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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
बालकाण्डम् ॥ सप्तसप्ततितमः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] पुत्रैः स्नुषाभिश्च सह दशरथस्यायोध्ययां प्रवेशः, शत्रुघ्नसहितस्य भरतस्य मातुलगृहे गमनं, श्रीरामस्य सद्वृत्त्या समेषां संतोषः, श्रीसीतारामयोर्मिथः प्रेम्णो वर्णनम् -
पुत्रैः स्नुषाभिश्च सह दशरथस्यायोध्ययां प्रवेशः, शत्रुघ्नसहितस्य भरतस्य मातुलगृहे गमनं, श्रीरामस्य सद्वृत्त्या समेषां संतोषः, श्रीसीतारामयोर्मिथः प्रेम्णो वर्णनम् - गते रामे प्रशांतात्मा रामो दाशरथिर्धनुः । वरुणायाप्रमेयाय ददौ हस्ते महायशाः ॥ १ ॥ जमदग्निकुमार परशुरामजीके चले जानेपर महायशस्वी दशरथनन्दन श्रीरामने शान्तचित्त होकर अपार शक्तिशाली वरुणके हाथमें वह धनुष दे दिया ॥ १ ॥ अभिवाद्य ततो रामो वसिष्ठप्रमुखानृषीन् । पितरं विकलं दृष्ट्वा प्रोवाच रघुनंदनः ॥ २ ॥ तत्पश्चात् वसिष्ठ आदि ऋषियोंको प्रणाम करके रघुनन्दन श्रीरामने अपने पिताको विकल देखकर उनसे कहा — ॥ २ ॥ जामदग्न्यो गतो रामः प्रयातु चतुरङ्गिणी । अयोध्याभिमुखी सेना त्वया नाथेन पालिता ॥ ३ ॥ पिताजी ! जमदग्निकुमार परशुरामजी चले गये । अब आपके अधिनायकत्वमें सुरक्षित यह चतुरंगिणी सेना अयोध्याकी ओर प्रस्थान करे' ॥ ३ ॥ रामस्य वचनं श्रुत्वा राजा दशरथः सुतम् । बाहुभ्यां संपरिष्वज्य मूर्ध्न्युपाघ्राय राघवम् ॥ ४ ॥ गतो राम इति श्रुत्वा हृष्टः प्रमुदितो नृपः । पुनर्जातं तदा मेने पुत्रमात्मानमेव च ॥ ५ ॥ श्रीरामका यह वचन सुनकर राजा दशरथने अपने पुत्र रघुनाथजीको दोनों भुजाओंसे खींचकर छातीसे लगा लिया और उनका मस्तक सूंघा । 'परशुरामजी चले गये' यह सुनकर राजा दशरथको बड़ा हर्ष हुआ, वे आनन्दमग्न हो गये । उस समय उन्होंने अपना और अपने पुत्रका पुनर्जन्म हुआ माना ॥ ४-५ ॥ चोदयामास तां सेनां जगामाशु ततः पुरीम् । पताकाध्वजिनीं रम्यां तूर्योद्घुष्टनिनादिताम् ॥ ६ ॥ तदनन्तर उन्होंने सेनाको नगरकी ओर फॅरुच करनेकी आज्ञा दी और वहाँसे चलकर बड़ी शीघ्रताके साथ वे अयोध्यापुरीमें जा पहुँचे । उस समय उस पुरीमें सब ओर ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं । सजावटसे नगरकी रमणीयता बढ़ गयी थी और भाँति-भाँतिके वाद्योंकी ध्वनिसे सारी अयोध्या गूंज उठी थी ॥ ६ ॥ सिक्तराजपथारम्यां प्रकीर्णकुसुमोत्कराम् । राजप्रवेशसुमुखैः पौरैर्मङ्गलवादिभिः ॥ ७ ॥ संपूर्णां प्राविशद् राजा जनौघैः समलंकृताम् । पौरैः प्रत्युद्गतो दूरं द्विजैश्च पुरवासिभिः ॥ ८ ॥ सड़कोंपर जलका छिड़काव हुआ था, जिससे पुरीकी सुरम्य शोभा बढ़ गयी थी । यत्र-तत्र ढेर-के-ढेर फूल बिखेरे गये थे । पुरवासी मनुष्य हाथोंमें मांगलिक वस्तुएँ लेकर राजाके प्रवेशमार्गपर प्रसन्नमुख होकर खड़े थे । इन सबसे भरी-पूरी तथा भारी जनसमुदायसे अलंकृत हुई अयोध्यापुरीमें राजाने प्रवेश किया । नागरिकों तथा पुरवासी ब्राह्मणोंने दूरतक आगे जाकर महाराजकी अगवानी की थी ॥ ७-८ ॥ पुत्रैरनुगतः श्रीमान् श्रीमद्भिश्च महायशाः । प्रविवेश गृहं राजा हिमवत्सदृशं प्रियम् ॥ ९ ॥ अपने कान्तिमान् पुत्रोंके साथ महायशस्वी श्रीमान् राजा दशरथने अपने प्रिय राजभवन में, जो हिमालयके समान सुन्दर एवं गगनचुम्बी था, प्रवेश किया ॥ ९ ॥ ननंद सजनै राजा गृहे कामैः सुपूजितः । कौसल्या च सुमित्रा च कैकयी च सुमध्यमा ॥ १० ॥ वधूप्रतिग्रहे युक्ता याश्चान्या राजयोषितः । राजमहलमें स्वजनोंद्वारा मनोवाञ्छित वस्तुओंसे परम पूजित हो राजा दशरथने बड़े आनन्दका अनुभव किया । महारानी कौसल्या, सुमित्रा, सुन्दर कटिप्रदेशवाली कैकेयी तथा जो अन्य राजपन्तियाँ थीं, वे सब बहुओंको उतारनेके कार्यमें जुट गयीं ॥ १० १/२ ॥ ततः सीतां महाभागां ऊर्मिलां च यशस्विनीम् ॥ ११ ॥ कुशध्वजसुते चोभे जगृहुर्नृपयोषितः । मङ्गलालापनैर्होमैः शोभिताः क्षौमवाससः ॥ १२ ॥ तदनन्तर राजपरिवारकी उन स्त्रियोंने परम सौभाग्यवती सीता, यशस्विनी ऊर्मिला तथा कुशध्वजकी दोनों कन्याओं माण्डवी और श्रुतकीर्तिको सवारीसे उतारा और मंगल गीत गाती हुई सब वधुओंको घरमें ले गयीं । वे प्रवेशकालिक होमकर्मसे सुशोभित तथा रेशमी साड़ियोंसे अलंकृत थीं ॥ ११-१२ ॥ देवतायतनान्याशु सर्वास्ताः प्रत्यपूजयन् । अभिवाद्याभिवाद्यांश्च सर्वा राजसुतास्तदा ॥ १३ ॥ रेमिरे मुदिताः सर्वा भर्तृभिः मुदिता रहः । उन सबने देवमन्दिरोंमें ले जाकर उन बहुओंसे देवताओंका पूजन करवाया । तदनन्तर नववधूरूपमें आयी हुई उन सभी राजकुमारियोंने वन्दनीय सास-ससुर आदिके चरणों में प्रणाम किया और अपने-अपने पतिके साथ एकान्तमें रहकर वे सब-की-सब बड़े आनन्दसे समय व्यतीत करने लगीं ॥ १३ १/२ ॥ कृतदाराः कृतास्त्राश्च सधनाः ससुहृज्जनाः ॥ १४ ॥ शुश्रूषमाणाः पितरं वर्तयंति नरर्षभाः । कस्यचित्त्वथ कालस्य राजा दशरथः सुतम् ॥ १५ ॥ भरतं कैकयीपुत्रं अब्रवीद् रघुनंदनः । श्रीराम आदि पुरुषश्रेष्ठ चारों भाई अस्त्रविद्यामें निपुण और विवाहित होकर धन और मित्रोंके साथ रहते हुए पिताकी सेवा करने लगे । कुछ कालके बाद रघुकुलनन्दन राजा दशरथने अपने पुत्र कैकेयीकुमार भरतसे कहा— ॥ १४-१५ १/२ ॥ अयं केकयराजस्य पुत्रो वसति पुत्रक ॥ १६ ॥ त्वां नेतुमागतो वीर युधाजिन्मातुलस्तव । 'बेटा ! ये तुम्हारे मामा केकयराजकुमार वीर युधाजित् तुम्हें लेनेके लिये आये हैं और कई दिनोंसे यहाँ ठहरे हुए हैं' ॥ १६ १/२ ॥ श्रुत्वा दशरथस्यैतद् भरतः कैकयीसुतः ॥ १७ ॥ गमनायाभिचक्राम शत्रुघ्नसहितस्तदा । दशरथजीकी यह बात सुनकर कैकेयीकुमार भरतने उस समय शत्रुघ्नके साथ मामाके यहाँ जानेका विचार किया ॥ १७ १/२ ॥ आपृच्छ्य पितरं शूरो रामं चाक्लिष्टकारिणम् ॥ १८ ॥ मातॄश्चापि नरश्रेष्ठः शत्रुघ्नसहितो ययौ । वे नरश्रेष्ठ शूरवीर भरत अपने पिता राजा दशरथ, अनायास ही महान् कर्म करनेवाले श्रीराम तथा सभी माताओंसे पूछकर उनकी आज्ञा ले शत्रुघ्नसहित वहाँसे चल दिये ॥ १८ १/२ ॥ युधाजित् प्राप्य भरतं सशत्रुघ्नं प्रहर्षितः ॥ १९ ॥ स्वपुरं प्राविशद् वीरः पिता तस्य तुतोष ह । शत्रुघ्रसहित भरतको साथ लेकर वीर युधाजित्ने बड़े हर्षके साथ अपने नगरमें प्रवेश किया, इससे उनके पिताको बड़ा संतोष हुआ ॥ १९ १/२ ॥ गते च भरते रामो लक्ष्मणश्च महाबलः ॥ २० ॥ पितरं देवसंकाशं पूजयामासतुस्तदा । भरतके चले जानेपर महाबली श्रीराम और लक्ष्मण उन दिनों अपने देवोपम पिताकी सेवा-पूजामें संलग्न रहने लगे ॥ २० १/२ ॥ पितुराज्ञां पुरस्कृत्य पौरकार्याणि सर्वशः ॥ २१ ॥ चकार रामो सर्वाणि प्रियाणि च हितानि च । पिताकी आज्ञा शिरोधार्य करके वे नगरवासियोंके सब काम देखने तथा उनके समस्त प्रिय तथा हितकर कार्य करने लगे ॥ २१ १/२ ॥ मातृभ्यो मातृकार्याणि कृत्वा परमयंत्रितः ॥ २२ ॥ गुरूणां गुरुकार्याणि काले कालेऽन्ववैक्षत । वे अपनेको बड़े संयममें रखते थे और समय-समयपर माताओंके लिये उनके आवश्यक कार्य पूर्ण करके गुरुजनोंके भारी-से-भारी कार्योंको भी सिद्ध करनेका ध्यान रखते थे ॥ २२ १/२ ॥ एवं दशरथः प्रीतो ब्राह्मणा नैगमास्तदा ॥ २३ ॥ रामस्य शीलवृत्तेन सर्वे विषयवासिनः । उनके इस बर्तावसे राजा दशरथ, वेदवेत्ता ब्राह्मण तथा वैश्यवर्ग बड़े प्रसन्न रहते थे; श्रीरामके उत्तम शील और सद्-व्यवहारसे उस राज्यके भीतर निवास करनेवाले सभी मनुष्य बहुत संतुष्ट रहते थे ॥ २३ १/२ ॥ तेषामतियशा लोके रामः सत्यपराक्रमः ॥ २४ ॥ स्वयंभूरिव भूतानां बभूव गुणवत्तरः । राजाके उन चारों पुत्रोंमें सत्यपराक्रमी श्रीराम ही लोकमें अत्यन्त यशस्वी तथा महान् गुणवान् हुए ठीक उसी तरह जैसे समस्त भूतोंमें स्वयम्भू ब्रह्मा ही अत्यन्त यशस्वी और महान् गुणवान् हैं ॥ २४ १/२ ॥ रामस्तु सीतया सार्धं विजहार बहूनृतून् ॥ २५ ॥ मनस्वी तद्गतमनाः तस्या हृदि समर्पितः । श्रीरामचन्द्रजी सदा सीताके हृदयमन्दिरमें विराजमान रहते थे तथा मनस्वी श्रीरामका मन भी सीतामें ही लगा रहता था; श्रीरामने सीताके साथ अनेक ऋतुओंतक विहार किया ॥ २५ १/२ ॥ प्रिया तु सीता रामस्य दाराः पितृकृता इति ॥ २६ ॥ गुणाद् रूपगुणाच्चापि प्रीतिर्भूयोऽभिवर्धते । तस्याश्च भर्ता द्विगुणं हृदये परिवर्तते ॥ २७ ॥ सीता श्रीरामको बहुत ही प्रिय थीं; क्योंकि वे अपने पिता राजा जनकद्वारा श्रीरामके हाथमें पन्ती-रूपसे समर्पित की गयी थीं । सीताके पातिव्रत्य आदि गुणसे तथा उनके सौन्दर्यगुणसे भी श्रीरामका उनके प्रति अधिकाधिक प्रेम बढ़ता रहता था; इसी प्रकार सीताके हृदयमें भी उनके पति श्रीराम अपने गुण और सौन्दर्यके कारण द्विगुण प्रीतिपात्र बनकर रहते थे ॥ २६-२७ ॥ अंतर्गतमपि व्यक्तं आख्याति हृदयं हृदा । तस्य भूयो विशेषेण मैथिली जनकात्मजा । देवताभिः समा रूपे सीता श्रीरिव रूपिणी ॥ २८ ॥ जनकनन्दिनी मिथिलेशकुमारी सीता श्रीरामके हार्दिक अभिप्रायको भी अपने हृदयसे ही और अधिक रूपसे जान लेती थीं तथा स्पष्ट रूपसे बता भी देती थीं । वे रूपमें देवांगनाओंके समान थीं और मूर्तिमती लक्ष्मी-सी प्रतीत होती थीं ॥ २८ ॥ तया स राजर्षिसुतोऽभिरामया समेयिवानुत्तमराजकन्यया । अतीव रामः शुशुभे मुदान्वितो विभुः श्रिया विष्णुरिवामरेश्वरः ॥ २९ ॥ श्रेष्ठ राजकुमारी सीता श्रीरामकी ही कामना रखती थीं और श्रीराम भी एकमात्र उन्हींको चाहते थे; जैसे लक्ष्मीके साथ देवेश्वर भगवान् विष्णुकी शोभा होती है, उसी प्रकार उन सीतादेवीके साथ राजर्षि दशरथकुमार श्रीराम परम प्रसन्न रहकर बड़ी शोभा पाने लगे ॥ २९ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे श्रीमद्वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे सप्तसप्ततितमः सर्गः ॥ ७७ ॥ ॥ इति बालकाण्डः समाप्तः ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें सतहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ७७ ॥ ॥ बालकाण्ड समाप्त ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |