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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

बालकाण्डम्

॥ षट्सप्ततितमः सर्गः ॥


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श्रीरामेण वैष्णवं धनुरारोप्य अमोघेन शरेण परशुरामस्य तपःप्राप्तानां पुण्यलोकानां विनाशनं परशुरामस्य महेंद्रपर्वतं प्रत्यागमनम् -
श्रीरामका वैष्णव-धनुषको चढ़ाकर अमोघ बाणके द्वारा परशुरामके तपःप्राप्त पुण्यलोकोंका नाश करना तथा परशुरामका महेन्द्रपर्वतको लौट जाना -


श्रुत्वा जामदग्न्यस्य वाक्यं दाशरथिस्तदा ।
गौरवाद् यंत्रितकथः पितू राममथाब्रवीत् ॥ १ ॥
दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्रजी अपने पिताके गौरवका ध्यान रखकर संकोचवश वहाँ कुछ बोल नहीं रहे थे, परंतु जमदग्निकुमार परशुरामजीकी उपर्युक्त बात सुनकर उस समय वे मौन न रह सके । उन्होंने परशुरामजीसे कहा ॥ १ ॥

श्रुतवानस्मि यत्कर्म कृतवानस्मि भार्गव ।
अनुरुध्यामहे ब्रह्मन् पितुरानृण्यमास्थितः ॥ २ ॥
'भृगुनन्दन ! ब्रह्मन् ! आपने पिताके ऋणसे ऊऋण होनेकी—पिताके मारनेवालेका वध करके वैरका बदला चुकानेकी भावना लेकर जो क्षत्रिय-संहाररूपी कर्म किया है, उसे मैंने सुना है और हमलोग आपके उस कर्मका अनुमोदन भी करते हैं (क्योंकि वीर पुरुष वैरका प्रतिशोध लेते ही हैं) ॥ २ ॥

वीर्यहीनमिवाशक्तं क्षत्रधर्मेण भार्गव ।
अवजानासि मे तेजः पश्य मेऽद्य पराक्रमम् ॥ ३ ॥
'भार्गव ! मैं क्षत्रियधर्मसे युक्त हूँ (इसीलिये आप ब्राह्मण-देवताके समक्ष विनीत रहकर कुछ बोल नहीं रहा हूँ । तो भी आप मुझे पराक्रमहीन और असमर्थ-सा मानकर मेरा तिरस्कार कर रहे हैं । अच्छा, अब मेरा तेज और पराक्रम देखिये ॥ ३ ॥

इत्युक्त्वा राघवः क्रुद्धो भार्गवस्य वरायुधम् ।
शरं च प्रति जग्राह हस्ताल्लघुपराक्रमः ॥ ४ ॥
ऐसा कहकर शीघ्र पराक्रम करनेवाले श्रीरामचन्द्रजीने कुपित हो परशुरामजीके हाथसे वह उत्तम धनुष और बाण ले लिया (साथ ही उनसे अपनी वैष्णवी शक्तिको भी वापस ले लिया) ॥ ४ ॥

आरोप्य स धनू रामः शरं सज्यं चकार ह ।
जामदग्न्यं ततो रामं रामः क्रुद्धोऽब्रवीदिदम् ॥ ५ ॥
उस धनुषको चढ़ाकर श्रीरामने उसकी प्रत्यञ्चापर बाण रखा, फिर कुपित होकर उन्होंने जमदग्निकुमार परशुरामजीसे इस प्रकार कहा— ॥ ५ ॥

ब्राह्मणोऽसीति पूज्यो मे विश्वामित्रकृतेन च ।
तस्माच्छक्तो न ते राम मोक्तुं प्राणहरं शरम् ॥ ६ ॥
(भृगुनन्दन) राम ! आप ब्राह्मण होनेके नाते मेरे पूज्य हैं तथा विश्वामित्रजीके साथ भी आपका सम्बन्ध है—इन सब कारणोंसे मैं इस प्राण-संहारक बाणको आपके शरीरपर नहीं छोड़ सकता ॥ ६ ॥

इमां वा त्वद्‌गतिं राम तपोबलसमर्जितान् ।
लोकानप्रतिमान् वा ते हनिष्यामीति मे मतिः ॥ ७ ॥
न ह्ययं वैष्णवो दिव्यः शरः परपुरञ्जयः ।
मोघः पतति वीर्येण बलदर्पविनाशनः ॥ ८ ॥
'राम ! मेरा विचार है कि आपको जो सर्वत्र शीघ्रतापूर्वक आने-जानेकी शक्ति प्राप्त हुई है उसे अथवा आपने अपने तपोबलसे जिन अनुपम पुण्यलोकोंको प्राप्त किया है उन्हींको नष्ट कर डालूँ; क्योंकि अपने पराक्रमसे विपक्षीके बलके घमंडको चूर कर देनेवाला यह दिव्य वैष्णव बाण, जो शत्रुओंकी नगरीपर विजय दिलानेवाला है, कभी निष्फल नहीं जाता है' ॥ ७-८ ॥

वरायुधधरं रामं द्रष्टुं सर्षिगणाः सुराः ।
पितामहं पुरस्कृत्य समेतास्तत्र सर्वशः ॥ ९ ॥
उस समय उस उत्तम धनुष और बाणको धारण करके खड़े हुए श्रीरामचन्द्रजीको देखनेके लिये सम्पूर्ण देवता और ऋषि ब्रह्माजीको आगे करके वहाँ एकत्र हो गये ॥ ९ ॥

गंधर्वाप्सरसश्चैव सिद्धचारणकिन्नराः ।
यक्षराक्षसनागाश्च तद्द्रष्टुं महदद्‍भुतम् ॥ १० ॥
गन्धर्व, अप्सराएँ, सिद्ध, चारण, किन्नर, यक्ष, राक्षस और नाग भी उस अत्यन्त अद्भुत दृश्यको देखनेके लिये वहाँ आ पहुँचे ॥ १० ॥

जडीकृते तदा लोके रामे वरधनुर्धरे ।
निर्वीर्यो जामदग्न्योऽसौ रामो राममुदैक्षत ॥ ११ ॥
जब श्रीरामचन्द्रजीने वह श्रेष्ठ धनुष हाथमें ले लिया, उस समय सब लोग आश्चर्यसे जडवत् हो गये । (परशुरामजीका वैष्णव तेज निकलकर श्रीरामचन्द्रजीमें मिल गया । इसलिये) वीर्यहीन हुए जमदग्निकुमार रामने दशरथनन्दन श्रीरामकी ओर देखा ॥ ११ ॥

तेजोऽभिर्गतवीर्यत्वात् जामदग्न्यो जडीकृतः ।
रामं कमलपत्राक्षं मंदं मंदं उवाच ह ॥ १२ ॥
तेज निकल जानेसे वीर्यहीन हो जानेके कारण जडवत् बने हुए जमदग्निकुमार परशुरामने कमलनयन श्रीरामसे धीरे-धीरे कहा— ॥ १२ ॥

काश्यपाय मया दत्ता यदा पूर्वं वसुंधरा ।
विषये मे न वस्तव्यं इति मां काश्यपोऽब्रवीत् ॥ १३ ॥
'रघुनन्दन ! पूर्वकालमें मैंने कश्यपजीको जब यह पृथिवी दान की थी, तब उन्होंने मुझसे कहा था कि 'तुम्हें मेरे राज्यमें नहीं रहना चाहिये' ॥ १३ ॥

सोऽहं गुरुवचः कुर्वन् पृथिव्यां न वसे निशाम् ।
कृता प्रतिज्ञा काकुत्स्थ कृता भूः काश्यपस्य ह ॥ १४ ॥
'ककुत्स्थकुलनन्दन ! तभीसे अपने गुरु कश्यपजीकी इस आज्ञाका पालन करता हुआ मैं कभी रातमें पृथिवीपर नहीं निवास करता हूँ; क्योंकि यह बात सर्वविदित है कि मैंने कश्यपके सामने रातको पृथिवीपर न रहनेकी प्रतिज्ञा कर रखी है ॥ १४ ॥

तदिमां त्वं गतिं वीर हंतुं नार्हसि राघव ।
मनोजवं गमिष्यामि महेंद्रं पर्वतोत्तमम् ॥ १५ ॥
इसलिये वीर राघव ! आप मेरी इस गमनशक्तिको नष्ट न करें । मैं मनके समान वेगसे अभी महेन्द्र नामक श्रेष्ठ पर्वतपर चला जाऊँगा ॥ १५ ॥

लोकास्त्वप्रतिमा राम निर्जितास्तपसा मया ।
जहि तान् शरमुख्येन मा भूत् कालस्य पर्ययः ॥ १६ ॥
'परंतु श्रीराम ! मैंने अपनी तपस्यासे जिन अनुपम लोकोंपर विजय पायी है, उन्हींको आप इस श्रेष्ठ बाणसे नष्ट कर दें; अब इसमें विलम्ब नहीं होना चाहिये ॥ १६ ॥

अक्षय्यं मधुहंतारं जानामि त्वां सुरोत्तमम् ।
धनुषोऽस्य परामर्शात् स्वस्ति तेऽस्तु परंतप ॥ १७ ॥
शत्रुओंको संताप देनेवाले वीर ! आपने जो इस धनुषको चढ़ा दिया, इससे मुझे निश्चितरूपसे ज्ञात हो गया कि आप मधु दैत्यको मारनेवाले अविनाशी देवेश्वर विष्णु हैं । आपका कल्याण हो ॥ १७ ॥

एते सुरगणाः सर्वे निरीक्षंते समागताः ।
त्वामप्रतिमकर्माणं अप्रतिद्वंद्वमाहवे ॥ १८ ॥
'ये सब देवता एकत्र होकर आपकी ओर देख रहे हैं । आपके कर्म अनुपम हैं; युद्धमें आपका सामना करनेवाला दूसरा कोई नहीं है ॥ १८ ॥

न चेयं मम काकुत्स्थ व्रीडा भवितुमर्हति ।
त्वया त्रैलोक्यनाथेन यदहं विमुखीकृतः ॥ १९ ॥
'ककुत्स्थकुलभूषण ! आपके सामने जो मेरी असमर्थता प्रकट हुई—यह मेरे लिये लज्जाजनक नहीं हो सकती; क्योंकि आप त्रिलोकीनाथ श्रीहरिने मुझे पराजित किया है ॥ १९ ॥

शरमप्रतिमं राम मोक्तुमर्हसि सुव्रत ।
शरमोक्षे गमिष्यामि महेंद्रं पर्वतोत्तमम् ॥ २० ॥
'उत्तम व्रतका पालन करनेवाले श्रीराम ! अब आप अपना अनुपम बाण छोड़िये; इसके छूटनेके बाद ही मैं श्रेष्ठ महेन्द्र पर्वतपर जाऊँगा' ॥ २० ॥

तथा ब्रुवति रामे तु जामदग्न्ये प्रतापवान् ।
रामो दाशरथिः श्रीमान् चिक्षेप शरमुत्तमम् ॥ २१ ॥
जमदग्निनन्दन परशुरामजीके ऐसा कहनेपर प्रतापी दशरथनन्दन श्रीमान् रामचन्द्रजीने वह उत्तम बाण छोड़ दिया ॥ २१ ॥

स हतान् दृश्य रामेण स्वान् लोकान् तपसार्जितान् ।
जामदग्न्यो जगामाशु महेंद्रं पर्वतोत्तमम् ॥ २२ ॥
अपनी तपस्याद्वारा उपार्जित किये हुए पुण्यलोकोंको श्रीरामचन्द्रजीके चलाये हुए उस बाणसे नष्ट हुआ देखकर परशुरामजी शीघ्र ही उत्तम महेन्द्र पर्वतपर चले गये ॥ २२ ॥

ततो वितिमिराः सर्वा दिशश्चोपदिशस्तथा ।
सुराः सर्षिगणा रामं प्रशशंसुरुदायुधम् ॥ २३ ॥
उनके जाते ही समस्त दिशाओं तथा उपदिशाओंका अन्धकार दूर हो गया । उस समय ऋषियोंसहित देवता उत्तम आयुधधारी श्रीरामकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे ॥ २३ ॥

रामं दाशरथिं रामो जामदग्न्यः प्रपूजितः ।
ततः प्रदक्षिणी कृत्य जगामात्मगतिं प्रभुः ॥ २४ ॥
तदनन्तर दशरथनन्दन श्रीरामने जमदग्निकुमार परशुरामका पूजन किया । उनसे पूजित हो प्रभावशाली परशुराम दशरथकुमार श्रीरामकी परिक्रमा करके अपने स्थानको चले गये ॥ २४ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् बालकाण्डे षट्सप्ततितमः सर्गः ॥ ७६ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें छिहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ७६ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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