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॥ विष्णुपुराणम् ॥

प्रथमः अंशः

॥ विंशोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच -
एवं सञ्चिन्तयन्विष्णुमभेदेनात्मनो द्विज ।
तन्मयत्वमवाप्यग्र्यं मेने चात्मानमच्युतम् ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे द्विज ! इस प्रकार भगवान् विष्णुको अपनेसे अभिन्न चिन्तन करते-करते पूर्ण तन्मयता प्राप्त हो जानेसे उन्होंने अपनेको अच्युत रूप ही अनुभव किया ॥ १ ॥

विसस्मार तथात्मानं नान्यत्किञ्चिदजानत ।
अहमेवाव्ययोऽनन्तः परमात्मेत्यचिन्तयत् ॥ २ ॥
वे अपने-आपको भूल गये; उस समय उन्हें श्रीविष्णुभगवान्के अतिरिक्त और कुछ भी प्रतीत न होता था । बस, केवल यही भावना चित्तमें थी कि मैं ही अव्यय और अनन्त परमात्मा हूँ ॥ २ ॥

तस्य तद्‌भावनायोगात्क्षीणपापस्य वै क्रमात् ।
शुद्धेन्तःकरणे विष्णुस्तस्थौ ज्ञानमयोऽच्युतः ॥ ३ ॥
उस भावनाके योगसे वे क्षीण-पाप हो गये और उनके शुद्ध अन्त:करणमें ज्ञानस्वरूप अच्युत श्रीविष्णुभगवान् विराजमान हुए ॥ ३ ॥

योगप्रभावात्प्रह्लादे जाते विष्णुमयेऽसुरे ।
चलत्युरगबन्धैस्तैर्मैत्रेय त्रुटितं क्षणात् ॥ ४ ॥
हे मैत्रेय ! इस प्रकार योगबलसे असुर प्रह्लादजीके विष्णुमय हो जानेपर उनके विचलित होनेसे वे नागपाश एक क्षणभरमें ही टूट गये ॥ ४ ॥

भ्रान्तग्राहगणः सोर्मिर्ययौ क्षोभं महार्णवः ।
चचाल च मही सर्वा सशैलवनकानना ॥ ५ ॥
भ्रमणशील ग्राहगण और तरलतरंगोंसे पूर्ण सम्पूर्ण महासागर क्षुब्ध हो गया, तथा पर्वत और वनोपवनोंसे पूर्ण समस्त पृथिवी हिलने लगी ॥ ५ ॥

स च तं शैलसङ्‍घातं दैत्यैर्न्यस्तमथोपरि ।
उत्क्षिप्य तस्मात्सलिलान्निश्चक्राम महामतिः ॥ ६ ॥
तथा महामति प्रह्लादजी अपने ऊपर दैत्योंद्वारा लादे गये उस सम्पूर्ण पर्वत-समूहको दूर फेंककर जलसे बाहर निकल आये ॥ ६ ॥

दृष्ट्‍वा च स जगद्‌भूयो गगनाद्युपलक्षणम् ।
प्रह्लादोऽस्मीति सस्मार पुनरात्मानमात्मनि ॥ ७ ॥
तब आकाशादिरूप जगत्को फिर देखकर उन्हें चित्तमें यह पुनः भान हुआ कि मैं प्रह्लाद हूँ ॥ ७ ॥

तुष्टाव च पुनर्धीमाननादिं पुरुषोत्तमम् ।
एकाग्रमतिरव्यग्रो यतवाक्वायमानसः ॥ ८ ॥
और उन महाबुद्धिमान्ने मन, वाणी और शरीरके संयमपूर्वक धैर्य धारणकर एकाग्रचित्तसे पुन:भगवान् अनादि पुरुषोत्तमकी स्तुति की ॥ ८ ॥

प्रह्लाद उवाच -
ॐ नमः परमार्थार्थ स्थूल सूक्ष्म क्षराक्षर ।
व्यक्ताव्यक्त कलातीत सकलेश निरञ्जन ॥ ९ ॥
प्रह्लादजी कहने लगे-हे परमार्थ ! हे अर्थ (दृश्यरूप) ! हे स्थूलसूक्ष्म (जाग्रत्-स्वप्नदृश्य- स्वरूप) ! हे क्षराक्षर (कार्य-कारणरूप) ! हे व्यक्ताव्यक्त (दृश्यादृश्यस्वरूप) ! हे कलातीत ! हे सकलेश्वर ! हे निरंजन देव ! आपको नमस्कार है ॥ ९ ॥

गुणाञ्जन गुणाधार निर्गुणात्मन् गुणस्थित ।
मूर्तामूर्तमहामूर्ते सूक्ष्ममूर्ते स्फुटास्फुट ॥ १० ॥
हे गुणोंको अनुरंजित करनेवाले ! हे गुणाधार ! हे निर्गुणात्मन् ! हे गुणस्थित ! हे मूर्त और अमूर्तरूप महामूर्तिमन् ! हे सूक्ष्ममूर्ते ! हे प्रकाशाप्रकाशस्वरूप ! [आपको नमस्कार है] ॥ १० ॥

करालसौम्यरूपात्मन्विद्याऽविद्यामयाच्युत ।
सदसद्‍रूपसद्‌भाव सदसद्‌भावभावन ॥ ११ ॥
हे विकराल और सुन्दररूप ! हे विद्या और अविद्यामय अच्युत ! हे सदसत् (कार्यकारण) रूप जगत्के उद्‌भवस्थान और सदसज्जगत्के पालक ! [ आपको नमस्कार है ] ॥ ११ ॥

नित्यानित्यप्रपञ्चात्मन्निष्प्रपञ्चामलाश्रित ।
एकानेक नमस्तुभ्यं वासुदेवादिकारण ॥ १२ ॥
हे नित्यानित्य (आकाशघटादिरूप) प्रपंचात्मन् ! हे प्रपंचसे पृथक् रहनेवाले ! हे ज्ञानियोंके आश्रयरूप ! हे एकानेकरूप आदिकारण वासुदेव ! [आपको नमस्कार है] ॥ १२ ॥

यः स्थूलसूक्ष्मः प्रकटः प्रकाशो      यः सर्वभूतो न च सर्वभूतः ।
विश्वं यतश्चैतदविश्वहेतो-      नमोऽस्तु तस्मै पुरुषोत्तमाय ॥ १३ ॥
जो स्थूल-सूक्ष्मरूप और स्फुट-प्रकाशमय हैं, जो अधिष्ठानरूपसे सर्वभूतस्वरूप तथापि वस्तुतः सम्पूर्ण भूतादिसे परे हैं, विश्वके कारण न होनेपर भी जिनसे यह समस्त विश्व उत्पन्न हुआ है; उन पुरुषोत्तम भगवान्को नमस्कार है ॥ १३ ॥

पराशर उवाच -
तस्य तच्चेतसो देवः स्तुतिमित्थं प्रकृर्वतः ।
आविर्बभूव भगवान् पीताम्बरधरो हरिः ॥ १४ ॥
श्रीपराशरजी बोले-उनके इस प्रकार तन्मयतापूर्वक स्तुति करनेपर पीताम्बरधारी देवाधिदेव भगवान् हरि प्रकट हुए ॥ १४ ॥

ससम्भ्रमस्तमालोक्य समुत्थायाकुलाक्षरम् ।
नमोस्तु विष्णवेत्येतद् व्याजहारासकृद् द्विज ॥ १५ ॥
हे द्विज ! उन्हें सहसा प्रकट हुए देख वे खड़े हो गये और गद्‌गद वाणीसे 'विष्णुभगवान्को नमस्कार है ! विष्णुभगवान्को नमस्कार है !' ऐसा बारम्बार कहने लगे ॥ १५ ॥

प्रह्लाद उवाच -
देव प्रपन्नार्तिहर प्रसादं कुरु केशव ।
अवलोकनदानेन भूयो मां पावयाच्युत ॥ १६ ॥
प्रह्लादजी बोले-हे शरणागत-दुःखहारी श्रीकेशवदेव ! प्रसन्न होइये । हे अच्युत ! अपने पुण्य-दर्शनोंसे मुझे फिर भी पवित्र कीजिये ॥ १६ ॥

श्रीभगवान् उवाच -
कुर्वतस्ते प्रसन्नोऽहं भक्तिमव्यभिचारिणीम् ।
यथाभिलषितो मत्तः प्रह्लाद व्रीयतां वरः ॥ १७ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे प्रह्लाद ! मैं तेरी अनन्यभक्तिसे अति प्रसन्न हूँ; तुझे जिस वरकी इच्छा हो माँग ले ॥ १७ ॥

प्रह्लाद उवाच -
नाथ योनिसहस्रेषु येषु येषु व्रजाम्यहम् ।
तेषु तेष्वच्युताभक्तिरच्युतास्तु सदा त्वयि ॥ १८ ॥
प्रह्लादजी बोले- हे नाथ ! सहस्रों योनियोंमेंसे मैं जिस-जिसमें भी जाऊँ उसी-उसीमें, हे अच्युत ! आपमें मेरी सर्वदा अक्षुण्ण भक्ति रहे ॥ १८ ॥

या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी ।
त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्मापसर्पतु ॥ १९ ॥
अविवेकी पुरुषोंकी विषयोंमें जैसी अविचल प्रीति होती है वैसी ही आपका स्मरण करते हुए मेरे हृदयसे कभी दूर न हो ॥ १९ ॥

श्रीभगवानुवाच -
मयि भक्तिस्तवास्त्येव भूयोऽप्येवं भविष्यति ।
वरस्तु मत्तः प्रह्लाद व्रीयतां यस्तवेप्सितः ॥ २० ॥
श्रीभगवान् बोले-हे प्रह्लाद ! मुझमें तो तेरी भक्ति है ही और आगे भी ऐसी ही रहेगी; किन्तु इसके अतिरिक्त भी तुझे और जिस वरकी इच्छा हो मुझसे माँग ले ॥ २० ॥

प्रह्लाद उवाच -
मयि द्वेषानुबन्धोऽभूत्संस्तुतावुद्यते तव ।
मत्पितुस्तत्कृतं पापं देव तस्य प्रमश्यतु ॥ २१ ॥
प्रह्लादजी बोले-हे देव ! आपकी स्तुतिमें प्रवृत्त होनेसे मेरे पिताके चित्तमें मेरे प्रति जो द्वेष हुआ है, उन्हें उससे जो पाप लगा है वह नष्ट हो जाय ॥ २१ ॥

शस्त्राणि पातितान्यङ्‍गे क्षिप्तो यच्चाग्निसंहतौ ।
दंशितश्चोरगैर्दत्तं यद्विषं मम भोजने ॥ २२ ॥
बद्धा समुद्रे यत्क्षिप्तो यच्चितोऽस्मि शिलोच्चयैः ।
अन्यानि चाप्यसाधूनि यानि पित्रा कृताति मे ॥ २३ ॥
त्वयि भक्तिमतो द्वेषादघं तत्सम्भवं च यत् ।
त्वत्प्रसादात्प्रभो सद्यस्तेन मुच्येत मे पिता ॥ २४ ॥
इसके अतिरिक्त [ उनकी आज्ञासे ] मेरे शरीरपर जो शस्त्राघात किये गये-मुझे अग्निसमूहमें डाला गया, साँसे कटवाया गया, भोजनमें विष दिया गया, बाँधकर समुद्रमें डाला गया, शिलाओंसे दबाया गया तथा और भी जो-जो दुर्व्यवहार पिताजीने मेरे साथ किये हैं, वे सब आपमें भक्ति रखनेवाले पुरुषके प्रति द्वेष होनेसे, उन्हें उनके कारण जो पाप लगा है, हे प्रभो ! आपकी कृपासे मेरे पिता उससे शीघ्र ही मुक्त हो जायँ ॥ २२-२४ ॥

श्रीभगवानुवाच -
प्रह्लाद सर्वमेतत्ते मत्प्रसादाद्‌भाविष्यति ।
अन्यच्च ते वरं दद्मि व्रीयतामसुरात्मज ॥ २५ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे प्रह्लाद ! मेरी कृपासे तुम्हारी ये सब इच्छाएँ पूर्ण होंगी । हे असुरकुमार ! मैं तुमको एक वर और भी देता हूँ, तुम्हें जो इच्छा हो माँग लो ॥ २५ ॥

प्रहलाद उवाच -
कृतकृत्योस्मि भगवन्वरेणानेन यत्त्वयि ।
भवित्री त्वत्प्रसादेन भक्तिरव्यभिचारिणी ॥ २६ ॥
प्रह्लादजी बोले-हे भगवन् ! मैं तो आपके इस वरसे ही कृतकृत्य हो गया कि आपकी कृपासे आपमें मेरी निरन्तर अविचल भक्ति रहेगी ॥ २६ ॥

धर्मार्थकामैः किं तस्य मुक्तिस्तस्य करे स्थिता ।
समस्तजगतां मूले यस्य भक्तिः स्थिरा त्वयि ॥ २७ ॥
हे प्रभो ! सम्पूर्ण जगत्के कारणरूप आपमें जिसकी निश्चल भक्ति है, मुक्ति भी उसकी मुट्ठीमें रहती है, फिर धर्म, अर्थ, कामसे तो उसे लेना ही क्या है ? ॥ २७ ॥

श्रीभगवानुवाच -
यथा ते निश्चलं चेतो मयि भक्तिसमन्वितम् ।
तथा त्वं मत्प्रसादेन निर्वाणण् परमाप्स्यसि ॥ २८ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे प्रह्लाद ! मेरी भक्तिसे युक्त तेरा चित्त जैसा निश्चल है उसके कारण तू मेरी कृपासे परम निर्वाणपद प्राप्त करेगा ॥ २८ ॥

श्रीपराशर उवाच -
इत्युक्त्वान्तर्दधे विष्णुस्तस्य मैत्रेय पश्यतः ।
स चापि पुनरागम्य ववन्दे चरणौ पितुः ॥ २९ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! ऐसा कह भगवान् उनके देखते-देखते अन्तर्धान हो गये; और उन्होंने भी फिर आकर अपने पिताके चरणोंकी वन्दना की ॥ २९ ॥

तं पिता मूर्ध्न्युपाघ्राय परिष्वज्य च पीडितम् ।
जीवसीत्याह वत्सेति बाष्पार्द्रनयनो द्विज ॥ ३० ॥
हे द्विज ! तब पिता हिरण्यकशिपुने, जिसे नाना प्रकारसे पीड़ित किया था उस पुत्रका सिर सूंघकर, आँखोंमें आँसू भरकर कहा-'बेटा, जीता तो है !' ॥ ३० ॥

प्रीतिमांश्चाऽभवत्तस्मिन्ननुतापी महासुरः ।
गुरुपित्रोश्चकारैवं शुश्रूषां सोऽपि धर्मवित् ॥ ३१ ॥
वह महान् असुर अपने कियेपर पछताकर फिर प्रह्लादसे प्रेम करने लगा और इसी प्रकार धर्मज्ञ प्रह्लादजी भी अपने गुरु और माता-पिताकी सेवा-शुश्रूषा करने लगे ॥ ३१ ॥

पितर्युपरतिं नीते नरसिंहस्वरूपिणा ।
विष्णुना सोऽपि दैत्यानां मैत्रेयाभूत्पतिस्ततः ॥ ३२ ॥
हे मैत्रेय ! तदनन्तर नृसिंहरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा पिताके मारे जानेपर वे दैत्योंके राजा हुए ॥ ३२ ॥

ततो राज्यद्युतिं प्राप्य कर्मशुद्धिकरीं द्वीज ।
पुत्रपौत्रांश्च सुबहूनवाप्यैश्वर्यमेव च ॥ ३३ ॥
हे द्विज ! फिर प्रारब्धक्षयकारिणी राज्यलक्ष्मी, बहुत-से पुत्र-पौत्रादि तथा परम ऐश्वर्य पाकर, कर्माधिकारके क्षीण होनेपर पुण्यपापसे रहित हो भगवानका ध्यान करते हए उन्होंने परम निर्वाणपद प्राप्त किया । ३३-३४ ॥

क्षीणाधिकारः स यदा पुण्यपापविविर्जितः ।
तदा स भगवद्ध्यानात्परं नीर्वाणमाप्तवान् ॥ ३४ ॥
एवं प्रभावो दैत्योऽसौ मैत्रेयासीन्महामतिः ।
प्रह्लादो भगवद्‌भक्तो यं त्वं मामनुपृच्छसि ॥ ३५ ॥
हे मैत्रेय ! जिनके विषयमें तुमने पूछा था वे परम भगवद्‌भक्त महामति दैत्यप्रवर प्रह्लादजी ऐसे प्रभावशाली हुए ॥ ३५ ॥

यस्त्वेतच्चरितं तस्य प्रह्लादस्य महात्मनः ।
शृणोति तस्य पापानि सद्यो गच्छन्ति सङ्‌क्षयम् ॥ ३६ ॥
उन महात्मा प्रह्लादजीके इस चरित्रको जो पुरुष सुनता है उसके पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ॥ ३६ ॥

अहोरात्रकृतं पापं प्रह्लादचरितं नरः ।
शृण्वन् पठंश्च मैत्रेय व्यपोहति न संशयः ॥ ३७ ॥
हे मैत्रेय ! इसमें सन्देह नहीं कि मनुष्य प्रह्लादचरित्रके सुनने या पढ़नेसे दिन-रातके (निरन्तर) किये हुए पापसे अवश्य छूट जाता है ॥ ३७ ॥

पौर्णमास्याममावास्यामष्टम्यामथ वा पठन् ।
द्वादश्यां तदाप्नोति गोप्रदानफलं द्विज ॥ ३८ ॥
हे द्विज ! पूर्णिमा, अमावास्या, अष्टमी अथवा द्वादशीको इसे पढ़नेसे मनुष्यको गोदानका फल मिलता है ॥ ३८ ॥

प्रह्लादं सकलापत्सु यथा रक्षितवान्हरिः ।
तथा रक्षति यस्तस्य शृणोति चरितं सदा ॥ ३९ ॥
जिस प्रकार भगवान्ने प्रह्लादजीकी सम्पूर्ण आपत्तियोंसे रक्षा की थी उसी प्रकार वे सर्वदा उसकी भी रक्षा करते हैं जो उनका चरित्र सुनता है ॥ ३९ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे विंऽशोध्यायः (२०)
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥



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