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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

अयोध्याकाण्डम्

॥ प्रथमः सर्गः ॥


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श्रीरामसद्‌गुणानां वर्णनं, श्रीरामं यौवराज्ये स्थापयितुं दशरथस्य विचारः, तदर्थं मंत्रणां कर्तुं विभिन्न नरेषाणां पौराणां जानपदानां च राज्ञा स्वसंसदि समाह्वानम् - -
श्रीरामके सद्गुणोंका वर्णन, राजा दशरथका श्रीरामको युवराज बनानेका विचार तथा विभिन्न नरेशों और नगर एवं जनपदके लोगोंको मन्त्रणाके लिये अपने दरबारमें बुलाना -


गच्छता मातुलकुलं भरतेन तदानघः ।
शत्रुघ्नो नित्यशत्रुघ्नो नीतः प्रीतिपुरस्कृतः ॥ १ ॥
(पहले यह बताया जा चुका है कि) भरत अपने मामाके यहाँ जाते समय काम आदि शत्रुओंको सदाके लिये नष्ट कर देनेवाले निष्पाप शत्रुघ्नको भी प्रेमवश अपने साथ लेते गये थे ॥ १ ॥

स तत्र न्यवसद्‍भ्रात्रा सह सत्कारसत्कृतः ।
मातुलेनाश्वपतिना पुत्रस्नेहेन लालितः ॥ २ ॥
वहाँ भाईसहित उनका बड़ा आदर-सत्कार हुआ और वे वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे । उनके मामा युधाजित, जो अश्वयूथके अधिपति थे, उन दोनोंपर पुत्रसे भी अधिक स्नेह रखते और बड़ा लाड़-प्यार करते थे ॥ २ ॥

तत्रापि निवसंतौ तौ तर्प्यमाणौ च कामतः ।
भ्रातरौ स्मरतां वीरौ वृद्धं दशरथं नृपम् ॥ ३ ॥
यद्यपि मामाके यहाँ उन दोनों वीर भाइयोंकी सभी इच्छाएँ पूर्ण करके उन्हें पूर्णत: तृप्त किया जाता था, तथापि वहाँ रहते हुए भी उन्हें अपने वृद्ध पिता महाराज दशरथकी याद कभी नहीं भूलती थी ॥ ३ ॥

राजापि तौ महातेजाः सस्मार प्रोषितौ सुतौ ।
उभौ भरतशत्रुघ्नौ महेंद्रवरुणोपमौ ॥ ४ ॥
महातेजस्वी राजा दशरथ भी परदेशमें गये हुए महेन्द्र और वरुणके समान पराक्रमी अपने उन दोनों पुत्र भरत और शत्रुघ्नका सदा स्मरण किया करते थे ॥ ४ ॥

सर्व एव तु तस्येष्टाश्चत्वारः पुरुषर्षभाः ।
स्वशरीराद्विनिर्वृत्ताः चत्वार इव बाहवः ॥ ५ ॥
अपने शरीरसे प्रकट हुई चारों भुजाओंके समान वे सब चारों ही पुरुषशिरोमणि पुत्र महाराजको बहुत ही प्रिय थे ॥ ५ ॥

तेषामपि महातेजा रामो रतिकरः पितुः ।
स्वयम्भूरिव भूतानां बभूव गुणवत्तरः ॥ ६ ॥
परंतु उनमें भी महातेजस्वी श्रीराम सबकी अपेक्षा अधिक गुणवान् होनेके कारण समस्त प्राणियोंके लिये ब्रह्माजीकी भाँति पिताके लिये विशेष प्रीतिवर्धक थे ॥ ६ ॥

स हि देवैरुदीर्णस्य रावणस्य वधार्थिभिः ।
अर्थितो मानुषे लोके जज्ञे विष्णुः सनातनः ॥ ७ ॥
इसका एक कारण और भी था—वे साक्षात् सनातन विष्णु थे और परम प्रचण्ड रावणके वधकी अभिलाषा रखनेवाले देवताओंकी प्रार्थनापर मनुष्यलोकमें अवतीर्ण हुए थे ॥ ७ ॥

कौसल्या शुशुभे तेन पुत्रेणामिततेजसा ।
यथा वरेण देवानां अदितिः वज्रपाणिना ॥ ८ ॥
उन अमित तेजस्वी पुत्र श्रीरामचन्द्रजीसे महारानी कौसल्याकी वैसी ही शोभा होती थी, जैसे वज्रधारी देवराज इन्द्रसे देवमाता अदिति सुशोभित होती हैं ॥ ८ ॥

स हि रूपोपपन्नश्च वीर्यवान् अनसूयकः ।
भूमौ अनुपमः सूनुः गुणैर्दशरथोपमः ॥ ९ ॥
श्रीराम बड़े ही रूपवान् और पराक्रमी थे । वे किसीके दोष नहीं देखते थे । भूमण्डलमें उनकी समता करनेवाला कोई नहीं था । वे अपने गुणोंसे पिता दशरथके समान एवं योग्य पुत्र थे ॥ ९ ॥

स तु नित्यं प्रशांतात्मा मृदुपूर्वं च भाषते ।
उच्यमानोऽपि परुषं नोत्तरं प्रतिपद्यते ॥ १० ॥
वे सदा शान्त चित्त रहते और सान्त्वनापूर्वक मीठे वचन बोलते थे; यदि उनसे कोई कठोर बात भी कह देता तो वे उसका उत्तर नहीं देते थे ॥ १० ॥

कदाचिद् उपकारेण कृतेनैकेन तुष्यति ।
न स्मरति अपकाराणां शतमप्यात्मवत्तया ॥ ११ ॥
कभी कोई एक बार भी उपकार कर देता तो वे उसके उस एक ही उपकारसे सदा संतुष्ट रहते थे और मनको वशमें रखनेके कारण किसीके सैकड़ों अपराध करनेपर भी उसके अपराधोंको याद नहीं रखते थे ॥ ११ ॥

शीलवृद्धैः ज्ञानवृद्धैः वयोवृद्धैश्च सज्जनैः ।
कथयन्नास्त वै नित्यं अस्त्रयोग्यांतरेष्वपि ॥ १२ ॥
अस्त्र-शस्त्रोंके अभ्यासके लिये उपयुक्त समयमें भी बीच-बीचमें अवसर निकालकर वे उत्तम चरित्रमें, ज्ञानमें तथा अवस्थामें बढ़े-चढ़े सत्पुरुषोंके साथ ही सदा बातचीत करते (और उनसे शिक्षा लेते थे) ॥ १२ ॥

बुद्धिमान् मधुराभाषी पूर्वभाषी प्रियंवदः ।
वीर्यवान् न च वीर्येण महता स्वेन विस्मितः ॥ १३ ॥
वे बड़े बुद्धिमान् थे और सदा मीठे वचन बोलते थे । अपने पास आये हुए मनुष्योंसे पहले स्वयं ही बात करते और ऐसी बातें मुँहसे निकालते जो उन्हें प्रिय लगें; बल और पराक्रमसे सम्पन्न होनेपर भी अपने महान् पराक्रमके कारण उन्हें कभी गर्व नहीं होता था ॥ १३ ॥

न चानृतकथो विद्वान् वृद्धानां प्रतिपूजकः ।
अनुरक्तः प्रजाभिश्च प्रजाश्चापि अनुरज्यते ॥ १४ ॥
झूठी बात तो उनके मुखसे कभी निकलती ही नहीं थी । वे विद्वान् थे और सदा वृद्ध पुरुषोंका सम्मान किया करते थे । प्रजाका श्रीरामके प्रति और श्रीरामका प्रजाके प्रति बड़ा अनुराग था ॥ १४ ॥

सानुक्रोशो जितक्रोधो ब्राह्मणप्रतिपूजकः ।
दीनानुकम्पी धर्मज्ञो नित्यं प्रग्रहवान् शुचिः ॥ १५ ॥
वे परम दयालु क्रोधको जीतनेवाले और ब्राह्मणोंके पुजारी थे । उनके मन में दीन-दुःखियोंके प्रति बड़ी दया थी । वे धर्मके रहस्यको जाननेवाले, इन्द्रियोंको सदा वशमें रखनेवाले और बाहर-भीतरसे परम पवित्र थे ॥

कुलोचितमतिः क्षात्रं धर्मं स्वं बहु मन्यते ।
मन्यते परया कीर्त्या महत् स्वर्गफलं ततः ॥ १६ ॥
अपने कुलोचित आचार, दया, उदारता और शरणागतरक्षा आदिमें ही उनका मन लगता था । वे अपने क्षत्रियधर्मको अधिक महत्त्व देते और मानते थे । वे उस क्षत्रियधर्मके पालनसे महान् स्वर्ग (परम धाम) की प्राप्ति मानते थे; अत: बड़ी प्रसन्नताके साथ उसमें संलग्न रहते थे ॥ १६ ॥

नाश्रेयसि रतो यश्च न विरुद्ध कथारुचिः ।
उत्तरोत्तरयुक्तीनां वक्ता वाचस्पतिर्यथा ॥ १७ ॥
अमङ्गलकारी निषिद्ध कर्ममें उनकी कभी प्रवृत्ति नहीं होती थी; शास्त्रविरुद्ध बातोंको सुनने में उनकी रुचि नहीं थी; वे अपने न्याययुक्त पक्षके समर्थनमें बृहस्पतिके समान एक-से-एक बढ़कर युक्तियाँ देते थे ॥ १७ ॥

अरोगस्तरुणो वाग्ग्मी वपुष्मान् देशकालवित् ।
लोके पुरुषसारज्ञः साधुरेको विनिर्मितः ॥ १८ ॥
उनका शरीर नीरोग था और अवस्था तरुण । वे अच्छे वक्ता, सुन्दर शरीरसे सुशोभित तथा देश-कालके तत्त्वको समझनेवाले थे । उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था कि विधाताने संसारमें समस्त पुरुषोंके सारतत्त्वको समझनेवाले साधु पुरुषके रूपमें एकमात्र श्रीरामको ही प्रकट किया है ॥ १८ ॥

स तु श्रेष्ठैर्गुणैर्युक्तः प्रजानां पार्थिवात्मजः ।
बहिश्चरः इव प्राणो बभूव गुणतः प्रियः ॥ १९ ॥
राजकुमार श्रीराम श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त थे । वे अपने सद्गुणोंके कारण प्रजाजनोंको बाहर विचरनेवाले प्राणकी भाँति प्रिय थे ॥ १९ ॥

सर्वविद्या व्रतस्नातो यथावत् साङ्‍गवेदवित् ।
इष्वस्त्रे च पितुः श्रेष्ठो बभूव भरताग्रजः ॥ २० ॥
रतके बड़े भाई श्रीराम सम्पूर्ण विद्याओंके व्रतमें निष्णात और छहों अगोंसहित सम्पूर्ण वेदोंके यथार्थ ज्ञाता थे । बाणविद्यामें तो वे अपने पितासे भी बढ़कर थे ॥ २० ॥

कल्याणाभिजनः साधुः अदीनः सत्यवाग् ऋजुः ।
वृद्धैः अभिविनीतश्च द्विजैर्धर्मार्थ दर्शिभिः ॥ २१ ॥
वे कल्याणकी जन्मभूमि, साधु, दैन्यरहित, सत्यवादी और सरल थे; धर्म और अर्थके ज्ञाता वृद्ध ब्राह्मणों के द्वारा उन्हें उत्तम शिक्षा प्राप्त हुई थी ॥ २१ ॥

धर्मकामार्थतत्त्वज्ञः स्मृतिमान् प्रतिभानवान् ।
लौकिके समयाचारे कृतकल्पो विशारदः ॥ २२ ॥
उन्हें धर्म, काम और अर्थके तत्त्वका सम्यक् ज्ञान था । वे स्मरणशक्तिसे सम्पन्न और प्रतिभाशाली थे । वे लोकव्यवहारके सम्पादनमें समर्थ और समयोचित धर्माचरणमें कुशल थे ॥ २२ ॥

निभृतः संवृताकारो गुप्तमंत्रः सहायवान् ।
अमोघक्रोधहर्षश्च त्यागसंयमकालवित् ॥ २३ ॥
वे विनयशील, अपने आकार (अभिप्राय)-को छिपानेवाले, मन्त्रको गुप्त रखनेवाले और उत्तम सहायकोंसे सम्पन्न थे । उनका क्रोध अथवा हर्ष निष्फल नहीं होता था । वे वस्तुओंके त्याग और संग्रहके अवसरको भलीभाँति जानते थे ॥ २३ ॥

दृढभक्तिः स्थिरप्रज्ञो नासद्‍ग्राही न दुर्वचः ।
निस्तंद्रिः अप्रमत्तश्च स्वदोषपरदोषवित् ॥ २४ ॥
गुरुजनोंके प्रति उनकी दृढ़ भक्ति थी । वे स्थितप्रज्ञ थे और असद्वस्तुओंको कभी ग्रहण नहीं करते थे । उनके मुखसे कभी दुर्वचन नहीं निकलता था । वे आलस्यरहित, प्रमादशून्य तथा अपने और पराये मनुष्योंके दोषोंको अच्छी प्रकार जाननेवाले थे ॥ २४ ॥

शास्त्रज्ञश्च कृतज्ञश्च पुरुषांतर कोविदः ।
यः प्रग्रहानुग्रहयोः यथान्यायं विचक्षणः ॥ २५ ॥
वे शास्त्रोंके ज्ञाता, उपकारियोंके प्रति कृतज्ञ तथा पुरुषोंके तारतम्यको अथवा दूसरे पुरुषोंके मनोभावको जानने में कुशल थे । यथायोग्य निग्रह और अनुग्रह करनेमें वे पूर्ण चतुर थे ॥ २५ ॥

सत्संग्रहानुग्रहणे स्थानवित् निग्रहस्य च ।
आयकर्मण्युपायज्ञः संदृष्टव्यय कर्मवित् ॥ २६ ॥
उन्हें सत्पुरुषोंके संग्रह और पालन तथा दुष्ट पुरुषोंके निग्रहके अवसरोंका ठीक-ठीक ज्ञान था । धनकी आयके उपायोंको वे अच्छी तरह जानते थे (अर्थात् फूलोंको नष्ट न करके उनसे रस लेनेवाले भ्रमरोंकी भाँति वे प्रजाओंको कष्ट दिये बिना ही उनसे न्यायोचित धनका उपार्जन करने में कुशल थे) तथा शास्त्रवर्णित व्यय कर्मका भी उन्हें ठीक-ठीक ज्ञान था $$॥ २६ ॥
$$ शास्त्र में व्ययका विधान इस प्रकार देखा जाता है - कच्चिदायस्य चार्धेन चतुर्भागेन वा पुनः । पादभागैस्त्रिभिर्वापि व्ययः संशुद्धते तव ॥ (महा० सभा० ५ । ७१)

श्रैष्ठ्यं चास्त्रसमूहेषु प्राप्तो व्यामिश्रकेषु च ।
अर्थधर्मौ च सं‍गृह्य सुखतंत्रो न चालसः ॥ २७ ॥
उन्होंने सब प्रकारके अस्त्रसमूहों तथा संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओंसे मिश्रित नाटक आदिके ज्ञानमें निपुणता प्राप्त की थी । वे अर्थ और धर्मका संग्रह (पालन) करते हुए तदनुकूल कामका सेवन करते थे और कभी आलस्यको पास नहीं फटकने देते थे ॥ २७ ॥

वैहारिकाणां शिल्पानां विज्ञातार्थ विभागवित् ।
आरोहे विनये चैव युक्तो वारणवाजिनाम् ॥ २८ ॥
विहार (क्रीडा या मनोरञ्जन)-के उपयोगमें आनेवाले संगीत, वाद्य और चित्रकारी आदि शिल्पोंके भी वे विशेषज्ञ थे । अर्थोंके विभाजनका भी उन्हें सम्यक् ज्ञान था । २ वे हाथियों और घोड़ोंपर चढ़ने और उन्हें भाँतिभाँ तिकी चालोंकी शिक्षा देने में भी निपुण थे ॥ २८ ॥

धनुर्वेदविदां श्रेष्ठो लोकेऽतिरथसम्मतः ।
अभियाता प्रहर्त्ता च सेनानयविशारदः ॥ २९ ॥
श्रीरामचन्द्रजी इस लोकमें धनुर्वेदके सभी विद्वानोंमें श्रेष्ठ थे । अतिरथी वीर भी उनका विशेष सम्मान करते थे । शत्रुसेनापर आक्रमण और प्रहार करने में वे विशेष कुशल थे । सेना-संचालनकी नीतिमें उन्होंने अधिक निपुणता प्राप्त की थी ॥ २९ ॥

अप्रधृष्यश्च सङ्‍ग्रामे क्रुद्धैरपि सुरासुरैः ।
अनसूयो जितक्रोधो न दृप्तो न च मत्सरी ॥ ३० ॥
संग्राममें कुपित होकर आये हुए समस्त देवता और असुर भी उनको परास्त नहीं कर सकते थे । उनमें दोषदृष्टिका सर्वथा अभाव था । वे क्रोधको जीत चुके थे । दर्प और ईर्ष्याका उनमें अत्यन्त अभाव था ॥ ३० ॥

नावज्ञेयश्च भूतानां न च कालवशानुगः ।
एवं श्रेष्ठगुणैर्युक्तः प्रजानां पार्थिवात्मजः ॥ ३१ ॥
सम्मतस्त्रिषु लोकेषु वसुधायाः क्षमागुणैः ।
बुद्ध्या बृहस्पतेस्तुल्यो वीर्येणापि शचीपतेः ॥ ३२ ॥
किसी भी प्राणीके मनमें उनके प्रति अवहेलनाका भाव नहीं था । वे कालके वशमें होकर उसके पीछे-पीछे चलनेवाले नहीं थे (काल ही उनके पीछे चलता था) । इस प्रकार उत्तम गुणोंसे युक्त होनेके कारण राजकुमार श्रीराम समस्त प्रजाओं तथा तीनों लोकोंके प्राणियोंके लिये आदरणीय थे । वे अपने क्षमासम्बन्धी गुणोंके द्वारा पृथ्वीकी समानता करते थे । बुद्धिमें बृहस्पति और बल-पराक्रममें शचीपति इन्द्रके तुल्य थे ॥ ३१-३२ ॥

तथा सर्वप्रजाकांतैः प्रीतिसंजननैः पितुः ।
गुणैर्विरुरुचे रामो दीप्तः सूर्य इवांशुभिः ॥ ३३ ॥
जैसे सूर्यदेव अपनी किरणोंसे प्रकाशित होते हैं । उसी प्रकार श्रीरामचन्द्रजी समस्त प्रजाओंको प्रिय लगनेवाले तथा पिताकी प्रीति बढ़ानेवाले सद्गुणोंसे सुशोभित होते थे ॥ ३३ ॥

तमेवं व्रतसम्पन्नं अप्रधृष्य पराक्रमम् ।
लोकनाथोपमं नाथं अकामयत मेदिनी ॥ ३४ ॥
ऐसे सदाचारसम्पन्न, अजेय पराक्रमी और लोकपालोंके समान तेजस्वी श्रीरामचन्द्रजीको पृथ्वी (भूदेवी और भूमण्डलकी प्रजा)-ने अपना स्वामी बनानेकी कामना की ॥ ३४ ॥

एतैस्तु बहुभिर्युक्तं गुणैः अनुपमैः सुतम् ।
दृष्ट्‍वा दशरथो राजा चक्रे चिंतां परंतपः ॥ ३५ ॥
अपने पुत्र श्रीरामको अनेक अनुपम गुणोंसे युक्त देखकर शत्रुओंको संताप देनेवाले राजा दशरथने मन-ही-मन कुछ विचार करना आरम्भ किया ॥ ३५ ॥

अथ राज्ञो बभूवैव वृद्धस्य चिरजीविनः ।
प्रीतिरेषा कथं रामो राजा स्यान्मयि जीवति ॥ ३६ ॥
उन चिरञ्जीवी बूढ़े महाराज दशरथके हृदयमें यह चिन्ता हुई कि किस प्रकार मेरे जीते-जी श्रीरामचन्द्र राजाहो जायें और उनके राज्याभिषेकसे प्राप्त होनेवाली यह प्रसन्नता मुझे कैसे सुलभ हो ॥ ३६ ॥

एषा ह्यस्य परा प्रीतिः हृदि संपरिवर्तते ।
कदा नाम सुतं द्रक्ष्यामि अभिषिक्तं अहं प्रियम् ॥ ३७ ॥
उनके हृदयमें यह उत्तम अभिलाषा बारम्बार चक्कर लगाने लगी कि कब मैं अपने प्रिय पुत्र श्रीरामका राज्याभिषेक देखूँगा ॥ ३७ ॥

वृद्धिकामो हि लोकस्य सर्वभूतानुकंपकः ।
मत्तः प्रियतरो लोके पर्जन्य इव वृष्टिमान् ॥ ३८ ॥
वे सोचने लगे कि श्रीराम सब लोगोंके अभ्युदयकी कामना करते और सम्पूर्ण जीवोंपर दया रखते हैं । वे लोकमें वर्षा करनेवाले मेघकी भाँति मुझसे भी बढ़कर प्रिय हो गये हैं ॥ ३८ ॥

यमशक्रसमो वीर्ये बृहस्पतिसमो मतौ ।
महीधरसमो धृत्यां मत्तश्च गुणवत्तरः ॥ ३९ ॥
श्रीराम बल-पराक्रममें यम और इन्द्रके समान, बुद्धिमें बृहस्पतिके समान और धैर्यमें पर्वतके समान हैं । गुणोंमें तो वे मुझसे सर्वथा बढ़े-चढ़े हैं ॥ ३९ ॥

महीमहमिमां कृत्स्नां अधितिष्ठंतमात्मजम् ।
अनेन वयसा दृष्ट्‍वा यथा स्वर्गं अवाप्नुयाम् ॥ ४० ॥
मैं इसी उम्र में अपने बेटे श्रीरामको इस सारी पृथ्वीका राज्य करते देख यथासमय सुखसे स्वर्ग प्राप्त करूँ, यही मेरे जीवनकी साध है' ॥ ४० ॥

इत्येवं विविधैः तैस्तैः अन्यपार्थिवदुर्लभैः ।
शिष्टैरपरिमेयैश्च लोके लोकोत्तरैर्गुणैः ॥ ४१ ॥
तं समीक्ष्य महाराजो युक्तं समुदितैः गुणैः ।
निश्चित्य सचिवैः सार्धं यौवराज्यं अमन्यत ॥ ४२ ॥
इस प्रकार विचारकर तथा अपने पुत्र श्रीरामको उन-उन नाना प्रकारके विलक्षण, सज्जनोचित, असंख्य तथा लोकोत्तर गुणोंसे, जो अन्य राजाओंमें दुर्लभ हैं, विभूषित देख राजा दशरथने मन्त्रियोंके साथ सलाह करके उन्हें युवराज बनानेका निश्चय कर लिया ॥ ४१-४२ ॥

दिव्यंतरिक्षे भूमौ च घोरं उत्पातजं भयम् ।
संचचक्षेऽथ मेधावी शरीरे चात्मनो जराम् ॥ ४३ ॥
बुद्धिमान् महाराज दशरथने मन्त्रीको स्वर्ग, अन्तरिक्ष तथा भूतलमें दृष्टिगोचर होनेवाले उत्पातोंका घोर भय सूचित किया और अपने शरीरमें वृद्धावस्थाके आगमनकी भी बात बतायी ॥ ४३ ॥

पूर्णचंद्राननस्याथ शोकापनुदमात्मनः ।
लोके रामस्य बुबुधे सम्प्रियत्वं महात्मनः ॥ ४४ ॥
पूर्ण चन्द्रमाके समान मनोहर मुखवाले महात्मा श्रीराम समस्त प्रजाके प्रिय थे । लोकमें उनका सर्वप्रिय होना राजाके अपने आन्तरिक शोकको दूर करनेवाला था, इस बातको राजाने अच्छी तरह समझा ॥ ४४ ॥

आत्मनश्च प्रजानां च श्रेयसे च प्रियेण च ।
प्राप्तकालेन धर्मात्मा भक्त्या त्वरितवान् नृपः ॥ ४५ ॥
तदनन्तर उपयुक्त समय आनेपर धर्मात्मा राजा दशरथने अपने और प्रजाके कल्याणके लिये मन्त्रियोंको श्रीरामके राज्याभिषेकके लिये शीघ्र तैयारी करनेकी आज्ञा दी । इस उतावलीमें उनके हृदयका प्रेम और प्रजाका अनुराग भी कारण था ॥ ४५ ॥

नानानगरवास्तव्यान् पृथग्जानपदानपि ।
समानिनाय मेदिन्याः प्रधानान् पृथिवीपतिः ॥ ४६ ॥
उन भूपालने भिन्न-भिन्न नगरोंमें निवास करनेवाले प्रधान-प्रधान पुरुषों तथा अन्य जनपदोंके सामन्त राजाओंको भी मन्त्रियोंद्वारा अयोध्यामें बुलवा लिया ॥ ४६ ॥

तान् वेश्मनानाभरणैः यथार्हं प्रतिपूजितान् ।
ददर्शालंकृतो राजा प्रज्पापतिरिव प्रजाः ॥ ४७ ॥
उन सबको ठहरनेके लिये घर देकर नाना प्रकारके आभूषणोंद्वारा उनका यथायोग्य सत्कार किया । तत्पश्चात् स्वयं भी अलंकृत होकर राजा दशरथ उन सबसे उसी प्रकार मिले, जैसे प्रजापति ब्रह्मा प्रजावर्गसे मिलते हैं ॥ ४७ ॥

न तु केकयराजानं जनकं वा नराधिपः ।
त्वरया चानयामास पश्चात्तौ श्रोष्यतः प्रियम् ॥ ४८ ॥
जल्दीबाजीके कारण राजा दशरथने केकयनरेशको तथा मिथिलापति जनकको भी नहीं बुलवाया । उन्होंने सोचा वे दोनों सम्बन्धी इस प्रिय समाचारको पीछे सुन लेंगे ॥ ४८ ॥

अथोपविष्टे नृपतौ तस्मिन् परपुरार्दने ।
ततः प्रविविशुः शेषा राजानो लोकसम्मताः ॥ ४९ ॥
तदनन्तर शत्रुनगरीको पीड़ित करनेवाले राजा दशरथ जब दरबारमें आ बैठे, तब (केकयराज और जनकको छोड़कर)शेष सभी लोकप्रिय नरेशोंने राजसभामें प्रवेश किया ॥ ४९ ॥

अथ राजवितीर्णेषु विविधेष्वासनेषु च ।
राजानमेवाभिमुखा निषेदुर्नियता नृपाः ॥ ५० ॥
वे सभी नरेश राजाद्वारा दिये गये नाना प्रकारके सिंहासनोंपर उन्हींकी ओर मुँह करके विनीतभावसे बैठे थे ॥ ५० ॥

स लब्धमानैः विनयान्वितैर्नृपैः
    पुरालयैः जानपदैश्च मानवैः ।
उपोपविष्टैः नृपतिर्वृतो बभौ
    सहस्रचक्षुः भगवान् इव अमरैः ॥ ५१ ॥
राजासे सम्मानित होकर विनीतभावसे उन्हींके आस-पास बैठे हुए सामन्त नरेशों तथा नगर और जनपदके निवासी मनुष्योंसे घिरे हुए महाराज दशरथ उस समय देवताओंके बीच में विराजमान सहस्रनेत्रधारी भगवान् इन्द्रके समान शोभा पा रहे थे ॥ ५१ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् अयोध्याकाण्डे प्रथमः सर्गः ॥ १ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें पहला सर्ग पूरा हुआ ॥ १ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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