंगको गुरुके हाथमें दे दे अथवा शिवालयमें स्थापित कर दे ॥ ६० १/२ ॥

संपूज्य च गुरून्विप्रान् व्रतिनश्च विशेषतः ॥ ६१ ॥
भक्तान्द्विजांश्च शक्तश्चेद्दीनानाथांश्च तोषयेत् ।
स्वयं चानशने शक्तः फलमूलाशनेऽथ वा ॥ ६२ ॥
पयोव्रतो वा भिक्षाशी भवेदेकाशनस्तथा ।
नक्तं युक्ताशनो नित्यं भूशय्यानिरतः शुचिः ॥ ६३ ॥
गुरुओं, ब्राह्मणों तथा विशेषतः व्रतधारियोंकी पूजा करके सामर्थ्य हो तो भक्त ब्राह्मणों तथा दोनों और अनाथोंको भी संतुष्ट करे । स्वयं उपवासमें असमर्थ होनेपर फल-मूल खाकर या दूध पीकर रहे अथवा भिक्षान्नभोजी हो या एक समय भोजन करे । रातको प्रतिदिन परिमित भोजन करे और पवित्रभावसे भूमिपर ही सोये ॥ ६१-६३ ॥

भस्मशायी तृणेशायी चीराजिनधृतोऽथवा ।
ब्रह्मचर्यव्रतो नित्यं व्रतमेतत्समाचरेत् ॥ ६४ ॥
अर्कवारे तथार्द्रायां पञ्चदश्यां च पक्षयोः ।
अष्टम्यां च चतुर्दश्यां शक्तस्तूपवसेदपि ॥ ६५ ॥
भस्मपर, तृणपर अथवा चीर या मृगचर्मपर शयन करे । प्रतिदिन ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए इस व्रतका अनुष्ठान करे । यदि शक्ति हो तो रविवारके दिन, आर्द्रा नक्षत्रमें, दोनों पक्षोंकी पूर्णिमा और अमावास्याको, अष्टमीको तथा चतुर्दशीको उपवास करे ॥ ६४-६५ ॥

पाखण्डिपतितोदक्याः सूतकान्त्यजपूर्वकान् ।
वर्जयेत्सर्वयत्नेन मनसा कर्मणा गिरा ॥ ६६ ॥
क्षमदानदयासत्याहिंसाशीलः सदा भवेत् ।
सन्तुष्टश्च प्रशान्तश्च जपध्यानरतस्तथा ॥ ६७ ॥
मन, वाणी और क्रियाद्वारा सम्पूर्ण प्रयत्नसे पाखण्डी, पतित, रजस्वला स्त्री, सूतकमें पड़े हुए लोग तथा अन्त्यज आदिके सम्पर्कका त्याग करे । निरन्तर क्षमा, दान, दया, सत्यभाषण और अहिंसामें तत्पर रहे । संतुष्ट और शान्त रहकर जप और ध्यानमें लगा रहे ॥ ६६-६७ ॥

कुर्यात्त्रिषवणस्नानं भस्मस्नानमथापि वा ।
पूजां वैशेषिकीं चैव मनसा वचसा गिरा ॥ ६८ ॥
बहुनात्र किमुक्तेन नाचरेदशिवं व्रती ।
प्रमादात्तु तथाचारे निरूप्य गुरुलाघवे ॥ ६९ ॥
उचितां निष्कृतिं कुर्यात्पूजाहोमजपादिभिः ।
आसमाप्तेर्व्रतस्यैवमाचरेन्न प्रमादतः ॥ ७० ॥
तीनों काल स्नान करे अथवा भस्म-स्नान कर ले । मन, वाणी और क्रियाद्वारा विशेष पूजा किया करे । इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ ? व्रतधारी पुरुष कभी अशुभ आचरण न करे । प्रमादवश यदि वैसा आचरण बन जाय तो उसके गुरु-लाघवका विचार करके उसके दोषका निवारण करनेके लिये पूजा, होम और जप आदिके द्वारा उचित प्रायश्चित्त करे । व्रतकी समाप्तिपर्यन्त भूलकर भी अशुभ आचरण न करे ॥ ६८-७० ॥

गोदानं च वृषोत्सर्गं कुर्यात्पूजां च संपदा ।
भक्तश्च शिवप्रीत्यर्थं सर्वकामविवर्जितः ॥ ७१ ॥
सामान्यमेतत्कथितं व्रतस्यास्य समासतः ।
सम्पत्ति हो तो उसके अनुसार गोदान, वृषोत्सर्ग और पूजन करे । भक्त पुरुष निष्कामभावसे शिवकी प्रीतिके लिये ही सब कुछ करे । यह संक्षेपसे इस व्रतकी सामान्य विधि कही गयी है । । ७१ १/२ ॥

प्रतिमासं विशेषं च प्रवदामि यथाश्रुतम् ॥ ७२ ॥
वैशाखे वज्रलिङ्गं तु ज्येष्ठे मारकतं शुभम् ।
आषाढे मौक्तिकं विद्याच्छ्रावणे नीलनिर्मितम् ॥ ७३ ॥
मासे भाद्रपदे चैव पद्मरागमयं परम् ।
आश्विने मासि विद्याद्वै लिङ्गं गोमेदकं वरम् ॥ ७४ ॥
अब शास्त्रके अनुसार प्रत्येक मासमें जो विशेष कृत्य है, उसे बताता हूँ । वैशाखमासमें हीरेके बने हुए शिवलिंगका पूजन करना चाहिये । ज्येष्ठमासमें मरकतमणिमय शिवलिंगकी पूजा उचित है । आषाढ़मासमें मोतीके बने हुए शिवलिंगको पूजनीय समझे । श्रावणमासमें नीलमका बना हुआ शिवलिंग पूजनके योग्य है । भाद्रपदमासमें पूजनके लिये पद्मरागमणिमय शिवलिंगको उत्तम माना गया है । आश्विनमासमें गोमेदमणिके बने हुए लिंगको उत्तम समझे ॥ ७२-७४ ॥

कार्तिक्यां वैद्रुमं लिङ्गं वैदूर्यं मार्गशीर्षके ।
पुष्परागमयं पौषे माघे द्युमणिजं तथा ॥ ७५ ॥
फाल्गुने चन्द्रकान्तोत्थं चैत्रे तद्‌व्यत्ययोऽथ वा ।
सर्वमासेषु रत्नानामलाभे हैममेव वा ॥ ७६ ॥
कार्तिकमासमें मूंगेके और मार्गशीर्षमासमें वैदूर्यमणिके बने हुए लिंगकी पूजाका विधान है । पौषमासमें पुष्पराग (पुखराज)-मणिके तथा माघमासमें सूर्यकान्तमणिके लिंगका पूजन करना चाहिये । फाल्गुनमासमें चन्द्रकान्तमणिके और चैत्रमें सूर्यकान्तमणिके बने हुए लिंगके पूजनकी विधि है । अथवा रत्नोंके न मिलनेपर सभी मासोंमें सुवर्णमय लिंगका ही पूजन करना चाहिये । । ७५-७६ ॥

हैमाभावे राजतं वा ताम्रजं शैलजं तथा ।
मृण्मयं वा यथालाभं जातुषं चान्यदेव वा ॥ ७७ ॥
सर्वगन्धमयं वाथ लिङ्गं कुर्याद्यथारुचि ।
सुवर्णक अभावमें चाँदी, ताँबे, पत्थर, मिट्टी, लाह या और किसी वस्तुका जो सुलभ हो, लिंग बना लेना चाहिये । अथवा अपनी रुचिके अनुसार सर्वगन्धमय लिंगका निर्माण करे ॥ ७७-१/२ ॥

व्रतावसानसमये समाचरितनित्यकः ॥ ७८ ॥
कृत्वा वैशेषिकीं पूजां हुत्वा चैव यथा पुरा ।
संपूज्य च तथाचार्यं व्रतिनश्च विशेषतः ॥ ७९ ॥
व्रतकी समाप्तिके समय नित्यकर्म पूर्ण करके पूर्ववत् विशेष पूजा और हवन करनेके पश्चात् आचार्यका तथा विशेषतः व्रती ब्राह्मणका पूजन करे ॥ ७८-७९ ॥

देशिकेनाप्यनुज्ञातः प्राङ्मुखो वाप्युदङ्मुखः ।
दर्भासनो दर्भपाणिः प्राणापानौ नियम्य च ॥ ८० ॥
जपित्वा शक्तितो मूलं ध्यात्वा साम्बं त्रियम्बकम् ।
अनुज्ञाप्य यथापूर्वं नमस्कृत्य कृताञ्जलिः ॥ ८१ ॥
समुत्सृजामि भगवन् व्रतमेतत्त्वदाज्ञया ।
इत्युक्त्वा लिङ्गमूलस्थान्दर्भानुत्तरतस्त्यजेत् ॥ ८२ ॥
ततो दण्डजटाचीरमेखला अपि चोत्सृजेत् ।
पुनराचम्य विधिवत्पञ्चाक्षरमुदीरयेत् ॥ ८३ ॥
फिर आचार्यकी आज्ञा ले पूर्व या उत्तरकी ओर मुंह करके कुशासनपर बैठे । हाथमें कुश ले, प्राणायाम करके, 'साम्बसदाशिव' का ध्यान करते हुए यथाशक्ति मूलमन्त्रका जप करे । फिर पूर्ववत् आज्ञा ले हाथ जोड़ नमस्कार करके कहे-'भगवन् ! अब मैं आपकी आज्ञासे इस व्रतका उत्सर्ग करता हूँ । ' ऐसा कहकर शिवलिंगके मूल भागमें उत्तरदिशाकी ओर कुशोंका त्याग करे । तदनन्तर दण्ड चौर, जटा और मेखलाको भी त्याग दे । इसके बाद फिर विधिपूर्वक आचमन करके पंचाक्षरमन्त्रका जप करे ॥ ८०-८३ ॥

यः कृत्वात्यन्तिकीं दीक्षामादेहान्तमनाकुलः ।
व्रतमेतत्प्रकुर्वीत स तु वै नैष्ठिकः स्मृतः ॥ ८४ ॥
सोऽत्याश्रमी च विज्ञेयो महापाशुपतस्तथा ।
स एव तपतां श्रेष्ठ स एव च महाव्रती ॥ ८५ ॥
जो आत्यन्तिक दीक्षा ग्रहण करके अपने शरीरका अन्त होनेतक शान्तभावसे इस व्रतका अनुष्ठान करता है, वह 'नैष्ठिक व्रती' कहा गया है । उसे सब आश्रमोंसे ऊपर उठा हुआ महापाशुपत जानना चाहिये । वही तपस्वी पुरुषोंमें श्रेष्ठ है और वही महान् व्रतधारी है ॥ ८४-८५ ॥

न तेन सदृशः कश्चित्कृतकृत्यो मुमुक्षुषु ।
यो यतिर्नैष्ठिको जातस्तमाहुर्नैष्ठिकोत्तमम् ॥ ८६ ॥
मोक्षकी कामना करनेवालोंमें उसके समान धन्य कोई नहीं है । जो यति नैष्ठिक हो गया है, उसे निष्ठासम्पन्न पुरुषोंमें उत्तम कहा गया है ॥ ८६ ॥

योऽन्वहं द्वादशाहं वा व्रतमेतत्समाचरेत् ।
सोऽपि नैष्ठिकतुल्यः स्यात्तीव्रव्रतसमन्वयात् ॥ ८७ ॥
घृताक्तो यश्चरेदेतद् व्रतं व्रतपरायणः ।
द्वित्रैकदिवसं वापि स च कश्चन नैष्ठिकः ॥ ८८ ॥
जो बारह दिनोंतक प्रतिदिन विधिपूर्वक इस व्रतका अनुष्ठान करता है, वह भी नैष्ठिकके ही तुल्य है; क्योंकि उसने तीव्र व्रतका आश्रय लिया है । जो अपने शरीरमें घी लगाकर व्रतके सभी नियमोंके पालनमें तत्पर हो दो-तीन दिन या एक दिन भी इस व्रतका अनुष्ठान करता है, वह भी कोई नैष्ठिक ही है । । ८७-८८ ॥

कृत्यमित्येव निष्कामो यश्चरेद् व्रतमुत्तमम् ।
शिवार्पितात्मा सततं न तेन सदृशः क्वचित् ॥ ८९ ॥
भस्मच्छन्नो द्विजो विद्वान्महापातकसंभवैः ।
पापैः सुदारुणैः सद्यो मुच्यते नात्र संशयः ॥ ९० ॥
जो निष्काम होकर अपना परम कर्तव्य मानकर अपने-आपको शिवके चरणोंमें समर्पित करके इस उत्तम व्रतका सदा अनुष्ठान करता है, उसके समान कहीं कोई नहीं है । विद्वान् ब्राह्मण भस्म लगाकर महापातक-जनित अत्यन्त दारुण पापोंसे भी तत्काल टूट जाता है, इसमें संशय नहीं है । । ८९-९० ॥

रुद्राग्निर्यत्परं वीर्यं तद्भस्म परिकीर्तितम् ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु वीर्यवान्भस्मसंयुतः ॥ ९१ ॥
भस्मनिष्ठस्य नश्यन्ति देषा भस्माग्निसङ्गमात् ।
भस्मस्नानविशुद्धात्मा भस्मनिष्ठ इति स्मृतः ॥ ९२ ॥
रुद्राग्निका जो सबसे उत्तम वीर्य (बल) है, वही भस्म कहा गया है । अतः जो सभी समयोंमें भस्म लगाये रहता है, वह वीर्यवान् माना गया है । भस्ममें निष्ठा रखनेवाले पुरुषके सारे दोष उस भस्माग्निके संयोगसे दग्ध होकर नष्ट हो जाते हैं । जिसका शरीर भस्मस्नानसे विशुद्ध है, वह भस्मनिष्ठ कहा गया है ॥ ९१-९२ ॥

भस्मना दिग्धसर्वाङ्गो भस्मदीप्तत्रिपुण्ड्रकः ।
भस्मस्नायी च पुरुषो भस्मनिष्ठ इति स्मृतः ॥ ९३ ॥
भूतप्रेतपिशासाश्च रोगाश्चातीव दुःसहाः ।
भस्मनिष्ठस्य सान्निध्याद् विद्रवन्ति न संशयः ॥ ९४ ॥
जिसके सारे अंगोंमें भस्म लगा हुआ है, जो भस्मसे प्रकाशमान है, जिसने भस्ममय त्रिपुण्ड्र लगा रखा है तथा जो भस्मसे स्नान करता है, वह भस्मनिष्ठ माना गया है । भूत, प्रेत, पिशाच तथा अत्यन्त दुःसह रोग भी भस्मनिष्ठके सान्निध्यसे दूर भागते हैं, इसमें संशय नहीं है । ९३-९४ ॥

भासनाद्भसितं प्रोक्तं भस्म कल्मषभक्षणात् ।
भूतिः भूतिकरी चैव रक्षा रक्षाकरी परा ॥ ९५ ॥
किमन्यदिह वक्तव्यं भस्ममाहात्म्यकारणम् ।
व्रती च भस्मना स्नातः स्वयं देवो महेश्वरः ॥ ९६ ॥
परमास्त्रं च शैवानां भस्मैतत्पारमेश्वरम् ।
धौम्याग्रजस्य तपसि व्यापदो यन्निवारिताः ॥ ९७ ॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन कृत्वा पाशुपतव्रतम् ।
धनवद्भस्म सङ्गृह्य भस्मस्नानरतो भवेत् ॥ ९८ ॥
वह शरीरको भासित करता है, इसलिये 'भसित' कहा गया है तथा पापोंका भक्षण करनेके कारण उसका नाम 'भस्म' है । भूति (ऐश्वर्य)-कारक होनेसे उसे 'भूति' या 'विभूति' भी कहते हैं । विभूति रक्षा करनेवाली है, अतः उसका एक नाम 'रक्षा' भी है । भस्मके माहात्म्यको लेकर यहाँ और क्या कहा जाय । भस्मसे स्नान करनेवाला व्रती पुरुष साक्षात् महेश्वरदेव कहा गया है । यह परमेश्वर (रुद्राग्नि)-सम्बन्धी भस्म शिवभक्तोंके लिये बड़ा भारी अस्व है; क्योंकि उसने धौम्य मुनिके बड़े भाई उपमन्युके तपमें आयी हुई आपत्तियोंका निवारण किया था; इसलिये सर्वथा प्रयत्न करके पाशुपतव्रतका अनुष्ठान करनेके पश्चात् हवन-सम्बन्धी भस्मका धनके समान संग्रह करके सदा भस्मस्नानमें तत्पर रहना चाहिये । ९५-९८ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे पशुपतिव्रतविधानवर्णनं नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहितामें पूर्वखण्डके पशुपतिव्रतविधानवर्णन नामक तैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३३ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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