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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥

॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥

अयोध्याकाण्डम्

॥ सप्तमः सर्गः ॥


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भाविनः श्रीरामाभिषेकस्य वृत्तं आकर्ण्य खिन्नया मंथरया कैकेय्या हृदये भेदभावस्य उत्पादनं प्रीतया कैकेय्या कुब्जायै पुरस्काररूपेणाभूषण्स्य दानं वरं वरयितुं प्रेरणं च -
श्रीरामके अभिषेकका समाचार पाकर खिन्न हुई मन्थराका कैकेयीको उभाड़ना, परंतु प्रसन्न हुई कैकेयीका उसे पुरस्काररूपमें आभूषण देना और वर माँगनेके लिये प्रेरित करना -


ज्ञातिदासी यतोजाता कैकेय्या तु सहोषिता ।
प्रसादं चंद्रसं‍काशं आरुरोह यदृच्छया ॥ १ ॥
रानी कैकेयी के पास एक दासी थी, जो उसके मायकेसे आयी हुई थी । वह सदा कैकेयीके ही साथ रहा करती थी । उसका जन्म कहाँ हुआ था ? उसके देश और माता-पिता कौन थे ? इसका पता किसीको नहीं था । अभिषेकसे एक दिन पहले वह स्वेच्छासे ही कैकेयीके चन्द्रमाके समान कान्तिमान् महलकी छतपर जा चढ़ी ॥ १ ॥

सिक्तराजपथां रम्यां प्रकीर्णकमलोत्पलाम् ।
अयोध्यां मंथरा तस्मात्प्रासादाद् अन्ववैक्षत ॥ २ ॥
उस दासीका नाम था मन्थरा । उसने उस महलकी छतसे देखा-अयोध्याकी सड़कोंपर छिड़काव किया गया है और सारीपुरीमें यत्र-तत्र खिले हुए कमल और उत्पल बिखेरे गये हैं ॥ २ ॥

पताकाभिर्वरार्हाभिः ध्वजैश्च समलङ्‍कृताम् ।
सिक्तां चन्दनतोयैश्च शिरःस्नात जनैर्युताम् ॥ ३ ॥
सब ओर बहुमूल्य पताकाएँ फहरा रही हैं । ध्वजाओंसे इस पुरीकी अपूर्व शोभा हो रही है । राजमार्गोंपर चन्दनमिश्रित जलका छिड़काव किया गया है तथा अयोध्यापुरीके सब लोग उबटन लगाकर सिरके ऊपरसे स्नान किये हुए हैं ॥ ३ ॥

माल्यमोदकहस्तैश्च द्विजेंद्रैः अभिनादिताम् ।
शुक्लदेवगृहद्वारां सर्ववादित्रनादिताम् ॥ ४ ॥
सम्प्रहृष्टजनाकीर्णां ब्रह्मघोषनिनादिताम् ।
प्रहृष्टवरहस्त्यश्वां सम्प्रणर्दितगोवृषाम् ॥ ५ ॥
श्रीरामके दिये हुए माल्य और मोदक हाथमें लिये श्रेष्ठ ब्राह्मण हर्षनाद कर रहे हैं, देवमन्दिरोंके दरवाजे चूने और चन्दन आदिसे लीपकर सफेद एवं सुन्दर बनाये गये हैं, सब प्रकारके बाजोंकी मनोहर ध्वनि हो रही है, अत्यन्त हर्षमें भरे हुए मनुष्योंसे सारा नगर परिपूर्ण है और चारों ओर वेदपाठकोंकी ध्वनि गूंज रही है, श्रेष्ठ हाथी और घोड़े हर्षसे उत्फुल्ल दिखायी देते हैं तथा गाय-बैल प्रसन्न होकर रँभा रहे हैं । ४-५ ॥

प्रहृष्टमुदितैः पौरैः उच्छ्रितध्वजमालिनीम् ।
अयोध्यां मंथरा दृष्ट्‍वा परं विस्मयमागता ॥ ६ ॥
सारे नगरनिवासी हर्षजनित रोमाञ्चसे युक्त और आनन्दमग्न हैं तथा नगरमें सब ओर श्रेणीबद्ध ऊँचे-ऊँचे ध्वज फहरा रहे हैं । अयोध्याकी ऐसी शोभाको देखकर मन्थराको बड़ा आश्चर्य हुआ ॥ ६ ॥

प्रहर्षोत्फुल्लनयनां पाण्डुरक्षौमवासिनीम् ।
अविदूरे स्थितां दृष्ट्‍वा धात्रीं पप्रच्छ मंथरा ॥ ७ ॥
उसने पासके ही कोठेपर रामकी धायको खड़ी देखा, उसके नेत्र प्रसन्नतासे खिले हुए थे और शरीरपर पीले रंगकी रेशमी साड़ी शोभा पा रही थी । उसे देखकर मन्थराने उससे पूछा ॥ ७ ॥

उत्तमेनाभिसंयुक्ता हर्षेणार्थपरा सती ।
राममाता धनं किं नु जनेभ्यः सम्प्रयच्छति ॥ ८ ॥
अतिमात्रं प्रहर्षः किं जनस्यास्य च शंस मे ।
कारयिष्यति किं वापि सम्प्रहृष्टो महीपतिः ॥ ९ ॥
'धाय ! आज श्रीरामचन्द्रजीकी माता अपने किसी अभीष्ट मनोरथके साधनमें तत्पर हो अत्यन्त हर्षमें भरकर लोगोंको धन क्यों बाँट रही हैं ? आज यहाँके सभी मनुष्योंको इतनी अधिक प्रसन्नता क्यों है ? इसका कारण मुझे बताओ ! आज महाराज दशरथ अत्यन्त प्रसन्न होकर कौन-सा कर्म करायेंगे' ॥ ८-९ ॥

विदीर्यमाणा हर्षेण धात्री तु परया मुदा ।
आचचक्षेऽथ कुब्जायै भूयसीं राघवे श्रियम् ॥ १० ॥
श्वः पुष्येण जितक्रोधं यौवराज्येन चानघम् ।
राजा दशरथो रामं अभिषेक्ता हि राघवम् ॥ ११ ॥
श्रीरामकी धाय तो हर्षसे फूली नहीं समाती थी, उसने कुब्जाके पूछनेपर बड़े आनन्दके साथ उसे बताया 'कुब्जे ! रघुनाथजीको बहुत बड़ी सम्पत्ति प्राप्त होनेवाली है । कल महाराज दशरथ पुष्यनक्षत्रके योगमें क्रोधको जीतनेवाले, पापरहित, रघुकुलनन्दन श्रीरामको युवराजके पदपर अभिषिक्त करेंगे' ॥ १०-११ ॥

धात्र्यास्तु वचनं श्रुत्वा कुब्जाक्षिप्रममर्षिता ।
कैलासशिखराकारात् प्रासादाद् अवरोहत ॥ १२ ॥
धायका यह वचन सुनकर कुब्जा मन-ही-मन कुढ़ गयी और उस कैलास-शिखरकी भाँति उज्ज्वल एवं गगनचुम्बी प्रासादसे तुरंत ही नीचे उतर गयी ॥ १२ ॥

सा दह्यमाना कोपेन मंथरा पापदर्शिनी ।
शयानामेव कैकेयीं इदं वचनमब्रवीत् ॥ १३ ॥
मन्थराको इसमें कैकेयीका अनिष्ट दिखायी देता था, वह क्रोधसे जल रही थी । उसने महल में लेटी हुई कैकेयीके पास जाकर इस प्रकार कहा— ॥ १३ ॥

उत्तिष्ठ मूढे किं शेषे भयं त्वां अभिवर्त्तते ।
उपप्लुतमघौघेन नात्मानं अवबुध्यसे ॥ १४ ॥
'मूर्खे ! उठ । क्या सो रही है ? तुझपर बड़ा भारी भय आ रहा है । अरी ! तेरे ऊपर विपत्तिका पहाड़ टूट पड़ा है, फिर भी तुझे अपनी इस दुरवस्थाका बोध नहीं होता ?' ॥ १४ ॥

अनिष्टे सुभगाकारे सौभाग्येन विकत्थसे ।
चलं हि तव सौभाग्यं नद्याः स्रोत इवोष्णगे ॥ १५ ॥
'तेरे प्रियतम तेरे सामने ऐसा आकार बनाये आते हैं मानो सारा सौभाग्य तुझे ही अर्पित कर देते हों, परंतु पीठपीछे वे तेरा अनिष्ट करते हैं । तू उन्हें अपने में अनुरक्त जानकर सौभाग्यकी डींग हाँका करती है, परंतु जैसे ग्रीष्म ऋतुमें नदीका प्रवाह सूखता चला जाता है, उसी प्रकार तेरा वह सौभाग्य अब अस्थिर हो गया है- तेरे हाथसे चला जाना चाहता है !' ॥ १५ ॥

एवमुक्ता तु कैकेयी रुष्टया परुषं वचः ।
कुब्जया पापदर्शिन्या विषादं अगमत् परम् ॥ १६ ॥
ष्टमें भी अनिष्टका दर्शन करानेवाली रोषभरी कुब्जाके इस प्रकार कठोर वचन कहनेपर कैकेयीके मनमें बड़ा दुःख हुआ ॥ १६ ॥

कैकेयी त्वब्रवीत् कुब्जां कच्चित् क्षेमं न मंथरे ।
विषण्णवदनां हि त्वां लक्षये भृशदुःखिताम् ॥ १७ ॥
उस समय केकयराजकुमारीने कुब्जासे पूछा- 'मन्थरे ! कोई अमङ्गलकी बात तो नहीं हो गयी; क्योंकि तेरे मुखपर विषाद छा रहा है और तू मुझे बहुत दु:खी दिखायी देती है' ॥ १७ ॥

मंथरा तु वचः श्रुत्वा कैकेय्या मधुराक्षरम् ।
उवाच क्रोधसंयुक्ता वाक्यं वाक्यविशारदा ॥ १८ ॥
सा विषण्णतरा भूत्वा कुब्जा तस्या हितैषिणी ।
विषादयंती प्रोवाच भेदयंती च राघवम् ॥ १९ ॥
मन्थरा बातचीत करने में बड़ी कुशल थी, वह कैकेयीके मीठे वचन सुनकर और भी खिन्न हो गयी, उसके प्रति अपनी हितैषिता प्रकट करती हुई कुपित हो उठी और कैकेयीके मनमें श्रीरामके प्रति भेदभाव और विषाद उत्पन्न करती हुई इस प्रकार बोली- ॥ १८-१९ ॥

अक्षय्यं सुमहद् देवि प्रवृत्तं त्वद् विनाशनम् ।
रामं दशरथो राजा यौवराज्येऽभिषेक्ष्यति ॥ २० ॥
'देवि ! तुम्हारे सौभाग्यके महान् विनाशका कार्य आरम्भ हो गया है, जिसका कोई प्रतीकार नहीं है । कल महाराज दशरथ श्रीरामको युवराजके पदपर अभिषिक्त कर देंगे ॥ २० ॥

सास्म्यगाधे भये मग्ना दुःखशोकसमन्विता ।
दह्यमानानलेनेव त्वद् हितार्थं इहागता ॥ २१ ॥
'यह समाचार पाकर मैं दु:ख और शोकसे व्याकुल हो अगाध भयके समुद्र में डूब गयी हूँ, चिन्ताकी आगसे मानो जली जा रही हूँ और तुम्हारे हितकी बात बतानेके लिये यहाँ आयी हूँ' ॥ २१ ॥

तव दुःखेन कैकेयि मम दुःखं महद् भवेत् ।
त्वद्वृद्धौ मम वृद्धिश्च भवेद् इह न संशयः ॥ २२ ॥
केकयनन्दिनि ! यदि तुमपर कोई दुःख आया तो उससे मुझे भी बड़े भारी दु:खमें पड़ना होगा । तुम्हारी उन्नतिमें ही मेरी भी उन्नति है, इसमें संशय नहीं है ॥ २२ ॥

नराधिपकुले जाता महिषी त्वं महीपतेः ।
उग्रत्वं राजधर्माणां कथं देवि न बुध्यसे ॥ २३ ॥
'देवि ! तुम राजाओंके कुलमें उत्पन्न हुई हो और एक महाराजकी महारानी हो, फिर भी राजधर्मोंकी उग्रताको कैसे नहीं समझ रही हो ? ॥ २३ ॥

धर्मवादी शठो भर्ता श्लक्ष्णवादी च दारुणः ।
शुद्धभावेन जानीषे तेनैवमतिसंधिता ॥ २४ ॥
'तुम्हारे स्वामी धर्मकी बातें तो बहुत करते हैं, परंतु हैं बड़े शठ । मुँहसे चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं, परंतु हृदयके बड़े क्रूर हैं । तुम समझती हो कि वे सारी बातें शुद्ध भावसे ही कहते हैं, इसीलिये आज उनके द्वारा तुम बेतरह ठगी गयी ॥ २४ ॥

उपस्थितं प्रयुञ्जानः त्वयि सांत्वमनर्थकम् ।
अर्थेनैवाद्य ते भर्त्ता कौसल्यां योजयिष्यति ॥ २५ ॥
'तुम्हारे पति तुम्हें व्यर्थ सान्त्वना देनेके लिये यहाँ उपस्थित होते हैं, वे ही अब रानी कौसल्याको अर्थसे सम्पन्न करने जा रहे हैं ॥ २५ ॥

अपवाह्य स दुष्टात्मा भरतं तव बंधुषु ।
काल्ये स्थापयिता रामं राज्ये निहतकण्टके ॥ २६ ॥
उनका हृदय इतना दूषित है कि भरतको तो उन्होंने तुम्हारे मायके भेज दिया और कल सबेरे ही अवधके निष्कण्टक राज्यपर वे श्रीरामका अभिषेक करेंगे ॥ २६ ॥

शत्रुः पतिप्रवादेन मात्रेव हितकाम्यया ।
आशीविष इवाङ्‍गेन बाले परिधृतस्त्वया ॥ २७ ॥
'बाले ! जैसे माता हितकी कामनासे पुत्रका पोषण करती है, उसी प्रकार 'पति' कहलानेवाले जिस व्यक्तिका तुमने पोषण किया है, वह वास्तवमें शत्रु निकला । जैसे कोई अज्ञानवश सर्पको अपनी गोदमें लेकर उसका लालन करे, उसी प्रकार तुमने उन सर्पवत् बर्ताव करनेवाले महाराजको अपने अङ्कमें स्थान दिया है ॥ २७ ॥

यथा हि कुर्यात् शत्रुर्वा सर्पो वा प्रत्युपेक्षितः ।
राज्ञा दशरथेनाद्य सपुत्रा त्वं तथा कृता ॥ २८ ॥
'उपेक्षित शत्रु अथवा सर्प जैसा बर्ताव कर सकता है, राजा दशरथने आज पुत्रसहित तुझ कैकेयीके प्रति वैसा ही बर्ताव किया है ॥ २८ ॥

पापेनानृतसांत्वेन बाले नित्यं सुखोचिता ।
रामं स्थापयता राज्ये सानुबंधा हता ह्यसि ॥ २९ ॥
'बाले ! तुम सदा सुख भोगनेके योग्य हो, परंतु मनमें पाप (दुर्भावना) रखकर ऊपरसे झूठी सान्त्वना देनेवाले महाराजने अपने राज्यपर श्रीरामको स्थापित करनेका विचार करके आज सगे-सम्बन्धियोंसहित तुमको मानो मौतके मुखमें डाल दिया है ॥ २९ ॥

सा प्राप्तकालं कैकेयि क्षिप्रं कुरु हितं तव ।
त्रायस्व पुत्रमात्मानं मां च विस्मयदर्शने ॥ ३० ॥
केकयराजकुमारी ! तुम दु:खजनक बात सुनकर भी मेरी ओर इस तरह देख रही हो, मानो तुम्हें प्रसन्नता हुई हो और मेरी बातोंसे तुम्हें विस्मय हो रहा हो, परंतु यह विस्मय छोड़ो और जिसे करनेका समय आ गया है, अपने उस हितकर कार्यको शीघ्र करो तथा ऐसा करके अपनी, अपने पुत्रकी और मेरी भी रक्षा करो ॥ ३० ॥

मंथराया वचः श्रुत्वा शयानात् सा शुभानना ।
उत्तस्थौ हर्षसम्पूर्णा चंद्रलेखेव शारदी ॥ ३१ ॥
मन्थराकी यह बात सुनकर सुन्दर मुखवाली कैकेयी सहसा शय्यासे उठ बैठी । उसका हृदय हर्षसे भर गया । वह शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमण्डलकी भाँति उद्दीप्त हो उठी ॥ ३१ ॥

अतीव सा तु संतुष्टा कैकेयी विस्मयान्विता ।
दिव्यं आभरणं तस्यै कुब्जायै प्रददौ शुभम् ॥ ३२ ॥
कैकेयी मन-ही-मन अत्यन्त संतुष्ट हुई । विस्मयविमुग्ध हो मुसकराते हुए उसने कुब्जाको पुरस्कारके रूपमें एक बहुत सुन्दर दिव्य आभूषण प्रदान किया ॥ ३२ ॥

दत्त्वा त्वाभरणं तस्यै कुब्जायै प्रमदोत्तमा ।
कैकेयी मंथरां हृष्टा पुनरेवाब्रवीदिदम् ॥ ३३ ॥
इदं तु मंथरे मह्यं आख्यातं परमं प्रियम् ।
एतन्मे प्रियमाख्यातं किं वा भूयः करोमि ते ॥ ३४ ॥
कुब्जाको वह आभूषण देकर हर्षसे भरी हुई रमणीशिरोमणि कैकेयीने पुनः मन्थरासे इस प्रकार कहा- 'मन्थरे ! यह तूने मुझे बड़ा ही प्रिय समाचार सुनाया । तूने मेरे लिये जो यह प्रिय संवाद सुनाया, इसके लिये मैं तेरा और कौनसा उपकार करूँ ॥ ३३-३४ ॥

रामे वा भरते वाहं विशेषं नोपलक्षये ।
तस्मात्तुष्टास्मि यद्राजा रामं राज्येऽभिषेक्ष्यति ॥ ३५ ॥
मैं भी राम और भरतमें कोई भेद नहीं समझती । अत: यह जानकर कि राजा श्रीरामका अभिषेक करनेवाले हैं, मुझे बड़ी खुशी हुई है ॥ ३५ ॥

न मे परं किञ्चिदितो वरं पुनः
;   प्रियं प्रियार्हे सुवचं वचोऽमृतम् ।
तथा ह्यवोचस्त्वमतः प्रियोत्तरं
;   वरं परं ते प्रददामि तं वृणु ॥ ३६ ॥
'मन्थरे ! तू मुझसे प्रिय वस्तु पानेके योग्य है । मेरे लिये श्रीरामके अभिषेकसम्बन्धी इस समाचारसे बढ़कर दूसरा कोई प्रिय एवं अमृतके समान मधुर वचन नहीं कहा जा सकता । ऐसी परम प्रिय बात तुमने कही है; अत: अब यह प्रिय संवाद सुनाने के बाद तू कोई श्रेष्ठ वर माँग ले, मैं उसे अवश्य दूंगी' ॥ ३६ ॥

इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये श्रीमद् अयोध्याकाण्डे सप्तमः सर्गः ॥ ७ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्ड में सातौं सर्ग पूरा हुआ ॥ ७ ॥



श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु


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