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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ एकोनषष्टितमः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] विश्वामित्रेण त्रिशङ्कुं आश्वास्य तदीयं यज्ञं कारयितुं ऋषीणां आमन्त्रणं स्ववाक्यं अंगीकृतवत् समहोदयानां मुनिपुत्राणां शापद्वारा विनाशनं च -
विश्वामित्रका त्रिशंकुको आश्वासन देकर उनका यज्ञ कराने के लिये ऋषि-मुनियोंको आमन्त्रित करना और उनकी बात न माननेवाले महोदय तथा ऋषिपुत्रोंको शाप देकर नष्ट करना - उक्तवाक्यं तु राजानं कृपया कुशिकात्मजः । अब्रवीन्मधुरं वाक्यं साक्षात् चण्डालतां गतं ॥ १ ॥ [शतानन्दजी कहते हैं श्रीराम !] साक्षात् चाण्डालके स्वरूपको प्राप्त हुए राजा त्रिशंकुके पूर्वोक्त वचनको सुनकर कुशिकनन्दन विश्वामित्रजीने दयासे द्रवित होकर उनसे मधुर वाणीमें कहा ॥ १ ॥ इष्वाको स्वागतं वत्स जानामि त्वां सुधार्मिकम् । शरणं ते प्रदास्यामि मा भैषीर्नृपपुङ्गव ॥ २ ॥ 'वत्स ! इक्ष्वाकुकुलनन्दन ! तुम्हारा स्वागत है । मैं जानता हूँ, तुम बड़े धर्मात्मा हो । नृपप्रवर ! डरो मत, मैं तुम्हें शरण दूंगा ॥ २ ॥ अहं आमंत्रये सर्वान् महर्षीन् पुण्यकर्मणः । यज्ञसाह्यकरान् राजन् ततो यक्ष्यसि निर्वृतः ॥ ३ ॥ 'राजन् ! तुम्हारे यज्ञमें सहायता करनेवाले समस्त पुण्यकर्मा महर्षियोंको मैं आमन्त्रित करता हूँ । फिर तुम आनन्दपूर्वक यज्ञ करना ॥ ३ ॥ गुरुशापकृतं रूपं यदिदं त्वयि वर्तते । अनेन सह रूपेण सशरीरो गमिष्यसि ॥ ४ ॥ हस्तप्राप्तमहं मन्ये स्वर्गं तव नराधिप । यस्त्वं कौशिकमागम्य शरण्यं शरणागतः ॥ ५ ॥ "गुरुके शापसे तुम्हें जो यह नवीन रूप प्राप्त हुआ है इसके साथ ही तुम सदेह स्वर्गलोकको जाओगे । नरेश्वर ! तुम जो शरणागतवत्सल विश्वामित्रकी शरणमें आ गये, इससे मैं यह समझता हूँ कि स्वर्गलोक तुम्हारे हाथमें आ गया है । ४-५ ॥ एवमुक्त्वा महातेजाः पुत्रान् परमधार्मिकान् । व्यादिदेश महाप्राज्ञान् यज्ञसंभारकारणात् ॥ ६ ॥ ऐसा कहकर महातेजस्वी विश्वामित्रने अपने परम धर्मपरायण महाज्ञानी पुत्रोंको यज्ञकी सामग्री जुटानेकी आज्ञा दी ॥ ६ ॥ सर्वान् शिष्यान् समाहूय वाक्यमेतत् उवाच ह । सर्वान् ऋषिन् सवासिष्ठान् आनयध्वं ममाज्ञया ॥ ७ ॥ सशिष्यान् सुहृदश्चैव सर्त्विजः सबहुश्रुतान् । तत्पश्चात् समस्त शिष्योंको बुलाकर उनसे यह बात कही—'तुमलोग मेरी आज्ञासे अनेक विषयोंके ज्ञाता समस्त ऋषि-मुनियोंको, जिनमें वसिष्ठके पुत्र भी सम्मिलित हैं, उनके शिष्यों, सुहृदों तथा ऋत्विजोंसहित बुला लाओ ॥ ७ १/२ ॥ यदन्यो वचनं ब्रूयान् मद्वाक्यबलचोदितः ॥ ८ ॥ तत्सर्वमखिलेनोक्तं ममाख्येयं अनादृतम् । "जिसे मेरा संदेश देकर बुलाया गया हो वह अथवा दूसरा कोई यदि इस यज्ञके विषयमें कोई अवहेलनापूर्ण बात कहे तो तुमलोग वह सब पूरा-पूरा मुझसे आकर कहना' ॥ ८ १/२ ॥ तस्य तद्वचनं श्रुत्वा दिशो जग्मुस्तदाज्ञया ॥ ९ ॥ आजग्मुरथ देशेभ्यः सर्वेभ्यो ब्रह्मवादिनः । ते च शिष्याः समागम्य मुनिं ज्वलिततेजसम् ॥ १० ॥ ऊचुश्च वचनं सर्वे सर्वेषां ब्रह्मवादिनाम् । उनकी आज्ञा मानकर सभी शिष्य चारों दिशाओंमें चले गये । फिर तो सब देशोंसे ब्रह्मवादी मुनि आने लगे । विश्वामित्रके वे शिष्य उन प्रज्वलित तेजवाले महर्षिके पास सबसे पहले लौट आये और समस्त ब्रह्मवादियोंने जो बातें कही थीं, उन्हें सबने विश्वामित्रजीसे कह सुनाया ॥ ९-१० १/२ ॥ श्रुत्वा ते वचनं सर्वे समायांति द्विजातयः ॥ ११ ॥ सर्वदेशेषु चागच्छन् वर्जयित्वा महोदयम् । वे बोले—'गुरुदेव ! आपका आदेश या संदेश सुनकर प्रायः सम्पूर्ण देशोंमें रहनेवाले सभी ब्राह्मण आ रहे हैं । केवल महोदय नामक ऋषि तथा वसिष्ठ-पुत्रोंको छोड़कर सभी महर्षि यहाँ आनेके लिये प्रस्थान कर चुके हैं ॥ ११ १/२ ॥ वासिष्ठं यच्छतं सर्वं क्रोधपर्याकुलाक्षरम् ॥ १२ ॥ यथाह वचनं सर्वं शृणु त्वं मुनिपुङ्गव । 'मुनिश्रेष्ठ ! वसिष्ठके जो सौ पुत्र हैं, उन सबने क्रोधभरी वाणीमें जो कुछ कहा है, वह सब आप सुनिये ॥ १२ १/२ ॥ क्षत्रियो याजको यस्य चण्डालस्य विशेषतः ॥ १३ ॥ कथं सदसि भोक्तारो हविस्तस्य सुरर्षयः । ब्राह्मणा वा महात्मानो भुक्त्वा चण्डालभोजनम् ॥ १४ ॥ कथं स्वर्गं गमिष्यंति विश्वामित्रेण पालिताः । 'वे कहते हैं जो विशेषत: चण्डाल है और जिसका यज्ञ करानेवाला आचार्य क्षत्रिय है, उसके यज्ञमें देवर्षि अथवा महात्मा ब्राह्मण हविष्यका भोजन कैसे कर सकते हैं ? अथवा चण्डालका अन्न खाकर विश्वामित्रसे पालित हुए ब्राह्मण स्वर्गमें कैसे जा सकेंगे ?' ॥ १३-१४ १/२ ॥ एतद्वचननैष्ठुर्यं ऊचुः संरक्तलोचनाः ॥ १५ ॥ वासिष्ठा मुनिशार्दूल सर्वे सहमहोदयाः । . 'मुनिप्रवर ! महोदयके साथ वसिष्ठके सभी पुत्रोंने क्रोधसे लाल आँखें करके ये उपर्युक्त निष्ठुरतापूर्ण बातें कही थीं ॥ १५ १/२ ॥ तेषां तद्वचनं श्रुत्वा सर्वेषां मुनिपुङ्गवः ॥ १६ ॥ क्रोधसंरक्तनयनः सरोषं इदमब्रवीत् । उन सबकी वह बात सुनकर मुनिवर विश्वामित्रके दोनों नेत्र क्रोधसे लाल हो गये और वे रोषपूर्वक इस प्रकार बोले— ॥ १६ १/२ ॥ यद् दूषयंत्यदुष्टं मां तप उग्रं समास्थितम् ॥ १७ ॥ भस्मीभूता दुरात्मानो भविष्यंति न संशयः । 'मैं उग्र तपस्यामें लगा हूँ और दोष या दुर्भावनासे रहित हूँ तो भी जो मुझपर दोषारोपण करते हैं, वे दुरात्मा भस्मीभूत हो जायेंगे, इसमें संशय नहीं है ॥ १७ १/२ ॥ अद्य ते कालपाशेन नीता वैवस्वतक्षयम् ॥ १८ ॥ सप्तजातिशतान्येव मृतपाः संभवन्तु ते । श्वमांसनियताहारा मुष्टिका नाम निर्घृणाः ॥ १९ ॥ 'आज कालपाशसे बँधकर वे यमलोकमें पहुँचा दिये गये । अब ये सात सौ जन्मोंतक मुर्दोकी रखवाली करनेवाली, निश्चितरूपसे कुत्तेका मांस खानेवाली मुष्टिक नामक प्रसिद्ध निर्दय चण्डाल-जातिमें जन्म ग्रहण करें । १८-१९ ॥ विकृताश्च विरूपाश्च लोकान् अनुचरंत्विमान् । महोदयश्च दुर्बुद्धिः मां अदूष्यं ह्यदूषयत् ॥ २० ॥ दूषितः सर्वलोकेषु निषादत्वं गमिष्यति । प्राणातिपातनिरतो निरनुक्रोशतां गतः ॥ २१ ॥ दीर्घकालं मम क्रोधाद् दुर्गतिं वर्तयिष्यति । 'वे लोग विकृत एवं विरूप होकर इन लोकोंमें विचरें । साथ ही दुर्बद्धि महोदय भी, जिसने मुझ दोषहीनको भी दूषित किया है, मेरे क्रोधसे दीर्घ कालतक सब लोगोंमें निन्दित, दूसरे प्राणियोंकी हिंसामें तत्पर और दयाशून्य निषादयोनिको प्राप्त करके दुर्गति भोगेगा' ॥ २०-२१ १/२ ॥ एतावदुक्त्वा वचनं विश्वामित्रो महातपाः । विरराम महातेजा ऋषिमध्ये महामुनिः ॥ २२ ॥ ऋषियोंके बीचमें ऐसा कहकर महातपस्वी, महातेजस्वी एवं महामुनि विश्वामित्र चुप हो गये ॥ २२ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे एकोनषष्टितमः सर्गः ॥ ५९ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें उनसठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ५९ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |