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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ नवमः सर्गः ॥


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सुमन्त्रेण ऋष्यश्रृङ्वृत्तान्तस्य संक्षेपेण वर्णनम् -
सुमन्त्रका राजाको ऋष्यश्रृंग मुनिको बुलानेकी सलाह देते हुए उनके अंगदेशमें जाने और शान्तासे विवाह करने का प्रसंग सुनाना -


एतत् श्रुत्वा रहः सूतो राजानं इदमब्रवीत् ।
श्रूयतो तत् पुरावृत्तं पुराणे च मया श्रुतम् ॥ १ ॥
पुत्रके लिये अश्वमेध यज्ञ करनेकी बात सुनकर सुमन्त्रने राजासे एकान्तमें कहा—'महाराज ! एक पुराना इतिहास सुनिये । मैंने पुराणमें भी इसका वर्णन सुना है ॥ १ ॥

ऋत्विग्भिः उपदिष्टोऽयं पुरावृत्तो मया श्रुतः ।
सनत्कुमारो भगवान् पूर्वं कथितवान् कथाम् ॥ २ ॥
ऋषीणां सन्निधौ राजन् तव पुत्रागमं प्रति ।
'ऋत्विजोंने पुत्र-प्राप्तिके लिये इस अश्वमेधरूप उपायका उपदेश किया है; परंतु मैंने इतिहासके रूपमें कुछ विशेष बात सुनी है । राजन् ! पूर्वकालमें भगवान् सनत्कुमारने ऋषियोंके निकट एक कथा सुनायी थी । वह आपकी पुत्रप्राप्तिसे सम्बन्ध रखनेवाली है ॥ २ १/२ ॥

कश्यपस्य तु पुत्रोऽस्ति विभाण्डक इति श्रुतः ॥ ३ ॥
ऋष्यशृङ्‍ग इति ख्यातः तस्य पुत्रो भविष्यति ।
स वने नित्यसंवृद्धो मुनिर्वनचरः सदा ॥ ४ ॥
'उन्होंने कहा था, मुनिवरो ! महर्षि काश्यपके विभाण्डक नामसे प्रसिद्ध एक पुत्र हैं । उनके भी एक पुत्र होगा, जिसकी लोगोंमें ऋष्यश्रृंग नामसे प्रसिद्धि होगी । वे ऋष्यश्रृंग मुनि सदा वनमें ही रहेंगे और वनमें ही सदा लालनपालन पाकर वे बड़े होंगे ॥ ३-४ ॥

नान्यं जानाति विप्रेन्द्रो नित्यं पित्रनुवर्तनात् ।
द्वैविध्यं ब्रह्मचर्यस्य भविष्यति महात्मनः ॥ ५ ॥
लोकेषु प्रथितं राजन् विप्रैश्च कथितं सदा ।
'सदा पिताके ही साथ रहने के कारण विप्रवर ऋष्यश्रंग दूसरे किसीको नहीं जानेंगे । राजन ! लोकमें ब्रह्मचर्यके दो रूप विख्यात हैं और ब्राह्मणोंने सदा उन दोनों स्वरूपोंका वर्णन किया है । एक तो है दण्ड, मेखला आदि धारणरूप मुख्य ब्रह्मचर्य और दूसरा है ऋतुकालमें पत्नी-समागमरूप गौण ब्रह्मचर्य । उन महात्माके द्वारा उक्त दोनों प्रकारके ब्रह्मचर्योंका पालन होगा ॥ ५ १/२ ॥

तस्यैवं वर्तमानस्य कालः समभिवर्तत ॥ ६ ॥
अग्निं शुश्रूषमाणस्य पितरं च यशस्विनम् ।
"इस प्रकार रहते हुए मुनिका समय अग्नि तथा यशस्वी पिताकी सेवामें ही व्यतीत होगा ॥ ६ १/२ ॥

एतस्मिन्नेव काले तु रोमपादः प्रतापवान् ॥ ७ ॥
अङ्‍गेषु प्रथितो राजा भविष्यति महाबलः ।
तस्य व्यतिक्रमाद् राज्ञो भविष्यति सुदारुणा ॥ ८ ॥
अनावृष्टिः सुघोरा वै सर्वलोकभयावहा ।
"उसी समय अंगदेशमें रोमपाद नामक एक बड़े प्रतापी और बलवान् राजा होंगे; उनके द्वारा धर्मका उल्लङ्घन हो जानेके कारण उस देशमें घोर अनावृष्टि हो जायगी, जो सब लोगोंको अत्यन्त भयभीत कर देगी । ॥ ७-८ १/२ ॥

अनावृष्ट्यां तु वृत्तायां राजा दुःखसमन्वितः ॥ ९ ॥
ब्राह्मणान् श्रुतसंवृद्धान् समानीय प्रवक्ष्यति ।
भवंतः श्रुतकर्माणो लोकचारित्रवेदिनः ॥ १० ॥
समादिशन्तु नियमं प्रायश्चित्तं यथा भवेत् ।
"वर्षा बंद हो जानेसे राजा रोमपादको भी बहुत दु:ख होगा । वे शास्त्रज्ञानमें बढ़े-चढ़े ब्राह्मणोंको बुलाकर कहेंगे —'विप्रवरो ! आपलोग वेद-शास्त्रके अनुसार कर्म करनेवाले तथा लोगोंके आचार-विचारको जाननेवाले हैं; अत: कृपा करके मुझे ऐसा कोई नियम बताइये, जिससे मेरे पापका प्रायश्चित्त हो जाय' ॥ ९-१० १/२ ॥

इत्युक्तास्ते ततो राज्ञा सर्वे ब्राह्मणसत्तमाः ॥ ११ ॥
वक्ष्यन्ति ते महीपालं ब्राह्मणा वेदपारगाः ।
"राजाके ऐसा कहनेपर वे वेदोंके पारंगत विद्वान् सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण उन्हें इस प्रकार सलाह देंगे ॥ ॥ ११ १/२ ॥

विभाण्डकसुतं राजन् सर्वोपायैः इह आनय ॥ १२ ॥
आनाय्य च महीपाल ऋष्यशृङ्‍गं सुसत्कृतम् ।
विभाण्डकसुतं राजन् ब्राह्मणं वेदपारगम् ।
प्रयच्छ कन्यां शान्तां वै विधिना सुसमाहितः ॥ १३ ॥
'राजन् ! विभाण्डकके पुत्र ऋष्यश्रृंग वेदोंके पारगामी विद्वान् हैं । भूपाल ! आप सभी उपायोंसे उन्हें यहाँ ले आइये । बुलाकर उनका भलीभाँति सत्कार कीजिये । फिर एकाग्रचित्त हो वैदिक विधिके अनुसार उनके साथ अपनी कन्या शान्ताका विवाह कर दीजिये' ॥ १२-१३ ॥

तेषां तु वचनं श्रुत्वा राजा चिन्तां प्रपत्स्यते ।
केनोपायेन वै शक्यं इहानेतुं स वीर्यवान् ॥ १४ ॥
उनकी बात सुनकर राजा इस चिन्तामें पड़ जायेंगे कि किस उपायसे उन शक्तिशाली महर्षिको यहाँ लाया जा सकता है ॥ १४ ॥

ततो राजा विनिश्चित्य सह मंत्रिभिरात्मवान् ।
पुरोहितं अमात्यांश्च ततः प्रेष्यति सत्कृतान् ॥ १५ ॥
"फिर वे मनस्वी नरेश मन्त्रियों के साथ निश्चय करके अपने पुरोहित और मन्त्रियोंको सत्कारपूर्वक वहाँ भेजेंगे । ॥ १५ ॥

ते तु राज्ञो वचः श्रुत्वा व्यथिता विनताननाः ।
न गच्छेम ऋषेर्भीता अनुनेष्यन्ति तं नृपम् ॥ १६ ॥
"राजाकी बात सुनकर वे मन्त्री और पुरोहित मुँह लटकाकर दु:खी हो यों कहने लगेंगे कि 'हम महर्षिसे डरते हैं, इसलिये वहाँ नहीं जायेंगे । ' यों कहकर वे राजासे बड़ी अनुनय-विनय करेंगे ॥ १६ ॥

वक्ष्यन्ति चिन्तयित्वा ते तस्योपायांश्च तान् क्षमान् ।
आनेष्यामो वयं विप्रं न च दोषो भविष्यति ॥ १७ ॥
'इसके बाद सोच-विचारकर वे राजाको योग्य उपाय बतायेंगे और कहेंगे कि 'हम उन ब्राह्मणकुमारको किसी उपायसे यहाँ ले आयेंगे । ऐसा करनेसे कोई दोष नहीं घटित होगा' ॥ १७ ॥

एवं अङ्‍गाधिपेनैव गणिकाभिः ऋषेः सुतः ।
आनीतोऽवर्षयत् देवः शान्ता चास्मै प्रदीयते ॥ १८ ॥
"इस प्रकार वेश्याओंकी सहायतासे अंगराज मुनिकुमार ऋष्यश्रृंगको अपने यहाँ बुलायेंगे । उनके आते ही इन्द्रदेव उस राज्यमें वर्षा करेंगे । फिर राजा उन्हें अपनी पुत्री शान्ता समर्पित कर देंगे ॥ १८ ॥

ऋष्यश्रृङ्‍गस्तु जामाता पुत्रान् तव विधास्यति ।
सनत्कुमारकथितं एतावद् व्याहृतं मया ॥ १९ ॥
"इस तरह ऋष्यश्रृंग आपके जामाता हुए । वे ही आपके लिये पुत्रोंको सुलभ करानेवाले यज्ञकर्मका सम्पादन करेंगे । यह सनत्कुमारजीकी कही हुई बात मैंने आपसे निवेदन की है" ॥ १९ ॥

अथ हृष्टो दशरथः सुमन्त्रं प्रत्यभाषत ।
यथा ऋष्यशृङ्‍गस्त्वानीतो येनोपायेन सोच्यताम् ॥ २० ॥
यह सुनकर राजा दशरथको बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने सुमन्त्रसे कहा—'मुनिकुमार ऋष्यश्रृंगको वहाँ जिस प्रकार और जिस उपायसे बुलाया गया, वह स्पष्टरूपसे बताओ' ॥ २० ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे नवमः सर्गः ॥ ९ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें नवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ९ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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