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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ षष्टितमः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] त्रिशङ्कोर्यज्ञं कारयितुं ऋषीन् प्रति विश्वामित्रस्यानुरोध ऋषिभिर्यज्ञस्यारम्भः, सशरीरस्य त्रिशङ्कोः स्वर्गलोके गमनं स्वर्गादिन्द्रेण पात्यमाने त्रिशङ्कौ विक्षुब्धेन विश्वामित्रेण नूतन देवसर्गायोद्यमो देवानां अनुरोधेन तस्य ततो विरामश्च -
विश्वामित्रका ऋषियोंसे त्रिशंकुका यज्ञ कराने के लिये अनुरोध, ऋषियोंद्वारा यज्ञका आरम्भ, त्रिशंकुका सशरीर स्वर्गगमन, इन्द्रद्वारा स्वर्गसे उनके गिराये जानेपर क्षुब्ध हुए विश्वामित्रका नूतन देवसर्गके लिये उद्योग, फिर देवताओंके अनुरोधसे उनका इस कार्यसे विरत होना - तपोबलहतान् ज्ञात्वा वासिष्ठान् समहोदयान् । ऋषिमध्ये महातेजा विश्वामित्रोऽभ्यभाषत ॥ १ ॥ [शतानन्दजी कहते हैं श्रीराम !] महोदयसहित वसिष्ठके पुत्रोंको अपने तपोबलसे नष्ट हुआ जान महातेजस्वी विश्वामित्रने ऋषियोंके बीचमें इस प्रकार कहा— ॥ १ ॥ अयमिक्ष्वाकुदायादः त्रिशङ्कुः इति विश्रुतः । धर्मिष्ठश्च वदान्यश्च मां चैव शरणं गतः ॥ २ ॥ 'मुनिवरो ! ये इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न राजा त्रिशंकु हैं । ये विख्यात नरेश बड़े ही धर्मात्मा और दानी रहे हैं तथा इस समय मेरी शरणमें आये हैं ॥ २ ॥ स्वेनानेन शरीरेण देवलोकजिगीषया । यथाऽयं स्वशरीरेण स्वर्गलोकं गमिष्यति ॥ ३ ॥ तथा प्रवर्त्यतां यज्ञो भवद्भिश्च मया सह । 'इनकी इच्छा है कि मैं अपने इसी शरीरसे देवलोकपर अधिकार प्राप्त करूँ । अत: आपलोग मेरे साथ रहकर ऐसे यज्ञका अनुष्ठान करें, जिससे इन्हें इस शरीरसे ही देवलोककी प्राप्ति हो सके' ॥ ३ १/२ ॥ विश्वामित्रवचः श्रुत्वा सर्व एव महर्षयः ॥ ४ ॥ ऊचुः समेताः सहसा धर्मज्ञा धर्मसंहितम् । अयं कुशिकदायादो मुनिः परमकोपनः ॥ ५ ॥ यदाह वचनं सम्यग् एतत् कार्यं न संशयः । विश्वामित्रजीकी यह बात सुनकर धर्मको जाननेवाले सभी महर्षियोंने सहसा एकत्र होकर आपसमें धर्मयुक्त परामर्श किया—'ब्राह्मणो ! कुशिकके पुत्र विश्वामित्र मुनि बड़े क्रोधी हैं । ये जो बात कह रहे हैं, उसका ठीक तरहसे पालन करना चाहिये । इसमें संशय नहीं है ॥ ४-५ १/२ ॥ अग्निकल्पो हि भगवान् शापं दास्यति रोषितः ॥ ६ ॥ तस्मात् प्रवर्त्यतां यज्ञः सशरीरो यथा दिवि । गच्छेद् इक्ष्वाकुदायादो विश्वामित्रस्य तेजसा ॥ ७ ॥ 'ये भगवान् विश्वामित्र अग्निके समान तेजस्वी हैं । यदि इनकी बात नहीं मानी गयी तो ये रोषपूर्वक शाप दे देंगे । इसलिये ऐसे यज्ञका आरम्भ करना चाहिये, जिससे विश्वामित्रके तेजसे ये इक्ष्वाकुनन्दन त्रिशंकु सशरीर स्वर्गलोकमें जा सकें ॥ ६-७ ॥ तथा प्रवर्त्यतां यज्ञः सर्वे समधितिष्ठत । एवमुक्त्वा महर्षयः संजह्रुः ताः क्रियास्तदा ॥ ८ ॥ इस तरह विचार करके उन्होंने सर्वसम्मतिसे यह निश्चय किया कि 'यज्ञ आरम्भ किया जाय । ' ऐसा निश्चय करके महर्षियोंने उस समय अपना-अपना कार्य आरम्भ किया ॥ ८ ॥ याजकश्च महातेजा विश्वामित्रोऽभवत् क्रतौ । ऋत्विजश्चानुपूर्व्येण मंत्रवत् मंत्रकोविदाः ॥ ९ ॥ चक्रुः सर्वाणि कर्माणि यथाकल्पं यथाविधि । महातेजस्वी विश्वामित्र स्वयं ही उस यज्ञमें याजक (अध्वर्यु) हुए । फिर क्रमश: अनेक मन्त्रवेत्ता ब्राह्मण ऋत्विज् हुए; जिन्होंने कल्पशास्त्रके अनुसार विधि एवं मन्त्रोच्चारणपूर्वक सारे कार्य सम्पन्न किये ॥ ९ १/२ ॥ ततः कालेन महता विश्वामित्रो महातपाः ॥ १० ॥ चकारावाहनं तत्र भागार्थं सर्वदेवताः । नाभ्यागमन् तदा तत्र भागार्थं सर्वदेवताः ॥ ११ ॥ तदनन्तर बहुत समयतक यन्तपूर्वक मन्त्रपाठ करके महातपस्वी विश्वामित्रने अपना-अपना भाग ग्रहण करनेके लिये सम्पूर्ण देवताओंका आवाहन किया; परंतु उस समय वहाँ भाग लेनेके लिये वे सब देवता नहीं आये ॥ १०-११ ॥ ततः कोपसमाविष्टो विश्वामित्रो महामुनिः । स्रुवमुद्यम्य सक्रोधः त्रिशङ्कुं इदमब्रवीत् ॥ १२ ॥ इससे महामुनि विश्वामित्रको बड़ा क्रोध आया और उन्होंने स्रुवा उठाकर रोषके साथ राजा त्रिशंकुसे इस प्रकार कहा— ॥ १२ ॥ पश्य मे तपसो वीर्यं स्वार्जितस्य नरेश्वर । एष त्वां सशरीरेण नयामि स्वर्गमोजसा ॥ १३ ॥ 'नरेश्वर ! अब तुम मेरे द्वारा उपार्जित तपस्याका बल देखो । मैं अभी तुम्हें अपनी शक्तिसे सशरीर स्वर्गलोकमें पहुँचाता हूँ ॥ १३ ॥ दुष्प्रापं स्वशरीरेण दिवं गच्छ नरेश्वरः । स्वार्जितं किञ्चिदप्यस्ति मया हि तपसः फलम् ॥ १४ ॥ राजन् त्वं तेजसा तस्य सशरीरो दिवं व्रज । राजन् ! आज तुम अपने इस शरीरके साथ ही दुर्लभ स्वर्गलोकको जाओ । नरेश्वर ! यदि मैंने तपस्याका कुछ भी फल प्राप्त किया है तो उसके प्रभावसे तुम सशरीर स्वर्गलोकको जाओ' ॥ १४ १/२ ॥ उक्तवाक्ये मुनौ तस्मिन् सशरीरो नरेश्वरः ॥ १५ ॥ दिवं जगाम काकुत्स्थ मुनीनां पश्यतां तदा । श्रीराम ! विश्वामित्र मुनिके इतना कहते ही राजा त्रिशंकु सब मुनियोंके देखते-देखते उस समय अपने शरीरके साथ ही स्वर्गलोकको चले गये ॥ १५ १/२ ॥ स्वर्गलोकं गतं दृष्ट्वा त्रिशङ्कुं पाकशासनः ॥ १६ ॥ सह सर्वैः सुरगणैः इदं वचनमब्रवीत् । त्रिशंकुको स्वर्गलोकमें पहुँचा हुआ देख समस्त देवताओंके साथ पाकशासन इन्द्रने उनसे इस प्रकार कहा— ॥ १६ १/२ ॥ त्रिशङ्को गच्छ भूयस्त्वं नासि स्वर्गकृतालयः ॥ १७ ॥ गुरुशापहतो मूढ पत भूमिं अवाक्शिराः । "मूर्ख त्रिशंकु ! तू फिर यहाँसे लौट जा, तेरे लिये स्वर्गमें स्थान नहीं है । तू गुरुके शापसे नष्ट हो चुका है, अत: नीचे मुँह किये पुन: पृथ्वीपर गिर जा' ॥ १७ १/२ ॥ एवमुक्तो महेंद्रेण त्रिशङ्कुरपतत् पुनः ॥ १८ ॥ विक्रोशमानः त्राहीति विश्वामित्रं तपोधनम् । इन्द्रके इतना कहते ही राजा त्रिशंकु तपोधन विश्वामित्रको पुकारकर 'त्राहि-त्राहि' की रट लगाते हुए पुन: स्वर्गसे नीचे गिरे ॥ १८ १/२ ॥ तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य क्रोशमानस्य कौशिकः ॥ १९ ॥ रोषं आहारयत् तीव्रं तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् । चीखते-चिल्लाते हुए त्रिशंकुकी वह करुण पुकार सुनकर कौशिक मुनिको बड़ा क्रोध हुआ । वे त्रिशंकुसे बोले'राजन् ! वहीं ठहर जा, वहीं ठहर जा' (उनके ऐसा कहनेपर त्रिशंकु बीचमें ही लटके रह गये) ॥ १९ १/२ ॥ ऋषिमध्ये स तेजस्वी प्रजापतिरिवापरः ॥ २० ॥ सृजन् दक्षिणमार्गस्थान् सप्तर्षीन् अपरान् पुनः । नक्षत्रवंशं अपरं असृजत् क्रोधमूर्च्छितः ॥ २१ ॥ तत्पश्चात् तेजस्वी विश्वामित्रने ऋषिमण्डलीके बीच दूसरे प्रजापतिके समान दक्षिणमार्गके लिये नये सप्तर्षियोंकी सृष्टि की तथा क्रोधसे भरकर उन्होंने नवीन नक्षत्रोंका भी निर्माण कर डाला ॥ २०-२१ ॥ दक्षिणां दिशमास्थाय ऋषिमध्ये महायशाः । सृष्ट्वा नक्षत्रवंशं च क्रोधेन कलुषीकृतः ॥ २२ ॥ अन्यं इन्द्रं करिष्यामि लोको वा स्यादनिन्द्रकः । दैवतान्यपि स क्रोधात् स्रष्टुं समुपचक्रमे ॥ २३ ॥ वे महायशस्वी मुनि क्रोधसे कलुषित हो दक्षिण दिशामें ऋषिमण्डलीके बीच नूतन नक्षत्रमालाओंकी सृष्टि करके यह विचार करने लगे कि मैं दूसरे इन्द्रकी सृष्टि करूँगा अथवा मेरे द्वारा रचित स्वर्गलोक बिना इन्द्रके ही रहेगा । ' ऐसा निश्चय करके उन्होंने क्रोधपूर्वक नूतन देवताओंकी सृष्टि प्रारम्भ की ॥ २२-२३ ॥ ततः परमसंभ्रांताः सर्षिसङ्घाः सुरासुराः । विश्वामित्रं महात्मानं ऊचुः सानुनयं वचः ॥ २४ ॥ इससे समस्त देवता, असुर और ऋषि-समुदाय बहुत घबराये और सभी वहाँ आकर महात्मा विश्वामित्रसे विनयपूर्वक बोले— ॥ २४ ॥ अयं राजा महाभाग गुरुशापपरिक्षतः । सशरीरो दिवं यातुं नार्हत्येव तपोधन ॥ २५ ॥ 'महाभाग ! ये राजा त्रिशंकु गुरुके शापसे अपना पुण्य नष्ट करके चाण्डाल हो गये हैं; अत: तपोधन ! ये सशरीर स्वर्गमें जानेके कदापि अधिकारी नहीं हैं । ॥ २५ ॥ तेषां तद्वचनं श्रुत्वा देवानां मुनिपुङ्गवः । अब्रवीत् सुमहद् वाक्यं कौशिकः सर्वदेवताः ॥ २६ ॥ उन देवताओंकी यह बात सुनकर मुनिवर कौशिकने सम्पूर्ण देवताओंसे परमोत्कृष्ट वचन कहा— ॥ २६ ॥ सशरीरस्य भद्रं वः त्रिशङ्कोरस्य भूपतेः । आरोहणं प्रतिज्ञातं नानृतं कर्तुमुत्सहे ॥ २७ ॥ 'देवगण ! आपका कल्याण हो । मैंने राजा त्रिशंकुको सदेह स्वर्ग भेजनेकी प्रतिज्ञा कर ली है; अत: उसे मैं झूठी नहीं कर सकता ॥ २७ ॥ स्वर्गोऽस्तु सशरीरस्य त्रिशङ्कोरस्य शाश्वतः । नक्षत्राणि च सर्वाणि मामकानि ध्रुवाण्यथ ॥ २८ ॥ यावल्लोका धरिष्यंति तिष्ठंत्वेतानि सर्वशः । मत्कृतानि सुराः सर्वे तदनुज्ञातुमर्हथ ॥ २९ ॥ 'इन महाराज त्रिशंकुको सदा स्वर्गलोकका सुख प्राप्त होता रहे । मैंने जिन नक्षत्रोंका निर्माण किया है, वे सब सदा मौजूद रहें । जबतक संसार रहे, तबतक ये सभी वस्तुएँ, जिनकी मेरे द्वारा सृष्टि हुई है, सदा बनी रहें । देवताओ ! आप सब लोग इन बातोंका अनुमोदन करें ॥ २८-२९ ॥ एवमुक्ताः सुराः सर्वे प्रत्यूचुः मुनिपुङ्गवम् । एवं भवतु भद्रं ते तिष्ठंत्वेतानि सर्वशः ॥ ३० ॥ गगने तान्यनेकानि वैश्वानरपथाद् बहिः । नक्षत्राणि मुनिश्रेष्ठ तेषु ज्योतिःषु जाज्वलन् ॥ ३१ ॥ अवाक्शिराः त्रिशङ्कुश्च तिष्ठत्वमरसन्निभः । अनुयास्यंति चैतानि ज्योतींषि नृपसत्तमम् ॥ ३२ ॥ कृतार्थं कीर्तिमंतं च स्वर्गलोकगतं यथा । उनके ऐसा कहनेपर सब देवता मुनिवर विश्वामित्रसे बोले—'महर्षे ! ऐसा ही हो । ये सभी वस्तुएँ बनी रहें और आपका कल्याण हो । मुनिश्रेष्ठ ! आपके रचे हुए अनेक नक्षत्र आकाशमें वैश्वानरपथसे बाहर प्रकाशित होंगे और उन्हीं ज्योतिर्मय नक्षत्रोंके बीच में सिर नीचा किये त्रिशंकु भी प्रकाशमान रहेंगे । वहाँ इनकी स्थिति देवताओंके समान होगी और ये सभी नक्षत्र इन कृतार्थ एवं यशस्वी नृपश्रेष्ठका स्वर्गीय पुरुषकी भाँति अनुसरण करते रहेंगे' ॥ ३०-३२ १/२ ॥ विश्वामित्रस्तु धर्मात्मा सर्वदेवैरभिष्टुतः ॥ ३३ ॥ ऋषिमध्ये महातेजा बाढमित्येव देवताः । इसके बाद सम्पूर्ण देवताओंने ऋषियोंके बीचमें ही महातेजस्वी धर्मात्मा विश्वामित्र मुनिकी स्तुति की । इससे प्रसन्न होकर उन्होंने 'बहुत अच्छा' कहकर देवताओंका अनुरोध स्वीकार कर लिया ॥ ३३ १/२ ॥ ततो देवा महात्मानो मुनयश्च तपोधनाः । जग्मुर्यथागतं सर्वे यज्ञस्यान्ते नरोत्तम ॥ ३४ ॥ नरश्रेष्ठ श्रीराम ! तदनन्तर यज्ञ समाप्त होनेपर सब देवता और तपोधन महर्षि जैसे आये थे, उसी प्रकार अपनेअपने स्थानको लौट गये ॥ ३४ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे षष्टितमः सर्गः ॥ ६० ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें साठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ६० ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |