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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ दशमः सर्गः ॥


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ऋष्यश्रृङ्‌गस्याङ्‌गदेश आगमनं शान्तया सह विवाहश्च -
अंगदेशमें ऋष्यश्रृंगके आने तथा शान्ताके साथ विवाह होनेके प्रसंगका कुछ विस्तारके साथ वर्णन -


सुमंत्रश्चोदितो राज्ञा प्रोवाचेदं वचस्तथा ।
यथा ऋष्यश्रृङ्‍गस्त्वानीतो येनोपायेन मन्त्रिभिः ।
तन्मे निगदितं सर्वं श्रृणु मे मंत्रिभिः स ह ॥ १ ॥
राजाकी आज्ञा पाकर उस समय सुमन्त्रने इस प्रकार कहना आरम्भ किया—"राजन् ! रोमपादके मन्त्रियोंने ऋष्यश्रृंगको वहाँ जिस प्रकार और जिस उपायसे बुलाया था, वह सब मैं बता रहा हूँ । आप मन्त्रियोंसहित मेरी बात सुनिये ॥ १ ॥

रोमपादं उवाचेदं सह आमात्यपुरोहितः ।
उपायो निरपायोऽयं अस्माभिः अभिचिंतितः ॥ २ ॥
"उस समय अमात्योंसहित पुरोहितने राजा रोमपादसे कहा—'महाराज ! हमलोगोंने एक उपाय सोचा है, जिसे काममें लानेसे किसी भी विघ्न-बाधाके आनेकी सम्भावना नहीं है ॥ २ ॥

ऋष्यश्रृङ्‍गो वनचरः तपःस्वाध्याय संयुतः ।
अनभिज्ञस्तु नारीणां विषयाणां सुखस्य च ॥ ३ ॥
"ऋष्यश्रृंग मुनि सदा वनमें ही रहकर तपस्या और स्वाध्यायमें लगे रहते हैं । वे स्त्रियोंको पहचानतेतक नहीं हैं और विषयोंके सुखसे भी सर्वथा अनभिज्ञ हैं ॥ ३ ॥

इंद्रियार्थैः अभिमतैः नरचित्तप्रमाथिभिः ।
पुरं आनाययिष्यामः क्षिप्रं चाध्यवसीयताम् ॥ ४ ॥
"हम मनुष्योंके चित्तको मथ डालनेवाले मनोवाञ्छित विषयोंका प्रलोभन देकर उन्हें अपने नगरमें ले आयेंगे; अत: इसके लिये शीघ्र प्रयत्न किया जाय ॥ ४ ॥

गणिकास्तत्र गच्छंतु रूपवत्यः स्वलङ्‍कृताः ।
प्रलोभ्य विविधोपायैः आनयिष्यंतीह सत्कृताः ॥ ५ ॥
"यदि सुन्दर आभूषणोंसे विभूषित मनोहर रूपवाली वेश्याएँ वहाँ जायें तो वे भाँति-भाँतिके उपायोंसे उन्हें लुभाकर इस नगरमें ले आयेंगी; अत: इन्हें सत्कारपूर्वक भेजना चाहिये' ॥ ५ ॥

श्रुत्वा तथेति राजा च प्रत्युवाच पुरोहितम् ।
पुरोहितो मंत्रिणश्च तथा चक्रुश्च ते तथा ॥ ६ ॥
"यह सुनकर राजाने पुरोहितको उत्तर दिया, 'बहुत अच्छा, आपलोग ऐसा ही करें । ' आज्ञा पाकर पुरोहित और मन्त्रियोंने उस समय वैसी ही व्यवस्था की ॥ ६ ॥

वारमुख्यास्तु तत् श्रुत्वा वनं प्रविविशुर्महत् ।
आश्रमस्य अविदूरेऽस्मिन् यत्‍नं कुर्वन्ति दर्शने ॥ ७ ॥
"तब नगरकी मुख्य-मुख्य वेश्याएँ राजाका आदेश सुनकर उस महान् वनमें गयीं और मुनिके आश्रमसे थोड़ी ही दूरपर ठहरकर उनके दर्शनका उद्योग करने लगीं ॥ ७ ॥

ऋषेः पुत्रस्य धीरस्य नित्यं आश्रमवासिनः ।
पितुः स नित्यसंतुष्टो नातिचक्राम चाश्रमात् ॥ ८ ॥
"मुनिकुमार ऋष्यश्रृंग बड़े ही धीर स्वभावके थे । सदा आश्रममें ही रहा करते थे । उन्हें सर्वदा अपने पिताके पास रहने में ही अधिक सुख मिलता था । अत: वे कभी आश्रमके बाहर नहीं निकलते थे ॥ ८ ॥

न तेन जन्मप्रभृति दृष्टपूर्वं तपस्विना ।
स्त्री वा पुमान् वा यच्चान्यत् सत्त्वं नगरराष्ट्रजम् ॥ ९ ॥
"उन तपस्वी ऋषिकुमारने जन्मसे लेकर उस समयतक पहले कभी न तो कोई स्त्री देखी थी और न पिताके सिवा दूसरे किसी पुरुषका ही दर्शन किया था । नगर या राष्ट्रके गाँवोंमें उत्पन्न हुए दूसरे-दूसरे प्राणियोंको भी वे नहीं देख पाये थे ॥ ९ ॥

ततः कदाचित् तं देशं आजगाम यदृच्छया ।
विभण्डकसुतः तत्र ताश्चापश्यत् वराङ्‍गनाः ॥ १० ॥
तदनन्तर एक दिन विभाण्डककुमार ऋष्यशृंग अकस्मात् घूमते-फिरते उस स्थानपर चले आये, जहाँ वे वेश्याएँ ठहरी हुई थीं । वहाँ उन्होंने उन सुन्दरी वनिताओंको देखा ॥ १० ॥

ताश्चित्रवेषाः प्रमदा गायन्त्यो मधुरस्वरम् ।
ऋषिपुत्रं उपागम्य सर्वा वचनमब्रुवन् ॥ ११ ॥
"उन प्रमदाओंका वेष बड़ा ही सुन्दर और अद्भुत था । वे मीठे स्वरमें गा रही थीं । ऋषिकुमारको आया देख सभी उनके पास चली आयीं और इस प्रकार पूछने लगीं ॥ ११ ॥

कस्त्वं किं वर्तसे ब्रह्मन् ज्ञातुमिच्छामहे वयम् ।
एकस्त्वं विजने दूरे वने चरसि शंस नः ॥ १२ ॥
"ब्रह्मन् ! आप कौन हैं ? क्या करते हैं ? तथा इस निर्जन वनमें आश्रमसे इतनी दूर आकर अकेले क्यों विचर रहे हैं ? यह हमें बताइये । हमलोग इस बातको जानना चाहती हैं ॥ १२ ॥

अदृष्टरूपाः तास्तेन काम्यरूपा वने स्त्रियः ।
हार्दात् तस्य मतिर्जाता आख्यातुं पितरं स्वकम् ॥ १३ ॥
"ऋष्यश्रृंगने वनमें कभी स्त्रियोंका रूप नहीं देखा था और वे स्त्रियों तो अत्यन्त कमनीय रूपसे सुशोभित थीं; अत: उन्हें देखकर उनके मन में स्नेह उत्पन्न हो गया । इसलिये उन्होंने उनसे अपने पिताका परिचय देनेका विचार किया ॥ १३ ॥

पिता विभण्डकोऽस्माकं तस्याहं सुत औरसः ।
ऋष्यश्रृङ्‍ग इति ख्यातं नाम कर्म च मे भुवि ॥ १४ ॥
"वे बोले—'मेरे पिताका नाम विभाण्डक मुनि है । मैं उनका औरस पुत्र हूँ । मेरा ऋष्यशृंग नाम और तपस्या आदि कर्म इस भूमण्डलमें प्रसिद्ध है ॥ १४ ॥

इहाश्रमपदोऽस्माकं समीपे शुभदर्शनाः ।
करिष्ये वोऽत्र पूजां वै सर्वेषां विधिपूर्वकम् ॥ १५ ॥
"यहाँ पास ही मेरा आश्रम है । आपलोग देखनेमें परम सुन्दर हैं । (अथवा आपका दर्शन मेरे लिये शुभकारक है । ) आप मेरे आश्रमपर चलें । वहाँ मैं आप सब लोगोंकी विधिपूर्वक पूजा करूँगा' ॥ १५ ॥

ऋषिपुत्रवचः श्रुत्वा सर्वासां मतिरास वै ।
तदाश्रमपदं द्रष्टुं जग्मुः सर्वास्ततोऽङ्‌गनाः ॥ १६ ॥
"ऋषिकुमारकी यह बात सुनकर सब उनसे सहमत हो गयीं । फिर वे सब सुन्दरी स्त्रियाँ उनका आश्रम देखनेके लिये वहाँ गयीं ॥ १६ ॥

गतानां तु ततः पूजां ऋषिपुत्रश्चकार ह ।
इदं अर्घ्यं इदं पाद्यं इदं मूलं हलं च नः ॥ १७ ॥
"वहाँ जानेपर ऋषिकुमारने 'यह अर्घ्य है, यह पाद्य है तथा यह भोजनके लिये फल-मूल प्रस्तुत है' ऐसा कहते हुए उन सबका विधिवत् पूजन किया ॥ १७ ॥

प्रतिगृह्य तु तां पूजां सर्वा एव समुत्सुकाः ।
ऋषेर्भीताश्च शीघ्रं ता गमनाय मतिं दधुः ॥ १८ ॥
"ऋषिकी पूजा स्वीकार करके वे सभी वहाँसे चली जानेको उत्सुक हुईं । उन्हें विभाण्डक मुनिका भय लग रहा था, इसलिये उन्होंने शीघ्र ही वहाँसे चली जानेका विचार किया ॥ १८ ॥

अस्माकमपि मुख्यानि फलानीमानि वै द्विज ।
गृहाण प्रति भद्रं ते भक्षयस्व च मा चिरम् ॥ १९ ॥
"वे बोलीं 'ब्रह्मन् ! हमारे पास भी ये उत्तम-उत्तम फल हैं । विप्रवर ! इन्हें ग्रहण कीजिये । आपका कल्याण हो । इन फलोंको शीघ्र ही खा लीजिये, विलम्ब न कीजिये' ॥ १९ ॥

ततस्तास्तं समालिङ्‍ग्य सर्वा हर्षसमन्विताः ।
मोदकान् प्रददुस्तस्मै भक्षांश्च विविधान् शुभान् ॥ २० ॥
"ऐसा कहकर उन सबने हर्ष में भरकर ऋषिका आलिंगन किया और उन्हें खानेयोग्य भौति-भाँतिके उत्तम पदार्थ तथा बहुत-सी मिठाइयाँ दीं ॥ २० ॥

तानि चास्वाद्य तेजस्वी फलानीति स्म मन्यते ।
अनास्वादितपूर्वाणि वने नित्यनिवासिनाम् ॥ २१ ॥
"उनका रसास्वादन करके उन तेजस्वी ऋषिने समझा कि ये भी फल हैं; क्योंकि उस दिनके पहले उन्होंने कभी वैसे पदार्थ नहीं खाये थे । भला, सदा वनमें रहनेवालोंके लिये वैसी वस्तुओंके स्वाद लेनेका अवसर ही कहाँ है ॥ २१ ॥

आपृच्छ्य तु तदा विप्रं व्रतचर्यां निवेद्य च ।
गच्छंति स्मापदेशात्ता भीतास्तस्य पितुः स्त्रियः ॥ २२ ॥
"तत्पश्चात् उनके पिता विभाण्डक मुनिके डरसे डरी हुई वे स्त्रियाँ व्रत और अनुष्ठानकी बात बता उन ब्राह्मणकुमारसे पूछकर उसी बहाने वहाँसे चली गयी ॥ २२ ॥

गतासु तासु सर्वासु काश्यपस्यात्मजो द्विजः ।
अस्वस्थ हृदयश्चासीत् दुःखाच्च परिवर्तते ॥ २३ ॥
"उन सबके चले जानेपर काश्यपकुमार ब्राह्मण ऋष्यश्रृंग मन-ही-मन व्याकुल हो उठे और बड़े दु:खसे इधरउधर टहलने लगे ॥ २३ ॥

ततोऽपरेद्युस्तं देशं आजगाम स वीर्यवान् ।
विभाण्डकसुतः श्रीमान् मनसाचिन्त्तयन् मुहुः ॥ २४
मनोज्ञा यत्र ता दृष्टा वारमुख्याः स्वलङ्‍कृताः ।
"तदनन्तर दूसरे दिन फिर मनसे उन्हींका बारम्बार चिन्तन करते हुए शक्तिशाली विभाण्डककुमार श्रीमान् ऋष्यश्रृंग उसी स्थानपर गये, जहाँ पहले दिन उन्होंने वस्त्र और आभूषणोंसे सजी हुई उन मनोहर रूपवाली वेश्याओंको देखा था ॥ २४ १/२ ॥

दृष्ट्वैव च तदा विप्रं आयान्तं हृष्टमानसाः ॥ २५ ॥
उपसृत्य ततः सर्वाः तास्तमूचुः इदं वचः ।
एहि आश्रमपदं सौम्य ह्यस्माकं इति चाब्रुवन् ॥ २६ ॥
"ब्राह्मण ऋष्यश्रृंगको आते देख तुरंत ही उन वेश्याओंका हृदय प्रसन्नतासे खिल उठा । वे सब-की-सब उनके पास जाकर उनसे इस प्रकार कहने लगीं—'सौम्य ! आओ, आज हमारे आश्रमपर चलो ॥ २५-२६ ॥

चित्राण्यत्र बहूनि स्युः मूलानि च फलानि च ।
तत्राप्येष विशेषेण विधिर्हि भविता ध्रुवम् ॥ २७ ॥
यद्यपि यहाँ नाना प्रकारके फल-मूल बहुत मिलते हैं तथापि वहाँ भी निश्चय ही इन सबका विशेषरूपसे प्रबन्ध हो सकता है' ॥ २७ ॥

श्रुत्वा तु वचनं तासां सर्वासां हृदयङ्‍गमम् ।
गमनाय मतिं चक्रे तं च निन्युस्तथा स्त्रियः ॥ २८ ॥
"उन सबके मनोहर वचन सुनकर ऋष्यश्रृंग उनके साथ जानेको तैयार हो गये और वे स्त्रियाँ उन्हें अंगदेशमें ले गयीं ॥ २८ ॥

तत्र चानीयमाने तु विप्रे तस्मिन् महात्मनि ।
ववर्ष सहसा देवो जगत् प्रह्लादयन् तदा ॥ २९ ॥
"उन महात्मा ब्राह्मणके अंगदेशमें आते ही इन्द्रने सम्पूर्ण जगत्को प्रसन्न करते हुए सहसा पानी बरसाना आरम्भ कर दिया ॥ २९ ॥

वर्षेणैवागतं विप्रं तापसं स नराधिपः ।
प्रत्युद्‍गम्य मुनिं प्रह्वः शिरसा च महीं गतः ॥ ३० ॥
वर्षासे ही राजाको अनुमान हो गया कि वे तपस्वी ब्राह्मणकुमार आ गये । फिर बड़ी विनयके साथ राजाने उनकी अगवानी की और पृथ्वीपर मस्तक टेककर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया ॥ ३० ॥

अर्घ्यं च प्रददौ तस्मै न्यायतः सुसमाहितः ।
वव्रे प्रसादं विप्रेन्द्रान् मा विप्रं मन्युराविशत् ॥ ३१ ॥
"फिर एकाग्रचित्त होकर उन्होंने ऋषिको अर्घ्य निवेदन किया तथा उन विप्रशिरोमणिसे वरदान माँगा, 'भगवन् ! आप और आपके पिताजीका कृपाप्रसाद मुझे प्राप्त हो । ' ऐसा उन्होंने इसलिये किया कि कहीं कपटपूर्वक यहाँतक लाये जानेका रहस्य जान लेनेपर विप्रवर ऋष्यश्रृंग अथवा विभाण्डक मुनिके मनमें मेरे प्रति क्रोध न हो । ॥ ३१ ॥

अंतःपुरं प्रविश्यास्मै कन्यां दत्त्वा यथाविधि ।
शान्तां शान्तेन मनसा राजा हर्षमवाप सः ॥ ३२ ॥
"तत्पश्चात् ऋष्यश्रृंगको अन्त:पुरमें ले जाकर उन्होंने शान्तचित्तसे अपनी कन्या शान्ताका उनके साथ विधिपूर्वक विवाह कर दिया । ऐसा करके राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई ॥ ३२ ॥

एवं स न्यवसत् तत्र सर्वकामैः सुपूजितः ।
ऋष्यशृङ्‍गो महातेजाः शान्तया सह भार्यया ॥ ३३ ॥
"इस प्रकार महातेजस्वी ऋष्यशृंग राजासे पूजित हो सम्पूर्ण मनोवाञ्छित भोग प्राप्त कर अपनी धर्मपत्नी शान्ताके साथ वहाँ रहने लगे' ॥ ३३ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे दशमः सर्गः ॥ १० ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें दसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ १० ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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