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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ चतुःषष्टितमः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] विश्वामित्रेण रम्भायै शापं दत्त्वा पुनर्घोरं तपश्चर्तुं दीक्षाग्रहणम् -
विश्वामित्रका रम्भाको शाप देकर पुन: घोर तपस्याके लिये दीक्षा लेना - सुरकार्यं इदं रंभे कर्तव्यं सुमहत् त्वया । लोभनं कौशिकस्येह काममोहसमन्वितम् ॥ १ ॥ (इन्द्र बोले-) रम्भे ! देवताओंका एक बहुत बड़ा कार्य उपस्थित हुआ है । इसे तुम्हें ही पूरा करना है । तू महर्षि विश्वामित्रको इस प्रकार लुभा, जिससे वे काम और मोहके वशीभूत हो जायें ॥ १ ॥ तथोक्ता साप्सरा राम सहस्राक्षेण धीमता । व्रीडिता प्राञ्जलिर्वाक्यं प्रत्युवाच सुरेश्वरम् ॥ २ ॥ श्रीराम ! बुद्धिमान् इन्द्रके ऐसा कहनेपर वह अप्सरा लज्जित हो हाथ जोड़कर देवेश्वर इन्द्रसे बोली- ॥ २ ॥ अयं सुरपते घोरो विश्वामित्रो महामुनिः । क्रोधमुत्स्रक्षते घोरं मयि देव न संशयः ॥ ३ ॥ 'सुरपते ! ये महामुनि विश्वामित्र बड़े भयंकर हैं । देव ! इसमें संदेह नहीं कि ये मुझपर भयानक क्रोधका प्रयोग करेंगे ॥ ३ ॥ ततो हि मे भयं देव प्रसादं कर्तुमर्हसि । एवमुक्तस्तया राम सभयं भीतया तदा ॥ ४ ॥ तामुवाच सहस्राक्षो वेपमानां कृताञ्जलिम् । मा भैषी रंभे भद्रं ते कुरुष्व मम शासनम् ॥ ५ ॥ 'अत: देवेश्वर ! मुझे उनसे बड़ा डर लगता है, आप मुझपर कृपा करें । ' श्रीराम ! डरी हुई रम्भाके इस प्रकार भयपूर्वक कहनेपर सहस्र नेत्रधारी इन्द्र हाथ जोड़कर खड़ी और थर-थर काँपती हुई रम्भासे इस प्रकार बोले—'रम्भे ! तू भय न कर, तेरा भला हो, तू मेरी आज्ञा मान ले ॥ ४-५ ॥ कोकिलो हृदयग्राही माधवे रुचिरद्रुमे । अहं कंदर्पसहितः स्थास्यामि तव पार्श्वतः ॥ ६ ॥ 'वैशाख मासमें जब कि प्रत्येक वृक्ष नवपल्लवोंसे परम सुन्दर शोभा धारण कर लेता है, अपनी मधुर काकलीसे सबके हृदयको खींचनेवाले कोकिल और कामदेवके साथ मैं भी तेरे पास रहूँगा ॥ ६ ॥ त्वं हि रूपं बहुगुणं कृत्वा परमभास्वरम् । तं ऋषिं कौशिकं रंभे भेदयस्व तपस्विनम् ॥ ७ ॥ 'भद्रे ! तू अपने परम कान्तिमान् रूपको हावभाव आदि विविध गुणोंसे सम्पन्न करके उसके द्वारा विश्वामित्र मुनिको तपस्यासे विचलित कर दे' ॥ ७ ॥ सा श्रुत्वा वचनं तस्य कृत्वा रूपमनुत्तमम् । लोभयामास ललिता विश्वामित्रं शुचिस्मिता ॥ ८ ॥ देवराजका यह वचन सुनकर उस मधुर मुसकानवाली सुन्दरी अप्सराने परम उत्तम रूप बनाकर विश्वामित्रको लुभाना आरम्भ किया ॥ ८ ॥ कोकिलस्य तु शुश्राव वल्गु व्याहरतः स्वनम् । संप्रहृष्टेन मनसा स चैनामन्ववैक्षत ॥ ९ ॥ विश्वामित्रने मीठी बोली बोलनेवाले कोकिलकी मधुर काकली सुनी । उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर जब उस ओर दृष्टिपात किया, तब सामने रम्भा खड़ी दिखायी दी ॥ ९ ॥ अथ तस्य च शब्देन गीतेनाप्रतिमेन च । दर्शनेन च रंभाया मुनिः संदेहमागतः ॥ १० ॥ कोकिलके कलरव, रम्भाके अनुपम गीत और अप्रत्याशित दर्शनसे मुनिके मनमें संदेह हो गया ॥ १० ॥ सहस्राक्षस्य तत्सर्वं विज्ञाय मुनिपुङ्गवः । रंभां क्रोधसमाविष्टः शशाप कुशिकात्मजः ॥ ११ ॥ देवराजका वह सारा कुचक्र उनकी समझमें आ गया । फिर तो मुनिवर विश्वामित्रने क्रोधमें भरकर रम्भाको शाप देते हुए कहा ॥ ११ ॥ यन्मां लोभयसे रंभे कामक्रोधजयैषिणम् । दशवर्षसहस्राणि शैली स्थास्यसि दुर्भगे ॥ १२ ॥ 'दुर्भगे रम्भे ! मैं काम और क्रोधपर विजय पाना चाहता हूँ और तू आकर मुझे लुभाती है । अत: इस अपराधके कारण तू दस हजार वर्षांतक पत्थरकी प्रतिमा बनकर खड़ी रहेगी ॥ १२ ॥ ब्राह्मणः सुमहातेजाः तपोबलसमन्वितः । उद्धरिष्यति रंभे त्वां मत्क्रोधकलुषीकृताम् ॥ १३ ॥ 'रम्भे ! शापका समय पूरा हो जानेके बाद एक महान् तेजस्वी और तपोबलसम्पन्न ब्राह्मण (ब्रह्माजीके पुत्र वसिष्ठ) मेरे क्रोधसे कलुषित तेरा उद्धार करेंगे' ॥ १३ ॥ एवमुक्त्वा महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः । अशक्नुवन् धारयितुं क्रोपं संतापमात्मनः ॥ १४ ॥ ऐसा कहकर महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र अपना क्रोध न रोक सकनेके कारण मन-ही-मन संतप्त हो उठे ॥ १४ ॥ तस्य शापेन महता रंभा शैली तदाभवत् । वचः श्रुत्वा च कंदर्पो महर्षेः स च निर्गतः ॥ १५ ॥ मुनिके उस महाशापसे रम्भा तत्काल पत्थरकी प्रतिमा बन गयी । महर्षिका वह शापयुक्त वचन सुनकर कन्दर्प और इन्द्र वहाँसे खिसक गये ॥ १५ ॥ कोपेन सुमहातेजाः तपोऽपहरणे कृते । इंद्रियैरजितै राम न लेभे शांतिमात्मनः ॥ १६ ॥ श्रीराम ! क्रोधसे तपस्याका क्षय हो गया और इन्द्रियाँ अभीतक काबूमें न आ सकीं, यह विचारकर उन महातेजस्वी मुनिके चित्तको शान्ति नहीं मिलती थी ॥ १६ ॥ बभूवास्य मनश्चिंता तपोपहरणे कृते । नैव क्रोधं गमिष्यामि न च वक्ष्ये कथञ्चन ॥ १७ ॥ तपस्याका अपहरण हो जानेपर उनके मनमें यह विचार उत्पन्न हुआ कि 'अबसे न तो क्रोध करूँगा और न किसी भी अवस्थामें मुँहसे कुछ बोलूंगा ॥ १७ ॥ अथवा नोच्छ्वसिष्यामि संवत्सरशतान्यपि । अहं हि शोषयिष्यामि आत्मानं विजितेंद्रियः ॥ १८ ॥ 'अथवा सौ वर्षोंतक मैं श्वास भी न लूँगा । इन्द्रियोंको जीतकर इस शरीरको सुखा डालूँगा ॥ १८ ॥ तावद् यावद् हि मे प्राप्तं ब्राह्मण्यं तपसार्जितम् । अनुच्छ्वसन् अभुञ्जानः तिष्ठेयं शाश्वतीः समाः ॥ १९ ॥ 'जबतक अपनी तपस्यासे उपार्जित ब्राह्मणत्व मुझे प्राप्त न होगा, तबतक चाहे अनन्त वर्ष बीत जायँ, मैं बिना खाये-पीये खड़ा रहूँगा और साँसतक न लूंगा ॥ १९ ॥ न हि मे तप्यमानस्य क्षयं यास्यंति मूर्तयः । एवं वर्षसहस्रस्य दीक्षां स मुनिपुङ्गवः । चकाराप्रतिमां लोके प्रतिज्ञां रघुनंदन ॥ २० ॥ 'तपस्या करते समय मेरे शरीरके अवयव कदापि नष्ट नहीं होंगे । ' रघुनन्दन ! ऐसा निश्चय करके मुनिवर विश्वामित्रने पुन: एक हजार वर्षोंतक तपस्या करनेके लिये दीक्षा ग्रहण की । उन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसकी संसारमें कहीं तुलना नहीं है ॥ २० ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे चतुःषष्टितमः सर्गः ॥ ६४ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें चौंसठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ६४ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |