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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ द्विषष्टितमः सर्गः ॥


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शुनःशेपं रक्षितुं विश्वामित्रस्य सफलः प्रयत्‍नस्तपस्या च -
विश्वामित्रद्वारा शुनःशेपकी रक्षाका सफल प्रयत्न और तपस्या -


शुनःशेपं नरश्रेष्ठ गृहीत्वा तु महायशाः ।
व्यश्रमत् पुष्करे राजा मध्याह्ने रघुनंदन ॥ १ ॥
[शतानन्दजी बोले-] नरश्रेष्ठ रघुनन्दन ! महायशस्वी राजा अम्बरीष शुन:शेपको साथ लेकर दोपहरके समय पुष्कर तीर्थमें आये और वहाँ विश्राम करने लगे ॥ १ ॥

तस्य विश्रममाणस्य शुनःशेपो महायशाः ।
पुष्करं ज्येष्टमागम्य विश्वामित्रं ददर्श ह ॥ २ ॥
तप्यंतं ऋषिभिः सार्धं मातुलं परमातुरः ।
विषण्णवदनो दीनः तृष्णया च श्रमेण च ॥ ३ ॥
पपाताङ्‍के मुने राम वाक्यं चेदमुवाच ह ।
श्रीराम ! जब वे विश्राम करने लगे, उस समय महायशस्वी शुन:शेप ज्येष्ठ पुष्करमें आकर ऋषियोंके साथ तपस्या करते हुए अपने मामा विश्वामित्रसे मिला । वह अत्यन्त आतुर एवं दीन हो रहा था । उसके मुखपर विषाद छा गया था । वह भूख-प्यास और परिश्रमसे दीन हो मुनिकी गोदमें गिर पड़ा और इस प्रकार बोला ॥ २-३ १/२ ॥

न मेऽस्ति माता न पिता ज्ञातयो बांधवाः कुतः ॥ ४ ॥
त्रातुमर्हसि मां सौम्य धर्मेण मुनिपुङ्‍गव ।
'सौम्य ! मुनिपुंगव ! न मेरे माता हैं, न पिता, फिर भाई-बन्धु कहाँसे हो सकते हैं । (मैं असहाय हूँ अतः) आप ही धर्मके द्वारा मेरी रक्षा कीजिये ॥ ४ १/२ ॥

त्राता त्वं हि नरश्रेष्ठ सर्वेषां त्वं हि भावनः ॥ ५ ॥
राजा च कृतकार्यः स्याद् अहं दीर्घायुः अव्ययः ।
स्वर्गलोकं उपाश्नीयां तपस्तप्त्वा ह्यनुत्तमम् ॥ ६ ॥
'नरश्रेष्ठ ! आप सबके रक्षक तथा अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति करानेवाले हैं । ये राजा अम्बरीष कृतार्थ हो जायें और मैं भी विकाररहित दीर्घायु होकर सर्वोत्तम तपस्या करके स्वर्गलोक प्राप्त कर लूँ—ऐसी कृपा कीजिये ॥ ५-६ ॥

त्वं मे नाथो ह्यनाथस्य भव भव्येन चेतसा ।
पितेव पुत्रं धर्मात्मन् त्रातुमर्हसि किल्बिषात् ॥ ७ ॥
'धर्मात्मन् ! आप अपने निर्मलचित्तसे मुझ अनाथके नाथ (असहायके संरक्षक) हो जायें । जैसे पिता अपने पुत्रकी रक्षा करता है, उसी प्रकार आप मुझे इस पापमूलक विपत्तिसे बचाइये ॥ ७ ॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा विश्वामित्रो महातपाः ।
सांत्वयित्वा बहुविधं पुत्रान् इदमुवाच ह ॥ ८ ॥
. शुन:शेपकी वह बात सुनकर महातपस्वी विश्वामित्र उसे नाना प्रकारसे सान्त्वना दे अपने पुत्रोंसे इस प्रकार बोले— ॥ ८ ॥

यत्कृते पितरः पुत्रान् जनयंति शुभार्थिनः ।
परलोकहितार्थाय तस्य कालोऽयमागतः ॥ ९ ॥
'बच्चो ! शुभकी अभिलाषा रखनेवाले पिता जिस पारलौकिक हितके उद्देश्यसे पुत्रोंको जन्म देते हैं, उसकी पूर्तिका यह समय आ गया है ॥ ९ ॥

अयं मुनिसुतो बालो मत्तः शरणमिच्छति ।
अस्य जीवितमात्रेण प्रियं कुरुत पुत्रकाः ॥ १० ॥
'पुत्रो ! यह बालक मुनिकुमार मुझसे अपनी रक्षा चाहता है, तुमलोग अपना जीवनमात्र देकर इसका प्रिय करो ॥ १० ॥

सर्वे सुकृतकर्माणः सर्वे धर्मपरायणाः ।
पशुभूता नरेंद्रस्य तृप्तिमग्नेः प्रयच्छत ॥ ११ ॥
'तुम सब-के-सब पुण्यात्मा और धर्मपरायण हो । अत: राजाके यज्ञमें पशु बनकर अग्निदेवको तृप्ति प्रदान करो ॥ ११ ॥

नाथवांश्च शुनःशेपो यज्ञश्चाविघ्नतो भवेत् ।
देवताः तर्पिताश्च स्युः मम चापि कृतं वचः ॥ १२ ॥
'इससे शुन:शेप सनाथ होगा, राजाका यज्ञ भी बिना किसी विघ्न-बाधाके पूर्ण हो जायगा, देवता भी तृप्त होंगे और तुम्हारे द्वारा मेरी आज्ञाका पालन भी हो जायगा ॥ १२ ॥

मुनेस्तद् वचनं श्रुत्वा मधुच्छंदादयः सुताः ।
साभिमानं नरश्रेष्ठ सलीलं इदमब्रुवन् ॥ १३ ॥
'नरश्रेष्ठ ! विश्वामित्र मुनिका वह वचन सुनकर उनके मधुच्छन्द आदि पुत्र अभिमान और अवहेलनापूर्वक इस प्रकार बोले- ॥ १३ ॥

कथं आत्मसुतान् हित्वा त्रायसेऽन्यसुतं विभो ।
अकार्यं इव पश्यामः श्वमांसं इव भोजने ॥ १४ ॥
'प्रभो ! आप अपने बहुत-से पुत्रोंको त्यागकर दूसरेके एक पुत्रकी रक्षा कैसे करते हैं ? जैसे पवित्र भोजनमें कुत्तेका मांस पड़ जाय तो वह अग्राह्य हो जाता है, उसी प्रकार जहाँ अपने पुत्रोंकी रक्षा आवश्यक हो, वहाँ दूसरेके पुत्रकी रक्षाके कार्यको हम अकर्त्तव्यकी कोटिमें ही देखते हैं ॥ १४ ॥

तेषां तद् वचनं श्रुत्वा पुत्राणां मुनिपुङ्‍गवः ।
क्रोधसंरक्तनयनो व्याहर्तुं उपचक्रमे ॥ १५ ॥
उन पुत्रोंका वह कथन सुनकर मुनिवर विश्वामित्रके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये । वे इस प्रकार कहने लगे— ॥ १५ ॥

निःसाध्वसमिदं प्रोक्तं धर्मादपि विगर्हितम् ।
अतिक्रम्य तु मद्‌वाक्यं दारुणं रोमहर्षणम् ॥ १६ ॥
श्वमांसभोजिनः सर्वे वासिष्ठा इव जातिषु ।
पूर्णं वर्षसहस्रं तु पृथिव्यां अनुवत्स्यथ ॥ १७ ॥
'अरे ! तुमलोगोंने निर्भय होकर ऐसी बात कही है, जो धर्मसे रहित एवं निन्दित है । मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन करके जो यह दारुण एवं रोमाञ्चकारी बात तुमने मुँहसे निकाली है, इस अपराधके कारण तुम सब लोग भी वसिष्ठके पुत्रोंकी भाँति कुत्तेका मांस खानेवाली मुष्टिक आदि जातियोंमें जन्म लेकर पूरे एक हजार वर्षांतक इस पृथ्वीपर रहोगे' ॥ १६-१७ ॥

कृत्वा शापसमायुक्तान् पुत्रान् मुनिवरस्तदा ।
शुनःशेपं उवाचार्तं कृत्वा रक्षां निरामयम् ॥ १८ ॥
इस प्रकार अपने पुत्रोंको शाप देकर मुनिवर विश्वामित्रने उस समय शोकात शुन:शेपकी निर्विघ्न रक्षा करके उससे इस प्रकार कहा— ॥ १८ ॥

पवित्रपाशैराबद्धो रक्तमाल्यानुलेपनः ।
वैष्णवं यूपमासाद्य वाग्भिरग्निमुदाहर ॥ १९ ॥
इमे च गाथे द्वे दिव्ये गायेथा मुनिपुत्रक ।
अंबरीषस्य यज्ञेऽस्मिन् ततः सिद्धिमवाप्स्यसि ॥ २० ॥
'मुनिकुमार ! अम्बरीषके इस यज्ञमें जब तुम्हें कुश आदिके पवित्र पाशोंसे बाँधकर लाल फूलोंकी माला और लाल चन्दन धारण करा दिया जाय, उस समय तुम विष्णुदेवता-सम्बन्धी यूपके पास जाकर वाणीद्वारा अग्निकी (इन्द्र और विष्णुकी) स्तुति करना और इन दो दिव्य गाथाओंका गान करना । इससे तुम मनोवांछित सिद्धि प्राप्त कर लोगे' ॥ १९-२० ॥

शुनःशेपो गृहीत्वा ते द्वे गाथे सुसमाहितः ।
त्वरया राजसिंहं तं अंबरीषं उवाच ह ॥ २१ ॥
शुन:शेपने एकाग्रचित्त होकर उन दोनों गाथाओंको ग्रहण किया और राजसिंह अम्बरीषके पास जाकर उनसे शीघ्रतापूर्वक कहा— ॥ २१ ॥

राजसिंह महाबुद्धे शीघ्रं गच्छावहे वयम् ।
निर्वर्तयस्व राजेंद्र दीक्षां च समुदाहर ॥ २२ ॥
'राजेन्द्र ! परम बुद्धिमान् राजसिंह ! अब हम दोनों शीघ्र चलें । आप यज्ञकी दीक्षा लें और यज्ञकार्य सम्पन्न करें ॥ २२ ॥

तद् वाक्यं ऋषिपुत्रस्य श्रुत्वा हर्षसमन्वितः ।
जगाम नृपतिः शीघ्रं यज्ञवाटमतंद्रितः ॥ २३ ॥
ऋषिकुमारका वह वचन सुनकर राजा अम्बरीष आलस्य छोड़ हर्षसे उत्फुल्ल हो शीघ्रतापूर्वक यज्ञशालामें गये ॥। २३ ॥

सदस्यानुमते राजा पवित्रकृतलक्षणम् ।
पशुं रक्तांबरं कृत्वा यूपे तं समबंधयत् ॥ २४ ॥
वहाँ सदस्यकी अनुमति ले राजा अम्बरीषने शुन:शेपको कुशके पवित्र पाशसे बाँधकर उसे पशुके लक्षणसे सम्पन्न कर दिया और यज्ञ-पशुको लाल वस्त्र पहिनाकर यूपमें बाँध दिया ॥ २४ ॥

स बद्धो वाग्भिरग्र्याभिः अभितुष्टाव वै सुरौ ।
इंद्रमिंद्रानुजं चैव यथावन् मुनिपुत्रकः ॥ २५ ॥
बँधे हुए मुनिपुत्र शुन:शेपने उत्तम वाणीद्वारा इन्द्र और उपेन्द्र इन दोनों देवताओंकी यथावत् स्तुति की ॥ २५ ॥

ततः प्रीतः सहस्राक्षो रहस्यस्तुतितोषितः ।
दीर्घमायुस्तदा प्रादात् शुनःशेपाय वासवः ॥ २६ ॥
उस रहस्यभूत स्तुतिसे संतुष्ट होकर सहस्र नेत्रधारी इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए । उस समय उन्होंने शुन:शेपको दीर्घायु प्रदान की ॥ २६ ॥

स च राजा नरश्रेष्ठ यज्ञस्य च समाप्तवान् ।
फलं बहुगुणं राम सहस्राक्षप्रसादजम् ॥ २७ ॥
नरश्रेष्ठ श्रीराम ! राजा अम्बरीषने भी देवराज इन्द्रकी कृपासे उस यज्ञका बहुगुणसम्पन्न उत्तम फल प्राप्त किया ॥ २७ ॥

विश्वामित्रोऽपि धर्मात्मा भूयस्तेपे महातपाः ।
पुष्करेषु नरश्रेष्ठ दशवर्षशतानि च ॥ २८ ॥
पुरुषप्रवर ! इसके बाद महातपस्वी धर्मात्मा विश्वामित्रने भी पुष्कर तीर्थमें पुन: एक हजार वर्षांतक तीव्र तपस्या की ॥ २८ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे द्विषष्टितमः सर्गः ॥ ६२ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें बासठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ६२ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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