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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ पञ्चसप्ततितमः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] दशरथ वाक्यं अनाकर्ण्य परशुरामेण श्रीरामस्य वैष्णवधनुषि बाणं संधातुं प्रेरणम् -
राजा दशरथकी बात अनसुनी करके परशुरामका श्रीरामको वैष्णव-धनुषपर बाण चढ़ानेके लिये ललकारना - राम दाशरथे वीर वीर्यं ते श्रूयतेऽद्भुतम् । धनुषो भेदनं चैव निखिलेन मया श्रुतम् ॥ १ ॥ 'दशरथनन्दन श्रीराम ! वीर ! सुना जाता है कि तुम्हारा पराक्रम अद्भुत है । तुम्हारे द्वारा शिव-धनुषके तोड़े जानेका सारा समाचार भी मेरे कानोंमें पड़ चुका है ॥ १ ॥ तद् अद्भुतं अचिंत्यं च भेदनं धनुषस्तथा । तच्छ्रुत्वाहं अनुप्राप्तो धनुर्गृह्यापरं शुभम् ॥ २ ॥ 'उस धनुषका तोड़ना अद्भुत और अचिन्त्य है; उसके टूटनेकी बात सुनकर मैं एक दूसरा उत्तम धनुष लेकर आया हूँ ॥ २ ॥ तदिदं घोरसंकाशं जामदग्न्यं महद्धनुः । पूरयस्व शरेणैव स्वबलं दर्शयस्व च ॥ ३ ॥ 'यह है वह जमदग्निकुमार परशुरामका भयंकर और विशाल धनुष । तुम इसे खींचकर इसके ऊपर बाण चढ़ाओ और अपना बल दिखाओ ॥ ३ ॥ तदहं ते बलं दृष्ट्वा धनुषोऽप्यस्य पूरणे । द्वंद्वयुद्धं प्रदास्यामि वीर्यश्लाघ्यमहं तव ॥ ४ ॥ 'इस धनुषके चढ़ानेमें भी तुम्हारा बल कैसा है ? यह देखकर मैं तुम्हें ऐसा द्वन्द्वयुद्ध प्रदान करूँगा, जो तुम्हारे पराक्रमके लिये स्पृहणीय होगा' ॥ ४ ॥ तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राजा दशरथस्तदा । विषण्णवदनो दीनः प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत् ॥ ५ ॥ । परशुरामजीका वह वचन सुनकर उस समय राजा दशरथके मुखपर विषाद छा गया । वे दीनभावसे हाथ जोड़कर बोले— ॥ ५ ॥ क्षत्ररोषात् प्रशांतस्त्वं ब्राह्मणश्च महातपाः । बालानां मम पुत्राणां अभयं दातुमर्हसि ॥ ६ ॥ भार्गवाणां कुले जातः स्वाध्यायव्रतशालिनाम् । सहस्राक्षे प्रतिज्ञाय शस्त्रं निक्षिप्तवानसि ॥ ७ ॥ 'ब्रह्मन् ! आप स्वाध्याय और व्रतसे शोभा पानेवाले भृगुवंशी ब्राह्मणोंके कुलमें उत्पन्न हुए हैं और स्वयं भी महान् तपस्वी और ब्रह्मज्ञानी हैं; क्षत्रियोंपर अपना रोष प्रकट करके अब शान्त हो चुके हैं; इसलिये मेरे बालक पुत्रोंको आप अभयदान देनेकी कृपा करें; क्योंकि आपने इन्द्रके समीप प्रतिज्ञा करके शस्त्रका परित्याग कर दिया है ॥ ६-७ ॥ स त्वं धर्मपरो भूत्वा काश्यपाय वसुंधराम् । दत्त्वा वनमुपागम्य महेंद्रकृतकेतनः ॥ ८ ॥ . 'इस तरह आप धर्ममें तत्पर हो कश्यपजीको पृथ्वीका दान करके वनमें आकर महेन्द्रपर्वतपर आश्रम बनाकर रहते हैं ॥ ८ ॥ मम सर्वविनाशाय संप्राप्तस्त्वं महामुने । न चैकस्मिन् हते रामे सर्वे जीवामहे वयम् ॥ ९ ॥ 'महामुने ! (इस प्रकार शस्त्रत्यागकी प्रतिज्ञा करके भी) आप मेरा सर्वनाश करनेके लिये कैसे आ गये ? (यदि कहें -मेरा रोष तो केवल रामपर है तो) एकमात्र रामके मारे जानेपर ही हम सब लोग अपने जीवनका परित्याग कर देंगे' ॥ ९ ॥ ब्रुवत्येवं दशरथे जामदग्न्यः प्रतापवान् । अनादृत्य तु तद्वाक्यं राममेवाभ्यभाषत ॥ १० ॥ राजा दशरथ इस प्रकार कहते ही रह गये; परंतु प्रतापी परशुरामने उनके उन वचनोंकी अवहेलना करके रामसे ही बातचीत जारी रखी ॥ १० ॥ इमे द्वे धनुषी श्रेष्ठे दिव्ये लोकाभिपूजिते । दृढे बलवती मुख्ये सुकृते विश्वकर्मणा ॥ ११ ॥ वे बोले—'रघुनन्दन ! ये दो धनुष सबसे श्रेष्ठ और दिव्य थे । सारा संसार इन्हें सम्मानकी दृष्टिसे देखता था । साक्षात् विश्वकर्माने इन्हें बनाया था । ये बड़े प्रबल और दृढ़ थे ॥ ११ ॥ अतिसृष्टं सुरैरेकं त्र्यंबकाय युयुत्सवे । त्रिपुरघ्नं नरश्रेष्ठ भग्नं काकुत्स्थ यत्त्वया ॥ १२ ॥ 'नरश्रेष्ठ ! इनमेंसे एकको देवताओंने त्रिपुरासुरसे युद्ध करनेके लिये भगवान् शङ्करको दे दिया था । ककुत्स्थनन्दन ! जिससे त्रिपुरका नाश हुआ था, वह वही धनुष था; जिसे तुमने तोड़ डाला है ॥ १२ ॥ इदं द्वितीयं दुर्धर्षं विष्णोर्दत्तं सुरोत्तमैः । तदिदं वैष्णवं राम धनुः परपुरंजयम् ॥ १३ ॥ 'और दूसरा दुर्धर्ष धनुष यह है, जो मेरे हाथमें है । इसे श्रेष्ठ देवताओंने भगवान् विष्णुको दिया था । श्रीराम ! शत्रुनगरीपर विजय पानेवाला वहीं यह वैष्णव धनुष है ॥ १३ ॥ समानसारं काकुत्स्थ रौद्रेण धनुषा त्विदम् । तदा तु देवताः सर्वाः पृच्छंति स्म पितामहम् ॥ १४ ॥ शितिकण्ठस्य विष्णोश्च बलाबलनिरीक्षया । 'ककुत्स्थनन्दन ! यह भी शिवजीके धनुषके समान ही प्रबल है । उन दिनों समस्त देवताओंने भगवान् शिव और विष्णुके बलाबलकी परीक्षाके लिये पितामह ब्रह्माजीसे पूछा था कि 'इन दोनों देवताओंमें कौन अधिक बलशाली है' । १४ १/२ ॥ अभिप्रायं तु विज्ञाय देवतानां पितामहः ॥ १५ ॥ विरोधं जनयामास तयोः सत्यवतां वरः । 'देवताओंके इस अभिप्रायको जानकर सत्यवादियोंमें श्रेष्ठ पितामह ब्रह्माजीने उन दोनों देवताओं (शिव और विष्णु) में विरोध उत्पन्न कर दिया ॥ १५ १/२ ॥ विरोधे च महद् युद्धं अभवद् रोमहर्षणम् ॥ १६ ॥ शितिकण्ठस्य विष्णोश्च परस्परजयैषिणोः । 'विरोध पैदा होनेपर एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छावाले शिव और विष्णुमें बड़ा भारी युद्ध हुआ, जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला था ॥ १६ १/२ ॥ तदा तु जृंभितं शैवं धनुर्भीमपराक्रमम् ॥ १७ ॥ हुंकारेण महादेवः स्तंभितोऽथ त्रिलोचनः । 'उस समय भगवान् विष्णुने हुङ्कारमात्रसे शिवजीके भयंकर बलशाली धनुषको शिथिल तथा त्रिनेत्रधारी महादेवजीको भी स्तम्भित कर दिया ॥ १७ १/२ ॥ देवैस्तदा समागम्य सर्षिसङ्घः सचारणैः ॥ १८ ॥ याचितौ प्रशमं तत्र जग्मतुस्तौ सुरोत्तमौ । 'तब ऋषिसमूहों तथा चारणोंसहित देवताओंने आकर उन दोनों श्रेष्ठ देवताओंसे शान्तिके लिये याचना की; फिर वे दोनों वहाँ शान्त हो गये ॥ १८१/२ ॥ जृंभितं तद् धनुर्दृष्ट्वा शैवं विष्णुपराक्रमैः ॥ १९ ॥ अधिकं मेनिरे विष्णुं देवाः सर्षिगणास्तथा । 'भगवान् विष्णुके पराक्रमसे शिवजीके उस धनुषको शिथिल हुआ देख ऋषियोंसहित देवताओंने भगवान् विष्णुको श्रेष्ठ माना ॥ १९ १/२ ॥ धनू रुद्रस्तु संक्रुद्धो विदेहेषु महायशाः ॥ २० ॥ देवरातस्य राजर्षेः ददौ हस्ते ससायकम् । 'तदनन्तर कुपित हुए महायशस्वी रुद्रने बाण-सहित अपना धनुष विदेहदेशके राजर्षि देवरातके हाथमें दे दिया ॥ २० १/२ ॥ इदं च वैष्णवं राम धनुः परपुरंजयम् ॥ २१ ॥ ऋचीके भार्गवे प्रादाद् विष्णुः स न्यासमुत्तमम् । 'श्रीराम ! शत्रुनगरीपर विजय पानेवाले इस वैष्णवधनुषको भगवान् विष्णुने भृगुवंशी ऋचीक मुनिको उत्तम धरोहरके रूपमें दिया था ॥ २१ १/२ ॥ ऋचीकस्तु महातेजाः पुत्रस्याप्रतिकर्मणः ॥ २२ ॥ पितुर्मम ददौ दिव्यं जमदग्नेर्महात्मनः । 'फिर महातेजस्वी ऋचीकने प्रतीकार (प्रतिशोध) की भावनासे रहित अपने पुत्र एवं मेरे पिता महात्मा जमदग्निके अधिकारमें यह दिव्य धनुष दे दिया ॥ २२ १/२ ॥ न्यस्तशस्त्रे पितरि मे तपोबलसमन्विते ॥ २३ ॥ अर्जुनो विदधे मृत्युं प्राकृतां बुद्धिमास्थितः । 'तपोबलसे सम्पन्न मेरे पिता जमदग्नि अस्त्र-शस्त्रोंका परित्याग करके जब ध्यानस्थ होकर बैठे थे, उस समय प्राकृत बुद्धिका आश्रय लेनेवाले कृतवीर्यकुमार अर्जुनने उनको मार डाला ॥ २३ १/२ ॥ वधमप्रतिरूपं तु पितुः श्रुत्वा सुदारुणम् । क्षत्रमुत्सादयन् रोषात् जातं जातमनेकशः ॥ २४ ॥ 'पिताके इस अत्यन्त भयंकर वधका, जो उनके योग्य नहीं था, समाचार सुनकर मैंने रोषपूर्वक बारंबार उत्पन्न हुए क्षत्रियोंका अनेक बार संहार किया ॥ २४ ॥ पृथिवीं चाखिलां प्राप्य काश्यपाय महात्मने । यज्ञस्यांते तदा राम दक्षिणां पुण्यकर्मणे ॥ २५ ॥ 'श्रीराम ! फिर सारी पृथ्वीपर अधिकार करके मैंने एक यज्ञ किया और उस यज्ञके समाप्त होनेपर पुण्यकर्मा महात्मा कश्यपको दक्षिणारूपसे यह सारी पृथ्वी दे डाली ॥ २५ ॥ दत्त्वा महेंद्रनिलयः तपोबलसमन्वितः । श्रुतवान् धनुषो भेदं ततोऽहं द्रुतमागतः ॥ २६ ॥ 'पृथ्वीका दान करके मैं महेन्द्रपर्वतपर रहने लगा और वहाँ तपस्या करके तपोबलसे सम्पन्न हुआ । वहाँसे शिवजीके धनुषके तोड़े जानेका समाचार सुनकर मैं शीघ्रतापूर्वक यहाँ आया हूँ ॥ २६ ॥ तदिदं वैष्णवं राम पितृपैतामहं महत् । क्षत्रधर्मं पुरस्कृत्य गृह्णीष्व धनुरुत्तमम् ॥ २७ ॥ योजयस्व धनुःश्रेष्ठे शरं परपुरंजयम् । यदि शक्नोषि काकुत्स्थ द्वंद्वं दास्यामि ते ततः ॥ २८ ॥ 'श्रीराम ! इस प्रकार यह महान् वैष्णवधनुष मेरे पिता-पितामहोंके अधिकारमें रहता चला आया है; अब तुम क्षत्रियधर्मको सामने रखकर यह उत्तम धनुष हाथमें लो और इस श्रेष्ठ धनुषपर एक ऐसा बाण चढ़ाओ, जो शत्रुनगरीपर विजय पानेमें समर्थ हो; यदि तुम ऐसा कर सके तो मैं तुम्हें द्वन्द्व-युद्धका अवसर दूंगा ॥ २७-२८ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे पञ्चसप्ततितमः सर्गः ॥ ७५ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें पचहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ७५ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |