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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ एकषष्टितमः सर्गः ॥


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विश्वामित्रस्य पुष्करतीर्थे तपस्या, राजर्षिणाम्बरीषेणर्चीकमध्यमपुत्रं शुनःशेपं यज्ञपशूकर्तुं क्रीत्वा स्वगृहे तस्य समायनम् -
विश्वामित्रकी पुष्कर तीर्थमें तपस्या तथा राजर्षि अम्बरीषका ऋचीकके मध्यम पुत्र शुनःशेपको यज्ञ-पशु बनाने के लिये खरीदकर लाना -


विश्वामित्रो महातेजाः प्रस्थितान् वीक्ष्य तान् ऋषीन् ।
अब्रवीद् नरशार्दूल सर्वांस्तान् वनवासिनः ॥ १ ॥
शतानन्दजी कहते हैं— पुरुषसिंह श्रीराम ! यज्ञमें आये हुए उन सब वनवासी ऋषियोंको वहाँसे जाते देख महातेजस्वी विश्वामित्रने उनसे कहा ॥ १ ॥

महाविघ्नः प्रवृत्तोऽयं दक्षिणां आस्थितो दिशम् ।
दिशमन्यां प्रपत्स्यामः तत्र तप्स्यामहे तपः ॥ २ ॥
'महर्षियो ! इस दक्षिण दिशा में रहने से हमारी तपस्यामें महान् विघ्न आ पड़ा है; अत: अब हम दूसरी दिशामें चले जायेंगे और वहीं रहकर तपस्या करेंगे ॥ २ ॥

पश्चिमायां विशालायां पुष्करेषु महात्मनः ।
सुखं तपश्चरिष्यामः सुखं तद्धि तपोवनम् ॥ ३ ॥
'विशाल पश्चिम दिशामें जो महात्मा ब्रह्माजीके तीन पुष्कर हैं, उन्हींक पास रहकर हम सुखपूर्वक तपस्या करेंगे; क्योंकि वह तपोवन बहुत ही सुखद है' ॥ ३ ॥

एवमुक्त्वा महातेजाः पुष्करेषु महामुनिः ।
तप उग्रं दुराधर्षं तेपे मूलफलाशनः ॥ ४ ॥
ऐसा कहकर वे महातेजस्वी महामुनि पुष्करमें चले गये और वहाँ फल-मूलका भोजन करके उग्र एवं दुर्जय तपस्या करने लगे ॥ ४ ॥

एतस्मिन् एव काले तु अयोध्याधिपतिर्महान् ।
अंबरीष इति ख्यातो यष्टुं समुपचक्रमे ॥ ५ ॥
इन्हीं दिनों अयोध्याके महाराज अम्बरीष एक यज्ञकी तैयारी करने लगे ॥ ५ ॥

तस्य वै यजमानस्य पशुमिंद्रो जहार ह ।
प्रणष्टे तु पशौ विप्रो राजानं इदमब्रवीत् ॥ ६ ॥
जब वे यज्ञमें लगे हुए थे, उस समय इन्द्रने उनके यज्ञपशुको चुरा लिया । पशुके खो जानेपर पुरोहितजीने राजासे कहा— ॥ ६ ॥

पशुरभ्याहृतो राजन् प्रणष्टस्तव दुर्नयात् ।
अरक्षितारं राजानं घ्नंति दोषा नरेश्वर ॥ ७ ॥
'राजन् ! जो पशु यहाँ लाया गया था, वह आपकी दुर्नीतिके कारण खो गया । नरेश्वर ! जो राजा यज्ञ-पशुकी रक्षा नहीं करता, उसे अनेक प्रकारके दोष नष्ट कर डालते हैं ॥ ७ ॥

प्रायश्चित्तं महद्ध्येतन् नरं वा पुरुषर्षभ ।
आनयस्व पशुं शीघ्रं यावत् कर्म प्रवर्तते ॥ ८ ॥
'पुरुषप्रवर ! जबतक कर्मका आरम्भ होता है, उसके पहले ही खोये हुए पशुकी खोज कराकर उसे शीघ्र यहाँ ले आओ । अथवा उसके प्रतिनिधिरूपसे किसी पुरुष पशुको खरीद लाओ । यही इस पापका महान् प्रायश्चित्त है' । ॥ ८ ॥

उपाध्यायवचः श्रुत्वा स राजा पुरुषर्षभः ।
अन्वियेष महाबुद्धिः पशुं गोभिः सहस्रशः ॥ ९ ॥
पुरोहितकी यह बात सुनकर महाबुद्धिमान् पुरुषश्रेष्ठ राजा अम्बरीषने हजारों गौओंके मूल्यपर खरीदनेके लिये एक पुरुषका अन्वेषण किया ॥ ९ ॥

देशान् जनपदान् तांस्तान् नगराणि वनानि च ।
आश्रमाणि च पुण्यानि मार्गमाणो महीपतिः ॥ १० ॥
स पुत्रसहितं तात सभार्यं रघुनंदन ।
भृगुतुङ्‌गे समासीनं ऋचीकं संददर्श ह ॥ ११ ॥
तात रघुनन्दन ! विभिन्न देशों, जनपदों, नगरों, वनों तथा पवित्र आश्रमोंमें खोज करते हुए राजा अम्बरीष भृगुतुंग पर्वतपर पहुँचे और वहाँ उन्होंने पत्नी तथा पुत्रोंके साथ बैठे हुए ऋचीक मुनिका दर्शन किया ॥ १०-११ ॥

तमुवाच महातेजाः प्रणम्याभिप्रसाद्य च ।
महर्षिं तपसा दीप्तं राजर्षिः अमितप्रभः ॥ १२ ॥
अमित कान्तिमान् एवं महातेजस्वी राजर्षि अम्बरीषने तपस्यासे उद्दीप्त होनेवाले महर्षि ऋचीकको प्रणाम किया और उन्हें प्रसन्न करके कहा ॥ १२ ॥

पृष्ट्‍वा सर्वत्र कुशलं ऋचीकं तमिदं वचः ।
गवां शतसहस्रेण विक्रीणीषे सुतं यदि ॥ १३ ॥
पशोरर्थे महाभाग कृतकृत्योऽस्मि भार्गव ।
पहले तो उन्होंने ऋचीक मुनिसे उनकी सभी वस्तुओंके विषयमें कुशल-समाचार पूछा, उसके बाद इस प्रकार कहा—'महाभाग भृगुनन्दन ! यदि आप एक लाख गौएँ लेकर अपने एक पुत्रको पशु बनानेके लिये बेचें तो मैं कृतकृत्य हो जाऊँगा ॥ १३ १/२ ॥

सर्वे परिगता देशा यज्ञीयं न लभे पशुम् ॥ १४ ॥
दातुमर्हसि मूल्येन सुतमेकमितो मम ।
'मैं सारे देशोंमें घूम आया; परंतु कहीं भी यज्ञोपयोगी पशु नहीं पा सका । अत: आप उचित मूल्य लेकर यहाँ मुझे अपने एक पुत्रको दे दीजिये' ॥ १४ १/२ ॥

एवमुक्तो महातेजा ऋचीकस्त्वब्रवीद् वचः ॥ १५ ॥
नाहं ज्येष्ठं नरश्रेष्ठ विक्रीणीयां कथञ्चन ।
उनके ऐसा कहनेपर महातेजस्वी ऋचीक बोले- 'नरश्रेष्ठ ! मैं अपने ज्येष्ठ पुत्रको तो किसी तरह नहीं बेचूंगा' ॥ १५ १/२ ॥

ऋचीकस्य वचः श्रुत्वा तेषां माता महात्मनाम् ॥ १६ ॥
उवाच नरशार्दूलं अंबरीषं इदं वचः ।
ऋचीक मुनिकी बात सुनकर उन महात्मा पुत्रोंकी माताने पुरुषसिंह अम्बरीषसे इस प्रकार कहा ॥ १६ १/२ ॥

अविक्रेयं सुतं ज्येष्ठं भगवानाह भार्गवः ॥ १७ ॥
ममापि दयितं विद्धि कनिष्ठं शुनकं प्रभो ।
तस्मात् कनीयसं पुत्रं न दास्ये तव पार्थिव ॥ १८ ॥
'प्रभो ! भगवान् भार्गव कहते हैं कि ज्येष्ठ पुत्र कदापि बेचनेयोग्य नहीं है; परंतु आपको मालूम होना चाहिये जो सबसे छोटा पुत्र शुनक है, वह मुझे भी बहुत ही प्रिय है । अत: पृथ्वीनाथ ! मैं अपना छोटा पुत्र आपको कदापि नहीं दूंगी ॥ १७-१८ ॥

प्रायेण हि नरश्रेष्ठ ज्येष्ठाः पितृषु वल्लभाः ।
मातॄणां च कनीयांसः तस्माद्रक्षे कनीयसम् ॥ १९ ॥
'नरश्रेष्ठ ! प्राय: जेठे पुत्र पिताओंको प्रिय होते हैं और छोटे पुत्र माताओंको । अत: मैं अपने कनिष्ठ पुत्रकी अवश्य रक्षा करूँगी ॥ १९ ॥

उक्तवाक्ये मुनौ तस्मिन् मुनिपत्‍न्यां तथैव च ।
शुनःशेपः स्वयं राम मध्यमो वाक्यमब्रवीत् ॥ २० ॥
श्रीराम ! मुनि और उनकी पन्तीके ऐसा कहनेपर मझले पुत्र शुनःशेपने स्वयं कहा— ॥ २० ॥

पिता ज्येष्ठं अविक्रेयं माता चाह कनीयसम् ।
विक्रीतं मध्यमं मन्ये राजपुत्र नयस्व माम् ॥ २१ ॥
'राजपुत्र ! पिताने ज्येष्ठको और माताने कनिष्ठ पुत्रको बेचनेके लिये अयोग्य बतलाया है । अत: मैं समझता हूँ इन दोनोंकी दृष्टिमें मझला पुत्र ही बेचनेके योग्य है । इसलिये तुम मुझे ही ले चलो' ॥ २१ ॥

अथ राजा महाबाहो वक्यान्ते ब्रह्मवादिनः ।
हिरण्यस्य सुर्वर्णस्य कोटिभी रत्‍नराशिभिः ॥ २२ ॥
गवां शतसहस्रेण शुनःशेपं नरेश्वरः ।
गृहीत्वा परमप्रीतो जगाम रघुनंदन ॥ २३ ॥
महाबाहु रघुनन्दन ! ब्रह्मवादी मझले पुत्रके ऐसा कहनेपर राजा अम्बरीष बड़े प्रसन्न हुए और एक करोड़ स्वर्णमुद्रा, रन्तोंके ढेर तथा एक लाख गौओंके बदले शुन:शेपको लेकर वे घरकी ओर चले ॥ २२-२३ ॥

अंबरीषस्तु राजर्षी रथमारोप्य सत्वरः ।
शुनःशेपं महातेजा जगामाशु महायशाः ॥ २४ ॥
महातेजस्वी महायशस्वी राजर्षि अम्बरीष शुन:शेपको रथपर बिठाकर बड़ी उतावलीके साथ तीव्र गतिसे चले ॥ २४ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे एकषष्टितमः सर्गः ॥ ६१ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें एकसठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ६१ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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