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॥ विष्णुपुराणम् ॥

द्वितीयः अंशः

॥ पञ्चमोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
विस्तार एष कथितः पृथिव्या भवतो मया ।
सप्ततिस्तु सहस्राणि द्विजोच्छ्रायोपि कथ्यते ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे द्विज ! मैंने तुमसे यह पृथिवीका विस्तार कहा; इसकी ऊँचाई भी सत्तर सहस्र योजन कही जाती है ॥ १ ॥

दशसाहस्रमेकैकं पातालं मुनिसत्तम ।
अतलं वितलं चैव नितलं च गभस्तिमत् ।
महाख्यं सुतलं चाग्र्यं पातालं चापि सप्तमम् ॥ २ ॥
हे मुनिसत्तम ! अतल, वितल, नितल, गभस्तिमान् , महातल, सुतल और पाताल-इन सातों से प्रत्येक दस-दस सहस्त्र योजनकी दूरीपर है ॥ २ ॥

शुक्लाकृष्णारुणाः पीताः शर्कराः शैलकाञ्चनाः ।
भूमयो यत्र मैत्रेय परप्रासादमण्डिताः ॥ ३ ॥
हे मैत्रेय ! सुन्दर महलोंसे सुशोभित वहाँको भूमियाँ शुक्ल, कृष्ण, अरुण और पीत वर्णकी तथा शर्करामयी (कैंकरोली), शैली (पत्थरकी) और सुवर्णमयी है ॥ ३ ॥

तेषु दानवदैतेया यक्षाश्च शतशस्तथा ।
निवसन्ति महानागजातयश्च महामुने ॥ ४ ॥
हे महामुने ! उनमें दानव, दैत्य, यक्ष और बड़े-बड़े नाग आदिकोंकी सैकड़ों जातियाँ निवास करती हैं ॥ ४ ॥

स्वर्लोकादपि रम्याणि पातालानीति नारदः ।
प्राह स्वर्गसदां मध्ये पातालाभ्यागतो दिवि ॥ ५ ॥
एक बार नारदजीने पाताललोकसे स्वर्गमें आकर वहाँके निवासियोंसे कहा था कि 'पाताल तो स्वर्गसे भी अधिक सुन्दर है' ॥ ५ ॥

आह्लादकारिणः शुभ्रा मणयो यत्र सुप्रभाः ।
नागाभरणभूषासु पातालं केन तत्समम् ॥ ६ ॥
जहाँ नागगणके आभूषणों में सुन्दर प्रभायुक्त आहादकारिणी शुभ्र मणियाँ जड़ी हुई हैं उस पातालको किसके समान कहें ? ॥ ६ ॥

दैत्यदानवकन्याभिरितश्चैतश्च शोभिते ।
पाताले कस्य न प्रीतिर्विमुक्तस्यापि जायते ॥ ७ ॥
जहाँ-तहाँ दैत्य और दानवोंकी कन्याओंसे सुशोभित पाताललोकमें किस मुक्त पुरुषको भी प्रीति न होगी ॥ ७ ॥

दिवार्करश्मयो यत्र प्रभां तन्वन्ति नातपम् ।
शशिरश्मिर्न शीताय निशि द्योताय केवलम् ॥ ८ ॥
जहाँ दिनमें सूर्यको किरणें केवल प्रकाश ही करती हैं, घाम नहीं करती तथा रातमें चन्द्रमाकी किरणोंसे शीत नहीं होता, केवल चाँदनी ही फैलती है ॥ ८ ॥

भक्ष्यभोज्यमहापानमुदितैरपि भोगिभिः ।
यत्र न ज्ञायते कालो गतोपि दनुजादिभिः ॥ ९ ॥
जहाँ भक्ष्य, भोज्य और महापानादिके भोगोंसे आनन्दित सो तथा दानवादिकोंको समय जाता हुआ भी प्रतीत नहीं होता ॥ ९ ॥

वनानि नद्यो रम्याणि सरांसि कमलाकराः ।
पुंस्कोकिलाभिलापाश्च मनोज्ञान्यम्बराणि च ॥ १० ॥
जहाँ सुन्दर वन, नदियाँ, रमणीय सरोवर और कमलोंके वन हैं, जहाँ नरकोकिर्लोकी सुमधुर कूक गूंजती है एवं आकाश मनोहारी है ॥ १० ॥

भूषणान्यतिशुभ्राणि गन्धाढ्यं चानुलेपनम् ।
वीणावेणुमृदङ्‍गानां स्वनास्तूर्याणि च द्विज ॥ ११ ॥
एतान्यन्यानि चोदारभाग्यभोग्यानि दानवैः ।
दैत्योरगैश्च भुज्यन्ते पातालान्तरगोचरैः ॥ १२ ॥
और हे द्विज ! जहाँ पातालनिवासी दैत्य, दानव एवं नागगणद्वारा अति स्वच्छ आभूषण, सुगन्धमय अनुलेपन, वीणा, वेणु और मृदंगादिके स्वर तथा तूर्य-ये सब एवं भाग्यशालियोंके भोगनेयोग्य और भी अनेक भोग भोगे जाते हैं ॥ ११-१२ ॥

पातालानामधश्चास्ते विष्णोर्या तामसी तनुः ।
शेषख्या यद्‌गुणान्वक्तुं न शक्ता दैत्यदानवाः ॥ १३ ॥
पातालोंके नीचे विष्णुभगवान्का शेष नामक जो तमोमय विग्रह है उसके गुणोंका दैत्य अथवा दानवगण भी वर्णन नहीं कर सकते ॥ १३ ॥

योनन्तः पाठ्यते सिद्धैर्दैवो देवर्षिपूजितः ।
स सहस्रशिरा व्यक्तस्वस्तिकामलभूषणः ॥ १४ ॥
जिन देवर्षिपूजित देवका सिद्धगण 'अनन्त' कहकर बखान करते हैं वे अति निर्मल, स्पष्ट स्वस्तिक चिहनोंसे विभूषित तथा सहस सिरवाले हैं ॥ १४ ॥

फणामणिसहस्रेण यः स विद्योतयन्दिशः ।
सर्वान्करोति निर्वीर्यान् हिताय जगतोऽसुरान् ॥ १५ ॥
जो अपने फणोंकी सहस्त्र मणियोंसे सम्पूर्ण दिशाओंको देदीप्यमान करते हुए संसारके कल्याणके लिये समस्त असुरोंको वीर्वहीन करते रहते हैं ॥ १५ ॥

मदाघूर्णितनेत्रोऽसौ यः सदैवैककुण्डलः ।
किरिटी स्रग्धरो भाति साग्निः श्वेत इवाचलः ॥ १६ ॥
मदके कारण अरुण नयन, सदैव एक ही कुण्डल पहने हुए तथा मुकुट और माला आदि धारण किये जो अग्नियुक्त श्वेत पर्वतके समान सुशोभित हैं ॥ १६ ॥

नीलवासा मदोत्सिक्तः श्वेतहारोपशोभितः ।
साभ्रगङ्‍गाप्रवाहोऽसौ कैलासाद्रिरिवापरः ॥ १७ ॥
मदसे उन्मत्त हुए जो नीलाम्बर तथा श्वेत हारोंसे सुशोभित होकर मेघमाला और गंगाप्रवाहसे युक्त दूसरे कैलासपर्वतके समान विराजमान हैं ॥ १७ ॥

लाङ्‍गलासक्तहस्ताग्रो बिभ्रन्मुसलमुत्तमम् ।
उपास्यते स्वयं कान्त्या यो वारुण्या च मूर्तया ॥ १८ ॥
जो अपने हाथों में हल और उत्तम मूसल धारण किये हैं तथा जिनकी उपासना शोभा और वारुणी देवी स्वयं मूर्तिमती होकर करती हैं ॥ १८ ॥

कल्पान्ते यस्य वक्त्रेभ्यो विषानलशिखोज्ज्वलः ।
संकर्षणात्मको रूद्रो निष्क्रम्यात्ति जगत्त्रयम् ॥ १९ ॥
कल्पान्तमें जिनके मुखोंसे विषाग्निशिखाके समान देदीप्यमान संकर्षण नामक रुद्र निकलकर तीनो लोकोंका भक्षण कर जाता है ॥ १९ ॥

स बिभ्रच्छेखरीभूतमशेषं क्षितिमण्डलम् ।
आस्ते पातालमूलस्थः शेषोऽशेषसुरार्चितः ॥ २० ॥
व समस्त देवगणोंसे वन्दित शेषभगवान् अशेष भूमण्डलको मुकुटवत् धारण किये हुए पाताल-तलमें विराजमान हैं ॥ २० ॥

तस्य वीर्यं प्रभावश्च स्वरूपं रूपमेव च ।
न हि वर्णयितुं शक्यं ज्ञातुं च त्रिदशैरपि ॥ २१ ॥
उनका बल-वीर्य, प्रभाव, स्वरूप (तत्त्व) और रूप (आकार) देवताओंसे भी नहीं जाना और कहा जा सकता ॥ २१ ॥

यस्यैषा सकला पृथ्वी फणामणिशिखारूणा ।
आस्ते कुसुममालेव कस्तद्वीर्यं वदिष्यति ॥ २२ ॥
जिनके फोंकी मणियोंकी आभासे अरुण वर्ण हुई यह समस्त पृथिवी फूलोंकी मालाके समान रखी हुई है उनके बल-वीर्यका वर्णन भला कौन करेगा ? ॥ २२ ॥

यदा विजृम्भतेऽनन्तो मदाघूर्णितलोचनः ।
तदा चलति भूरेषा साब्धितोया सकानना ॥ २३ ॥
जिस समय मदमत्तनयन शेषजी जमुहाई लेते हैं उस समय समुद्र और बन आदिके सहित यह सम्पूर्ण पृथिवी चलायमान हो जाती है ॥ २३ ॥

गन्धर्वाप्सरसः सिद्धाः किन्नरोरगचारणाः ।
नान्तं गुणानां गच्छन्ति तेनानन्तोऽयमव्ययः ॥ २४ ॥
इनके गुणोंका अन्त गन्धर्व, अप्सरा, सिद्ध, किन्नर, नाग और चारण आदि कोई भी नहीं पा सकते; इसलिये ये अविनाशी देव 'अनन्त' कहलाते हैं । ॥ २४ ॥

यस्य नागवधूहस्तैर्लेपितं हरि चन्दनम् ।
मुहुः श्वासानिलापास्तं याति दिक्षूदवासताम् ॥ २५ ॥
जिनका नाग-वधुओद्वारा लेपित हरिचन्दन पुनः-पुनः श्वास-वायुसे छूट-छूटकर दिशाओंको सुगन्धित करता रहता है ॥ २५ ॥

यमाराध्य पूराणर्षिर्गर्गो ज्योतींषि तत्त्वतः ।
ज्ञातवान्सकलं चैव निमित्तपठितं फलम् ॥ २६ ॥
जिनकी आराधनासे पूर्वकालीन महर्षि गर्गने समस्त ज्योतिर्मण्डल (ग्रह-नक्षत्रादि) और शकुन-अपशकुनादि नैमित्तिक फलोंको तत्वतः जाना था ॥ २६ ॥

तेनेयं नागवर्येण शिरसा विधृता मही ।
बिभर्ति मालां लोकानां सदेवासुरमानुषाम् ॥ २७ ॥
उन नागश्रेष्ठ शेषजीने इस पृथिवीको अपने मस्तकपर धारण किया हुआ है, जो स्वयं भी देव, असुर और मनुष्योंके सहित सम्पूर्ण लोकमाला (पातालादि समस्त लोकों) को धारण किये हुए हैं ॥ २७ ॥

इति श्रीविष्णुमहाहुराणे द्वितीरयेंऽशे पञ्चमोऽध्याय (५)
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥



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