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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ पञ्चषष्टितमः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] विश्वामित्रस्योग्रं तपस्तस्य ब्राह्मणत्वलाभस्तं मुनिवरं प्रशस्य तेन विसृष्टस्य राज्ञो जनकस्य राजभवनं प्रति गमनम् -
विश्वामित्रकी घोर तपस्या, उन्हें ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति तथा राजा जनकका उनकी प्रशंसा करके उनसे विदा ले राजभवनको लौटना - अथ हैमवतीं राम दिशं त्यक्त्वा महामुनिः । पूर्वां दिशमनुप्राप्य तपस्तेपे सुदारुणम् ॥ १ ॥ (शतानन्दजी कहते हैं) श्रीराम ! पूर्वोक्त प्रतिज्ञाके अनन्तर महामुनि विश्वामित्र उत्तर दिशाको त्यागकर पूर्व दिशामें चले गये और वहीं रहकर अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगे ॥ १ ॥ मौनं वर्षसहस्रस्य कृत्वा व्रतमनुत्तमम् । चकाराप्रतिमं राम तपः परमदुष्करम् ॥ २ ॥ रघुनन्दन ! एक सहस्र वर्षांतक परम उत्तम मौनव्रत धारण करके वे परम दुष्कर तपस्यामें लगे रहे । उनके उस तपकी कहीं तुलना न थी ॥ २ ॥ पूर्णे वर्षसहस्रे तु काष्ठभूतं महामुनिम् । विघ्नैर्बहुभिराधूतं क्रोधो नांतरमाविशत् ॥ ३ ॥ एक हजार वर्ष पूर्ण होनेतक वे महामुनि काष्ठकी भाँति निश्चेष्ट बने रहे । बीच-बीच में उनपर बहुत-से विघ्नोंका आक्रमण हुआ, परंतु क्रोध उनके भीतर नहीं घुसने पाया ॥ ३ ॥ स कृत्वा निश्चयं राम तप आतिष्ठताव्ययम् । तस्य वर्षसहस्रस्य व्रते पूर्णे महाव्रतः ॥ ४ ॥ भोक्तुमारब्धवानन्नं तस्मिन् काले रघूत्तम । इंद्रो द्विजातिर्भूत्वा तं सिद्धमन्नमयाचत ॥ ५ ॥ श्रीराम ! अपने निश्चयपर अटल रहकर उन्होंने अक्षय तपका अनुष्ठान किया । उनका एक सहस्र वर्षों का व्रत पूर्ण होनेपर वे महान् व्रतधारी महर्षि व्रत समाप्त करके अन्न ग्रहण करनेको उद्यत हुए । रघुकुलभूषण ! इसी समय इन्द्रने ब्राह्मणके वेषमें आकर उनसे तैयार अन्नकी याचना की ॥ ४-५ ॥ तस्मै दत्त्वा तदा सिद्धं सर्वं विप्राय निश्चितः । निःशेषितेऽन्ने भगवान् अभुक्त्वैव महातपाः ॥ ६ ॥ तब उन्होंने वह सारा तैयार किया हुआ भोजन उस ब्राह्मणको देनेका निश्चय करके दे डाला । उस अन्नमें से कुछ भी शेष नहीं बचा । इसलिये वे महातपस्वी भगवान् विश्वामित्र बिना खाये-पीये ही रह गये ॥ ६ ॥ न किञ्चिदवदद् विप्रं मौनव्रतमुपस्थितः । तथैवासीत् पुनर्मौनं अनुछ्वासं चकार ह ॥ ७ ॥ फिर भी उन्होंने उस ब्राह्मणसे कुछ कहा नहीं । अपने मौन-व्रतका यथार्थरूपसे पालन किया । इसके बाद पुन: पहलेकी ही भाँति श्वासोच्छवाससे रहित मौन-व्रतका अनुष्ठान आरम्भ किया ॥ ७ ॥ अथ वर्षसहस्रं च नोच्छ्वसन् मुनिपुङ्गवः । तस्यानुच्छ्वसमानस्य मूर्ध्नि धूमो व्यजायत ॥ ८ ॥ पूरे एक हजार वर्षांतक उन मुनिश्रेष्ठने साँसतक नहीं ली । इस तरह साँस न लेनेके कारण उनके मस्तकसे धुआँ उठने लगा ॥ ८ ॥ त्रैलोक्यं येन संभ्रांतं आतापितमिवाभवत् । ततो देवर्षिगंधर्वाः पन्नगासुरराक्षसाः ॥ ९ ॥ मोहितास्तेजसा तस्य तपसा मंदरश्मयः । कश्मलोपहताः सर्वे पितामहं अथाब्रुवन् ॥ १० ॥ उससे तीनों लोकोंके प्राणी घबरा उठे, सभी संतप्त-से होने लगे । उस समय देवता, ऋषि, गन्धर्व, नाग, सर्प और राक्षस सब मुनिकी तपस्यासे मोहित हो गये । उनके तेजसे सबकी कान्ति फीकी पड़ गयी । वे सब-के-सब दु:खसे व्याकुल हो पितामह ब्रह्माजीसे बोले— ॥ ९-१० ॥ बहुभिः कारणैर्देव विश्वामित्रो महामुनिः । लोभितः क्रोधितश्चैव तपसा चाभिवर्धते ॥ ११ ॥ 'देव ! अनेक प्रकारके निमित्तोंद्वारा महामुनि विश्वामित्रको लोभ और क्रोध दिलानेकी चेष्टा की गयी; किंतु वे अपनी तपस्याके प्रभावसे निरन्तर आगे बढ़ते जा रहे हैं ॥ ११ ॥ न ह्यस्य वृजिनं किञ्चिद् दृश्यते सूक्ष्ममप्युत । न दीयते यदि त्वस्य मनसा यद् अभीप्सितम् ॥ १२ ॥ विनाशयति त्रैलोक्यं तपसा सचराचरम् । व्याकुलाश्च दिशः सर्वा न च किञ्चित् प्रकाशते ॥ १३ ॥ 'हमें उनमें कोई छोटा-सा भी दोष नहीं दिखायी देता । यदि इन्हें इनकी मनचाही वस्तु नहीं दी गयी तो ये अपनी तपस्यासे चराचर प्राणियोंसहित तीनों लोकोंका नाश कर डालेंगे । इस समय सारी दिशाएँ धूमसे आच्छादित हो गयी हैं, कहीं कुछ भी सूझता नहीं है ॥ १२-१३ ॥ सागराः क्षुभिताः सर्वे विशीर्यंते च पर्वताः । प्रकंपते च वसुधा वायुर्वातीह संकुलः ॥ १४ ॥ 'समुद्र क्षुब्ध हो उठे हैं, सारे पर्वत विदीर्ण हुए जाते हैं, धरती डगमग हो रही है और प्रचण्ड आँधी चलने लगी है ॥ १४ ॥ ब्रह्मन् न प्रतिजानीमो नास्तिको जायते जनः । सम्मूढमिव त्रैलोक्यं संप्रक्षुभितमानसम् ॥ १५ ॥ 'ब्रह्मन् ! हमें इस उपद्रवके निवारणका कोई उपाय नहीं समझमें आता है । सब लोग नास्तिककी भाँति कर्मानुष्ठानसे शून्य हो रहे हैं । तीनों लोकोंके प्राणियोंका मन क्षुब्ध हो गया है । सभी किंकर्तव्यविमूढ़-से हो रहे हैं ॥ १५ ॥ भास्करो निष्प्रभश्चैव महर्षेस्तस्य तेजसा । बुद्धिं न कुरुते यावन्नाशे देव महामुनिः ॥ १६ ॥ तावत् प्रसादो भगवान् अग्निरूपो महाद्युतिः । 'महर्षि विश्वामित्रके तेजसे सूर्यकी प्रभा फीकी पड़ गयी है । भगवन् ! ये महाकान्तिमान् मुनि अग्निस्वरूप हो रहे हैं । देव ! महामुनि विश्वामित्र जबतक जगत्के विनाशका विचार नहीं करते तबतक ही इन्हें प्रसन्न कर लेना चाहिये । ॥ १६ १/२ ॥ कालाग्निना यथा पूर्वं त्रैलोक्यं दह्यतेऽखिलम् ॥ १७ ॥ देवराज्यं चिकीर्षेत दीयतामस्य यन्मनः । 'जैसे पूर्वकालमें प्रलयकालिक अग्निने सम्पूर्ण त्रिलोकीको दग्ध कर डाला था, उसी प्रकार ये भी सबको जलाकर भस्म कर देंगे । यदि ये देवताओंका राज्य प्राप्त करना चाहें तो वह भी इन्हें दे दिया जाय । इनके मनमें जो भी अभिलाषा हो, उसे पूर्ण किया जाय' । ॥ १७ १/२ ॥ ततः सुरगणाः सर्वे पितामहपुरोगमाः ॥ १८ ॥ विश्वामित्रं महात्मानं वाक्यं मधुरमब्रुवन् । तदनन्तर ब्रह्मा आदि सब देवता महात्मा विश्वामित्रके पास जाकर मधुर वाणीमें बोले– ॥ १८ १/२ ॥ ब्रह्मर्षे स्वागतं तेऽस्तु तपसा स्म सुतोषिताः ॥ १९ ॥ ब्राह्मण्यं तपसोग्रेण प्राप्तवानसि कौशिक । 'ब्रह्मर्षे ! तुम्हारा स्वागत है, हम तुम्हारी तपस्यासे बहुत संतुष्ट हुए हैं । कुशिकनन्दन ! तुमने अपनी उग्र तपस्यासे ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया ॥ १९ १/२ ॥ दीर्घमायुश्च ते ब्रह्मन् ददामि समरुद्गणः ॥ २० ॥ स्वस्ति प्राप्नुहि भद्रं ते गच्छ सौम्य यथासुखम् । 'ब्रह्मन् ! मरुदूणोंसहित मैं तुम्हें दीर्घायु प्रदान करता हूँ । तुम्हारा कल्याण हो । सौम्य ! तुम मंगलके भागी बनो और तुम्हारी जहाँ इच्छा हो वहाँ सुखपूर्वक जाओ' ॥ २० १/२ ॥ पितामहवचः श्रुत्वा सर्वेषां च दिवौकसाम् ॥ २१ । कृत्वा प्रणामं मुदितो व्याजहार महामुनिः । पितामह ब्रह्माजीकी यह बात सुनकर महामुनि विश्वामित्रने अत्यन्त प्रसन्न होकर सम्पूर्ण देवताओंको प्रणाम किया और कहा— ॥ २१ १/२ ॥ ब्राह्मण्यं यदि मे प्राप्तं दीर्घमायुस्तथैव च ॥ २२ ॥ ओङ्कारोथ वषट्कारो वेदाश्च वरयंतु माम् । क्षत्रवेदविदां श्रेष्ठो ब्रह्मवेदविदामपि ॥ २३ ॥ ब्रह्मपुत्रो वसिष्ठो मां एवं वदतु देवताः । यद्ययं परमः कामः कृतो यांतु सुरर्षभाः ॥ २४ ॥ 'देवगण ! यदि मुझे (आपकी कृपासे) ब्राह्मणत्व मिल गया और दीर्घ आयुकी भी प्राप्ति हो गयी तो ॐकार, वषट्कार और चारों वेद स्वयं आकर मेरा वरण करें । इसके सिवा जो क्षत्रिय-वेद (धनुर्वेद आदि) तथा ब्रह्मवेद (ऋक् आदि चारों वेद) के ज्ञाताओंमें भी सबसे श्रेष्ठ हैं, वे ब्रह्मपुत्र वसिष्ठ स्वयं आकर मुझसे ऐसा कहें (कि तुम ब्राह्मण हो गये), यदि ऐसा हो जाय तो मैं समधूंगा कि मेरा उत्तम मनोरथ पूर्ण हो गया । उस अवस्थामें आप सभी श्रेष्ठ देवगण यहाँसे जा सकते हैं ॥ २२–२४ ॥ ततः प्रसादितो देवैः वसिष्ठो जपतां वरः । सख्यं चकार ब्रह्मर्षिः एवमस्त्विति चाब्रवीत् ॥ २५ ॥ तब देवताओंने मन्त्रजप करनेवालोंमें श्रेष्ठ वसिष्ठ मुनिको प्रसन्न किया । इसके बाद ब्रह्मर्षि वसिष्ठने 'एवमस्तु' कहकर विश्वामित्रका ब्रह्मर्षि होना स्वीकार कर लिया और उनके साथ मित्रता स्थापित कर ली ॥ २५ ॥ ब्रह्मर्षिस्त्वं न संदेहः सर्वं संपद्यते तव । इत्युक्त्वा देवताश्चापि सर्वा जग्मुर्यथागतम् ॥ २६ ॥ 'मुने ! तुम ब्रह्मर्षि हो गये, इसमें संदेह नहीं है । तुम्हारा सब ब्राह्मणोचित संस्कार सम्पन्न हो गया । ऐसा कहकर सम्पूर्ण देवता जैसे आये थे वैसे लौट गये ॥ २६ ॥ विश्वामित्रोऽपि धर्मात्मा लब्ध्वा ब्राह्मण्यमुत्तमम् । पूजयामास ब्रह्मर्षिं वसिष्ठं जपतां वरम् ॥ २७ ॥ इस प्रकार उत्तम ब्राह्मणत्व प्राप्त करके धर्मात्मा विश्वामित्रजीने भी मन्त्र-जप करनेवालोंमें श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि वसिष्ठका पूजन किया ॥ २७ ॥ कृतकामो महीं सर्वां चचार तपसि स्थितः । एवं त्वनेन ब्राह्मण्यं प्राप्तं राम महात्मना ॥ २८ ॥ इस तरह अपना मनोरथ सफल करके तपस्यामें लगे रहकर ही ये सम्पूर्ण पृथ्वीपर विचरने लगे । श्रीराम ! इस प्रकार कठोर तपस्या करके इन महात्माने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया ॥ २८ ॥ एष राम मुनिश्रेष्ठ एष विग्रहवांस्तपः । एष धर्मः परो नित्यं वीर्यस्यैष परायणम् ॥ २९ ॥ रघुनन्दन ! ये विश्वामित्रजी समस्त मुनियोंमें श्रेष्ठ हैं, ये तपस्याके मूर्तिमान् स्वरूप हैं, उत्तम धर्मके साक्षात् विग्रह हैं और पराक्रमकी परम निधि हैं ॥ २९ ॥ एवमुक्त्वा महातेजा विरराम द्विजोत्तमः । शतानंदवचः श्रुत्वा रामलक्ष्मणसन्निधौ ॥ ३० ॥ जनकः प्राञ्जलिर्वाक्यं उवाच कुशिकात्मजम् । ऐसा कहकर महातेजस्वी विप्रवर शतानन्दजी चुप हो गये । शतानन्दजीके मुखसे यह कथा सुनकर महाराज जनकने श्रीराम और लक्ष्मणके समीप विश्वामित्रजीसे हाथ जोड़कर कहा— ॥ ३० १/२ ॥ धन्योऽस्मि अनुगृहीतोऽस्मि यस्य मे मुनिपुङ्गव ॥ ३१ ॥ यज्ञं काकुत्स्थसहितः प्राप्तवानसि धार्मिक । पावितोऽहं त्वया ब्रह्मन् दर्शनेन महामुने ॥ ३२ ॥ 'मनिप्रवर कौशिक ! आप ककुत्स्थकुलनन्दन श्रीराम और लक्ष्मणके साथ मेरे यज्ञमें पधारे, इससे मैं धन्य हो गया । आपने मुझपर बड़ी कृपा की । महामुने ! ब्रह्मन् ! आपने दर्शन देकर मुझे पवित्र कर दिया । ॥ ३१-३२ ॥ गुणा बहुविधाः प्राप्ताः तव संदर्शनान्मया । विस्तरेण च वै ब्रह्मन् कीर्त्यमानं महत्तपः ॥ ३३ ॥ श्रुतं मया महातेजो रामेण च महात्मना । सदस्यैः प्राप्य च सदः श्रुतास्ते बहवो गुणाः ॥ ३४ ॥ 'आपके दर्शनसे मुझे बड़ा लाभ हुआ, अनेक प्रकारके गुण उपलब्ध हुए । ब्रह्मन् ! आज इस सभामें आकर मैंने महात्मा राम तथा अन्य सदस्योंके साथ आपके महान् तेज (प्रभाव) का वर्णन सुना है, बहुत-से गुण सुने हैं । ब्रह्मन् ! शतानन्दजीने आपके महान् तपका वृत्तान्त विस्तारपूर्वक बताया है ॥ ३३-३४ ॥ अप्रमेयं तपस्तुभ्यं अप्रमेयं च ते बलम् । अप्रमेया गुणाश्चैव नित्यं ते कुशिकात्मज ॥ ३५ ॥ 'कुशिकनन्दन ! आपकी तपस्या अप्रमेय है, आपका बल अनन्त है तथा आपके गुण भी सदा ही माप और संख्यासे परे हैं ॥ ३५ ॥ तृप्तिराश्चर्यभूतानां कथानां नास्ति मे विभो । कर्मकालो मुनिश्रेष्ठ लंबते रविमण्डलम् ॥ ३६ ॥ 'प्रभो ! आपकी आश्चर्यमयी कथाओंके श्रवणसे मुझे तृप्ति नहीं होती है; किंतु मुनिश्रेष्ठ ! यज्ञका समय हो गया है, सूर्यदेव ढलने लगे हैं । ३६ ॥ श्वः प्रभाते महातेजो द्रष्टुमर्हसि मां पुनः । स्वागतं तपतां श्रेष्ठ मां अनुज्ञातुमर्हसि ॥ ३७ ॥ 'जप करनेवालोंमें श्रेष्ठ महातेजस्वी मुने ! आपका स्वागत है । कल प्रात:काल फिर मुझे दर्शन दें, इस समय मुझे जानेकी आज्ञा प्रदान करें ॥ ३७ ॥ एवमुक्तो मुनिवरः प्रशस्य पुरुषर्षभम् । विससर्जाशु जनकं प्रीतं प्रीतमनास्तदा ॥ ३८ ॥ राजाके ऐसा कहनेपर मुनिवर विश्वामित्रजी मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने प्रीतियुक्त नरश्रेष्ठ राजा जनककी प्रशंसा करके शीघ्र ही उन्हें विदा कर दिया ॥ ३८ ॥ एवमुक्त्वा मुनिश्रेष्ठं वैदेहो मिथिलाधिपः । प्रदक्षिणं चकाराशु सोपाध्यायः सबांधवः ॥ ३९ ॥ उस समय मिथिलापति विदेहराज जनकने मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रसे पूर्वोक्त बात कहकर अपने उपाध्याय और बन्धु-बान्धवोंके साथ उनकी शीघ्र ही परिक्रमा की । फिर वहाँसे वे चल दिये ॥ ३९ ॥ विश्वामित्रोऽपि धर्मात्मा सरामः सलक्ष्मणः । स्ववासमभिचक्राम पूज्यमानो महर्षिभिः ॥ ४० ॥ तत्पश्चात् धर्मात्मा विश्वामित्र भी महात्माओंसे पूजित होकर श्रीराम और लक्ष्मणके साथ अपने विश्रामस्थानपर लौट आये ॥ ४० ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे पञ्चषष्टितमः सर्गः ॥ ६५ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें पैंसठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ६५ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |