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॥ विष्णुपुराणम् ॥

द्वितीयः अंशः

॥ षष्ठोऽध्यायः ॥

पराशर उवाच
ततश्च नरका विप्र भुवोऽधः सलिलस्य च ।
पापिनो येषु पात्यन्ते ताञ्छृणुष्व महामुने ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे विघ्र ! तदनन्तर पृथिवी और जलके नीचे नरक हैं जिनमें पापी लोग गिराये जाते हैं । हे महामुने ! उनका विवरण सुनो ॥ १ ॥

रौरवः सूकरो रोधस्तालो विशसनस्तथा ।
महाज्वालस्तप्तकुम्भो लवणोऽथ विलोहितः ॥ २ ॥
रूधिराम्भो वैतरणिः कृमिशः कृमिभोजनः ।
असिपत्रवनं कृष्णो लालाभक्षश्च दारुणः ॥ ३ ॥
तथा पूयवहः पापो वह्निज्वालो ह्यधः शिराः ।
सन्दंशः कालसूत्रश्च तमश्चावीचिरेव च ॥ ४ ॥
श्वभोजनोऽथाप्रतिष्ठश्चाप्रचिश्च तथा परः ।
इत्येवमादयश्चान्ये नरका भृशदारूणाः ॥ ५ ॥
यमस्य विषये घोराः शस्त्राग्निभयदायिनः ।
पतन्ति येषु पुरुषाः पापकर्मरतास्तु ये ॥ ६ ॥
रौरव, सूकर, रोध, ताल, विशसन, महाज्वाल, तप्तकुम्भ, लवण, विलोहित, रुधिराम्भ, वैतरणि, कमीश, कृमिभोजन, असिपत्रवन, कृष्ण, लालाभक्ष, दारुण, पूयवह, पाप, वहिनचाल, अधःशिरा, सन्दंश, कालसूत्र, तमस् , आवीचि, श्वभोजन, अप्रतिष्ठ और अप्रचि-ये सब तथा इनके सिवा और भी अनेकों महाभयंकर नरक हैं, जो यमराजके शासनाधीन हैं और अति दारुण शस्त्र-भय तथा अग्नि-भय देनेवाले हैं और जिनमें जो पुरुष पापरत होते हैं वे ही गिरते हैं ॥ २-६ ॥

कूटसाक्षी तथासम्यक्पक्षपातेन यो वदेत् ।
यश्चान्यदनृतं वक्ति स नरो याति रौरवम् ॥ ७ ॥
जो पुरुष कूटसाक्षी (झूठा गवाह अर्थात् जानकर भी न बतलानेवाला या कुछ-का-कुछ कहनेवाला) होता है अथवा जो पक्षपातसे यथार्थ नहीं बोलता और जो मिथ्याभाषण करता है वह रौरवनरकमें जाता है ॥ ७ ॥

भ्रूणहा पुरहन्ता च गौघ्नश्च मुनिसत्तम ।
यान्ति ते नरकं रोधं यश्चोच्छ्वासनिरोधकः ॥ ८ ॥
हे मुनिसत्तम ! भ्रूण (गर्भ) नष्ट करनेवाले, ग्रामनाशक और गो-हत्यारे लोग रोध नामक नरकमें जाते हैं जो श्वासोच्छ्वासको रोकनेवाला है ॥ ८ ॥

सुरापो ब्रह्महा हर्ता सुवर्णस्य च सूकरे ।
प्रयान्ति नरके यश्च तैः संसर्गमुपैति वै ॥ ९ ॥
मद्य-पान करनेवाला, ब्रह्मचाती, सुवर्ण चुरानेवाला तथा जो पुरुष इनका संग करता है ये सब सूकरनरकमें जाते हैं ॥ ९ ॥

राजन्यवैश्यहा ताले तथैव गुरुतल्पगः ।
तप्तकुण्डे स्वसृगामी हन्ति राजभटांश्च यः ॥ १० ॥
क्षत्रिय अथवा वैश्यका वध करनेवाला तालनरकमें तथा गुरु-स्त्रीके साथ गमन करनेवाला, भगिनीगामी और राजदूतोंको मारनेवाला पुरुष तप्तकुण्डनरकमें पड़ता है ॥ १० ॥

साध्वीविक्रयकृद्‍बन्धपालः केसरिविक्रयी ।
तप्तलोहे पतन्त्येते यश्च च भक्तं परित्यजेत् ॥ ११ ॥
सती स्त्रीको बेचनेवाला, कारागृहरक्षक, अश्वविक्रेता और भक्तपुरुषका त्याग करनेवाला-ये सब लोग तप्तलोहनरकमें गिरते हैं ॥ ११ ॥

स्नुषां सुतां चापि गत्वा महाज्वाले निपात्यते ।
अवमन्ता गुरूणां यो यश्चाक्रोष्टा नराधमः ॥ १२ ॥
वेददूषयितायश्च वेदविक्रयिकश्च यः ।
अगम्यगामी यश्च स्यात्ते यान्ति लवणं द्विज ॥ १३ ॥
पुत्रवधू और पुत्रीके साथ विषय करनेवाला पुरुष महाज्वालनरकमें गिराया जाता है, तथा जो नराधम गुरुजनोंका अपमान करनेवाला और उनसे दुर्वचन बोलनेवाला होता है तथा जो वेदको निन्दा करनेवाला, वेद बेचनेवाला या अगम्या स्त्रीसे सम्भोग करता है, हे द्विज ! वे सब लवणनरकमें जाते हैं ॥ १२-१३ ॥

चोरो विलोहे पतति मर्यादादूषकस्तथा ॥ १४ ॥
चोर तथा मर्यादाका उल्लंघन करनेवाला पुरुष विलोहितनरकमें गिरता है ॥ १४ ॥

देवद्विजपितृद्वेष्टा रत्‍नद्वषयिता च यः ।
स याति कृमिभक्षे वै कृमिशे च दुरिष्टकृत् ॥ १५ ॥
देव, द्विज और पितृगणसे द्वेष करनेवाला तथा रत्नको दूषित करनेवाला कृमिभक्षनरकमें और अनिष्ट यज्ञ करनेवाला कृमीशनरकमें जाता है ॥ १५ ॥

पितृदेवातिथींस्त्यक्त्वा पर्यश्नाति नराधमः ।
लालाभक्षे स यात्ययुग्रे शरकर्ता च वेधके ॥ १६ ॥
जो नराधम पितृगण, देवगण और अतिथियोंको छोड़कर उनसे पहले भोजन कर लेता है वह अति उन लालाभक्षनरकमें पड़ता है; और बाण बनानेवाला वेधकनरकमें जाता है ॥ १६ ॥

करोति कर्णनो यश्च यश्च खङ्‍गादिकृन्नरः ।
प्रयान्त्येते विशसने नरके भृशदारुणे ॥ १७ ॥
जो मनुष्य की नामक बाण बनाते हैं और जो खगादि शस्त्र बनानेवाले हैं वे अति दारुण विशसननरकमें गिरते हैं ॥ १७ ॥

असत्प्रतिगृहीता तु नरके यात्यधोमुखे ।
अयाज्ययाजकश्चैव तथा नक्षत्रसूचकः ॥ १८ ॥
असत्प्रतिग्रह (दूषित उपायोंसे धन-संग्रह) करनेवाला, अयाज्ययाजक और नक्षत्रोपजीवी (नक्षत्र-विद्याको न जानकर भी उसका ढोंग रचनेवाला) पुरुष अधोमुखनरकमें पड़ता है ॥ १८ ॥

वेगी पूयवहे चैको याति मिष्टान्नभुङ्‍गरः ॥ १९ ॥
लाक्षामांसरसानां च तिलानां लवणस्य च ।
विक्रेता ब्रह्मणो याति तमेव नरकं द्विज ॥ २० ॥
साहस (निष्ठुर कर्म) करनेवाला पुरुष पूर्ववहनरकमें जाता है, तथा [पुत्र-मित्रादिको वंचना करके] अकेले ही स्वादु भोजन करनेवाला और लाख, मांस, रस, तिल तथा लवण आदि बेचनेवाला ब्राह्मण भी उसी (पूयवह) नरकमें गिरता है ॥ १९-२० ॥

मार्जारकुक्कुटच्छागश्ववराहविहङ्‍गमान् ।
पोषयन्नरकं याति तमेव द्विजसत्तम ॥ २१ ॥
हे द्विजश्रेष्ठ ! बिलाव, कुक्कुट, छाग, अश्व, शूकर तथा पक्षियोंको [जीविकाके लिये] पालनेसे भी पुरुष उसी नरकमें जाता है ॥ २१ ॥

रङ्‍गोपजीवी कैवर्तः कुण्डाशी गरदस्तथा ।
सूची माहिषकश्चैव पर्वकारी च यो द्विजः ॥ २२ ॥
अगारदाही मित्रघ्नः शाकुनिर्ग्रामयाजकः ।
रुधिरान्धे पतन्त्येते सोमं विक्रीणते च ये ॥ २३ ॥
नट या मल्लवृत्तिसे रहनेवाला, धीवरका कर्म करनेवाला, कुण्ड (उपपतिसे उत्पन्न सन्तान)-का अन्न खानेवाला, विष देनेवाला, चुगलखोर, स्त्रीकी असद्वृत्तिके आश्रय रहनेवाला, धन आदिके लोभसे बिना पर्वके अमावास्या आदि पर्वदिनोंका कार्य करानेवाला 'द्विज, घरमें आग लगानेवाला, मित्रकी हत्या करनेवाला, शकुन आदि बतानेवाला, ग्रामका पुरोहित तथा सोम (मदिरा) बेचने वाला ये सब रुधिरान्धनरकमें गिरते हैं ॥ २२-२३ ॥

मखहा ग्रामहन्ता च याति वैतरणीं नरः ॥ २४ ॥
रेतः पातादिकर्तारो मर्यादाभेदिनो हि ये ।
ते कृष्णे यान्त्यशौचाश्च कुहकाजीविनश्च ये ॥ २५ ॥
यज्ञ अथवा ग्रामको नष्ट करनेवाला पुरुष वैतरणीनरकमें जाता है, तथा जो लोग वीर्यपातादि करनेवाले, खेतोंकी बाड़ तोड़नेवाले, अपवित्र और छलवृत्तिके आश्रय रहनेवाले होते हैं वे कृष्णनरकमें गिरते हैं ॥ २४-२५ ॥

असिपत्रवनं याति वनच्छेदी वृथैव यः ।
औरभ्रिको मृगव्याधो वह्निज्वाले पतन्ति वै ॥ २६ ॥
यान्त्येते द्विज तत्रैव ये चापाकेषु वह्निदाः ॥ २७ ॥
जो वृथा ही वनोंको काटता है वह असिपत्रवननरकमें जाता है । मेषोपजीवी (गड़रिये) और व्याधगण वलिज्चालनरकमें गिरते हैं तथा हे द्विज ! जो कच्चे घड़ों अथवा ईट आदिको पकानेके लिये उनमें अग्नि डालते हैं, वे भी उस (वलिञ्चालनरक)-में ही जाते हैं ॥ २६-२७ ॥

व्रतानां लोपको यश्च स्वाश्रमाद्विच्युतश्च यः ।
सन्दंशयातनामध्ये पततस्तावुभावपि ॥ २८ ॥
व्रतोंको लोप करनेवाले तथा अपने आश्रमसे पतित दोनों ही प्रकारके पुरुष सन्दंश नामक नरकमें गिरते हैं ॥ २८ ॥

दिवा स्वप्ने च स्कन्दन्ते ये नरा ब्रह्मचारिणः ।
पुत्रैरध्यापिता ये च ते पतन्ति श्वभोजने ॥ २९ ॥
जिन ब्रह्मचारियोंका दिनमें तथा सोते समय [बुरी भावनासे] वीर्यपात हो जाता है, अथवा जो अपने ही पुत्रोंसे पढ़ते हैं वे लोगा श्वभोजननरकमें गिरते हैं ॥ २९ ॥

एते चान्ये च नरकाः शतशोथ सहस्रशः ।
येषु दुष्कृतकर्माणः पच्यन्ते यातनागताः ॥ ३० ॥
इस प्रकार, ये तथा अन्य सैकड़ों-हजारों नरक हैं, जिनमें दुष्कर्मी लोग नाना प्रकारकी यातनाएँ भोगा करते हैं ॥ ३० ॥

यथैव पापान्येतानि तथान्यानि सहस्रशः ।
भुज्यन्ते तानि पुरुषैर्नरकान्तरगोचरैः ॥ ३१ ॥
इन उपर्युक्त पापोंके समान और भी सहस्रों पाप-कर्म हैं, उनके फल मनुष्य भिन्न-भिन्न नरकोंमें भोगा करते हैं ॥ ३१ ॥

वर्णाश्रमविरुद्धं च कर्म कुर्वन्ति ये नराः ।
कर्मणा मनसा वाचा निरयेषु पतन्ति ते ॥ ३२ ॥
जो लोग अपने वर्णाश्रम-धर्मके विरुद्ध मन, वचन अथवा कर्मसे कोई आचरण करते हैं वे नरकमें गिरते हैं ॥ ३२ ॥

अधः शिरोभिदृश्यन्ते नारकैर्दिवि देवताः ।
देवाश्चाधोमुखान्सर्वानधः पश्यन्ति नारकान् ॥ ३३ ॥
अधोमुखनरक निवासियोंको स्वर्गलोकमें देवगण दिखायी दिया करते हैं और देवता लोग नीचेके लोकोंमें नारकी जीवोंको देखते हैं ॥ ३३ ॥

स्थावराः क्रिमयोऽब्जाश्च पक्षिणः पशवो नराः ।
धार्मिकास्त्रिदशास्तद्वन्मोक्षिणश्च यथाक्रमम् ॥ ३४ ॥
पापी लोग नरकभोगके अनन्तर क्रमसे स्थावर, कृमि, जलचर, पक्षी, पशु, मनुष्य, धार्मिक पुरुष, देवगण तथा मुमुक्षु होकर जन्म ग्रहण करते हैं ॥ ३४ ॥

सहस्रभागप्रथमा द्वितीयानुक्रमास्तथा ।
सर्वे ह्येते महाभागा यावन्मुक्तिसमाश्रयाः ॥ ३५ ॥
हे महाभाग ! मुमुक्षुपर्यन्त इन सबमें दूसरोंकी अपेक्षा पहले प्राणी [संख्यामें] सहस्र गुण अधिक हैं ॥ ३५ ॥

यावन्तो जन्तवः स्वर्गे तावन्तो नरकौकसः ।
पापकृद्याति नरकं प्रायाश्चित्तपराङ्‍मुखः ॥ ३६ ॥
जितन जी स्वर्गमें हैं उतने ही नरकमें है, जो पापी पुरुष [अपने पापका] प्रायश्चित्त नहीं करते वे ही नरकमें जाते हैं ॥ ३६ ॥

पापानामनुरूपाणि प्रायश्चित्तानि यद्यथा ।
तथा तथैव संस्मृत्य प्रोक्तानि परमर्षिभिः ॥ ३७ ॥
भिन्न-भिन्न पापोंके अनुरूप जो-जो प्रायश्चित्त हैं उन्हीं-उन्हींको महर्षियोंने वेदार्थका स्मरण करके बताया है ॥ ३७ ॥

पापे गुरूणि गुरुणि स्वल्पान्यल्पे च तद्विदः ।
प्रायश्चित्तानि मैत्रेय जगुः स्वायम्भुवादयः ॥ ३८ ॥
हे मैत्रेय ! स्वायम्भुवमनु आदि स्मृतिकारोंने महान् पापोंके लिये महान् और अल्पोंके लिये अल्प प्रायश्चित्तॊकी व्यवस्था की है ॥ ३८ ॥

प्रायश्चित्तान्यशेषाणि तपःकर्मत्मकानि वै ।
यानि तेषामशेषाणां कृष्णानुस्मरणं परम् ॥ ३९ ॥
किन्तु जितने भी तपस्यात्मक और कर्मात्मक प्रायश्चित्त हैं उन सबमें श्रीकृष्णस्मरण सर्वश्रेष्ठ है ॥ ३९ ॥

कृते पापेऽनुतापो वै यस्य पुंसः प्रजायते ।
प्रायश्चित्तं तु तस्यैकं हरिसंस्मरणं परम् ॥ ४० ॥
जिस पुरुषके चित्तमें पाप-कर्मके अनन्तर पश्चात्ताप होता है उसके लिये ही प्रायश्चित्तोंका विधान है । किंतु यह हरिस्मरण तो एकमात्र स्वयं ही परम प्रायश्चित्त है ॥ ४० ॥

प्रातर्निशि तथा सन्ध्यामध्याह्नादिषु संस्मरन् ।
नारायणमवाप्नोति सद्यः पापक्षयन्नरः ।
प्रात:काल, सायंकाल, रात्रिमें अथवा मध्यालमें किसी भी समय श्रीनारायणका स्मरण करनेसे पुरुषके समस्त पाप तत्काल क्षीण हो जाते हैं ॥ ४१ ॥

विष्णुसंस्मरणात्क्षीणसमस्तक्लेशसञ्चयः ।
मुक्तिं प्रयाति स्वर्गाप्तिस्तस्य विघ्नोऽनुमीयते ॥ ४२ ॥
श्रीविष्णुभगवान्के स्मरणसे समस्त पापराशिके भस्म हो जानेसे पुरुष मोक्षपद प्राप्त कर लेता है, स्वर्ग-लाभ तो उसके लिये विघ्नरूप माना जाता है ॥ ४२ ॥

वासुदेवे मनो यस्य जपहोमार्चनादिषु ।
तस्यान्तरायो मैत्रेय देवेन्द्रत्वादिकं फलम् ॥ ४३ ॥
हे मैत्रेय ! जिसका चित्त जप, होम और अर्चनादि करते हुए निरन्तर भगवान् वासुदेवमें लगा रहता है उसके लिये इन्द्रपद आदि फल तो अन्तराय (विघ्न ) हैं । ॥ ४३ ॥

क्व नाकपृष्ठगमनं पुनरावृत्तिलक्षणम् ।
क्व जपो वासुदेवेति मुक्तिबीजमनुत्तमम् ॥ ४४ ॥
कहाँ तो पुनर्जन्मके चक्रमें डालनेवाली स्वर्ग-प्राप्ति और कहाँ मोक्षका सर्वोत्तम बीज 'वासुदेव' नामका जप ! ॥ ४४ ॥

तस्मादहर्निशं विष्णु संस्मरन्पुरुषो मुने ।
न याति नरकं मर्त्यः संक्षीणाखिलपातकः ॥ ४५ ॥
इसलिये हे मुने ! श्रीविष्णुभगवान्का अहर्निश स्मरण करनेसे सम्पूर्ण पाप क्षीण हो जानेके कारण मनुष्य फिर नरकमें नहीं जाता ॥ ४५ ॥

मनः प्रीतिकरः स्वर्गो नरकस्तद्विपर्ययः ।
नरकस्वर्गसंज्ञे वै पापपुण्ये द्विजोत्तम ॥ ४६ ॥
चित्तको प्रिय लगनेवाला ही स्वर्ग है और उसके विपरीत (अप्रिय लगनेवाला) ही नरक है । हे द्विजोत्तम ! पाप और पुण्यहीके दूसरे नाम नरक और स्वर्ग हैं ॥ ४६ ॥

वस्त्वेकमेव दुःखाय सुखायेर्ष्यागमाय च ।
कोपाय च यतस्तस्माद्वस्तु वस्त्वात्मकं कुतः ॥ ४७ ॥
जब कि एक ही वस्तु सुख और दुःख तथा ईर्ष्या और कोपका कारण हो जाती है तो उसमें वस्तुता (नियत स्वभावत्व) ही कहाँ है ? ॥ ४७ ॥

तदेव प्रीतये भूत्वा पुनर्दुःखाय जायते ।
तदेव कोपाय यतः प्रसादाय च जायते ॥ ४८ ॥
क्योंकि एक ही वस्तु कभी प्रौतिकी कारण होती है तो वही दूसरे समय दुःखदायिनी हो जाती है और वही कभी क्रोधकी हेतु होती है तो कभी प्रसन्नता देनेवाली हो जाती है ॥ ४८ ॥

तस्माद्दुःखात्मकं नास्ति न च किञ्चित्सुखात्मकम् ।
मनसः परिमामोयं सुखदुःखादिलक्षणः ॥ ४९ ॥
अतः कोई भी पदार्थ दुःखमय नहीं है और न कोई सुखमय है । ये सुखदुःख तो मनके ही विकार हैं । ४९ ॥

ज्ञानमेव परं ब्रह्म ज्ञानं बन्धाय चेष्यते ।
ज्ञानत्मकमिदं विश्वं न ज्ञानाद्विद्यते परम् ॥ ५० ॥
विद्याविद्येति मैत्रेय ज्ञानमेवोपधारय ॥ ५१ ॥
[परमार्थतः] ज्ञान ही परब्रह्म है और [अविद्याकी उपाधिसे] वही बन्धनका कारण है । यह सम्पूर्ण विश्व ज्ञानमय ही है; ज्ञानसे भिन्न और कोई वस्तु नहीं है । हे मैत्रेय ! विद्या और अविद्याको भी तुम ज्ञान ही समझो । ५०-५१ ॥

एवमेतन्मयाख्यातं भवतो मण्डलं भुवः ।
पातालानि च सर्वाणि तथैव नरका द्विज ॥ ५२ ॥
हे द्विज ! इस प्रकार मैंने तुमसे समस्त भूमण्डल, सम्पूर्ण पाताललोक और नरकोंका वर्णन कर दिया ॥ ५२ ॥

समुद्राः पर्वताश्चैव द्वीपा वर्षाणि निम्नगाः ।
संक्षेपात्सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ५३ ॥
समुद्र, पर्वत, द्वीप, वर्ष और नदियाँ-इन सभीकी मैंने संक्षेपसे व्याख्या कर दी; अब, तुम और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ५३ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे द्वितीयेंऽशे षष्ठोऽध्यायः (६)
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥



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