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॥ श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः ॥
॥ श्रीवाल्मीकिरामायणम् ॥
अयोध्याकाण्डम् ॥ अष्टमः सर्गः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] मन्थरया पुनः श्रीरामराज्याभिषेकस्य कैकेयीकृते अनिष्टकरत्वे प्रतिपादिते कैकेय्या श्रीरामगुणान् वर्णयित्वा तदीयाभिषेकस्य समर्थनं तदनुकुब्जया पुनः श्रीरामराज्यस्य भरताय भयोत्पादकत्वं प्रतिपाद्य कैकेय्या मनसि भेदभावोत्पादनम् -
मन्थराका पुनः श्रीरामके राज्याभिषेकको कैकेयीके लिये अनिष्टकारी बताना, कैकेयीका श्रीरामके गुणोंको बताकर उनके अभिषेकका समर्थन करना तत्पश्चात् कुब्जाका पुनः श्रीरामराज्यको भरतके लिये भयजनक बताकर कैकेयीको भड़काना - मंथरा त्वभ्यसूय्यैनां उत्सृज्याभरणं च तत् । उवाचेदं ततो वाक्यं कोपदुःखसमन्विता ॥ १ ॥ यह सुनकर मन्थराने कैकेयीकी निन्दा करके उसके दिये हुए आभूषणको उठाकर फेंरुक दिया और कोप तथा दुःखसे भरकर वह इस प्रकार बोली- ॥ १ ॥ हर्षं किमर्थं अस्थाने कृतवत्यसि बालिशे । शोकसागरमध्यस्थं नात्मानं अवबुध्यसे ॥ २ ॥ रानी ! तुम बड़ी नादान हो । अहो ! तुमने यह बेमौके हर्ष किसलिये प्रकट किया ? तुम्हें शोकके स्थानपर प्रसन्नता कैसे हो रही है ? अरी ! तुम शोकके समुद्र में डूबी हुई हो, तो भी तुम्हें अपनी इस विपन्नावस्थाका बोध नहीं हो रहा है । मनसा प्रसहामि त्वां देवि दुःखार्दिता सती । यच्छोचितव्ये हृष्टासि प्राप्य त्वं व्यसनं महत् ॥ ३ ॥ 'देवि ! महान् संकटमें पड़नेपर जहाँ तुम्हें शोक होना चाहिये, वहीं हर्ष हो रहा है । तुम्हारी यह अवस्था देखकर मुझे मन-ही-मन बड़ा क्लेश सहन करना पड़ता है । मैं दु:खसे व्याकुल हुई जाती हूँ ॥ ३ ॥ शोचामि दुर्मतित्वं ते का हि प्राज्ञा प्रहर्षयेत् । अरेः सपत्नीपुत्रस्य वृद्धिं मृत्योरिवागताम् ॥ ४ ॥ 'मुझे तुम्हारी दुर्बुद्धिके लिये ही अधिक शोक होता है । अरी ! सौतका बेटा शत्रु होता है । वह सौतेली माँके लिये साक्षात् मृत्युके समान है । भला, उसके अभ्युदयका अवसर आया देख कौन बुद्धिमती स्त्री अपने मनमें हर्ष मानेगी ॥ ४ भरतादेव रामस्य राज्यसाधारणाद् भयम् । तद्विचिंत्य विषण्णास्मि भयं भीताद्धि जायते ॥ ५ ॥ 'यह राज्य भरत और राम दोनोंके लिये साधारण भोग्यवस्तु है, इसपर दोनोंका समान अधिकार है, इसलिये श्रीरामको भरतसे ही भय है । यही सोचकर मैं विषादमें डूबी जाती हैं; क्योंकि भयभीतसे ही भय प्राप्त होता है अर्थात् आज जिसे भय है, वही राज्य प्राप्त कर लेनेपर जब सबल हो जायगा, तब अपने भयके हेतुको उखाड़ फेंरुकेगा ॥ ५ ॥ लक्ष्मणो हि महाबाहू रामं सर्वात्मना गतः । शत्रुघ्नश्चापि भरतं काकुत्स्थं लक्ष्मणो यथा ॥ ६ ॥ महाबाहु लक्ष्मण सम्पूर्ण हृदयसे श्रीरामचन्द्रजीके अनुगत हैं । जैसे लक्ष्मण श्रीरामके अनुगत हैं, उसी तरह शत्रुघ्न भी भरतका अनुसरण करनेवाले हैं ॥ ६ ॥ प्रत्यासन्नक्रमेणापि भरतस्यैव भामिनि । राज्यक्रमो विसृष्टस्तु तयोस्तावत् यवीयसोः ॥ ७ ॥ 'भामिनि ! उत्पत्तिके क्रमसे श्रीरामके बाद भरतका ही पहले राज्यपर अधिकार हो सकता है (अत: भरतसे भय होना स्वाभाविक है) । लक्ष्मण और शत्रुघ्न तो छोटे हैं; अतः उनके लिये राज्यप्राप्तिकी सम्भावना दूर है । विदुषः क्षत्रचारित्रे प्राज्ञस्य प्राप्तकारिणः । भयात् प्रवेपे रामस्य चिंतयंती तवात्मजम् ॥ ८ ॥ 'श्रीराम समस्त शास्त्रोंके ज्ञाता हैं, विशेषत: क्षत्रियचरित्र (राजनीति) के पण्डित हैं तथा समयोचित कर्तव्यका पालन करनेवाले हैं; अत: उनका तुम्हारे पुत्रके प्रति जो क्रूरतापूर्ण बर्ताव होगा, उसे सोचकर मैं भयसे काँप उठती हूँ । ८ ॥ सुभगा खलु कौसल्या यस्याः पुत्रोऽभिषेक्ष्यते । यौवराज्येन महता श्वः पुष्येण द्विजोत्तमैः ॥ ९ ॥ वास्तवमें कौसल्या ही सौभाग्यवती हैं, जिनके पुत्रका कल पुष्यनक्षत्रके योगमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंद्वारा युवराजके महान् पदपर अभिषेक होने जा रहा है ॥ ९ ॥ प्राप्तां वसुमतीं प्रीतिं प्रतीतां हतद्विषम् । उपस्थास्यसि कौसल्यां दासीवत् त्वं कृताञ्जलिः ॥ १० ॥ 'वे भूमण्डलका निष्कण्टक राज्य पाकर प्रसन्न होंगी; क्योंकि वे राजाकी विश्वासपात्र हैं और तुम दासीकी भाँति हाथ जोड़कर उनकी सेवामें उपस्थित होओगी ॥ १० ॥ एवं च त्वं सहास्माभिः तस्याः प्रेष्या भविष्यसि । पुत्रश्च तव रामस्य प्रेष्यत्वं हि गमिष्यति ॥ ११ ॥ 'इस प्रकार हमलोगोंके साथ तुम भी कौसल्याकी दासी बनोगी और तुम्हारे पुत्र भरतको भी श्रीरामचन्द्रजीकी गुलामी करनी पड़ेगी ॥ ११ ॥ हृष्टाः खलु भविष्यंति रामस्य परमाः स्त्रियः । अप्रहृष्टा भविष्यंति स्नुषास्ते भरतक्षये ॥ १२ ॥ 'श्रीरामचन्द्रजीके अन्त:पुरकी परम सुन्दरी स्त्रियाँ— सीतादेवी और उनकी सखियाँ निश्चय ही बहुत प्रसन्न होंगी और भरतके प्रभुत्वका नाश होनेसे तुम्हारी बहुएँ शोकमग्न हो जायेंगी ॥ १२ ॥ तां दृष्ट्वा परमप्रीतां ब्रुवंतीं मंथरां ततः । रामस्यैव गुणान् देवी कैकेयी प्रशशंस ह ॥ १३ ॥ मन्थराको अत्यन्त अप्रसन्नताके कारण इस प्रकार बहकी-बहकी बातें करती देख देवी कैकेयीने श्रीरामके गुणोंकी ही प्रशंसा करते हुए कहा— ॥ १३ ॥ धर्मज्ञो गुणवान् दान्तः कृतज्ञः सत्यवान् छुचिः । रामो राजसुतो ज्येष्ठो यौवराज्यमतोऽर्हति ॥ १४ ॥ 'कुब्जे ! श्रीराम धर्मके ज्ञाता, गुणवान्, जितेन्द्रिय, कृतज्ञ, सत्यवादी और पवित्र होनेके साथ ही महाराजके ज्येष्ठ पुत्र हैं; अत: युवराज होनेके योग्य वे ही हैं । भ्रातॄन् भृत्यांश्च दीर्घायुः पितृवत् पालयिष्यति । संतप्यसे कथं कुब्जे श्रुत्वा रामाभिषेचनम् ॥ १५ ॥ 'वे दीर्घजीवी होकर अपने भाइयों और भृत्योंका पिताकी भाँति पालन करेंगे । कुब्जे ! उनके अभिषेककी बात सुनकर तू इतनी जल क्यों रही है ? ॥ १५ ॥ भरतश्चापि रामस्य ध्रुवं वर्षशतात् परम् । पितृपैतामहं राज्यं अवाप्स्यति नरर्षभः ॥ १६ ॥ श्रीरामकी राज्यप्राप्तिके सौ वर्ष बाद नरश्रेष्ठ भरतको भी निश्चय ही अपने पिता-पितामहोंका राज्य मिलेगा । १६ ॥ सा त्वं अभ्युदये प्राप्ते दह्यमानेव मंथरे । भविष्यति च कल्याणे किमर्थं परितप्यसे ॥ १७ ॥ मन्थरे ! ऐसे अभ्युदयकी प्राप्तिके समय, जब कि भविष्यमें कल्याण-ही-कल्याण दिखायी दे रहा है, तू इस प्रकार जलती हुई-सी संतप्त क्यों हो रही है ? ॥ १७ ॥ यथा मे भरतो मान्यः तथा भूयोऽपि राघवः । कौसल्यातोऽतिरिक्तं च मम शुश्रूषते बहु ॥ १८ ॥ 'मेरे लिये जैसे भरत आदरके पात्र हैं, वैसे ही बल्कि उनसे भी बढ़कर श्रीराम हैं; क्योंकि वे कौसल्यासे भी बढ़कर मेरी बहुत सेवा किया करते हैं ॥ १८ ॥ राज्यं यदि हि रामस्य भरतस्यापि तत् तदा । मन्यते हि यथाऽऽत्मानं यथा भ्रातॄंस्तु राघवः ॥ १९ ॥ 'यदि श्रीरामको राज्य मिल रहा है तो उसे भरतको मिला हुआ समझ; क्योंकि श्रीरामचन्द्र अपने भाइयोंको भी अपने ही समान समझते हैं ॥ १९ ॥ कैकेय्या वचनं श्रुत्वा मंथरा भृशदुःखिता । दीर्घमुष्णं विनिश्वस्य कैकेयीं इदमब्रवीत् ॥ २० ॥ कैकेयीकी यह बात सुनकर मन्थराको बड़ा दुःख हुआ । वह लंबी और गरम साँस खींचकर कैकेयीसे बोली- ॥ २० ॥ अनर्थदर्शिनी मौर्ख्यान् नात्मानमवबुध्यसे । शोकव्यसनविस्तीर्णे मज्जंती दुःखसागरे ॥ २१ ॥ 'रानी ! तुम मूर्खतावश अनर्थको ही अर्थ समझ रही हो । तुम्हें अपनी स्थितिका पता नहीं है । तुम दु:खके उस महासागरमें डूब रही हो, जो शोक (इष्टसे वियोगकी चिन्ता) और व्यसन (अनिष्टकी प्राप्तिके दुःख) से महान् विस्तारको प्राप्त हो रहा है ॥ २१ ॥ भविता राघवो राजा राघवस्य च यः सुतः । राजवंशात्तु भरतः कैकेयी परिहास्यते ॥ २२ ॥ 'केकयराजकुमारी ! जब श्रीरामचन्द्र राजा हो जायेंगे, तब उनके बाद उनका जो पुत्र होगा, उसीको राज्य मिलेगा । भरत तो राजपरम्परासे अलग हो जायेंगे ॥ २२ ॥ न हि राज्ञः सुताः सर्वे राज्ये तिष्ठंति भामिनि । स्थाप्यमानेषु सर्वेषु सुमहान् अनयो भवेत् ॥ २३ ॥ 'भामिनि ! राजाके सभी पुत्र राज्यसिंहासनपर नहीं बैठते हैं; यदि सबको बिठा दिया जाय तो बड़ा भारी अनर्थ हो जाय ॥ २३ ॥ तस्माज्ज्येष्ठे हि कैकेयि राज्यतंत्राणि पार्थिवाः । स्थापयंति अनवद्याङ्गि गुणवत्सु इतरेष्वपि ॥ २४ ॥ परमसुन्दरी केकयनन्दिनि ! इसीलिये राजालोग राजकाजका भार ज्येष्ठ पुत्रपर ही रखते हैं । यदि ज्येष्ठ पुत्र गुणवान् न हो तो दूसरे गुणवान् पुत्रोंको भी राज्य सौंप देते हैं ॥ २४ ॥ असौ अत्यंत निर्भग्नः तव पुत्रो भविष्यति । अनाथवत् सुखेभ्यश्च राजवंशाच्च वत्सले ॥ २५ ॥ 'पुत्रवत्सले ! तुम्हारा पुत्र राज्यके अधिकारसे तो बहुत दूर हटा ही दिया जायगा, वह अनाथकी भाँति समस्त सुखोंसे भी वञ्चित हो जायगा ॥ २५ ॥ साहं त्वदर्थे सम्प्राप्ता त्?वं तु मां नावबुद्ध्यसे । सपत्निवृद्धौ या मे त्वं प्रदेयं दातुमर्हसि ॥ २६ ॥ इसलिये मैं तुम्हारे ही हितकी बात सुझानेके लिये यहाँ आयी हूँ; परंतु तुम मेरा अभिप्राय तो समझती नहीं, उलटे सौतका अभ्युदय सुनकर मुझे पारितोषिक देने चली हो ॥ २६ ॥ ध्रुवं तु भरतं रामः प्राप्य राज्यं अकण्टकम् । देशांतरं वा नाययिता लोकांतरं अथापि वा ॥ २७ ॥ 'याद रखो, यदि श्रीरामको निष्कण्टक राज्य मिल गया तो वे भरतको अवश्य ही इस देशसे बाहर निकाल देंगे अथवा उन्हें परलोकमें भी पहुँचा सकते हैं ॥ २७ ॥ बाल एव हि मातुल्यं भरतो नायितस्त्वया । सन्निकर्षाच्च सौहार्दं जायते स्थावरेष्विव ॥ २८ ॥ 'छोटी अवस्थामें ही तुमने भरतको मामाके घर भेज दिया । निकट रहनेसे सौहार्द उत्पन्न होता है । यह बात स्थावर योनियोंमें भी देखी जाती है (लता और वृक्ष आदि एक-दूसरेके निकट होनेपर परस्पर आलिङ्गन-पाशमें बद्ध हो जाते हैं । यदि भरत यहाँ होते तो राजाका उनमें भी समानरूपसे स्नेह बढ़ता; अत: वे उन्हें भी आधा राज्य दे देते) । २८ ॥ भरतानुवशात् सोऽपि शत्रुघ्नः तत्समं गतः । लक्ष्मणो हि यथा रामं तथासौ भरतं गतः ॥ २९ ॥ भरतके अनुरोधसे शत्रुघ्न भी उनके साथ ही चले गये (यदि वे यहाँ होते तो भरतका काम बिगड़ने नहीं पाता । क्योंकि जैसे लक्ष्मण रामके अनुगामी हैं, उसी प्रकार शत्रुघ्न भरतका अनुसरण करनेवाले हैं ॥ २९ ॥ श्रूयते हि द्रुमः कश्चित् छेत्तव्यो वनजीवनैः । सन्निकर्षादिषीकाभिः मोचितः परमाद् भयात् ॥ ३० ॥ 'सुना जाता है, जंगलकी लकड़ी बेचकर जीविका चलानेवाले कुछ लोगोंने किसी वृक्षको काटनेका निश्चय किया, परंतु वह वृक्ष कैंटीली झाड़ियोंसे घिरा हुआ था; इसलिये वे उसे काट नहीं सके । इस प्रकार उन कैंटीली झाड़ियोंने निकट रहने के कारण उस वृक्षको महान् भयसे बचा लिया ॥ ३० ॥ गोप्ता हि रामं सौमित्रिः लक्ष्मणं चापि राघवः । अश्विनोरिव सौभ्रात्रं तयोर्लोकेषु विश्रुतम् ॥ ३१ ॥ सुमित्राकुमार लक्ष्मण श्रीरामकी रक्षा करते हैं और श्रीराम उनकी । उन दोनोंका उत्तम भ्रातृ-प्रेम दोनों अश्विनीकुमारोंकी भाँति तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है ॥ ३१ ॥ तस्मान्न लक्ष्मणे रामः पापं किञ्चित् करिष्यति । रामस्तु भरते पापं कुर्यादेव न संशयः ॥ ३२ ॥ इसलिये श्रीराम लक्ष्मणका तो किञ्चित् भी अनिष्ट नहीं करेंगे, परंतु भरतका अनिष्ट किये बिना वे रह नहीं सकते; इसमें संशय नहीं है ॥ ३२ ॥ तस्माद् राजगृहादेव वनं गच्छतु राघवः । एतद्धि रोचते मह्यं भृशं चापि हितं तव ॥ ३३ ॥ 'अत: श्रीरामचन्द्र महाराजके महलसे ही सीधे वनको चले जायँ—मुझे तो यही अच्छा जान पड़ता है और इसीमें तुम्हारा परम हित है ॥ ३३ ॥ एवं ते ज्ञातिपक्षस्य श्रेयश्चैव भविष्यति । यदि चेद् भरतो धर्मात् पित्र्यं राज्यं अवाप्स्यति ॥ ३४ ॥ 'यदि भरत धर्मानुसार अपने पिताका राज्य प्राप्त कर लेंगे तो तुम्हारा और तुम्हारे पक्षके अन्य सब लोगोंका भी कल्याण होगा ॥ ३४ ॥ स ते सुखोचितो बालो रामस्य सहजो रिपुः । समृद्धार्थस्य नष्टार्थो जीविष्यति कथं वशे ॥ ३५ ॥ सौतेला भाई होनेके कारण जो श्रीरामका सहज शत्रु है, वह सुख भोगनेके योग्य तुम्हारा बालक भरत राज्य और धनसे वञ्चित हो राज्य पाकर समृद्धिशाली बने हुए श्रीरामके वशमें पड़कर कैसे जीवित रहेगा ॥ ३५ ॥ अभिद्रुतं इवारण्ये सिंहेन गजयूथपम् । प्रच्छाद्यमानं रामेण भरतं त्रातुमर्हसि ॥ ३६ ॥ 'जैसे वनमें सिंह हाथियोंके यूथपतिपर आक्रमण करता है और वह भागा फिरता है, उसी प्रकार राजा राम भरतका तिरस्कार करेंगे; अत: उस तिरस्कारसे तुम भरतकी रक्षा करो ॥ ३६ ॥ दर्पान् निराकृता पूर्वं त्वया सौभाग्यवत्तया । राममाता सपत्नी ते कथं वैरं न यापयेत् ॥ ३७ ॥ तुमने पहले पतिका अत्यन्त प्रेम प्राप्त होनेके कारण घमंडमें आकर जिनका अनादर किया था, वे ही तुम्हारी सौत श्रीराममाता कौसल्या पुत्रकी राज्यप्राप्तिसे परम सौभाग्यशालिनी हो उठी हैं; अब वे तुमसे अपने वैरका बदला क्यों नहीं लेंगी ॥ ३७ ॥ यदा च रामः पृथिवीं अवाप्स्यते प्रभूतरत्नाकरशैलसंयुताम् । तदा गमिष्यस्यशुभं पराभवं सहैव दीना भरतेन भामिनि ॥ ३८ ॥ 'भामिनि ! जब श्रीराम अनेक समुद्रों और पर्वतोंसे युक्त समस्त भूमण्डलका राज्य प्राप्त कर लेंगे, तब तुम अपने पुत्र भरतके साथ ही दीन-हीन होकर अशुभ पराभवका पात्र बन जाओगी ॥ ३८ ॥ यदा हि रामः पृथिवीं अवाप्स्यते ध्रुवं प्रणष्टो भरतो भविष्यति । अतो हि संचिंतय राज्यमात्मजे परस्य चैवास्य विवासकारणम् ॥ ३९ ॥ याद रखो, जब श्रीराम इस पृथ्वीपर अधिकार प्राप्त कर लेंगे, तब निश्चय ही तुम्हारे पुत्र भरत नष्टप्राय हो जायेंगे । अत: ऐसा कोई उपाय सोचो, जिससे तुम्हारे पुत्रको तो राज्य मिले और शत्रुभूत श्रीरामका वनवास हो जाय ॥ ३९ ॥ इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये श्रीमद् अयोध्याकाण्डे अष्टमः सर्गः ॥ ८ ॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें आठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ८ ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु |