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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ त्रिषष्टितमः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] विश्वामित्रस्य महर्षिपदवीलाभः, मेनकया तस्य तपोभङ्गो, ब्रह्मर्षिपदप्राप्तये तस्य घोरं तपश्च -
विश्वामित्रको ऋषि एवं महर्षिपदकी प्राप्ति, मेनकाद्वारा उनका तपोभंग तथा ब्रह्मर्षिपदकी प्राप्तिके लिये उनकी घोर तपस्या - पूर्णे वर्षसहस्रे तु व्रतस्नातं महामुनिम् । अभ्यगच्छन् सुराः सर्वे तपः फलचिकीर्षवः ॥ १ ॥ शतानन्दजी कहते हैं श्रीराम !] जब एक हजार वर्ष पूरे हो गये, तब उन्होंने व्रतकी समाप्तिका स्नान किया । स्नान कर लेनेपर महामुनि विश्वामित्रके पास सम्पूर्ण देवता उन्हें तपस्याका फल देनेकी इच्छासे आये ॥ १ ॥ अब्रवीत् सुमहातेजा ब्रह्मा सुरुचिरं वचः । ऋषिस्त्वमसि भद्रं ते स्वार्जितैः कर्मभिः शुभैः ॥ २ ॥ उस समय महातेजस्वी ब्रह्माजीने मधुर वाणीमें कहा— 'मुने ! तुम्हारा कल्याण हो । अब तुम अपने द्वारा उपार्जित शुभकर्मोंके प्रभावसे ऋषि हो गये' ॥ २ ॥ तमेवमुक्त्वा देवेशः त्रिदिवं पुनरभ्यगात् । विश्वामित्रो महातेजा भूयस्तेपे महत् तपः ॥ ३ ॥ उनसे ऐसा कहकर देवेश्वर ब्रह्माजी पुन: स्वर्गको चले गये । इधर महातेजस्वी विश्वामित्र पुन: बड़ी भारी तपस्यामें लग गये ॥ ३ ॥ ततः कालेन महता मेनका परमाप्सराः । पुष्करेषु नरश्रेष्ठ स्नातुं समुपचक्रमे ॥ ४ ॥ नरश्रेष्ठ ! तदनन्तर बहुत समय व्यतीत होनेपर परम सुन्दरी अप्सरा मेनका पुष्कर में आयी और वहाँ स्नानकी तैयारी करने लगी ॥ ४ ॥ तां ददर्श महातेजा मेनकां कुशिकात्मजः । रूपेणाप्रतिमां तत्र विद्युतं जलदे यथा ॥ ५ ॥ महातेजस्वी कुशिकनन्दन विश्वामित्रने वहाँ उस मेनकाको देखा । उसके रूप और लावण्यकी कहीं तुलना नहीं थी । जैसे बादलमें बिजली चमकती हो, उसी प्रकार वह पुष्करके जलमें शोभा पा रही थी ॥ ५ ॥ कंदर्पदर्पवशगो मुनिस्तामिदमब्रवीत् । अप्सरः स्वागतं तेऽस्तु वस चेह ममाश्रमे ॥ ६ ॥ उसे देखकर विश्वामित्र मुनि कामके अधीन हो गये और उससे इस प्रकार बोले—'अप्सरा ! तेरा स्वागत है, तू मेरे इस आश्रममें निवास कर ॥ ६ ॥ अनुगृह्णीष्व भद्रं ते मदनेन विमोहितम् । इत्युक्ता सा वरारोहा तत्र वासमथाकरोत् ॥ ७ ॥ 'तेरा भला हो । मैं कामसे मोहित हो रहा हूँ । मुझपर कृपा कर । ' उनके ऐसा कहनेपर सुन्दर कटिप्रदेशवाली मेनका वहाँ निवास करने लगी ॥ ७ ॥ तपसो हि महाविघ्नो विश्वामित्रं उपागमत् । तस्यां वसंत्यां वर्षाणि पञ्च पञ्च च राघव ॥ ८ ॥ विश्वामित्राश्रमे सौम्ये सुखेन व्यतिचक्रमुः । इस प्रकार तपस्याका बहुत बड़ा विघ्न विश्वामित्रजीके पास स्वयं उपस्थित हो गया । रघुनन्दन ! मेनकाको विश्वामित्रजीके उस सौम्य आश्रमपर रहते हुए दस वर्ष बड़े सुखसे बीते ॥ ८ १/२ ॥ अथ काले गते तस्मिन् विश्वामित्रो महामुनिः ॥ ९ ॥ सव्रीड इव संवृत्तः चिंताशोकपरायणः । इतना समय बीत जानेपर महामुनि विश्वामित्र लज्जित-से हो गये । चिन्ता और शोकमें डूब गये ॥ ९ १/२ ॥ बुद्धिर्मुनेः समुत्पन्ना सामर्षा रघुनंदन ॥ १० ॥ सर्वं सुराणां कर्मैतत् तपोपहरणं महत् । रघुनन्दन ! मुनिके मनमें रोषपूर्वक यह विचार उत्पन्न हुआ कि 'यह सब देवताओंकी करतूत है । उन्होंने हमारी तपस्याका अपहरण करनेके लिये यह महान् प्रयास किया है ॥ १० १/२ ॥ अहोरात्रापदेशेन गताः संवत्सरा दश ॥ ११ ॥ काममोहाभिभूतस्य विघ्नोऽयं प्रत्युपस्थितः । 'मैं कामजनित मोहसे ऐसा आक्रान्त हो गया कि मेरे दस वर्ष एक दिन-रातके समान बीत गये । यह मेरी तपस्यामें बहुत बड़ा विघ्न उपस्थित हो गया' ॥ ११ १/२ ॥ विनिश्वसन् मुनिवरः पश्चात्तापेन दुःखितः ॥ १२ ॥ ऐसा विचारकर मुनिवर विश्वामित्र लम्बी साँस खींचते हुए पश्चात्तापसे दुःखित हो गये ॥ १२ ॥ भीतां अप्सरसं दृष्ट्वा वेपंतीं प्राञ्जलिं स्थिताम् । मेनकां मधुरैर्वाक्यैः विसृज्य कुशिकात्मजः ॥ १३ ॥ उस समय मेनका अप्सरा भयभीत हो थर-थर काँपती हुई हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ी हो गयी । उसकी ओर देखकर कुशिकनन्दन विश्वामित्रने मधुर वचनोंद्वारा उसे विदा कर दिया और स्वयं वे उत्तर पर्वत (हिमवान्) पर चले गये ॥ १३ १/२ ॥ उत्तरं पर्वतं राम विश्वामित्रो जगाम ह । स कृत्वा नैष्ठिकीं बुद्धिं जेतुकामो महायशाः ॥ १४ ॥ कौशिकीतीरमासाद्य तपस्तेपे दुरासदम् । वहाँ उन महायशस्वी मुनिने निश्चयात्मक बुद्धिका आश्रय ले कामदेवको जीतनेके लिये कौशिकी-तटपर जाकर दुर्जय तपस्या आरम्भ की ॥ १४ १/२ ॥ तस्य वर्षसहस्राणि घोरं तप उपासतः ॥ १५ ॥ उत्तरे पर्वते राम देवतानां अभूद्भयम् । श्रीराम ! वहाँ उत्तर पर्वतपर एक हजार वर्षांतक घोर तपस्यामें लगे हुए विश्वामित्रसे देवताओंको बड़ा भय हुआ ॥ १५ १/२ ॥ आमंत्रयन् समागम्य सर्वे सर्षिगणाः सुराः ॥ १६ ॥ महर्षिशब्दं लभतां साध्वयं कुशिकात्मजः । सब देवता और ऋषि परस्पर मिलकर सलाह करने लगे- ये कुशिकनन्दन विश्वामित्र महर्षिकी पदवी प्राप्त करें, यही इनके लिये उत्तम बात होगी ॥ १६ १/२ ॥ देवतानां वचः श्रुत्वा सर्वलोकपितामहः ॥ १७ ॥ अब्रवीन्मधुरं वाक्यं विश्वामित्रं तपोधनम् । महर्षे स्वागतं वत्स तपसोग्रेण तोषितः ॥ १८ ॥ महत्त्वं ऋषिमुख्यत्वं ददामि तव कौशिक । देवताओंकी बात सुनकर सर्वलोकपितामह ब्रह्माजी तपोधन विश्वामित्रके पास जा मधुर वाणीमें बोले 'महर्षे ! तुम्हारा स्वागत है । वत्स कौशिक ! मैं तुम्हारी उग्र तपस्यासे बहुत संतुष्ट हूँ और तुम्हें महत्ता एवं ऋषियोंमें श्रेष्ठता प्रदान करता हूँ' ॥ १७-१८ १/२ ॥ ब्रह्मणस्तु वचः श्रुत्वा विश्वामित्रस्तपोधनः ॥ १९ ॥ प्राञ्जलिः प्रणतो भूत्वा प्रत्युवाच पितामहम् । महर्षिशब्दमतुलं स्वार्जितैः कर्मभिः शुभैः ॥ २० ॥ यदि मे भगवान्नाह ततोऽहं विजितेंद्रियः । ब्रह्माजीका यह वचन सुनकर तपोधन विश्वामित्र हाथ जोड़ प्रणाम करके उनसे बोले—'भगवन् ! यदि अपने द्वारा उपार्जित शुभकर्मोंके फलसे मुझे आप ब्रह्मर्षिका अनुपम पद प्रदान कर सकें तो मैं अपनेको जितेन्द्रिय समशृंगा' । १९-२० १/२ ॥ तमुवाच ततो ब्रह्मा न तावत् त्वं जितेंद्रियः ॥ २१ ॥ यतस्व मुनिशार्दूल इत्युक्त्वा त्रिदिवं गतः । तब ब्रह्माजीने उनसे कहा—'मुनिश्रेष्ठ ! अभी तुम जितेन्द्रिय नहीं हुए हो । इसके लिये प्रयत्न करो । ' ऐसा कहकर वे स्वर्गलोकको चले गये ॥ २१ १/२ ॥ विप्रस्थतेषु देवेषु विश्वामित्रो महामुनिः ॥ २२ ॥ ऊर्ध्वबाहुर्निरालंबो वायुभक्षस्तपश्चरन् । देवताओंके चले जानेपर महामुनि विश्वामित्रने पुन: घोर तपस्या आरम्भ की । वे दोनों भुजाएँ ऊपर उठाये बिना किसी आधारके खड़े होकर केवल वायु पीकर रहते हुए तपमें संलग्न हो गये ॥ २२ १/२ ॥ घर्मे पञ्चतपा भूत्वा वर्षास्वाकाशसंश्रयः ॥ २३ ॥ शिशिरे सलिलेस्थायी रात्र्यहानि तपोधनः । एवं वर्षसहस्रं हि तपो घोरमुपागमत् ॥ २४ ॥ गर्मीके दिनोंमें पञ्चाग्निका सेवन करते, वर्षाकालमें खुले आकाशके नीचे रहते और जाड़ेके समय रात-दिन पानीमें खड़े रहते थे । इस प्रकार उन तपोधनने एक हजार वर्षांतक घोर तपस्या की ॥ २३-२४ ॥ तस्मिन् संतप्यमाने तु विश्वामित्रे महामुनौ । संभ्रमः सुमहानासीत् सुराणां वासवस्य च ॥ २५ ॥ महामुनि विश्वामित्रके इस प्रकार तपस्या करते समय देवताओं और इन्द्रके मनमें बड़ा भारी संताप हुआ ॥ २५ ॥ रंभां अप्सरसं शक्रः सह सर्वैः मरुद्गणैः । उवाचात्महितं वाक्यं अहितं कौशिकस्य च ॥ २६ ॥ समस्त मरुद्गणोंसहित इन्द्रने उस समय रम्भा अप्सरासे ऐसी बात कही, जो अपने लिये हितकर और विश्वामित्रके लिये अहितकर थी ॥ २६ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे त्रिषष्टितमः सर्गः ॥ ६३ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें तिरसठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ६३ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |