Menus in CSS Css3Menu.com


॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ चतुःसप्ततितमः सर्गः ॥


[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


विश्वामित्रस्य स्वाश्रमं प्रति प्रस्थानं, जनककर्तृकं कन्यानां कृते प्रचुरधनदानं, राज्ञो दशरथस्य विदापनं च मार्गे शुभाशुभशकुनोदयः परशुरामस्यागमनं च -
शविश्वामित्रका अपने आश्रमको प्रस्थान, राजा जनकका कन्याओंको भारी दहेज देकर राजा दशरथ आदिको विदा करना, मार्गमें शुभाशुभ शकुन और परशुरामजीका आगमन -


अथ रात्र्यां व्यतीतायां विश्वामित्रो महामुनिः ।
आपृष्ट्‍वा तौ च राजानौ जगामोत्तरपर्वतम् ॥ १ ॥
तदनन्तर जब रात बीती और सबेरा हुआ, तब महामुनि विश्वामित्र राजा जनक और महाराज दशरथ दोनों राजाओंसे पूछकर उनकी स्वीकृति ले उत्तरपर्वतपर (हिमालयकी शाखाभूत पर्वतपर, जहाँ कौशिकीके तटपर उनका आश्रम था, वहाँ) चले गये ॥ १ ॥

विश्वामित्रे गते राजा वैदेहं मिथिलाधिपम् ।
आपृष्ट्‍वाथ जगामाशु राजा दशरथः पुरीम् ॥ २ ॥
विश्वामित्रजीके चले जानेपर महाराज दशरथ भी विदेहराज मिथिलानरेशसे अनुमति लेकर ही शीघ्र अपनी पुरी अयोध्याको जानेके लिये तैयार हो गये ॥ २ ॥

अथ राजा विदेहानां ददौ कन्याधनं बहु ।
गवां शतसहस्राणि बहूनि मिथिलेश्वरः ॥ ३ ॥
कंबलानां च मुख्यानां क्षौमान् कोट्यंबराणि च ।
हस्त्यश्वरथपादातं दिव्यरूपं स्वलं‍कृतम् ॥ ४ ॥
उस समय विदेहराज जनकने अपनी कन्याओंके निमित्त दहेजमें बहत अधिक धन दिया । उन मिथिला नरेशने कई लाख गौएँ, कितनी ही अच्छी-अच्छी काली तथा करोड़ोंकी संख्यामें रेशमी और सूती वस्त्र दिये, भाँति-भाँतिके गहनोंसे सजे हुए बहुत-से दिव्य हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिक भेंट किये ॥ ३-४ ॥

ददौ कन्याशतं तासां दासीदासमनुत्तमम् ।
हिरण्यस्य सुवर्णस्य मुक्तानां विद्रुमस्य च ॥ ५ ॥
अपनी पुत्रियोंके लिये सहेलीके रूपमें उन्होंने सौ-सौ कन्याएँ तथा उत्तम दास-दासियाँ अर्पित की । इन सबके अतिरिक्त राजाने उन सबके लिये एक करोड़ स्वर्णमुद्रा, रजतमुद्रा, मोती तथा मूंगे भी दिये ॥ ५ ॥

ददौ राजा सुसंहृष्टः कन्याधनमनुत्तमम् ।
दत्त्वा बहुधनं राजा समनुज्ञाप्य पार्थिवम् ॥ ६ ॥
प्रविवेश स्वनिलयं मिथिलां मिथिलेश्वरः ।
राजाप्ययोध्याधिपतिः सह पुत्रैर्महात्मभिः ॥ ७ ॥
ऋषीन् सर्वान् पुरस्कृत्य जगाम सबलानुगः ।
इस प्रकार मिथिलापति राजा जनकने बड़े हर्षके साथ उत्तमोत्तम कन्याधन (दहेज) दिया । नाना प्रकारकी वस्तुएँ दहेजमें देकर महाराज दशरथकी आज्ञा ले वे पुन: मिथिलानगरके भीतर अपने महल में लौट आये । उधर अयोध्यानरेश राजा दशरथ भी सम्पूर्ण महर्षियोंको आगे करके अपने महात्मा पुत्रों, सैनिकों तथा सेवकोंके साथ अपनी राजधानीकी ओर प्रस्थित हुए ॥ ६-७ १/२ ॥

गच्छंतं तं नरव्याघ्रं सर्षिसङ्‍घं सराघवम् ॥ ८ ॥
घोरास्तु पक्षिणो वाचो व्याहरंति ततस्ततः ।
भौमाश्चैव मृगाः सर्वे गच्छंति स्म प्रदक्षिणम् ॥ ९ ॥
उस समय ऋषि-समूह तथा श्रीरामचन्द्रजीके साथ यात्रा करते हुए पुरुषसिंह महाराज दशरथके चारों ओर भयंकर बोली बोलनेवाले पक्षी चहचहाने लगे और भूमिपर विचरनेवाले समस्त मृग उन्हें दाहिने रखकर जाने लगे । ८-९ ॥

तान् दृष्ट्‍वा राजशार्दूलो वसिष्ठं पर्यपृच्छत ।
असौम्याः पक्षिणो घोरा मृगाश्चापि प्रदक्षिणाः ॥ १० ॥
किमिदं हृदयोत्कंपि मनो मम विषीदति ।
उन सबको देखकर राजसिंह दशरथने वसिष्ठजीसे पूछा—'मुनिवर ! एक ओर तो ये भयंकर पक्षी घोर शब्द कर रहे हैं और दूसरी ओर ये मृग हमें दाहिनी ओर करके जा रहे हैं; यह अशुभ और शुभ दो प्रकारका शकुन कैसा ? यह मेरे हृदयको कम्पित किये देता है । मेरा मन विषादमें डूबा जाता है' ॥ १० १/२ ॥

राज्ञो दशरथस्यैतत् श्रुत्वा वाक्यं महानृषिः ॥ ११ ॥
उवाच मधुरां वाणीं श्रूयतामस्य यत्फलम् ।
उपस्थितं भयं घोरं दिव्यं पक्षिमुखाच्च्युतम् ॥ १२ ॥
मृगाः प्रशमयंत्येते संतापस्त्यज्यतामयम् ।
राजा दशरथका यह वचन सुनकर महर्षि वसिष्ठने मधुर वाणीमें कहा—'राजन् ! इस शकुनका जो फल है, उसे सुनिये—आकाशमें पक्षियोंके मुखसे जो बात निकल रही है, वह बताती है कि इस समय कोई घोर भय उपस्थित होनेवाला है, परंतु हमें दाहिने रखकर जानेवाले ये मृग उस भयके शान्त हो जानेकी सूचना दे रहे हैं; इसलिये आप यह चिन्ता छोड़िये' ॥ ११-१२ १/२ ॥

तेषां संवदतां तत्र वायुः प्रादुर्बभूव ह ॥ १३ ॥
कंपयन् मेदिनीं सर्वां पातयंश्च महाद्रुमान् ।
तमसा संवृतः सूर्यः सर्वे नावेदिषुर्दिशः ॥ १४ ॥
भस्मना चावृतं सर्वं सम्मूढमिव तद्‍बलम् ।
इन लोगोंमें इस प्रकार बातें हो ही रही थीं कि वहाँ बड़े जोरोंकी आँधी उठी । वह सारी पृथ्वीको कैंपाती हुई बड़ेबड़े वृक्षोंको धराशायी करने लगी । सूर्य अन्धकारसे आच्छन्न हो गये । किसीको दिशाओंका भान न रहा । धूलसे ढक जानेके कारण वह सारी सेना मूर्च्छित-सी हो गयी ॥ १३-१४ १/२ ॥

वसिष्ठ ऋषयश्चान्ये राजा च ससुतस्तदा ॥ १५ ॥
ससञ्ज्ञा इव तत्रासन् सर्वमन्यद्विचेतनम् ।
तस्मिंस्तमसि घोरे तु भस्मच्छन्नेव सा चमूः ॥ १६ ॥
उस समय केवल वसिष्ठ मुनि, अन्यान्य ऋषियों तथा पुत्रोंसहित राजा दशरथको ही चेत रह गया था, शेष सभी लोग अचेत हो गये थे । उस घोर अन्धकारमें राजाकी वह सेना धूलसे आच्छादित-सी हो गयी थी ॥ १५-१६ ॥

ददर्श भीमसं‍काशं जटामण्डलधारिणम् ।
भार्गवं जामदग्न्येयं राज राजविमर्दनम् ॥ १७ ॥
कैलासमिव दुर्धर्षं कालाग्निमिव दुःसहम् ।
ज्वलंतमिव तेजोभिः दुर्निरीक्षं पृथग्जनैः ॥ १८ ॥
स्कंधे चासाद्य परशुं धनुर्विद्युद्‍गणोपमम् ।
प्रगृह्य शरमुग्रं च त्रिपुरघ्नं यथा शिवम् ॥ १९ ॥
उस समय राजा दशरथने देखा क्षत्रिय राजाओंका मानमर्दन करनेवाले भृगुकुलनन्दन जमदग्निकुमार परशुराम सामनेसे आ रहे हैं । वे बड़े भयानक-से दिखायी देते थे । उन्होंने मस्तकपर बड़ी-बड़ी जटाएँ धारण कर रखी थीं । वे कैलासके समान दुर्जय और कालाग्निके समान दुःसह प्रतीत होते थे । तेजोमण्डलद्वारा जाज्वल्यमान-से हो रहे थे । साधारण लोगोंके लिये उनकी ओर देखना भी कठिन था । वे कंधेपर फरसा रखे और हाथमें विद्युदणोंके समान दीप्तिमान् धनुष एवं भयंकर बाण लिये त्रिपुरविनाशक भगवान् शिवके समान जान पड़ते थे ॥ १७–१९ ॥

तं दृष्ट्‍वा भीमसं‍काशं ज्वलंतमिव पावकम् ।
वसिष्ठप्रमुखा विप्रा जपहोमपरायणाः ॥ २० ॥
सङ्‍गता मुनयः सर्वे सञ्जजल्पुरथो मिथः ।
प्रज्वलित अग्निके समान भयानक-से प्रतीत होनेवाले परशुरामको उपस्थित देख जप और होममें तत्पर रहनेवाले वसिष्ठ आदि सभी ब्रह्मर्षि एकत्र हो परस्पर इस प्रकार बातें करने लगे ॥ २० १/२ ॥

कच्चित् पितृवधामर्षी क्षत्रं नोत्सादयिष्यति ॥ २१ ॥
पूर्वं क्षत्रवधं कृत्वा गतमन्युर्गतज्वरः ।
क्षत्रस्योत्सादनं भूयो न खल्वस्य चिकीर्षितम् ॥ २२ ॥
'क्या अपने पिताके वधसे अमर्षके वशीभूत हो ये क्षत्रियोंका संहार नहीं कर डालेंगे ? पूर्वकालमें क्षत्रियोंका वध करके इन्होंने अपना क्रोध उतार लिया है । अब इनकी बदला लेनेकी चिन्ता दूर हो चुकी है । अत: फिर क्षत्रियोंका संहार करना इनके लिये अभीष्ट नहीं है, यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है' ॥ २१-२२ ॥

एवमुक्त्वार्घ्यमादाय भार्गवं भीमदर्शनम् ।
ऋषयो राम रामेति मधुरं वाक्यमब्रुवन् ॥ २३ ॥
ऐसा कहकर ऋषियोंने भयंकर दिखायी देनेवाले भृगुनन्दन परशुरामको अर्घ्य लेकर दिया और 'राम ! राम !' कहकर उनसे मधुर वाणीमें बातचीत की ॥ २३ ॥

प्रतिगृह्य तु तां पूजां ऋषिदत्तां प्रतापवान् ।
रामं दाशरथिं रामो जामदग्न्योऽभ्यभाषत ॥ २४ ॥
ऋषियोंकी दी हुई उस पूजाको स्वीकार करके प्रतापी जमदग्निपुत्र परशुरामने दशरथनन्दन श्रीरामसे इस प्रकार कहा ॥ २४ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे चतुःसप्ततितमः सर्गः ॥ ७४ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें चौहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ७४ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


GO TOP