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॥ विष्णुपुराणम् ॥ तृतीयः अंशः ॥ पञ्चमोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
यजुर्वेतदरोश्शाखाःसप्तविंशन्महामुनिः । वैशम्पायननामासो व्यासशिष्यश्चकार वै ॥ १ ॥ शिष्येभ्यः प्रददौ ताश्च जगृहुस्तेप्यनुक्रमात् ॥ २ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे महामुने ! व्यासजीके शिष्य वैशम्पायनने यजुर्वेदरूपी वृक्षको सत्ताईस शाखाओंकी रचना की; और उन्हें अपने शिष्योंको पढ़ाया तथा शिष्योंने भी क्रमशः ग्रहण किया ॥ १-२ ॥ याज्ञवल्क्यस्तु तत्राभूद्ब्रह्मरातसुतो द्विज ।
शिष्यः परमधर्मज्ञो गुरुवृत्तिपरःसदा ॥ ३ ॥ हे द्विज । उनका एक परम धार्मिक और सदैव गुरुसेवामें तत्पर रहनेवाला शिष्य ब्रह्मरातका पुत्र याज्ञवल्क्य था ॥ ३ ॥ ऋषिर्योद्य महामेरोः समाजे नागमिष्यति ।
तस्य वै सप्तरात्रात्तु ब्रह्महत्त्या भविष्यति ॥ ४ ॥ [एक समय समस्त ऋषिगणने मिलकर यह नियम किया कि] जो कोई महामेरुपर स्थित हमारे इस समाजमें सम्मिलित न होगा उसको सात रात्रियोंके भीतर ही ब्रह्महत्या लगेगी ॥ ४ ॥ पूर्वमेवं मुनिगणैः समयो यः कृतो द्विज ।
वैशम्पायन एकस्तु तं व्यतिक्रान्तवांस्तदा ॥ ५ ॥ हे द्विज ! इस प्रकार मुनियोंने पहले जिस समयको नियत किया था उसका केवल एक वैशम्पायनने ही अतिक्रमण कर दिया ॥ ५ ॥ स्वस्त्रीयं बालकं सोऽथ पदा स्पृष्टमघातयत् ॥ ६ ॥
शिष्यानाह स भोः शिष्या ब्रह्महत्यापहं व्रतम् । चरध्वं मत्कृते सर्वे न विचार्यमिदं तथा ॥ ७ ॥ इसके पश्चात् उन्होंने [प्रमादवश] पैरसे छूए हुए अपने भानजेकी हत्या कर डाली; तब उन्होंने अपने शिष्योंसे कहा-'हे शिष्यगण ! तुम सब लोग किसी प्रकारका विचार न करके मेरे लिये ब्रह्महत्याको दूर करनेवाला व्रत करो' ॥ ६-७ ॥ अथाह याज्ञवल्क्यस्तु किमेभिर्भगवन्द्विजैः ।
क्लेशितैरल्पतेजोभिश्चरिष्येऽहमिदं व्रतम् ॥ ८ ॥ तब याज्ञवल्क्य बोले-"भगवन् ! ये सब ब्राह्मण अत्यन्त निस्तेज हैं, इन्हें कष्ट देनेकी क्या आवश्यकता है ? मैं अकेला ही इस व्रतका अनुष्ठान करूँगा" ॥ ८ ॥ ततः क्रुद्धो गुरुः प्राह याज्ञवल्क्यं महामुनिम् ।
मुच्यतां यत्त्वयाधीतं मत्तो विप्रावमानक ॥ ९ ॥ इससे गुरु वैशम्पायनजीने क्रोधित होकर महामुनि याज्ञवल्क्यसे कहा-"अरे ब्राह्मणोंका अपमान करनेवाले ! तूने मुझसे जो कुछ पढ़ा है, वह सब त्याग दे ॥ ९ ॥ निस्तेजसो वदस्येनान्यत्त्वं ब्राह्मणपुङ्गवान् ।
तेन शिष्येण नार्थोस्ति ममाज्ञाभङ्गकारिणा ॥ १० ॥ तू इन समस्त द्विजश्रेष्ठोंको निस्तेज बताता है, मुझे तुझ-जैसे आज्ञाभंगकारी शिष्यसे कोई प्रयोजन नहीं है" ॥ १० ॥ याज्ञवल्क्यस्ततः प्राह भक्त्यैतत्ते मयोदितम् ।
ममाप्यलं त्वयाधीतं यन्मया तदिदं द्विज ॥ ११ ॥ याज्ञवल्क्यने कहा-"हे द्विज ! मैंने तो भक्तिवश आपसे ऐसा कहा था, मुझे भी आपसे कोई प्रयोजन नहीं है । लीजिये, मैंने आपसे जो कुछ पड़ा है वह यह मौजूद है" ॥ ११ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्युक्तो रुधिराक्तानि सरूपाणि यजूंषि सः । छर्दयित्वा ददौ तस्मै ययौ स स्वेच्छया मुनि ॥ १२ ॥ श्रीपराशरजी बोले-ऐसा कह महामुनि याज्ञवल्क्यजीने रुधिरसे भरा हुआ मूर्तिमान् यजुर्वेद वमन करके उन्हें दे दिया; और स्वेच्छानुसार चले गये ॥ १२ ॥ यजूंष्यथ विसृष्टानि याज्ञवल्क्येन वै द्विज ।
जगृहुस्तित्तिरा भूत्वा तैत्तिरीयास्तु ते ततः ॥ १३ ॥ हे द्विज ! याज्ञवल्क्यद्वारा वमन की हुई उन यजुः श्रुतियोंको अन्य शिष्योंने तित्तिर (तीतर) होकर ग्रहण कर लिया, इसलिये वे सब तैत्तिरीय कहलाये ॥ १३ ॥ ब्रह्महत्त्याव्रतं चीर्णं गुरुणा चोदितैस्तु तैः ।
चरकाध्वर्यवस्ते तु चरणान्मुनिसत्तम ॥ १४ ॥ हे मुनिसत्तम ! जिन विप्रगणने गुरुकी प्रेरणासे ब्रह्महत्या विनाशकवतका अनुष्ठान किया था, वे सब व्रताचरणके कारण यजुःशाखाध्यायी चरकाध्ययुं हुए ॥ १४ ॥ याज्ञवल्क्योपि मैत्रेय प्राणायामपरायणः ।
तृष्टाव प्रयतःसूर्यं यजूंष्यभिलषंस्ततः ॥ १५ ॥ तदनन्तर याज्ञवल्क्यने भी यजुर्वेदकी प्राप्तिकी इच्छासे प्रा !का संयम कर संयतचित्तसे सूर्यभगवान्की स्तुति की ॥ १५ ॥ याज्ञवल्क्य उवाच
नमः सवित्रे द्वाराय मुक्तेरमिततेजसे । ऋग्यजुःसामभूताय त्रयीधाम्ने च ते नमः ॥ १६ ॥ याज्ञवल्क्यजी बोले-अतुलित तेजस्वी, मुक्तिके द्वारस्वरूप तथा वेदत्रयरूप तेजसे सम्पन्न एवं ऋक्, यजुः तथा सामस्वरूप सवितादेवको नमस्कार है ॥ १६ ॥ नमोऽग्नीषोमभूताय जगतः कारणात्मने ।
भास्कराय परं तेजःसौषुम्नरुचिबिभ्रते ॥ १७ ॥ जो अग्निऔर चन्द्रमारूप, जगत्के कारण और सुघुम्न नामक परमतेजको धारण करनेवाले हैं उन भगवान् भास्करको नमस्कार है ॥ १७ ॥ कलाकाष्ठानिमेषादिकालज्ञानात्मरूपिणे ।
ध्येयाय विष्णुरूपाय परमाक्षररूपिणे ॥ १८ ॥ कला, काष्ठा, निमेष आदि कालज्ञानके कारण तथा ध्यान करनेयोग्य परग्रहास्वरूप विष्णुमय श्रीसूर्यदेवको नमस्कार है ॥ १८ ॥ बिभर्ति यःसुरगणानाप्यायेन्दुं स्वरश्मिभिः ।
स्वधामृतेन च पितृंस्तस्मै तृप्त्यात्मने नमः ॥ १९ ॥ जो अपनी किरणोंसे चन्द्रमाको पोषित करते हुए देवताओंको तथा स्वधारूप अमृतसे पितृगणको तृप्त करते हैं, उन तृप्तिरूप सूर्यदेवको नमस्कार है । ॥ १९ ॥ हिमाम्बुघर्मवृष्टीनां कर्ता भर्ता च यः प्रभुः ।
तस्मै त्रिकालरूपाय नमःसूर्यायवेधसे ॥ २० ॥ जो हिम, जल और उष्णताके कर्ता [अर्थात् शीत, वर्षा और ग्रीष्म आदि ऋतुओंके कारण] हैं और [जगत्का] पोषण करनेवाले हैं, उन त्रिकालमूर्ति विधाता भगवान् सूर्यको नमस्कार है ॥ २० ॥ अपहन्ति तभो यश्च जगतोऽस्य जगत्पतिः ।
सत्त्वधामधरो देवो नमस्तस्मै विवस्वते ॥ २१ ॥ जो जगत्पति इस सम्पूर्ण जगत्के अन्धकारको दूर करते हैं, उन सत्त्वमूर्तिधारी विवस्वान्को नमस्कार है ॥ २१ ॥ सत्कर्मयोग्यो न जनो नैवापः शुद्धिकारणम् ।
यस्मिन्ननुदिते तस्मै नमो देवाय भास्वते ॥ २२ ॥ जिनके उदित हुए बिना मनुष्य सत्कर्ममें प्रवृत्त नहीं हो सकते और जल शुद्धिका कारण नहीं हो सकता, उन भास्वान्देवको नमस्कार है ॥ २२ ॥ स्पृष्टो यदंशुभिर्लोकः क्रियायोग्यो हि जायते ।
पवित्रताकारणाय तस्मै शुद्धात्मने नमः ॥ २३ ॥ जिनके किरण-समूहका स्पर्श होनेपर लोक कर्मानुष्ठानके योग्य होता है, उन पवित्रताके कारण, शुद्धस्वरूप सूर्यदेवको नमस्कार है ॥ २३ ॥ नमः सवित्रे सूर्याय भास्कराय विवस्वते ।
आदित्यायादिभूताय देवादीनां नमो नमः ॥ २४ ॥ भगवान् सविता, सूर्य, भास्कर और विवस्वानको नमस्कार है: देवता आदि समस्त भूतोंके आदिभूत आदित्यदेवको बारम्बार नमस्कार है ॥ २४ ॥ हिरण्मयं रथं यस्य केतवोऽमृतवाजिनः ।
वहन्ति भुवनालोकचक्षुषं तं नमाम्यहम् ॥ २५ ॥ जिनका तेजोमय रथ है, [प्रज्ञारूप] ध्वजाएँ हैं, जिन्हें [छन्दोमय] अमर अश्वगण वहन करते हैं तथा जो त्रिभुवनको प्रकाशित करनेवाले नेत्ररूप हैं, उन सूर्यदेवको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २५ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्येवमादिभिस्तेन स्तूयमानः स वै रविः । वाजिरूपधरः प्राह व्रीयतामिति वाञ्छितम् ॥ २६ ॥ श्रीपराशरजी बोले- उनके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् सूर्य अश्वरूपसे प्रकट होकर बोले-'तुम अपना अभीष्ट वर माँगो' ॥ २६ ॥ याज्ञवल्क्यस्तदा प्राह प्रणिपत्य दिवाकरम् ।
यजूंषि तानि मे देहि यानि सन्ति न मे गुरौ ॥ २७ ॥ तब याज्ञवल्क्यजीने उन्हें प्रणाम करके कहा-"आप मुझे उन यजुःश्रुतियोंका उपदेश कीजिये जिन्हें मेरे गुरुजी भी न जानते हों" ॥ २७ ॥ श्रीपराशर उवाच
एवमुक्तो ददौ तस्मै यजूंषि भगवान् रविः । अयातयामसंज्ञानि यानि वेत्ति न तद्गुरुः ॥ २८ ॥ उनके ऐसा कहनेपर भगवान् सूर्यने उन्हें अयातयाम नामक यजु: श्रुतियोंका उपदेश दिया जिन्हें उनके गुरु वैशम्पायनजी भी नहीं जानते थे ॥ २८ ॥ यजूंषि यैरधीतानि तानि विप्रैर्द्विजोत्तम ।
वाजिनस्ते समाख्याताः सूर्योप्यश्वोऽभवद्यतः ॥ २९ ॥ हे द्विजोत्तम ! उन श्रुतियोंको जिन ब्राह्मणोंने पढ़ा था वे वाजी नामसे विख्यात हुए क्योंकि उनका उपदेश करते समय सूर्य भी अश्वरूप हो गये थे ॥ २९ ॥ शाखाभेदास्तु तेषां वै दश पञ्च च वाजिनाम् ।
काण्वाद्याःसुमहाभागा याज्ञवल्क्याः प्रकीर्तिताः ॥ ३० ॥ हे महाभाग ! उन वाजि श्रुतियोंकी काय आदि पन्द्रह शाखाएँ हैं; वे सब शाखाएँ महर्षि याज्ञवल्क्यकी प्रवृत्त की हुई कही जाती हैं ॥ ३० ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे तृतीयांशे पञ्चमोऽध्यायः (५)
इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ |